कटोरा भर खून
देवकीनन्दन खत्री

नई दिल्ली: शारदा प्रकाशन, पृष्ठ ४९ से – ५६ तक

 

बड़ी सुर्ख आँखें कहे देती थीं कि ये सब तलवार के जौहर के साथ अपना नाम रोशन करने वाले बहादुर हैं। ये लोग रेशमी चुस्त मिरजई पहिरे, सर पर लाल पगड़ी बाँधे, रक्त-चन्दन का त्रिपुण्ड लगाए, दोपट्टी आमने-सामने वीरासन पर बैठे बातें कर रहे थे। ऊपर की तरफ बीच में एक कम-उम्र बहादुर नौजवान बड़े ठाठ के साथ जड़ाऊ कब्जे की तलवार सामने रक्खे बैठा हुआ था। उसकी बेशकीमत गुछली टकी हुई सुर्ख मखमल की चुस्त पोशाक साफ-साफ कह रही थी कि वह किसी ऊंचे दरजे का आदमी बल्कि किसी फौज का अफसर है, मगर साथ ही इसके उसकी चिपटी नाक रहे-सहे भ्रम को दूर करके निश्चय करा देती थी कि वह नेपाल का रहने वाला है बल्कि यों कहना चाहिए कि वह नेपाल का सेनापति या किसी छोटी फौज का अफसर है। चार आदमी बड़े-बड़े पंखे लिए इन सभों को हवा कर रहे हैं।

यह नकाबपोश उस फर्श के पास जाकर खड़ा हो गया और तब वीरों को एक दफे झुक कर सलाम करने के बाद बोला, "आज मैं सच्चे दिल से महाराजा नेपाल को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने हम लोगों का अर्थात् हरिपुर की रिआया का दुःख दूर करने के लिए अपने एक सरदार को यहाँ भेजा है। मैं उस सरदार को भी इस कुमेटी में मौजूद देखता हूँ जिसमें यहाँ के बड़े क्षत्री जमींदार, वीर और धर्मात्मा लोग बैठे हैं। अस्तु, प्रणाम करने बाद (सर झुका कर) निवेदन करता हूँ कि वे उन जुल्मों की अच्छी तरह जाँच करें जो राजा करनसिंह की तरफ से हम लोगों पर हो रहे हैं। हम लोग इसका सबूत देने के लिए तैयार हैं कि यहाँ का राजा करनसिंह बड़ा ही जालिम, संगदिल और बेईमान है!!"

उस नकाबपोश की बात सुन कर नेपाल के सरदार ने, जिसका नाम खड़गसिंह था, एक क्षत्री वीर की तरफ देख कर पूछा-

खड़ग॰: अनिरुद्धसिंह, यह कौन है?

अनिरुद्ध॰: (हाथ जोड़ कर) यह उस नाहरसिंह का कोई साथी है जिसे यहाँ के राजा ने डाकू के नाम से मशहूर कर रक्खा है। अकसर हम लोगों की पंचायत में यह शरीक हुआ करता है। इसका नाम सोमनाथ है।

खड़ग॰: मगर क्या तुम उस नाहरसिंह डाकू के साथी को अपना शरीक बनाते हो जिसने हरिपुर को रिआया को तंग कर रक्खा है और जिसकी दबंगता और जुल्म की कहानी नेपाल तक मशहूर हो रही है? सोम॰: नाहरसिंह को केवल यहाँ के बेईमान राजा ने बदनाम कर रक्खा है क्योंकि वह उन्हीं के साथ बुरी तरह पेश आता है, उन्हीं का खजाना लूटता है, और उन्हीं की कैद से बेचारे बेकसूरों को छुड़ाता है। सिवाय राजकर्मचारियों के हरिपुर का एक अदना आदमी भी नहीं कह सकता कि नाहरसिंह जालिम है या किसी को सताता है।

खड़ग॰: (अनिरुद्ध की तरफ देख कर) क्या यह सच है?

अनिरुद्ध: बेशक, सच है! नाहरसिंह बड़ा ही नेकमर्द, रहमदिल, धर्मात्मा और वीर पुरुष है। वह किसी को तंग नहीं करता बल्कि वह महीने में हजारों रुपये यहाँ की गरीब प्रजा में गुप्त रीति से बाँटता, दरिद्रों का दुख दूर करता, और ब्राह्मणों की सहायता करता है। हाँ राजा करनसिंह को अवश्य सताता है, उनकी दौलत लूटता है, और उनके सहायकों की जान लेता है।

खड़ग॰: अगर ऐसा है तो हम बेशक नाहरसिंह को बहादुर और धर्मात्मा कह सकते हैं (सोमनाथ की तरफ देख कर) मगर राजा करनसिंह नाहरसिंह की बहुत बुराई करता है और उसे जालिम कहता है, सबूत में हाल ही की यह नई बात दिखलाता है कि नाहरसिंह नमकहराम बीरसिंह को कैद से छुड़ा ले गया जिस पर राजकुमार का खून हर तरह से साबित हो चुका था और तोप के सामने रख कर उड़ा देने के योग्य था। नाहरसिंह इसका क्या जवाब रखता है?

अनिरुद्ध: सोमनाथ बराबर हम लोगों की पंचायत में मुंह पर नकाब डाल कर आया करते हैं। हम लोग इस बात की जिद्द नहीं करते कि वे अपनी सूरत दिखाएं बल्कि कसम खा चुके हैं कि इनके साथ कभी दगा न करेंगे। जिस दिन से नाहरसिंह ने बीरसिंह को छुड़ाया है उस दिन से आज ही मुलाकात हुई है। हम लोग खुद इस बात का जवाब इनसे लिया चाहते थे कि उस आदमी की मदद नाहसिंह ने क्यों की जिसने राजा के लड़के को मार डाला? नाहरसिंह से ऐसी उम्मीद हम लोगों को न थी। हम लोग बेशक राजा के दुश्मन हैं मगर इतने बड़े नहीं कि उसके लड़के के खूनी को भगा दें। मगर हम लोगों को सब से ज्यादा ताज्जुब इस बात का है कि बीरसिंह के हाथ से ऐसा काम क्योंकर हुआ! वह बड़ा ही नेक धर्मात्मा और सच्चा आदमी है, राजा से भी ज्यादा हम लोग उसे मानते हैं और उससे मुहब्बत रखते हैं क्योंकि इस राज्य में या कर्मचारियों में एक बीरसिंह ही ऐसा था जिसकी बदौलत रिआया आराम पाती थी या जो रिआया को अपने लड़के के समान मानता था, मगर ताज्जुब है कि......

सोम॰: इस बात का जवाब मैं दे सकता हूँ और निश्चय करा सकता हूँ कि नाहरसिंह ने कोई बुरा काम नहीं किया और बीरसिंह बिल्कुल बेकसूर है।

खड़ग॰: अगर नाहरसिंह और बीरसिंह की बेकसूरी साबित होगी तो हम बेशक उनके साथ कोई भारी सलूक करेंगे। सुनो सोमनाथ, राजा के खिलाफ यहाँ की रिआया तथा नाहरसिंह की अर्जियाँ पाकर महाराजा नेपाल ने खास इस बात की तहकीकात करने के लिए मुझे यहाँ भेजा है और मैं अपने मालिक का काम सच्चे दिल से धर्म के साथ किया चाहता हूँ। (बहादुरों की तरफ इशारा करके) ये लोग मुझे भली प्रकार जानते हैं और मुझ पर प्रेम रखते हैं, तभी मैं इन लोगों की गुप्त पंचायत में आ सका हूँ और ये लोग भी अपने दिल का हाल साफ-साफ मुझसे कहते हैं, हाँ बीरसिंह की बेकसूरी के बारे में तुम क्या कहा चाहते हो कहो?

सोम॰: बीरसिंह कौन है और आप लोगों को कहाँ तक उसकी इज्जत करनी चाहिए, यह फिर कभी कहूंगा, इस समय केवल उसकी बेकसूरी साबित करता हूँ। वीरसिंह ने महाराज के लड़के को नहीं मारा। यह महाराज ने जाल किया है। महाराज का लड़का अभी तक जीता-जागता मौजूद है, और महाराज ने उसे छिपा रक्खा है, मैं आपको अपने साथ ले जाकर राजकुमार को दिखा सकता हूँ।

खड़ग॰: हैं! राजा का लड़का सूरजसिंह जीता-जागता मौजूद है!!

सोम॰: जी हाँ।

खड़ग॰: ज्यादा नहीं, केवल एक इसी बात का विश्वास हो जाने से हम यहाँ के रिआया की दरखास्त सच्ची समझेंगे और राजा करनसिंह को गिरफ्तार करके नेपाल ले जायेंगे।

सोम॰: केवल यही नहीं, राजा ने बीरसिंह के कई रिश्तेदारों को मार डाला है जिसका खुलासा हाल सुन कर आप लोगों के रोंगटे खड़े होंगे। बेचारा बीरसिंह अभी तक चुपचाप बैठा है।

खड़ग॰: (तलवार के कब्जे पर हाथ रख के) अगर यह बात सही है तो हम लोग बीरसिंह का साथ देने के लिए इसी वक्त से तैयार हैं मगर नाहरसिंह को खुद हमारे सामने आना चाहिए।

इतना सुनते ही खड़गसिंह के साथ अन्य सरदारों और बहादुरों ने भी तलवारें म्यान से निकालीं और धर्म की साक्षी देकर कसम खाई कि हम लोग नाहर सिंह के साथ दगा न करेंगे बल्कि उनके साथ दोस्ताना बर्ताव करेंगे। उन सभों को कसम खाते देख सोमनाथ ने अपने चेहरे से नकाब उलट दी और तलवार म्यान से निकाल, सर के साथ लगा, गरज कर बोला, "आप लोगों के सामने खड़ा हुआ नाहरसिंह भी कसम खाता है कि अगर वह झूठा निकला तो दुर्गा की शरण में अपने हाथ से अपना सिर अर्पण करेगा। मेरा ही नाम नाहरसिंह है, आज तक मैं अपने को छिपाये हुए था और अपना नाम सोमनाथ जाहिर किए था।"

शमादान की रोशनी एकदम नाहरसिंह के खूबसूरत चेहरे पर दौड़ गई। उसकी सूरत, आवाज और उसके हियाब ने सभों को मोहित कर लिया, यहाँ तक कि खड़गसिंह ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगा लिया और कहा, "बेशक, तुम बहादुर हो! ऐसे मौके पर इस तरह अपने को जाहिर करना तुम्हारा ही काम है! भगवती चाहे तो अवश्य तुम सच्चे निकलोगे, इसमें कोई शक नहीं। (सरदारों और जमींदारों की तरफ देख कर) उठो और ऐसे बहादुर को गले लगाओ, इन्हीं के हाथ से तुम लोगों का कष्ट दूर होगा!!"

सभों ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगाया और खड़गसिंह ने बड़ी इज्जत के साथ उसे अपने बगल में बैठाया।

नाहर॰: वीरसिंह को मैं बाहर दरवाजे पर छोड़ आया हूँ।

खड़ग॰: क्या आप उन्हें अपने साथ लाए थे?

नाहर॰: जी हाँ।

खड़ग॰: शाबाश! तो अब उनको यहाँ बुला लेना चाहिए! (एक सरदार की तरफ देख कर) आप ही जाइए।

सरदार: बहुत अच्छा।

सरदार उठा और बीरसिंह को लिवा लाने ड्योढ़ी पर गया मगर उनके लौटने में देरी अन्दाज से ज्यादे हुई, इसलिए जब वह बीरसिंह को साथ लिए लौट आया तो खड़गसिंह ने पूछा, "इतनी देर क्यों लगी?"

सरदार: (बीरसिंह की तरफ इशारा कर के) ये टहलते हुए कुछ दूर निकल गए थे।

नाहर॰: बीरसिंह, तुम इधर आओ और अपने चेहरे से नकाब हटा दो क्योंकि आज हमने अपना पर्दा खोल दिया।

यह सुन कर बीरसिंह ने सिर हिलाया, मानो उसे ऐसा करना मंजूर नहीं है। नाहर॰: ताज्जुब है कि तुम नकाब हटाने से इन्कार करते हो? जरा सोचो तो कि मेरी जुबानी तुम्हारा नाम इन लोगों ने सुन लिया तो पर्दा खुलने में फिर क्या कसर रह गई? क्या तुम्हारी सूरत इन लोगों से छिपी है? बीरसिंह, हम तुम्हें बहादुर और शेरदिल समझते थे। यह क्या बात है?

बीरसिंह ने फिर सर हिला कर नकाब हटाने से इन्कार किया बल्कि दो-तीन कदम पीछे की तरफ हट गया। यह बात नाहरसिंह को बहुत बुरी मालूम हुई। वह उछल कर बीरसिंह के पास पहुंचा तथा उसकी कलाई पकड़ क्रोध से भर उसकी तरफ देखने लगा। कलाई पकड़ते ही नाहरसिंह चौंका और एक निगाह सिर से पैर तक बीरसिंह पर डाल, खड़गसिंह की तरफ देख कर बोला, "मुमकिन नहीं कि बीरसिंह इतना बुजदिल और कम हिम्मत हो! यह हो ही नहीं सकता कि बीरसिंह मेरा हुक्म न माने! देखिए कितनी बड़ी चालाकी खेली गई! बेईमान राजा ने हम लोगों को कैसा धोखा दिया! हाय अफसोस, बेचारा बीरसिंह किसी आफत में फँसा मालूम होता है!!"

इतना कह नाहरसिंह ने बीरसिंह के चेहरे से नकाब खैंच कर फेंक दी। अब सभों ने उसे पहिचाना कि यह राजा का प्यारा नौकर बच्चनसिंह है।

खड़ग॰: नाहरसिंह, यह क्या मामला है?

नाहर॰: भारी चालबाजी की गई, यह इस उम्मीद में यहाँ बेखौफ चला आया कि चेहरे से नकाब न हटानी पड़ेगी, शायद इसे यह मालूम हो गया था कि मैं यहाँ आकर चेहरे से नकाब नहीं हटाता। मैं नहीं कह सकता कि इसके साथ हमारे दुश्मनों को और कौन-कौन-सा भेद हम लोगों का मालूम हो गया। यही पाजी बीरसिंह के कैद होने के बाद उसके बाग में बीरसिंह की मोहर चुराने गया था जो वहाँ मेरे मौजूद रहने के सबब इसके हाथ न लगी, न-मालूम मोहर लेकर राजा क्या-क्या जाल बनाता!

इतना सुनते ही खड़गसिंह उठ खड़े हुए और नाहरसिंह के पास पहुंच कर बोले:

खड़ग॰: बेशक, हम लोग धोखे में डाले गए। इसमें कोई शक नहीं कि इस कुमेटी का बहुत-कुछ हाल करनसिंह को मालूम हो गया, इन सब सरदारों में से जो यहाँ बैठे हैं जरूर कोई राजा का पक्षपाती है और जाल करके इस कुमेटी में मिला है। नाहर॰: खैर, क्या हर्ज है, बूझा जायगा, इस समय बाहर चल कर देखना चाहिए कि बीरसिंह कहाँ है और पता लगाना चाहिए कि उस बेचारे पर क्या गुजरी। मगर इस दुष्ट को किसी हिफाजत में छोड़ना मुनासिब है।

इस मामले के साथ ही कुमेटी में खलबली पड़ गई, सब उठ खड़े हुए, क्रोध के मारे सभों की हालत बदल गई। एक सरदार ने बच्चनसिंह के पास पहुँच कर उसे एक लात मारी और पूछा, "सच बोल, बीरसिंह कहाँ है और उसे क्या धोखा दिया गया, नहीं तो अभी तेरा सिर काट डालता हूँ!!"

इसका जवाब बच्चनसिंह ने कुछ न दिया, तब वह सरदार खड़गसिंह की तरफ देख कर बोला, "आप इसे मेरी हिफाजत में छोड़िए और बाहर जाकर बीरसिंह का पता लगायें, मैं इस हरामजादे से समझ लूँगा!!"

खड़गसिंह ने इशारे से नाहरसिंह से पूछा कि 'तुम्हारी क्या राय है'? नाहरसिंह ने झुककर खड़गसिंह के कान में कहा, "मुझे इस सरदार पर भी शक है जो इन सब सरदारों से बढ़ कर हमदर्दी दिखा रहा है।"

खड़ग॰: (जोर से) बेशक, ऐसा ही है!

खड़गसिंह ने उस सरदार को, जिसका नाम हरिहरसिंह था और बच्चनसिंह को, दूसरे सरदारों के हवाले किया और कहा, "राजा की बेईमानी अब हम पर अच्छी तरह जाहिर हो गई, इस समय ज्यादे बातचीत का मौका नहीं है, तुम इन दोनों को कैद करो, हम किसी और काम के लिए बाहर जाते हैं।"

खड़गसिंह ने अपने साथी तीन बहादुरों को अपने साथ आने का हुक्म दिया और नाहरसिंह से कहा, "अब देर मत करो, चलो!" ये पांचों आदमी उस मकान के बाहर हुए और फाटक पर पहुंचकर रुके। नाहरसिंह ने पहरे वालों से पूछा कि जिस आदमी को हम यहाँ छोड़ गए थे, वह हमारे जाने के बाद इसी जगह रहा या कहीं गया था?

पहरे॰: वह इधर-उधर टहल रहे थे, एक आदमी आया और उन्हें दूर बुला ले गया, हम लोग नहीं जानते कि वे कहाँ तक गए थे मगर बहुत देर के बाद लौटे, इसके बाद हुक्म के मुताबिक एक सरदार आकर उन्हें भीतर ले गया।

नाहर॰: (खड़गसिंह से) देखिये, मामला खुला न!

खड़ग॰: खैर, आगे चलो।

नाहर॰: अफसोस! बेचारा बीरसिंह!!

खड़ग॰: तुम चिन्ता मत करो, देखो, अब हम क्या करते हैं।

पाँचों आदमी वहाँ से आगे बढ़े, आगे-आगे हाथ में लालटेन लिए एक पहरे वाले को चलने का हुक्म हुआ। नाहरसिंह ने अपने चेहरे पर नकाब डाल ली। थोड़ी दूर जाने के बाद सड़क पर एक लाश दिखाई दी, जिसके इधर-उधर की जमीन खूनाखून हो रही थी।