कटोरा भर खून
देवकीनन्दन खत्री

नई दिल्ली: शारदा प्रकाशन, पृष्ठ १० से – १७ तक

 

बीरसिंह तारा से बिदा होकर बाग के बाहर निकला और सड़क पर पहुंचा । इस सड़क के किनारे बड़े-बड़े नीम के पेड़ थे जिनकी डालियों के, ऊपर जाकर आपस में मिले रहने के कारण, सड़क पर पूरा अंधेरा था । एक तो अंधेरी रात,दूसरे
बदली छाई हुई, तीसरे दुपट्टी घने पेड़ों की छाया ने पूरा अन्धकार कर रक्खा था । मगर बीरसिंह बराबर कदम बढ़ाये चला जा रहा था । जब बाग की हद्द से दूर निकल गया तो यकायक पीछे किसी आदमी के आने की आहट पाकर रुका और फिर कर देखने लगा । मगर कुछ मालूम न पड़ा, लाचार पुन: आगे बढ़ा परन्तु चौकन्ना रहा क्योंकि उसे दुश्मन के पहुंचने और धोखा देने का पूरा गुमान था । आखिर थोड़ी दूर और आगे बढ़ने पर वैसा ही हुआ । बांए तरफ से झपटता हुआ एक आदमी आया और उसने अपनी तलवार से बीरसिंह का काम तमाम करना चाहा, मगर न हो सका क्योंकि वह पहिले ही से सम्हला हुआ था । हां एक हलका-सा घाव जरूर लगा जिसके साथ ही उसने भी तलवार खैंच कर सामना किया और ललकारा । मगर अफसोस, उसके ललकार की आवाज ने उलटा ही असर किया अर्थात् दो आदमी और निकल आये जो थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ की आड़ में छिपे हुए थे । अब तीन आदमियों से उसे मुकाबला करना पड़ा ।

बीरसिंह बेशक बहादुर आदमी था तथा उसके अंगों में ताकत के साथ-ही- साथ चुस्ती और फुर्ती भी थी । तलवार, बाँक, पटा और खंजर इत्यादि चलाने में वह पूरा ओस्ताद था । खराब-से-खराब तलवार भी उसके हाथ में पड़कर जौहर दिखाती थी और दो-एक दुश्मन को जमीन पर गिराये बिना न रहती थी ।

इस समय उसकी जान लेने पर तीन आदमी मुस्तैद थे । तीनों आदमी तीन तरफ से तलवार चला रहे थे, मगर वह किसी तरह न सहमा और बेधड़क तीनों आदमियों की तलवारों को खाली देता और अपना वार करता था । थोड़ी ही देर में उसकी तलवार से जख्मी होकर एक आदमी जमीन पर गिर पड़ा । अब केवल दो आदमी रह गये पर उनमें से भी एक बहुत ही सुस्त और कमजोर हो रहा था । लाचार वह अपनी जान बचाकर सामने से भाग गया । अब सिर्फ एक आदमी उसके मुकाबले में रह गया । बेशक यह लड़ाका था और इसने आधे घण्टे तक अच्छी तरह से बीरसिंह का मुकाबला किया बल्कि इसके हाथ से बीरसिंह के बदन पर कई जख्म लगे, मगर आखिर को बीरसिंह के अन्तिम वार ने उसका सर धड़ से अलग करके फेंक दिया और वह हाथ-पैर पटकता हुआ जमीन पर दिखाई देने लगा ।

अपने दुश्मन के मुकाबले में फतह पाने से बीरसिंह को खुश होना था मगर ऐसा न हुआ । हरारत मिटाने के लिए थोड़ी देर को वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया
और जब दम का फूलना बन्द हुआ तो यह कहता हुआ उठ खड़ा हुआ--"इन्हीं तीनों पर मामला खतम नहीं है, जरूर कोई भारी आफ्त आने वाली है । अब मैं आगे न बढूंगा बल्कि लौट चलूंगा, कहीं ऐसा न हो कि मेरी तरह बेचारी तारा को भी दुश्मनों ने घेर लिया हो !

बीरसिंह जिधर जा रहा था उधर न गया बल्कि तारा से मिलने के लिए फिर उसी बाग की तरफ लौटा जहां से रवाना हुआ था । थोड़ी ही देर में वह बाग के अन्दर जा पहुँचा और तब सीधे उस बारहदरी में चला गया जिसमें तार की लौंडियाँ और सखियां बैठी आपस में बातें कर रही थीं । बीरसिंह को आते देखने सब उठ खड़ी हुई और तारा को उसके साथ न देख कर उसकी एक सखी ने पूछा, "मेरी तारा बहिन को कहां छोड़ा ?"

बीर० : उसी से मिलने के लिए तो मैं आया हूँ, मुझे विश्वास था कि वह इसी जगह होगी ।

सखी : वह तो आप के साथ थीं, यहां कब आई ?

बीर० : अफसोस !

सखी : कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला हुआ, आपने उन्हें कहां छोड़ा ?

बीर० : इस समय कुछ कहने का मौका नहीं है, एक रोशनी लेकर मेरे साथ आओ और चारों तरफ बाग में खोजो कि वह कहां है ।

बीरसिंह के यह कहने से उन औरतों में खलबली पड़ गई और वे सब घबड़ा कर इधर-उधर दौड़ने लगीं । दो लौंडियां लपक कर एक तरफ गई और जल्दी से दो मशाल जला कर ले आई, बीरसिंह ने उन दोनों मशाल-वालियों के अतिरिक्त और भी कई लौंडियों को साथ लिया और बाग में चारों तरफ तारा को खोजने लगा मगर उसका कहीं पता न लगा ।

बीरसिंह तारा को ढूँढ़ता और घूमता हुआ उसी अंगूर की टट्टी के पास पहुँचा और एकाएक जमीन पर एक लाश देख कर चौंक पड़ा । उसे विश्वास हो गया कि यह तारा की लाश है । बीरसिंह को रुकते देख लौंडियों ने मशाल को आगे किया और वह बड़े गौर से उस लाश की तरफ देखने लगा ।

बीरसिंह ने समझ लिया था कि यह तारा की लाश है, मगर नहीं, वह तो एक कमसिन लड़के की लाश थी जिसकी उम्र दस वर्ष से ज्यादे की होगी । लाश का
सिर न था जिससे पहिचाना जाता कि कौन है, मगर बदन के कपड़े बेशकीमती थे, हाथ में हीरे का जड़ाऊ कड़ा पड़ा हुआ था उंगलियों में कई अंगूठियाँ भी थीं, गर्दन के नीचे जमीन पर गिरी हुई मोती की एक माला भी मौजूद थी ।

बीर० : चाहे इसका सिर मौजूद न हो मगर गहने और कपड़े की तरफ खयाल करके मैं कह सकता हूं कि यह हमारे महाराज के छोटे लड़के सूरजसिंह की लाश है ।

एक लौंडी : यह क्या हुआ ? कुंअर साहब यहाँ क्योंकर आये और उन्हें किस ने मारा ?

बीर० : कोई गजब हो गया है, अब किसी तरह हम लोगों की जान नहीं बच सकती । जिस समय महाराज को खबर होगी कि कुंअर साहब की लाश बीरसिंह के बाग में पाई गई तो बेशक, मैं खूनी ठहराया जाऊंगा । मेरी बेकसूरी किसी तरह साबित नहीं हो सकेगी और दुश्मनों को भी बात बनाने और दुःख देने का मौका मिल जायगा । हाय ! अब हमारे साथ हमारे रिश्तेदार लोग भी फांसी दे दिये जायंगे । हे ईश्वर ! धर्मपथ पर चलने का क्या यही बदला है !!

अपनी-अपनी जान की फिक्र सभी को होती है, चाहे भाई-बन्द, रिश्तेदार हों या नौकर, समय पर काम आवे वही आदमी है, वही रिश्तेदार है, और वही भाई है । कुंअर साहब की लाश देख और बीरसिंह को आफत में फंसा जान धीरे-धीरे लौंडियों ने खिसकना शुरू किया, कई तो तारा को खोजने का बहाना करके चली गईं, कई 'देखें इधर कोई छिपा तो नहीं है' कहकर आड़ में हो गई और मौका पा अपने घर में जा छिपीं, और कोई बिना कुछ कहे चीख मार कर सामने से हट गई और पीछा देकर भाग गई । अगर किसी दूसरे की लाश होती तो शायद किसी तरह बचने की उम्मीद भी होती मगर यहां तो महाराज के लड़के की लाश थी-- नामालूम इसके लिए कितने आदमी मारे जाएंगे, ऐसे मौके पर मालिक का साथ देना बड़े जीवट का काम है । हां, अगर मर्दो की मण्डली होती तो शायद दो-एक आदमी रह भी जाते मगर औरतों का इतना बड़ा कलेजा कहां ? अब उस लाश के पास केवल बेचारा बीरसिंह रह गया । वह आधे घण्टे तक उस जगह खड़ा कुछ सोचता रहा, आखिर उस लाश को उठा कर उस तरफ चला जिधर के दरख्त बहुत ही घने और गुञ्जान थे और जिधर लोगों की आमदरफ्त बहुत कम होती थी । बीरसिंह ने उस गुंजान और भयानक जगह पर पहुंच कर उस लाश को एक जगह रख दिया और वहां से लौट कर उस तरफ गया जिधर मालियों के रहने के लिए एक कच्चा मकान फूस की छावनी का बना हुआ था । अब बिजली चमकने और छोटी-छोटी बूंदें भी पड़ने लगीं ।

बीरसिंह एक माली की झोंपड़ी में पहुँचा । माली को गहरी नींद में पाया । एक तरफ कोने में दो-तीन कुदाल और फरसे पड़े हुए थे, बीरसिंह ने एक कुदाल उठा लिया और फिर उस जगह गया जहां लाश छोड़ आया था । इस समय तक वर्षा अच्छी तरह होने लगी थी और चारों तरफ अन्धकारमय हो रहा था । कभी-कभी बिजली चमकती थी तो जमीन दिखाई दे जाती, नहीं तो एक पैर भी आगे रखना मुश्किल था ।

बीरसिंह को उस लाशका पता लगाना कठिन हो गया जिसे उस जगह रख गया था । बह चाहता था कि उस लाश के पास पहुंच कर कुदाल से जमीन खोदे और जहां तक जल्द हो सके उसे जमीन में गाड़ दे, मगर न हो सका, क्योंकि इस अंधेरी रात में हजार ढूंढने और सर पटकने पर भी वह लाश न मिली । जब-जब बिजली चमकती, वह उस निशान को अच्छी तरह पहिचानता जिसके पास उस लाश को छोड़ गया था मगर ताज्जुब की बात थी कि लाश उसे दिखाई न पड़ी ।

पानी ज्यादा बरसने के कारण बीरसिंह को कष्ट उठाना पड़ा, एक तो तारा की फिक्र ने उसे बेकाम कर दिया था दूसरे कुंअर साहब की लाश न पाने से वह अपनी जिन्दगी से भी नाउम्मीद हो गया था और अपने को तारा का पता लगाने लायक नहीं समझता था । बेशक, उसे अपने मालिक महाराज और कुंअर साहब की बहुत मुहब्बत थी मगर इस समय वह यही चाहता था कि कुंअर साहब की लाश छिपा दी जाय और असल खूनी का पता लगाने के बाद ही यह भेद सभों पर खोला जाय । लेकिन यह न हो सका, क्योंकि कुंअर साहब की लाश जब तक वह कुदाल लेकर आवे इसी बीच में आश्चर्य रूप से गायब हो गई थी ।

बीरसिंह हैरान और परेशान उस लाश को चारों तरफ खोज रहा था, पानी से उसकी पोशाक बिल्कुल तर हो रही थी । यकायक बाग के फाटक की तरफ उसे कुछ रोशनी नजर आई और वह उसी तरफ देखने लगा । वह रोशनी भी उसी की तरफ आ रही थी । जब बाग के अन्दर पहुंची तो मालूम हुआ कि दो मशालों की रोशनी में कई आदमी मोमजामे का छाता लगाये और मशालों को भी छाते की
आड़ में लिए बारहदरी की तरफ जा रहे है ।

मुनासिब समझ कर बीरसिंह वहां से हटा और उन आदमियों के पहिले ही बारहदरी में जा पहुंचा । बारहदरी के पीछे की तरफ तोशेखाना था । वह उसमें चला गया और गीले कपड़े उतार दिये । सूखे कपड़े पहिनने की नौबत नहीं आई थी कि रोशनी लिये वे लोग बारहदरी में आ पहुंचे ।

बीरसिंह केवल सूखी धोती पहिर कर उन लोगों के सामने आया । सभी ने झुक कर सलाम किया । इन आदमियों में दो महाराज करनसिंह के मुसाहब थे और बाकी के आठ महाराज के खास गुलाम थे । महाराज करनसिंह के यहां बीरसिंह की अच्छी इज्जत थी । यही सबब था कि महाराज के मुसाहब लोग भी इनका अदब करते थे । बीरसिंह की इज्जत और मिलनसारी तथा नेकियों का हाल आगे चलकर मालूम होगा ।

बीर० : (दोनों मुसाहबों की तरफ देख कर) आप लोगों को इस समय ऐसे आंधी-तूफान में यहां आने की जरूरत क्यों पड़ी ?

एक मुसाहब : महाराज ने आपको याद किया है ।

बीर० : कुछ सबब भी मालूम है ?

मुसाहब : जी हां, कुँअर साहब के दुश्मनों की निस्बत सरकार ने कुछ बुरी खबर सुनी है इससे बहुत ही बेचैन हो रहे हैं ।

बीर० : ( चौंक कर ) बुरी खबर ? सो क्या ?

मुसाहब : ( ऊँची सांस लेकर) यही कि उनकी जिन्दगी शायदन हीं रही ।

बीर० : ( कांप कर) क्या ऐसी बात है ?

मुसाहब : जी हां ।

बीर० : मैं अभी चलता हूं ।

कपड़े पहिरने के लिए बीरसिंह तोशेखाने में गया । इस समय यहां कोई भी लौंडी मौजूद न थी जो कुछ काम करती । बीरसिंह की परेशानी का हाल लिखना इस किस्से को व्यर्थ बढ़ाना है । तो भी पाठक लोग ऊपर का हाल पढ़ कर जरूर समझ गये होंगे कि उसके लिए यह समय कैसा कठिन और भयानक था । बेचारे को इतनी मोहलत भी न मिली कि अपनी स्त्री तारा का पता तो लगा लेता जिसे वह अपनी जान से भी ज्यादे चाहता और मानता था ।

बीरसिंह कपड़े पहिर कर महाराज के मुसाहबों और आदमियों के साथ
रवाना हुआ । इस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द हो गया था और रात एक पहर से भी कम रह गई थी । बीर सिंह खास महल की तरफ जा रहा था मगर तरह-तरह के खयालों ने उसे अपने आपे से बाहर कर रक्खा था अर्थात् वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि तन-बदन की सुध न थी, केवल मशाल की रोशनी में महाराज के आदमियों के पीछे चले जाने की खबर थी ।

बीरसिंह कभी तो तारा के खयाल में डूब जाता और सोचने लगता कि वह यकायक कहां गायब हो गई या किस आफत में फंस गई ? और कभी उसका ध्यान कुंअर साहब की लाश की तरफ जाता और जो-जो ताज्जुब की बातें हो चुकी थीं उन्हें याद कर और उनके नतीजे के साथ अपने और अपने रिश्तेदारों पर भी आफत आई हुई जान उसका मजबूत कलेजा कांप जाता, क्योंकि बदनामी के साथ अपनी जान देना वह बहुत ही बुरा समझता था और लड़ाई में वीरता दिखाने के समय वह अपनी जान की कुछ भी कदर नहीं करता था । इसी के साथ-साथ वह जमाने की चालबाजियों पर भी ध्यान देता था और अपनी लौंडियों की बेमुरौवती याद कर क्रोध के मारे दांत पीसने लगता था । कभी-कभी वह इस बात को भी सोचता कि आज महाराज ने इतने आदमियों को भेजकर मुझे क्यों बुलवाया ? इस काम के लिये तो एक अदना नौकर काफी था । खैर इस बात का तो यों जवाब देकर अपने दिल को समझा देता कि इस समय महाराज पर आफत आई हुई है, बेटे के गम में उनका मिजाज बदल गया होगा, घबराहट के मारे बुलाने के लिए इतने आदमियों को उन्होंने भेजा होगा ।

इन्हीं सब बातों को सोचते हुए महाराज के आदमियों के पीछे-पीछे बीरसिंह जा रहा था । जब उस अंगूर की टट्टी के पास पहुंचा जिसका जिक्र कई दफे ऊपर आ चुका है या जिस जगह अपने निर्दयी बाप के हाथ में बेचारी तारा ने अपनी जान सौंप दी थी या जिस जगह कुंअर सूरजसिंह की लाश पाई गई थी तो यकायक दोनों मशालची रुके और चौंक कर बोले, "हैं ! देखिए तो सही यह किसकी लाश है ?"

इस आवाज ने सभी को चौंका दिया । दोनों मुसाहबों के साथ बीरसिंह भी आगे बढ़ा और पटरी पर एक लाश पड़ी हुई देख ताज्जुब करने लगा ! चाहे यह लाश बिना सिर की थी तो भी बीरसिंह के साथ-ही-साथ महाराज के आदमियों ने भी पहिचान लिया कि कुंअर साहब की लाश है । अब बीरसिंह के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा क्योंकि इसी लाश को उठा कर वह गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था और जब माली की झोंपड़ी में से कुदाल लेकर आया तो वहां से गायब पाया था । देर तक ढूंढने पर भी जो लाश उसे न मिली अब यकायक उसी साश को फिर उसी ठिकाने देखता है जहां पहिले देखा था या जहां से उठा कर गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था !

महाराज के आदमियों ने इस लाश को देख कर रोना और चिल्लाना शुरू किया । खूब ही गुल-शोर मचा । अपनी-अपनी झोंपड़ियों में बेखबर सोये हुए माली भी सब जाग पड़े और उसी जगह पहुंच कर रोने और चिल्लाने में शरीक हुए ।

थोड़ी देर तक वहां हाहाकार मचा रहा, इसके बाद बीरसिंह ने अपने दोनों हाथों पर उस लाश को उठा लिया तथा रोता और आंसू मिसता महाराज की तरफ रवाना हुआ ।