इतिहास तिमिरनाशक 2/लार्ड अकलैंड

इतिहास तिमिरनाशक भाग 2
राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिंद'

लखनऊ: नवलकिशोर प्रेस, पृष्ठ ५३ से – ६३ तक

 

लार्ड अकलैंड

अगस्त सन् १८३५ में लार्ड बॅटिंकने कामछोड़ा। मार्चसन १८३५ ई० १८३६ तक यानी लार्ड अकलैंड के पहुंचने तक सर चार्लस- मेटाकाफ ने गवर्नर जेनरल का काम किया।

लखमऊकाबादशाह नसीरुद्दीनहैर[]गया। पहलेतो १८३० ई० इस ने दो लड़कों को अपना माना था लेकिन फिर इन्कार किया इसी संबब कर्नल लो रज़ीडंटने उसके मरने पर उसके चचा नसीरुद्दौलाको जो सआदत लीख़ां का तीसरा बेटा था और मुसलमानांको शरा मुताबिक वारिसहो सकताथा मस्नद पर बिठाना चाहा। बिल्कुल तयारी होचुकीथी। सिर्फ मस्- नद पर बेठने की देरथी। कि यकायक बादशाहबेगम यानी गाज़ियुद्दौनहेदर की वेगम ने कुछ सिपाही महले में घुसाकर नसीरुद्दीला और रज़ीडंट दोनोंको घेर लिया। औरआप आकर उन दोनों लड़कों में से एक को जिस का नाममुनाजान था मस्त्रद पर बिठा दिया रज़ीडंटने बेगमकी बहुतेरासमझाया कि यह क्या पागलपना है लेकिन जब देखा कि उसकोअक्ल बिलकुल जाती रही है किसी ढब महल से बाहर निकल पाया। और कुछ सारी फ़ोज लेजाकरबेगम और उसके पोते की तो पकड़कर केद रहने को चनार के किले में भेजदिया
और नसीरुद्दौला को मुहम्मदअली शाहको नामसे तख्ते पर बिठाया। इस में बेगम के तास वालाआदमीमारेगये। और घायल हुए। इकबालुद्दौला नसीरुद्दौला के बड़े भाईका बच्चा था। लेकिन उस ने बगम की तरह बेवकूफ़ी न करके दूसरी तरह की बेवकूफी को कोर्ट आफ़ डेरेक्टर्स के सामने अपना दावा पेश करने को खुद विलायत गया है और जब यहां से साफ़ जवाब पासया। बग़दाद में रहना इख़तियार कर लिया उस का बड़ा भाई यमीनुद्दौला बनारस में रह गया।

इसी के थोड़े दिन बाद सितारे के राजा की भी कुछ अकल मारी गई। यह न समझा कि उस ने बह अपने पुरखाओं को गद्दी सिर्फ सर्कार की मिहर्बानीसे पाया आखिर मरहठा था गोवे में पुर्टर्ग जो से जोड़ तोड़ लगाने लगा कि उन की फ़ौज अंगरेज़ों को निकालकर इसे मुलक का मालिका करे। और यह उन्हें धन और धरती दे। नागपुरवाले आपा- साहिब से भी चिट्ठी पत्री जारीकी। सर्कारी फ़ौज के सिपा- हियों के बहकाने की कोशिश होने लगी। सर्कार ने बहुत समझाया। आख़िर जब किसी तरह अपनी हर्कतोंसे बाजन आया क़ैद करके बनारस भेज दिया और उसके भाई को (सन् १८३९ ई०) गद्दी पर बिठाया।

इस अ़र्से में अहमद शाह दुर्रानीके पोते शाहशुजीउनमुल्क को जो अफगानिस्तान का बादशाह था। उसके भाई महमूद ने वहांमे निकाल दियाथा। शाहशुजा तो कुछदिन रंजीतसिंह को क़ैदमें रहकर और कोहनूर हीरा*खोकर पनाह के लिये


कोहनूर हीरा शाहजहांने अपने तख़त ताऊस में लगाया तख़त ताऊस दिल्ली से नादिरशाह लेगया मादिरशाहले यह हीरा अहमदशाह के हाथ लगा उसके पोते शाहशुजासे रंजीत सिंह ने बहुत बुरी तरह से लिया वह बेचारा इस के पास मदद और पनाह मांगने आया था इस ने कोहूनूर के लालच में पड़कर उस पर पहरे बैठा दिये और जबतक इसनेकोही- नूर न हवाले किया खाना पीना बंद कर दिया।
अंगरजी अमलदारी में चला आया। और महमूद को इस लिये कि इस ने अपने वज़ीर फतहख़ां बारकाज़ई को जिसकी मदद ने लखत पाया अंधा करके मार डाला था फतहखां के बेटे दोस्त- मुहम्मदखां ने तख्त से उतारकर काबुल पर अपना कबज़ा कर लिया। कंदहार दोस्तमुहम्मद के भाइयों के दखल में रहा। महमूद हिरात को चला गया और उस के बाद उस का बेटा कामरां यहां का बादशाह हुआ कोटसिमोनिच ने जो ईरान में झूस का एल्चो था। यह मौका अपने मालिक का इस तरफ़ इतियार बढ़ाने का बहुत ग़नीमत समझा ॥ ईरान के वादशाह को उभारा कि अफ़ग़ानिस्तान पर दात्रा करे श्रीय उस का लश्कर हिरात के मुहासरे को भिजवाया। बल्कि कोन खर्च के लिये कुछ रुपया भी अपने यहां से दिलाया। अर्चि ईरान का लश्कर हिरात से हारकर लौट गया और कब गलिस्तान ने रूस से जवाब तलब किया। रूस के शाहंशाह ने असली बात छुपाकर कोटसिमोनिच के बिल कुल कानों से इनकार कर दिया। लेकिन सार कम्पनी को बखूबो साबित हो गया कि रूस का हिन्दुस्तान पर दांत हे भाब काबू पावेगा। इधर पैर फैलावेगा। और अलक्जेंडर बर्निय साहिब ने भी जो सन् १८३० में एल्ची होकर काबुल गये थे यहीं बयान किया कि दोस्तमुहम्मद बिलकुल रूसवालों की सलाह में हे और रूसवालों ने उस से पक्का वादा किया है कि हम पिशावर' रंजीत संह से वापस ले देंगे। सकार ने ज़रा भी इस बात पर गौर न किया कि भला रूसबाले इधर क्यों कर सकेंगे। अगर कहेकि क्या वह ईरान तूरान तातार और अफगानिस्तानवालों को बहकाकर और लालच दिखलाकर उन्हें हिन्दुस्तान पर नहीं चढ़ा सकते हैं तो ठुक सोचना चाहिये कि अब वह महमूद ग़ज- नवी और चंगेज़खां का ज़माना नहीं है कि जब नंगे पांव और भो सिर गक्कर *लोग महमद के रिसाला को काटते थे। और


  • आनन्द्रपाल की लड़ाई में गक्करों ने महमूद ग़ज़नवी का

लशकर लूटा था
एक हाथी के भाग जाने से अनन्दपाल सरीखे राजा लड़ाई हार जाते थे। जब जंगल से सोंटे काट काटकर बलों पर सवार जलालुद्दीन खारज्मवाले के आदमी सिंध सागर दुआब में चंगेजख़ां की फोज से लड़ते थे। और बड़े बड़े बादशाह बिल्कुल मदार लड़ाई का अपना तीरंदाज़ों पर रखते थे। बराबर देखते चले आते हो कि कैसी कैसी दलबादल सेना शाह सुल्तान नव्वाब मरहठे नयपाली और बम्र्हांवालों की सर्कारी ज़रा ज़रा सी फौज के सामने पीठ दिखा गयी। बात तो यह है कि ड्रूप्ले और बस्सी सरीखे फरासीसियों की सिखलाई सिपाह भी अंगरेज़ी तोपखाने के सामने रूई के फाहों की तरह उड़ गयी। अगर कहें कि रूसवाले क्या अपनी फ़ौजें पंजाब तक नहीं ला सकते हैं तो टुक सोचना चाहिये कि रूस और पंजाब के दर्मियान कैसे कैसे जंगल उजाड़ और पहाड़ पड़े हैं पहले तो रूस में इतना रुपया नहीं कि पचास हज़ार भी अच्छी कवायदवाली फोन जरूरी तोपखाने के साथ इस राह लाने का खर्च देसके दूसरे जितने दिन उस फौज को एक हिन्दूकुश पहाड़ के घाटे पार होने में लगेंगे हमारी सर्कार उस से दूनी फ़ौज धुंए के जहाज़ और रेलगाड़ियों पर इंगलिस्तान से सिंधु कनारे पहुंचा सकती है और फिर रूसवाले तो वहां रस्ते की सख्ती से थके पकाये ओर अफगानिस्तान में रसद की कमी और वहां को अबल्बी नयी होने के सबब भूखे मांदे पहुंचेंगे। और अंगरेज़ सर्हद पर गोया अपने घर में होंगे पंजाब की ज़र्खेज़ी मशहूर है कैसी कुछ रसद पहुंचेगी। इसमें किसी तरह का शक नहीं कि उन पचास हज़ार रूसियों के तबाह करने को सर्कारी एक पल्टन गोरों की ख़ैबर के मुहाने पर काफी होगी। निदान सर्कार ने ज़रा भी इस बाल पर गौर न किया और काबुल में फ़ौज लेजाकर शाहशुजा १८३८ ई० को तख्त पर बैठाने का मंसूबा बांधा रंजीतसिंह को भी उस में शामिल कर लिया और आपसमें अह्द पैमान,होगया कि पिशावर वगैरः जो कुछ इलाके सिंधु उस पार खाह इस पार रंजीतसिंह में दबा लिये थे शाहशुजा या उस का कोई जानशीन कभी उन

पर कुछ दावा न करे। सिंध के अमीरों से भी कोलकरार हो गया कि उस राह सर्कारी फ़ौज के जाने आने में कुछ रोक टोक न होवे। निदान ०५०० सारी फ़ोज बंगाले और बम्बई की ११० तोपों के साथ सर जान कोन साहिब बम्बई के कमां- डरइनचीफ़ के तहत में सिंध और बलूचिस्तान की राह सिंधु- नदी ओर बोलानघाटा पार होकर कन्दहार में पहुंची। ओर १८३६ ई० आठवीं मई को शाहशुजा वहाँ तख्त पर बैठा बड़ी धूम धाम से उसकी सलामी हुई। सरविलियम् मेकनाटन साहिब सकार की तरफ़ से एलची के तोर पर शाह के साथ थे। अलक्जेंडर बर्निस साहिब भी हमराह थे। इनको उमेद थी कि अफग़ानिस्तान में दाखिल होते ही रअय्यत शाह की तरफ रुजू हो जायगी। लेकिन वह बात बिल्कुल जुहूरमें नहीं आयी। यहाँ तक कि शाह ने जब वहां के दस्तर बमुजिब दस हज़ार रुपया नालबन्दी को और कुरान कसम खाने को शिलज़ई सदारों को पास भेजा। उन्होंने रुपया तो ले लिया और कुरान वैसे का वेसा वापस किया। तेईसवी जुलाई को बारुद से फाटक उड़ाकर सरकारी फौज़ने गढ़ ग़ज़नीलिया। और सातवीं अगस्तको फ़तह का निशान उड़ाती काबुल में दाखिल हुई दोस्तमुहम्मद तुर्किस्तान की तरफ भाग गया। शुजाके बटे शाहज़ादा तेमूरले साथ जो पांच हज़ार सिपाही पिशावर से काबुल को रवाना हुए थे और जिनकी मदद के लिये रणजीतसिंह ने छ हज़ार सिख जेनरल वंतूराके तहत में तैनात किये थे। वह भी खेबर घाटेकी राह अलोमसजिद में लड़ते और जलालाबादका किला लेते तीसरी सितम्बर को काबुल में आन पहुंचे। जब सर्कार ने देखा कि शुजा काबुल में अपने बाप दादा के तख़त घर बैठ गया उस तखत की सुस्त बुनयादी पर मुत्लक लिहाज़ न करके पुछ थोड़ी सी बंगाले की फोज वहां इन्तिज़ाम के लिये छोड़क्षऔर बाकी सब को हिन्दुस्तान में वापस तलब कर लिया। कन्द्रहार जाते वक्त बलूचिस्तान के हाकिम मिहाबखां ने कुछ छेड़छाड़ की थी इसी लिये बम्बईकी फौज ने लोटते वक्त उस

का किला किलात तोड़ डाला। और वह भी उस लड़ाई में बहादुरी के साथ मारा गया। लार्ड अकलैंड को कबुल फतह होने की खुशी में विलायत से अर्ल का खिताब आया। सर जान कीन बेरन हुआ औरभी बहुताका उनको खिदमत मुता- १८४० ई० बिक़ दी बढ़ा। चौथी नवम्बर को जब सरविलियम मेकनाटन साहिब हवा खाकर अपनी कोठी को आते थे रास्ते में एक सवार ने खबर दी कि दोस्तमुहम्मदं हाज़िर हे और फिर दोस्तमुहम्मद ने बढ़कर और घोड़े से उतरकर तलवार नज़र दी। मेकनाटन साहिब ने उसकी बड़ी ख़ातिरीको । नज़रबन्द रहने के लिये हिन्दुस्तान में भेज दिया इस अर्स में छोटे छोटे लड़ाई झगड़े बेशक हर तरफ होते रहे। लेकिन वह किसी गिनती में न थे। कभी कोई सदार मालगुजारी अंदा करने में देर करता सरकारी सिपाही उसका गढ़ किला तोड़ फोड़कर उसे होश में लादेते। कभी कोई दोस्तमुहम्मद के बेटे अकबरखां की मदद के लिये सिर' उठाना चाहता वहां माह फ़ोरन पहुंच कर उसे उसी जगह दबा देते। यहां तक कि सर' विलियम् मेकनाटन साहिब ने समझा कि अब मुल्क का इन्ति- ज़ाम बखूबी होगया और कमद किया कि अलक्जेंडर बर्निस: १८४१ ई० को अपने उद्दे पर मुकर्रर करके आप गवर्नरो के उल्टे पर जो सकीर से मिलाथा बम्बई चले आवे। और जो कुछ सकारी फोज़ काबुल में रह गयो थी उसे भी हिन्दुस्तानको तरफ रवाना कर दें। यह न सोचे कि अफगानिस्तान मुसलमानों का मुल्य है। हिन्दू और मुसल्मान में जमीन और आसमान का फर्क है। वहांवाले समझे थे कि शाहशुजा अंगरेज़ों का कठपुतली है और तमाशा यह कि अंगरेजों की बदौलत उसे अपने बाप दादा का तखत नसीब हुआ तो भी वह इन से नाराज़ था। अपने मुल्क में इन का रहना. हर्गिज़ पसंद नहीं करता था। उधर ईश्वर को भी मंजूर था कि चाह जैसा कोई बड़ा ताकत वाला अलमन्द क्यों नहीं एक दिन ठोकर, खाजावे बल्कि यह इस को-बड़ी मिहानी है क्योंकि ऐसोही ठोकरे

खाने से आदमी अपनी अ़क्ल और अपनी ताक़त का भरोसा न रखकर सदा परमेश्वर का सहारा ढूंढ़ता है और उसके डर से जु़ल्म और गै़रवाजिब काम न करके पूरी तरक्क़ी की पहुंचता है। जो ठोकर न खाय घमंड में डूबकर फिऱऔन• की तरह यकबारगी नाश हो जाता है। निदान अब आगे अंगरेज़ी अफ़्सरों के जो जो काम काबुल में सुनोगे बस यही कहोगे "विनाशकाले विपरीत बुद्धि:" निदान वहां बलवा होने की असल यों बयान करतेहैं कि किसी अफ्गा़न सर्दार ने किसी अंगरेज़ी उहदेदार की कुछ शिकायत। उसको अफ़सर से की। अक्सर ने कुछ भी नहीं सुनी। सख़्त सुस्त कहके निकलवा दिया और यह बात कुछ उसी के वास्ते था नयी न थी। उस अफ़्ग़ान ने इसबात की शिकायत शुजा से की। शुजा के मुंहसे उस वक़्त दर्बारमें बे इख्तियार यह निकलगया कि अज़शुमाहेच नमेआयद यानी तुमलोगों से कुछ भी नहीं बन पड़ता है बस इतना कहना गोया अफ़ग़ाना के बिगड़े हुए दिलों को भरी हुई तोप पर रंजक में फैलता पहुंचनाथा सबेरे ही दूसरी नबम्बर को काबुलवालों ने बलबा किया। दूकानें सब बंद हो गयौं दो तीन सौ बदमाशों ने बनिस साहिब की कोठी में जाकर उन्हें और तमाम साहिब लोग मेम लड़के और हिन्दुस्तानी नोकरों को जो वहां उस वक्त मौजूद थे मार डाला और तमाम माल असबाब लूटकर मकानों को फूंक दिया। बनिस साहिब शहर में रहतेथे जब उनके मारे जाने की खबर छावनी में पहुंची इस बातके बदल कि तुर्त सब जवान कमर कसकर शहर में चले लाते और बलवाइयों को जैसा उन्हों ने किया था उसका मज़ा चखाते। उनके अफ़सा नाहक सिपाहियों को इधर उधर भेजने बुलाने


  • मिसर का बादशाह था मूसा के ज़माने में खुदाई का

दावा किया था आखिर दयी में डुबाया गया।

†यह शिकायत शायद किसी लौंडीके निकाल लेजाने के आजमें थी।
और बेफ़ाइदा जोड़ तोड़ जमाने में अपना क़ीमती वक्त खोने लगे। अगर बालाहिसार में भी चले जाते जहाँ शाहशुजारहता था और शहर सेलगा हुआ था। मक़दूरनथा कि कभीकोईउन की उस क़िलेसे निकाल सकता। लेकिन जेनरल एलफ़िंस्टनने दिमाग़में ख़लल आगया था। औरब्रिगेडियर शिलटन जोडस कामददगार मुक़र्रर हुआथा हिन्दुस्तान लौटनेको आ़र्जूं में जी देताथा‌। दोनोंने सर विलियम मेकनांटन से यही कहा कि अब काबुल में रहना नामुमकिन जिस तरह बने जलालाबाद पहुंचने का बन्दोबस्त करो। और वहां से हिन्दुस्तान कोचल दो। बलवाइयों का ज़ोर इस अ़र्से में बहुतबढ़ा सारा काबंल पहाड़ी अफ़्ग़ानों से भर गया। शहर के बाहर भी जिधर देखो यही दिखलाई देते थे गोया सारे मुल्कमें बलवा हुआ बाईसवीं नवम्बर को अक्बरख़ां भी काबुल में पाकर उन के शामिल हो गया। निदान जब सर विलियम मेकनाटन ने देखा कि सारी फोन का हर तरफ़ नुकसान होता जाता है और उसके अफ़सर सिवाय हिन्दुस्तान लौट चलने के और किसी बात पर मुस्तइद नहींहोते अकबरखां से काबुल छोड़ने को बातचीत शुरू की और यह ठहरी कि दोनोंकी मुलाकात हो उस में सारी शत ते पाजायें लोगोंने मेक नाटन साहिब से कहाकि अकबरखां का इतबार करना अक्लमन्दी नहीं है। उन्हों ने इतनाही जबाब दिया कि हम खूब जानते हैं लेकिन ऐसी जिंदगीसे सो दफा मरना बिहतरहे। निदान तेईसवींदिसम्बर को करीब दोपहर के सर बिलियम मेकनाटन साहिब कमान लारंस ट्रेवर और मिकंज़ी को साथ लेकर छावनीसे अकवरखां की मुलाक़ातको बाहर निकले अकबरखां इस्तिकबालकरके उन्हें अपने देरेपर लेगया। लेकिन वहां इन चारोंसे पिस्तौल और तलवारें छिनवाकर तीनको तो अपने सवारोंके पीछे बिठला किसी क़िले में भिजवा दिया ( कप्तान ट्रेवर घोड़ेसे गिर जाने


यही सर हेनरी लारंभ सन् १८५० के बलवे में अवध के चीफ़ कमिश्नर थे।
के बारस रास्ते में मारा गया और सर बिलियम मेकमाटन पर जब उन्हों ने अकबरखांँ के क़ाबूसे निकलना चाहा उसने तपंचा चलाया और फिर उस के साथियों ने इन्हें टुकड़े टुकड़े कर डाला। फ़ौजवालोंकी इसपरभी आंख न खुली। फिर अक- बरख़ां से सुलह की बात चीत को। उस दगाबाज़ने यह शर्त ठहराई कि सर्कारी फ़ौज तमाम ख़ज़ाना और तोपखाना उसी जगह छोड़दे। सिर्फ छः तोपों के साथ हिंदुस्तान को राह ले। बर्फ़ पांच इंचसे ज़ियादा पड़गयी थी। सर्कारी फ़ौज साढ़ेचार हज़ार सवार सिपाही और बारह हज़ार बहीर लड़के लुगा इयों की गिनती नहीं छठी जनवरी को पहर दिन चढ़े वृह- स्पतके दिन छावनी छोड़कर जलालाबाद रवाना हुई। बीमारों को अकबरख़ां के सपुर्द किया। सातवीं को काबुलसे पांचकोस पर बुतख़ाच में देरा पड़ा अपमानों ने हर तरफ से हमला करना शुरूकरदिया। सारीफ़ौजको अपनी तो आपही कीलनी पड़ी अकबरखां साथ था। बेईमान हिफाज़तकेलिये पायाथा। जब उस से कहा कि यह क्याहै। जवाब दियाकि बेकाबू हूं यह लोग मेरा कहना नहीं मानते फारसी में सर्कारी आदमियों को सुनाकर उन्हें धमकाता था कि ज़बरदार सर्कारी फ़ौज को हर्गिज़ न छेड़ी पस्ती * में उन्हें शह देताथा कि हां एक की भी इन में से जीता न छोड़ो मुआमला दीन का है। आठवीं को खु़र्दकाबुल का घाटा पार हाना था यह पांच मील लम्बा है। दोनों तरफ अक्सर पांच पांच सौ फुट तक सीधे उंचे पहाड़ खड़े हैं तफावत दोनों किनारों में ५० गज़ से ज़ियादा नहीं है। नदी जो उस में जोर शोर से बहतीहै । अट्ठाईसबार उतरनी पड़ती है। गिलज़ई अफ़ग़ान उन पहाड़ों के ऊपर से गोलियों का मेहबरसातेथे। सर्कारी फ़ौज के हथियार निरबे काम थे। ये जमीन पर। औरवे पासमानपर। कहतेहेंकिउस रोज़ सीन हज़ार से ज़ियादा आदमी इस घाटे में मारे गये नवीं को नाहक खुर्दकाबुल में मुक़ाम रहा अकबरख़ांने कहला


अफ़ग़ानों कीज़ुबान।


भेजा कि मेंम साहिब और बाबा लोगोंकी तकलीफ़ में नहीं

देख सकता हूं अगर इनको मेरे हवाले करदी में बहुताराम और हिफ़ाज़तसे पहुंचवा दूंगा। फ़ौजके अफ़सर तो उसकेबस में हो गये अपनी मेम और बच्चों को भी उस के हवाले कर दिया। दसवीं को तंगतारीक घाटे में जो शायद दस फुट भी चौड़ानहीं है। नामही उसका तंगओरतारीकहै। इतनादमी मारेगये। कि अब कुलदोसो सत्तर सवारसिपाही और गोलंदाज और चार हज़ार बहीर के आदमी बाकी रह गये। सो यह बारहबीं ओर तेरहवीं को जगदलक और गंदमक के घाटे में तमाम हुए। क़िस्सा कोताह साढ़े सोलह हज़ार आदमियों में जो काबुल से चले थे सिर्फ एक डाकतर ब्रैडन साहिब जीते जागते जलालाबाद पहुंचे गया इस तबाहीकी ख़बर पहुंचाने के लिये बच रहे‌। जलालाबाद में औरही किस्म का अफ़सर था। वहअसली सिपाही सरराबर्टसेल बहादुरथा। रुपया रसंद गोला बास्त सिपाह जो कुछ लड़ाई का सामान हे सब कम था। मगर दिल का वह बहुत दिलेरथा। काबुलवाले अफ़्सरों का हुक्म जो क़िला ख़ाली कर देने का पहुंचा था कुछ भी खयाल में न लाया। और अकबरखाँ से मुकाबला करने का मंसूबाठाना। भूचालसे किले की दीवार भी गिरगयी। तो उसने देखतेही देखते फिर बनाली। रसदघटगयो। तो घोड़ोंकेगोश्त से लोगों को भूख बुझायी। पर किला न छोड़ा। अकबरखाँनेछ हज़ार फ़ौज लेकर इस किले पर हलाकिया पर सरराबर्टसेल बराबर उसका दांत खट्टा करता रहा। उधर कंदहार को जेनरल नाट दबायेरहा। बहुतेरे बलवाई उसके गिर्दजमाहुय वह सबको फटकारता रहा। ग़ज़नीमें कर्नल पामरथा। अगर वह शहर में किसीको रहने न देता कुछ न होता। लेकिन वह शहरवालों पर रहमकरगया। बर्फ के मोसिममें उन्हें बाहर निकालना इन्साफ़ न समझा। और यह उसके हकमें जहर हुआ। शहर वालोंने शहरपनाह तोड़कर बलवाइयों की भीतर घुसा लिया कर्नल पामर क़िले में बंद हुआ। जिले में

रसद को तंगी थी इंधन भी मौजूद न था। बर्फ दो दो फुट पड़ गयी थी नाचार कर्नल पामर ने वहां के तमाम सर्दारों से इस बात की कसम लेकर कि जब तक बर्फ से राह बंदहे. सर्कारी सिपाह शहर में रहे और राह खुलनेपर सार्दारलोगउसे हिफ़ाज़त से पिशावर तक पहुंचा दें किला ख़ालीकर दिया। लेकिन जब बलवाई दूसरे ही दिन-इन पर हमला करनेलगे। सिपाहियों ने घबराकर रात के वक्त शहरपनाह में छेद किया और सब के सब बाहर निकल पड़े ॥ उन्हें यह ख़यालथा कि पिशावर पच्चीसही तीस कोसहे धावा मारकरचले जायेंगे लेकिन बर्फ में कदम कब उठ सकता था। सुबह होतेही सबकेसबमारे और पकड़े गये अंगरेज़ों ने अपने तई फिर नयी कसमें लेकर सदारों के हवाले कर दिया।

  1. ग़ाजियुद्दीनहैदर का बेटा था।