इतिहास तिमिरनाशक 2/सर हेनरी हार्डिंग (लार्ड हार्डिंग)
सर हेनरी हार्डिंग (लार्ड हार्डिंग)
रंजीतसिंह लार्ड अकलैंड को मुलाकात के बादही बीमार
पड़ा। और सत्ताईसवों जूनको (सन् १८३६) शामके वक्त होश
हवास के साथ ५८ बरस को उमर में परलोक को सिधारा।
हकीकत में इस आखिरी ज़माने के दर्मियान इस मुल्क में
यह बहुत बड़ा और नामी आदमी हो गुज़रा इस का दादा
चतरसिंह सूकरचक नाम गांवके रहने वाले नोधसिंह सांसी
जाट का बेटा गूजरांवाले में एक कच्ची गढ़ी सी बनाकर रहा
करता था। और काम पड़ने से पच्चीस सो सवार जमा कर
सकता था। रंजीतसिंह ने अपमा मुल्क सिंधको सहदसे चीन
को अमल्दारी तक पहुंचादिया। ओर ख़ैबरके घाटेसे सतलज
तक बिल्कुल अपने क़ब्जे़ में कर लिया। इसमेंसे कुछ ऊपर
करोड़ रुपयेका लोगोंको जागीर और मुआ़फ़ीमें दे रक्खा था।
और बाक़ी की आमदनीका तख़्मोन्न डेढ़ करोड़ रुपया उससे
ख़ज़ानेमें आताथा। मरतेवक्त उसने दानपुण्य भी ख़ूबकिया।
करोड़ रुपये से ज़ियादा तो जिस रोज़ वह मरनेको था उसी
रोज़ ख़ैरातहुआ। और तमाशा यह कि लिखना पढ़ना वह़कुछ
नहीं जानता था। सिर्फ़ नाम भर लिख सकता था। और
आँखभी एकही रखता था एक सीतलामें जाती रही। लेकिन
आदमी की पहचान भगवान ने इसेऐसीदी। कि विक्रमभोज
और अकबर के बाद शायद इसी के दौर में नव रन गिने
जा सकते थे। जब उसको लाश को गंगाजल से नहला कर
चन्दन के बिमान पर जो सोनेके फूलोंसे सनाहुआथा जलाने
को ले चले। चार रानियां अच्छीसेअच्छी पोशाके और ज़ेवरपहने
हुए उसके साथ गयी। रानी कुन्दन रजपूत राजा संसारचंद
कांगड़ेवाले की बेटी महाराज का सिर गोदमें लेकर चितापर
बेठगयी बाकी तीनों जिनमेंदो सोलह सोलह बरसको निहायत
खूबसूरत थी पांच सात लौड़ियों के साथ उसके चोमिद जा
बैठी। इन सबके चिहरोंपर रंज का निशान कुछ भी न था
बल्कि खुशीका असर मालम होताथा। अजब एक समा देख-
नेवालोंके दिलको कलक दिलानेका था। निदान चितामें आग
लगायी गयी। और देखतेही देखते वह राखकोढेरी होगयी।
कहते हैं कि जब चिता जलती थी एक टुकड़ा बादल का
नमूदार हुओं कुछ बर्दै पानी को बरस गया। गोया खुद
आसमान महाराजके मरनेसे रोया। रंजीतसिंहके बाद उसका
बेटा खड़गसिंह उसकी गद्दोपरवठा। खड़गसिंह अपने बापक
पुराने वजीर राजा ध्यानसिंहसे किसी सबब नाराज़ होगया।
ध्यानसिंह ने उसके बेटे नौनिहालसिंह को ऐसा उभारा कि
उसने खड्गसिंह को नज़र बन्द करलिया और राज काज सम
श्राप करने लगा। खड़गसिंह थोड़ेहीदिनों में बीमार होकर मा
गया। कोन जाने ज़हरदिया या इलाजही बुरा किया जो हो
जब उसे जलाकर नौनिहालसिंह घरकोतरफ़ फिरा। रास्तेमेंएक
दार्वज़ा टूटकर ऐसा उस पर गिरा कि वहभी अपने आपकेपास
सिधारा। उस के साथ राजा ध्यानसिंहका भतीजामीयांउत्तम
सिंह भी वहां काम आया। कहते हैं कि यह सारा करतूत
ध्यानसिंह और उस के भाई गुलाबसिंह काथा। लेकिनदर्वाज़ा
गिरने का असली सबब आज तक किसीकोनहीं मालूमहुआ।
सिक्खों ने अपने दस्तूर बमुजिब खड़गसिंह को रानी चन्द-
कुंवरि को मुल्क का मालिक बनाया। ओर गुलाबसिंहभोउसी
को जानिब रहा। लेकिन ध्यानसिंह ने फ़ौज को खड़गसिंहके
भाई शेरसिंह से मिला दिया। चन्दकुंवरि क़िले में बंद हुई
फ़ौज ने चारों तरफ से घेर लिया। पांच दिन तक दोनौतरफ
से खूब गोला चला। गुलाबसिंह भीतर ध्यानसिंह बाहरथा।
जीमें दोनों एक लोगों के दिखलाने को यह सर्वांग रचा था।
आखिर इस बात पर सुलह ठहरी कि शेरसिंह गद्दीपरबेठे।
चन्दकुंवरि को नो लाखको जागीर दे। उसे कभी अपनी रानी
बनाने का इरादा न करे। और गुलाबसिंह अपनी फ़ौजसमेत
निशान उड्मता किले से बाहर चला जावे कोई कुछ रोकटोक
नं करे। कहते हैं कि गुलाबसिंह ने अपनी सोलहतोपोंको सोलह
पेटियां एक एक तोप के लिये तीस तीस कारतूस रख कर
बाकी बिल्कुल रुपयों से भरी ओर पांच सौ तोड़े अशरफियों
के अपने पांच सो जवानों के हाथ में थमा दिये जवाहिरजिस
कदर हाथ लगा अपनी अर्दली के घुड़चढ़ी को सपुर्द किया।
और भी बहुत सा कीमती असबाब लिया। किलेसे निकलकर
शाहदरे के नजदीक डेरा किया। फिर कुछ दिनों बाद शेर-
सिंह से रुखसत लेकर अपनी जागीर जम्ब की तरफ
चला गया। ध्यानसिंह ने यह समझा कि शेरसिंह को में
ने ही गट्टी पर बिठाया और शेरसिंह ने यक़ीन जाना
कि जब तक ध्यानसिंह रहेगा में नाम ही का महाराज
यह बिलकुल इख्तियार अपनेहाथमें रक्खेगा। मुझेहरतरह
से धमकाये और दबावेगा। दिलों में फ़र्क़ आया। एककोदूसरे
की तरफ़ से खटका पैदा हुआ। सिंधांवालों ने इस काबू कों
अपना दिली मतलब पूरा करने के लिये बहुत ग़नीमत पाया
रंजीतसिंह की औलाद के बाद गद्दी का हक़ ये अपना सम
झते थे। और शेरसिंह से नाराज़ भी हो रहे थे। एक रोज़
लहनासिंह और अनीतसिंह दोनों सिंधांवाले भाइयों ने अकेले
में महाराज के पास जाकर यह गुल कतरा कि पृथिवीनाथ
हम को ध्यानसिंह ने आप की जान लेने के लिये भेजा है।
ओर इस खिद्मत की य़वज़ साठ लाख रुपये की जागीर देने
का वादा किया है। उसका इरादा है कि आप को मारकर
बलीपसिंह को गद्दी पर बिठावे। और जब तक वह बड़ा
न हो रियासत का काम बेखटके आप किया करें। लेकिन
हमने अपने नमक की शर्त से अदा होने के लिये आप को
इस बेवफा वज़ीर के बद इरादों से अच्छी तरह चित्तादिया
आगे आप मालिक हैं शेरसिंह इस बात के सुनने से
ज़रा भी न घबराया और अपनी तलवार दोनों सिंघां
वाले सर्दारों के सामने रख कर बोला। कि अगर
तुम मेरे मारने की आये हो तो लो मैं अपनी तलवार देता हूं
तुम बेशक मुझको मार डालो मगर यादरक्खो कि जिसतरह
अब वह तुम से मुझे कतलकरवाता है बहुत रोज़नगुज़रेंगे कि
तुम्हें भी कतल करवा डालेगा। सिंधांवालों ने अर्ज़ किया
महाराज हम तो आप को मारने को नहीं बल्कि बचाने को
आये हैं लेकिन ऐसे नमकहराम वज़ीर को तो अब छोड़ना
मुनासिब नहीं ग़रज़ सिंघांवालों ने शेरसिंह से ध्यानसिंह
के मारने की इजाज़त लिखवा ली और वहां से यह कह कर
रुखसत हुए कि अब हम अपनी जागीर पर जाते हैं वहां से
अपने सिपाहियों को लेकर हाजिरी देने के बहाने आपके पास
आवेंगे। आप उस वक़्त ध्यानसिंह को हमारे सिपाहियोंकीमो-
जूदात लेने के लिये हुक्म दीजियेगा हमारे सिपाहीउसको और
रानी चन्दा से रंजीतसिंह का बेटा उस वक्त निरी
बालक था
उसके बेटे हीरासिंह दोनोंको गोलीसे मारदेंगे। फिर ये लोग
ध्यानसिंहके पास गये। और उसकी वह काग़ज़ दिखलाया जो
शेरसिंह ने उस के मारने के लिये लिख दिया था ध्यानसिंह
बहुत घबराया लेकिन जब सिन्धाँवालोंने इन्कार किया कि
तेरे लिये हम महाराज ही को मार डालेंगे तब तो उस ने
इन के साथ बहुत से वादे किये। इन्हों ने यहां महाराज के
मारनेकी भी वही जुगत ठहरायी। कि जो महाराजके सामने
ध्यानसिंह को कतल करने के लिये ठहरायी थी। निदान
दूसरे रोज़ सिन्धवाले अपनी जागीर को गये। और थोड़ेही
दिनों में वहां से पांच छ सौ सवार अच्छे मुस्तइद हथियारों
में डूबे हुए मरने मारनेवाले ले आये। ध्यानसिंह तो उन
दिनों में बीमारी का बहाना करके अपने घर बेठ रहा था
और महाराज बागोंके सेरमें मशगूल थे। वहतारीख़ महीने
की पहली थी इसलिये दौर में था महाराज कुश्ती देखकर
पहलवानों को इमाम और रूखसत दे रहे थे। कि यकबा-
रंगी सिन्धांवालों ने आकर वाह गुरूजी की फ़तह सुनायी।
महाराज बहुत मिहर्बानो से उन को तरफ मुतवज्जिह हुए
अजीतसिंह ने एक दुनाली बंदूक जिस की हर एक नली में
दो दो गोलियां भरी थीं पेश करके हस्ते हुए यह बातकही।
कि महाराज देखी चौदह सौ रुपये में कैसी सस्ती एक उ.मदा
बंदूक मैंने लोहे अब अगर कोई तीन हज़ार भी देवे तो
मैं उस को नहीं देने का। और जब महाराज ने बंदूकलेने
के लिये हाथ बढ़ाया अजीतसिंह ने उनकी छाती पर ले
जाकर उसे झोक दिया। शेरसिंह गोलियोंके लगतेही बेदम
होकर गिर पड़ा। सिफ़ इतना ही जबान से निकलने पाया"
एकीद़गा", *कातिल महाराज का सिर काटकर उस जगह
पहुंचे जहां महाराज का बड़ा बेटा तेरह चौदह बरस का
कुंवर प्रतापसिंहथा। लहनासिंह सिन्धाँवालेने तलवार उठायी
कुंवर उसके पैरों पर गिर पड़ा। इस संगदिल ने एकही झटके
- यानी यह कैसी दग़ाबाज़ी है।
में उस का काम तमाम किया अजीतसिंह तो उसी दम ३००
सफर और २५० पैदल लेकर लाहौर की तरफ़ दोड़ा। और
लहनासिंह बाक़ी से सौ सवारों के साथ धीरे धीरे उस के
पीछे रवाना हुआ। आधे रास्ते पर ध्यानसिंह भी जो शेर
सिंह के पास जाता था अजीतसिंह को मिलगया। अजीत
सिंह ने उसे रोका। ओर कहा कि काम बिल्कुल ख़ातिर
खाह अंजाम हुआ अब आप किले में चलकर बंदोबस्त फर्मा-
इये। और अपने वादों को पूरा किजिये। जब ये लोग क़िले
के अंदर पहुंचे अजीतसिंह का इशारा पाकर एक सिपाही ने
राजा ध्यानसिंह को गोली मार दी अजीतसिंह ने शहर में
मुनादी करायी कि दलीपसिंह महाराज है और लहनासिंह
सिंधांवाला उस का वज़ोरे हुमा। ध्यानसिंह का बेटा राना
हीरासिंह सिंघांवालों के काबमें न आया। फ़ौज को अपनी
तरफ़ कर लिया सो ज़ब तो लेकर किला जा घेरा। तमाम
रात तोपें चलती रही सूरज निकलते ही हीरासिंह ने कसम
खायी कि जब तक मैं अपने बाप के मारनेवालों को मराहुभां
नही देखेंगा खाना पीनाहरामहे रानीभी ध्यानसिंहको लोडि-
यों समेत सतो होने के लिये इस अर्से में चिता पर चढ़नेकों
मयारथो हीरासिंह ने सिपाहियोंसे पुकारकर कहाकिरानी तब
पती होवेगी जब उसके मालिकके मारनेवालोंका सिरकाटकर
उस के पैरों में रक्खा जावेगा। फोज इस बात को सुनते ही
जोश में आयो। दीवार टूट गयो थो शिलेपर हल्लाकरदिया
“और बात की बात में अन्दर जा दाखिल हुए अजीतसिंहका
सिर काटकर ध्यानसिंह की रानी के पैरों में रक्खा वह उसे
देखकर निहायत खुश हुई और फिर ध्यानसिंह को कलमी
हीरासिंह की पगड़ी में लगा कर आप तरह औरतो समेत
सती हो गई। लहनासिंह सिंधांवाला मारा गया फोन लेन
कोचली गयो। दलीपसिंह महाराज और हीरासिंह वज़ीर के
१८४३ ई० नाम से डॉडी फिरी। थोड़े ही दिनों बाद राजा हीरासिंह
और उस के मोतमद पंडित जल्लाकी बाज़ी बातें ऐसी जाहिर
होने लगीं कि फ़ौज का दिल उन से हट गया। हीरासिंह
नेविज़ारत छोड़कर जम्मू की तरफ़ भाग जाने का इरादा किया
ओर फ़ौज की क़वाइद देखने के बहाने से शहर के बाहर
निकला। मगर शाहदरे से पांच सौ कदम भी आगे न बढ़ा
होगा कि सिख सवारों ने पहुंचकर घेर लिया। और यह
तू पंडित जल्ला को हमारे हवाले कर दे लेकिन पंडित
ने अपनी जान बचाने के लिये आगे ही बढ़ने का इशारा किया
ओर सिक्खों का कहना कुछ भी न सुनने दिया। जब दस
बारह कोस निकल गये और दिन करीब दो पहर के आया
क़िस्मत का मारा पंडित जल्ला घोड़े से गिर पड़ा। सिक्खों ने
उसी दम उसे टुकड़े टुकड़े कर डाला। हीरासिंह प्यासकी शिद्वत
से पानी पीने के लिये एक गांव में उतरा सिक्खों ने गांव में
आग लगादी ओर हीरासिंह को उसी जगह कतल किया
हीरासिंह का सिर लाहोरी दवाज़े पर लटकाया गया। और
पंडित मल्ला का सिर तमाम शहर में फिराने के बाद कुत्तों को
खिलाया गया. निदान हीरासिंह के मारे जाने पर दलीप-
सिंह का मामू जवाहिरसिंह वज़ोर हुआ। लेकिन इसी असे
में कुंवर पिशोरासिंह ने बिगड़कर अटक का किला जा दबाया।
जवाहिरसिंहके आदमियों ने पहले तो दम दिलासा देकर उसे
किले से बाहर निकाला। और फिर रात के वक्तमारकर अटक
के दर्या में डुबा दिया। कुंवर पिशोसिंह महाराज रंजीत
सिंह के लड़कों में से था। बहादुरी के बाइस फौज का प्यारा
था। इस के मारे जाने की ख़बर ज़ाहिर होते ही तमाम
सिपाह के दिल में शुस्से की आग भड़क उठी इक्कीसवी सिनम्बर
सन् १८४५ को सारा लशकर दिल्ली दाज़े के नज़दीक आ पड़ा १८४५ ३० निधान जब जवाहिरसिंह ने देखा कि जान नहीं बचती
महाराज दलीपसिंह को गोद में लेकर हाथी पर सवार हुआ
ओर अपनी बहन यानी दलीपसिंह को मा रानी चंदा को भी
जुदा हाथी पर सवार करा कर अपने साथ लिया लेकिन जब
सवारी फोन के मुकाबिल पहुंचो सिपाहियों ने उसके हाथी को
रोका और फ़ीलवान को धमका कर ज़बर्दस्ती बैठवा दिया।
महाराज को उस की गोद से छीन लिया। और उस का काम
गीली और संगीनों से उसी जगह तमाम किया। इस बज़ीर
के मरने पर पंजाब के दर्मियान पूरी बदअ़मली फैलगई और
फिर वहां कोई और वज़ीर मुक़र्रर न हुआ। रानी चंद्रा का
सलाहकार राजा लालसिंह रहा। बिल्कुल काम काज उसी के
कहने मुताबिक होने लगा। पर इख़्तियार सब बात में फ़ौज
का था। और फ़ौज को इस क़दर सामान लड़ाई का मौजूद
होते हुए बे शग़ल खाली बैठे रहना पसंद न था। बैठे बिठाये
जैसे किसी का सिर खुजलाता है ख़ाहमखाह सर्कार अंगरेज़
बहादुर से लड़ना विचारा। बहुत लोग यह भी कहते हैं कि
मंसूबा इस लड़ाई का रानी और सर्दारों ने उठाया था। और
फ़ाइदाउस में यह सोचा था। कि इस तरह तो फ़ौज लाहौर
में कभी चुपचाप नहीं बैठी रहेगी। जैसे इतने राजा और सारी
को मार डाला अब जो बाकी रह गये हैं उनके खून से दिल
बहलावेगी। इस से बिहतर यही है कि ये लोग अंगरेजी से
लड़ें अगर सिक्खों की फतह हुई तो बेशक यह कलकत्ते तक
अंगरेज़ों का पीछा करते हुए चले जावेंगे जल्द लाहौर को न
फरेंगे। और जो इनकी शिकस्तहुई और अंगरेज़ोंके हाथसे मारे
गये तो साहिबान आलीशान किसीको जामके खा़हांनहीं सब
के पिंशन मुकर्रर हो जावेंगे। ग्वालियर की नज़ीर बहुतदिल
पिज़रे थी बचे हुओं ने अपनी जान का बचाव इसो में देखा
कि फ़ौज लाहौरसे निकल जावे। ओर अंगरेज़ों से लड़ पड़े।
निदान फ़ौज को अंगरेज़ों पर चढ़ाई करने का हुक्म जारीहो
गया लार्ड हार्डिंग इस भरोसेपर कि दोनों सोरोंके दर्मियान
सुलह और दोस्ती का अहदनामा बकरार और काइम था
बिलकुल ग़ाफ़िल रहा। यहां तक कि राजा लालसिंह ने अपने
बाईसहमार घुड़चढ़े और चालीसतोपों के साथ तेईसवी नवम्बर
को लाहौर से किया। और सरदार तेजसिंह भी सोलहवीं
दिसम्बर को फौज़ समेत वहां से चल कर उस से आ शामिल
हुआ। जबकि गव़र्नर जे़नरल को ख़बर पहुंची कि सिक्खोंकी फ़ौज फ़ीरोजपुर के सामने आन पड़ी तो इधरसे भी दौड़ादौड़ पल्टन और रिसालों का कूच होना शुरू हुआ। और कन्हाकी सरा * के डेरों से गवर्नर जेनरल ने लड़ाई का इश्तिहार
जारी कर दिया। सिक्खोंकी फ़ौज़ जो इसपार उत्तरीथीअस्सी
हज़ार से कम न थी; तेज़सिंह और लालसिंह दोनोंनेचाहा
कि फ़ीरोज़पुर पर हमला करें लेक़िन फौज ने कबूल न किया
उन के दिल में यह बात समा रही थी कि फ़ीरोज़पुर
के किले में अंगरेज़ो ने सुरंगें खोद कर बारत बिछा रक्सी
हे जिस वक्त सिक्ख लोग हमला करेंगे। बारूद में आगलगा
देबेंगे। ग़रज़ कई रोज़ तक इसी तरह चुपचाप फ़ीरोज़पुर
के सामने डेरा डाले पड़े रहे। पर जब सनाकि अंगरेज़ीफ़ौज
का उन की तरफ कूच हुआ तो वे भी वहां से अम्बाले की
तरफ रवाना हुए। अठारहवीं दिसम्बर को तीसरे पहर जब
कि राजा लालसिंह बारह हज़ार सवार और चालीस तोपोंके
साथ बढ़कर मुदकी से दो कोस के फ़ासिले पर आन
पहुंचा अंगरेज़ी फ़ौज बड़ालंबा कूच ते करके मुदकीमें पहुंची
थी अभी डेरे भी खड़े नहीं हुए थे सिपाही लोग हाथ मुंह
घोने और रोटी पकाने की फिकर में थे। गवर्नर जनरल और
कमांडरह्नचीफ़ दोनों यह ख़बर सुनतेही अपने अपने घोड़ों
पर हो गये। और लश्कर में बिगुल लड़ाई का बजवादिया।
जिस दम अंगरेज़ी फ़ौज झपट कर सिक्खों से मुकाबिल हुई
गद उड़ने के सबब अपना और बिगाना कोई भी नहीं सूझता
या सिक्ख लोग जो पहले ही से झाड़ियों के ओट में छुप
रहे थे। फुरसत के साथ अंगरेजी सवारों को अपनी बंदूक
का निशाना बनाते थे। जेनरलसेल जलालाबादवाले और और
कई बड़े अंगरेज़ इस लड़ाई में मारेगये। पर आखिर अंगरेजों
के सामने सिक्ख लोग कहां तक ठहर सकते थे गोदड़ों की
तरह शेर के सामने से भागनेलगे। ओर खेतसाहिबानाली-
अम्बाले के पास है।
10
शान के हाथ रहा। इक्कीसवीं दिसम्बर को अंगरेजी फ़ौज ने
सिक्खों के मोरचों पर जो उन्हों ने फेरू * के पास जमाये थे
हमला कर दिया। उस रोज़ रात को भी लड़ाई होती रही।
और मेजर ब्राड़फुट अम्बालेका अजंटउसी लड़ाई में काम आया।
लेकिन सबेरा होने के पहलेही दुश्मनोंमें से वहांएक भी बाक़ी
न रहा। बहुत से तो उसी जगह अंगरेज़ी सिपाहियोंके हाथ
से कट मरकर मिट्टी में मिले और जो बाक़ी रहे सब के सब
सतलज की तरफ़ चले। सुबरांव के पास हरी के पत्तन पर
पहुंचकर डेराउंडाती अपना सतलजके दहने कनारेरक्या और
आप लड़ने के लिये सतलज के बायें कनारे रहे। सतलज
में नावों का पुल बना लिया था सर्कारी फ़ौज भी उसी जगह
उनके मुक़ाबिल जा पड़ी। और महीने भर से ऊपर दोनोंफ़ौज
इसी तरह बे लड़ाईपडीरही। अंगरेज़लोगतो अपनेबड़े क़िला-
शिकन तोपरख़ाने के जिसे अंगरेज़ी में सीजट्रेनकहतेहे पहुंचने
के इन्तिज़ार में थे। और स्विच लोग इस भरोसे पर थे कि
अब ये दबकर सुलह कर लेंगे। इसी अर्स में जेनरल सर
हारीस्मिथ ने लुधियानेके नजदीक अलीवाल में सर्दार रंजीत
सिंह को जिस ने वहां कुछ सिक्ख जमा कियेथे मारहटाया।
और राजा गुलाबसिंह तीन हज़ार आदमियों के साथ जम्बसे
लाहौर में दाखिल हो गया। निदान दसवों फेब्रुअरीसन१८४६
को नर के तड़के सर्कारी फौज ने सिक्खों पर जो अपनेमोरची
१८४६ ई० के अंदर ग़ाफ़िल पड़े हुए थे हमला किया। और थोड़ी ही देर की सख़त्त लड़ाई में उन का पेर मैदान से उखाड़दिया।
ऐसी घबराहट के साथ भागे। कि उन के हुजूम भी
टूट गया आधे से ज़ियादा आदमी सतलज में डूबकर मरे।
ग़रज़ यह लड़ाई बड़ी भारी हुई। और इसी लड़ाई के हारने
इस गांव का असली नाम फ़ीरोज़शहर बतलाते हैं और इसी को अंगरेज़ फ़ीरोज़शाह कहते है।
†इस किताब का बनानेवाला उस वक्त सिक्खोंके मौरचों
में था सर्कार का भेजा हुआ गया था।
से सिक्खों की ख़ुदमुख्ता़र सल्तनत जो रंजीतसिंह ने इस
मिह्नत से बनायी थी हमेशा के लिये ग़ारत हो गई।
सर्कारी फ़ौज उसी रोज़ दूसरे घाट पुल बांधकर सतलज पार
उतरी। और फिर कोई ग़नीम सामने न रहने से बाफ़राग़त
मंज़िल ब मंज़िल लाहौर की तरफ़ कूच करने लगी। कसूर
के डेरों में राना गुलाबसिंह गवर्नर जेनरल की खिद-
मत में हाज़िर हुआ। और फिर लुलियानी के डेरों में
महाराज दलीपसिंह को भी ले आया। बीसवीं फेब्रुअरी की
सर्कारी फ़ौज के साथ गवर्नर जेनरल लाहौर में दाख़िल हुए।
और नवीं मार्च को आ़म दर्बारमें महाराजने अपनेसब सर्दारों
समेत आकर नये अ़हदनामे पर मुहर दस्तखत किये। इस
अहदनामे को रूख से लाहौर के बिल्कुल इलाक़े जो सतलज
इस पार से। जलंधर दुआब समेत सर्कार की अ़मल्दारी में
आगये। ब्यासा सरहद्द ठहरी पचास लाख रुपया लड़ाई के
ख़र्च की बाबत महाराज ने नक़द अदा किया। और एक
करोड़ के बदले जम्मू और कश्मीर दे दिया कि वह सर्कार
ने फिर रुपया लेकर महाराजगी के ख़िताब के साथ गुलाब
सिंह को इनायत फ़र्माया। जो बात रानी चंदा और उसके
यार राजा लालसिंह ने गुलाबसिंह को ख़राबकरनेकीसोचीथी
उसीसे गुलाबसिंह को सारी बातबनगयी। क्यामहिमा है सर्व
शक्तिमान जगदीश्वर की। जिस क़दर तीवें लड़ाई में गयी
थी। बिल्कुल सर्कार के हवाले कर दी गयी। निदान गवर्नर
जेनरल ने महाराज और महारानी के कहने मुताबिक कुछ
थोड़ी सी फ़ौज लाहौर में रहने दी। और बाकी सब अपनी
छावनियों को रवाना हुई। ओर यहभी ठहरगयी कि सिक्खों
को फ़ौज में बीस हज़ार से ज़ियादा पैदल और बारह हज़ार
से ज़ियांदा सवार न रहें। और गवर्नमेंट की इजाज़त बिदून
और मुल्कके आदमी अफसर न बनायेजावें। महाराजगुलाब-
सिंह ने जब कश्मीर में अपना कब्ज़ा करने के लिये आदमी
और सिपाही भेजे वहाँ के सूबेदार शेख़ इमामुद्दीन ने सबकी
मार कर निकाल दिया। और कश्मीर छोड़नेसैइनकारकिया।
लेकिन लाहौर के अजंट हेनरी लारंस साहिब जब कुछ
थोड़ी सी अंगरेज़ी फ़ौज लेकर गुलाबसिंह को दखल दिलाने
के लिये पीरपंचाल के घाटे के पास जा पहुंचे इमामुद्दीन उन
के साथ लाहौर चला आया। और कश्मीर में बखूबी गुलाब-
सिंह का कब्ज़ा और दखल हो गया। इमामुद्दीन ने गुलाब-
सिंह को कश्मीर न देनेका सबब यह बयानकिया। कि राजा
लालसिंह वज़ीर ने कशमीर छोड़ने के लिये मना लिख भेजा
था बल्कि लालसिंह का मुहरी ख़त भी इस मज्मूंन का पेश
कर दिया। लालसिह इस कुसर में विज़ारत से मौकूफहोकर
नज़रबंद रहने के लिये पहले देहरे और फिर आगरेदोहज़ार
पिंशन पर भेजा गया। और कारबार रियासत का सर्दारतेज-
सिंह सर्दार शेरसिंह सर्दार शमशेरसिंह संदार निधामसिंह
सदार अतरसिंह सदीर रंजीरसिंह दीवान दीनानाथ और
ख़लीफ़ा नरुद्दीन के सपुर्द हुआ। इस अ़र्से में मीआद सर्कारी
फ़ौज को लाहौर में रहने की पूरी हो गयी थी। और नज़-
दीक था कि लाहोर छोड़कर सतलज इस पार चली आवे
लेकिन सर्दारों ने यह बात न होने दी। और फ़ौज रहने
के लिये सर्कार से बहुत भिन्नत की। तब नाचाख सर्कार ने
उनकी अ़र्ज क़बूल करके यह तजवीज़ ठहरायी। कि जब
तक दलीपसिंह १६ बरस का न हो जितमाफ़ौज सर्कारमुल्क
को हिफाज़तके लिये काफी समझे लाहौर में रक्खे। और उस
का ख़र्च बाईस लाख रुपया साल लाहौर के ख़ज़ाने से मिला
करे। और मुल्क का बंदोबस्त और इन्तिज़ाम साहिबअजंट
बहादुर की सलाह और हुक्म मुताबिक होता रहे। ओररानी
चंदा के गुज़ारे को डेढ़ लाख रुपया साल नक़द ठहरजावे।
रानी चंदा इख्तियार घट जाने के बाइस रोज़ बरोज़ हर
तरह के फ़साद उठाने लगी। और दलीपसिंह कोभीबहकाने
और फ़ुसलाने लगी। यहां तक कि जिस रोज़ सर्दारतेजसिंह
की राजगी का ख़िताब देना ठहरा था दलीपसिंह ने साफ़
इन्कार कर दिया कि हम इस को राजगी का तिलक नहीं
करेंगे आख़िर जब सर्दारों ने देखा कि रानी लाहौरमें रहकर
महाराज को भी ख़राब करेगी ओर मुल्क में फुतूर डालेगी
साहिब अनंट की सलाह के साथ गवर्नर जेनरल का हुक्रम
हासिल किया। और उसे पिंशन घटाकर शेखूपुरेमेंजोलाहोर
से १६ कोस के फ़ासिले पर है नज़रबंद कर दिया।