कटोरा भर खून  (1984) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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किनारे पर जब केवल नाहरसिंह और बीरसिंह रह गए तब नाहरसिंह ने वह चीठी पढ़ी जो रामदास की कमर से निकली थी । उसमें यह लिखा हुआ था: मेरे प्यारे दोस्त,

अपने लड़के के मारने का इलजाम लगा कर मैंने बीरसिंह को कैदखाने में भेज दिया । अब एक-ही-दो दिन में उसे फांसी देकर आराम की नींद सोऊंगा । ऐसी अवस्था में मुझे रिआया भी बदनाम न करेगी । बहुत दिनों के बाद यह मौका मेरे हाथ लगा है । अभी तक मुझे मालूम नहीं हुआ कि रिआया बीरसिंह की तरफदारी क्यों करती है और मुझसे राज्य छीन कर बीरसिंह को क्यों दिया चाहती है ? जो हो, अब रिआया को भी कुछ कहने का मौका न मिलेगा । हां, एक नाहरसिंह डाकू का खटका मुझे बना रह गया, उसके सबब से मैं बहुत ही तंग हूं । जिस तरह तुमने कृपा करके बीरसिंह से मेरी जान छुड़ाई, आशा है कि उसी तरह से नाहरसिंह की गिरफ्तारी की भी तर्कीब बताओगे

तुम्हारा सच्चा दोस्त
 
करनसिंह ।
 

इस चीठी के पढ़ने से बीरसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने नाहरसिंह की तरफ देख कर कहा :

बीर० : अब मुझे निश्चय हो गया कि करन सिंह बड़ा ही बेईमान और हरामजादा आदमी है । अभी तक मैं उसे अपने पिता की जगह समझता था और उसकी मुहब्बत को दिल में जगह दिए रहा । आज तक मैंने उसकी कभी कोई बुराई नहीं की फिर भी न-मालूम क्यों वह मुझसे दुश्मनी करता है । आज तक में उसे अपना हितू समझे हुए था मगर...

नाहर० : तुम्हारा कोई कसूर नहीं, तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो अं करनसिंह कौन है ! जिस समय तुम यह सुनोगे कि तुम्हारे पिता को करनसिंह [ ३२ ]
मरवा डाला तो और भी ताज्जुब करोगे और कहोगे कि वह हरामजादा तो कुत्तों से नुचवाने लायक है ।

बीर० : मेरे बाप को करनसिंह ने मरवा डाला !!

नाहर: : हाँ ।

बीर० : वह क्योंकर और किस लिये ?

नाहर० : यह किस्सा बहुत बड़ा है, इस समय मैं कह नहीं सकता, देखो, सवेरा हो गया और पूरब तरफ सूर्य की लालिमा निकली आती है । इस समय हम लोगों का यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम मुझे अपना सच्चा दोस्त या भाई समझोगे और मेरे घर चल कर दो-तीन दिन आराम करोगे । इस बीच में जितने छिपे हुए भेद हैं, सब तुम्हें मालूम हो जाएँगे ।

बीर० : बेशक, अब मैं आपका भरोसा रखता हूँ क्योंकि आपने मेरी जान बचाई और बेईमान राजा की बदमाशी से मुझे सचेत किया । अफसोस इतना ही है कि तारा का हाल मुझे कुछ भी मालम न हुआ ।

नाहर० : मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें बहुत जल्द तारा से मिलाऊँगा और तुम्हारी उस बहिन से भी तुम्हें मिलाऊँगा जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं बच गया है ।

बीर० : (ताज्जुब से) क्या मेरी कोई बहिन भी है ?

नाहर० : हाँ है, मगर अब ज्यादा बातचीत करने का मौका नहीं है । उठो और मेरे साथ चलो, देखो ईश्वर क्या करता है ।

बीर० : करनसिंह ने वह चिट्ठी जिसके पास भेजी थी, उसे क्या आप जानते हैं ?

नाहर० : हाँ, मैं जानता हूँ, वह भी बड़ा ही हरामजादा और पाजी आदमी है पर जो भी हो, मेरे हाथ से वह भी नहीं बच सकता ।

दोनों आदमी वहाँ से रवाने हुए और लगभग आध कोस जाने के बाद एक पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचे जहाँ दो साईस दो कसे-कसाये घोड़े लिए मौजूद थे । नाहरसिंह ने बीरसिंह से कहा, "अपने साथ तुम्हारी सवारी का भी बन्दोबस्त करके मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए गया था, लो इस घोड़े पर सवार हो जाओ और मेरे साथ चलो ।"

दो आदमी घोड़ों पर सवार हुए और तेजी के साथ नेपाल की तराई की [ ३३ ]
तरफ चल निकले । ये लोग भूखे-प्यासे पहर-भर दिन बाकी रहे तक बराबर घोड़ा फेंके चले गए । इसके बाद एक घने जंगल में पहुँचे और थोड़ी दूर तक उसमें जाकर एक पुराने खण्डहर के पास पहुँचे । नाहरसिंह ने घोड़े से उतर कर बीरसिंह को भी उतरने के लिए कहा और बताया कि यही हमारा घर है ।

यह मकान जो इस समय खण्डहर मालूम होता है, पाँच-छ: बिगहे के घेरे में होगा । खराव और बर्बाद हो जाने पर को अभी तक इसमें सौ-सवा सौ आदमियों के रहने की जगह थी । इनकी मजबूत, चौड़ी और संगीन दीवारों से मालूम होता था कि इसे किसी राजा ने बनवाया होगा और बेशक यह किसी समय में दुलहिन की तरह सजा कर काम में लाया जाता होगा । इसके चारों तरफ की मजबूत दीवारें अभी तक मजबूती के साथ खड़ी थीं, हाँ भीतर की इमारत खराब हो गई थी, तो भी कई कोठरियाँ और दालान दुरुस्त थे जिनमें इस समय नाहरसिंह और उसके साथी लोग रहा करते थे । बीरसिंह ने यहाँ लगभग पचास बहादुरों को देखा जो हर तरह से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे ।

बीरसिंह को साथ लिए हुए नाहरसिंह उस खण्डहर में घुस गया और अपने खास कमरे में जाकर उन्हें पहर-भर तक आराम करके सफर की हरारत मिटाने के लिए कहा ।