आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १६१ से – १६३ तक

 

चौथा परिच्छेद

उत्तरी बंगाल मुसलमानोंके हाथसे निकल गया। पर कोई मुसलमान इस बातको नहीं मानता। वे यही कहकर अपने मनको बहलाया करते हैं कि यह सब-कुछ लुटेरोंकी बदमाशी है। हम अभी उन्हें सर किये डालते हैं। इस तरह कितने दिनोंतक चलता, सो कहा नहीं जा सकता; परन्तु इस समय भगवानकी दयासे वारन हेस्टिंग्ज कलकत्तेमें बड़े लाट होकर आये। वे यों ही मनको बहलाकर रखनेवाले जीव नहीं थे; क्योंकि यदि उनमें यही गुण होता तो आज भारतमें बृटिश राज्यका कहीं पता न चलता। सन्तानोंके शासनके लिये मेजर एडवार्डिस नामके दूसरे सेनापति नयी सेना लिये हुए फौरन आ पहुंचे।

एडवार्डिसने देखा कि यह तो युरोपियनोंकी लड़ाई नहीं है। शत्रुओंके पाल न सेना है, न नगर है, न राजधानी है, न किला है, पर कुछ न होनेपर भी सब कुछ उन्हींके अधीन है। जिस दिन जहाँपर बृटिश सेनाका पड़ाव होता है उसी दिनभरके लिये वहाँ बृटिश सेनाका अधिकार हो जाता है। उसी दिनभरके लिये जब अंगरेजी सेना वहाँसे चली जाती है, तब फिर हर जगह "वन्देमातरम्" का गान होने लगता है। साहबको इस बातकी थाह नहीं लगने पाती कि ये किधरसे टिड्डियोंके दलकी तरह रात-ही-भरमें पैदा हो जाते हैं और जो गाँव अंगरेजोंके दखलमें आता है, उसे जला जाते अथवा थोड़ीसी अंगरेजी फौज होनेसे उसे तत्काल नष्ट कर डालते हैं। अनुसन्धान करते करते साहब को मालूम हुआ कि इन लोगोंने पदचिह्नमें किला बनाया है और वहीं खजाना और सिलहखाना बना रखा है। अतएव उन्होंने निश्चय किया कि उसी किलेको हाथमें कर लेना चाहिये।

उन्होंने जासूसोंसे इस बातकी जोह लेनी शुरू की कि पदचिह्नमें कितने सन्तान रहते हैं। उन्हें जो खबर मिली, उससे उन्होंने किलेपर हमला करना अच्छा नहीं समझा। उन्होंने मन-ही-मन एक बड़ी विचित्र चाल सोची।

माघकी पूर्णिमा आ पहुंची थी। उनके पड़ावसे थोड़ी दूरपर नदीके किनारे एक मेला लगता था। इस बार मेला जोरोंपर था। यों तो हर बार ही यहाँ एक लाख आदमी जमा हो जाया करते थे। अबकी तो वैष्णव राजा हुए थे। उन लोगोंने इस बारके मेलेको और भी भड़कीला बनानेका विचार किया था। इसीसे अनुमान था कि जितने सन्तान हैं, सभी पूर्णिमाके दिन मेलेमें आ पहुंचेंगे। मेजर एडवार्डिसने सोचा कि सम्भव है, पदचिह्नके रक्षकगण भी मेले में ही चले आये। अतएव हम उसी दिन पदचिह्नपर अधिकार कर लेंगे।

इसी अभिप्रायसे मेजरने इस बातकी तमाम शोहरत कर दी कि वे मेलेके दिन वहांके लोगोंपर हमला करेंगे। सब वैष्णव उस दिन यहीं आकर जमा होंगे, इसलिये एक ही दिन में, एक ही स्थानमें, वे सबका काम तमाम कर देना चाहते हैं। यह खबर गाँव-गाँवमें फैल गयी। फिर तो जो सन्तान जहाँ था, वह उसी क्षण वहाँसे हथियार लिये हुए मेलेकी रक्षा करनेके लिये दौड़ पड़ा। सभी सन्तान माघी पूर्णिमाके दिन नदीके तोरपर मेलेमें आ इकट्ठे हुए। मेजर-साहबका सोचना बिलकुल ठीक निकला। अंगरेजोंके सौभाग्यसे महेन्द्र भी इस फन्दे में आ पड़े। वे थोड़ेसे ही सैनिकोंको पदचिह्नमें रखकर, अधिकांश सैनिकोंकों लिये हुए मेलेमें चले आये। इन सब बातोंके पहले ही जीवानन्द और शान्ति पदचिह्नसे बाहर चले गये थे। उस समय युद्धकी कोई बात ही नहीं हुई, क्योंकि उन लोगोंकी तबियत ही लड़ाई-भिड़ाईसे फिरी हुई थी। माघी पूर्णिमाके पुण्य दिवसके अच्छे मुहूर्तमें, पवित्र जल में प्राण विसर्जन कर प्रतिज्ञा-भङ्गरूपी महापापका प्रायश्चित्त करनेका ही उनका विचार था। रास्ते में जाते-जाते उन्होंने सुना कि मेलेमें जमा हुए सन्तानोंके साथ अंगरेजी सेनासे युद्ध होगा। यह सुनकर जीवानन्दने कहा-"तब चलो, झटपट वहीं चलें। युद्धमें ही प्राण दे देंगे।"

वे जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चले। एक जगह रास्ता एक टीलेके ऊपरसे गया था। टीलेपर चढ़कर उस वीर दम्पतिने देखा कि उसके नीचे थोड़ी ही दूरपर अंगरेजोंकी सेनाका पड़ाव है। शान्ति ने कहा- "मरनेकी बात तो अभी रहने दो---बोलो, “वन्दे मातरम्।”