आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १३२ से – १३४ तक

 

आठवां परिच्छेद

धीरे धीरे सन्तान-सम्प्रदायवालोंमें यह संवाद फैल गया, कि सत्यानन्द लौट आये हैं और उन्होंने सन्तानोंको कुछ आदेश देनेके लिये बुलाया है। बस, सन्तानोंके दल-के-दल आकर इकट्ठ होने लगे। चांदनी रातमें, नदीकी रेतीली भूमिके पास घने जंगलमें, जहां आम, कटहल, ताड़, इमली, पीपल, बेल, बड़ और सेमल आदि के हजारों वृक्ष लगे हुए थे, वहीं दस हजार सन्तान आकर जमा हुए। एक दूसरेके मुंहसे सत्यानन्दके आनेकी बात सुनकर ये लोग महा कोलाहल करने लगे। सत्यानन्द किस लिये और कहां गये हुए थे, यह सबको नहीं मालूम था। अफवाह थी कि वे सन्तानोंके मंगलकी कामनासे हिमालयपर तपस्या करने गये हुए हैं। आज सभी आपस में इसको चर्चा कर रहे हैं कि-"मालूम होता है, महाराजकी तपस्या सिद्ध हो गयी। अब राज्य हमारा हो जायगा।"

उस समय बड़ा शोरगुल मचा। कोई चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा--"मारो, मारो इन मुसलमानोंको।” कोई कहने लगा-“जय, महाराजकी जय!” कोई “वन्देमातरम्" गीत गाने लगा। कोई कहता-“भाई! क्या कोई ऐसा भी दिन आयेगा, जब हम तुच्छ बङ्गाली भी रणक्षेत्रमें प्राणत्याग करेंगे," कोई कहता-"क्या वह दिन देखना भी नसीब होगा, कि हम मसजिदें गिराकर उनपर राधामाधवके मन्दिर उठायेंगे?" कोई कहता-"भाई! कब वह दिन आयेगा, जब हम अपना धन आप ही भोगेंगे?"

दस हजार मनुष्यों के कण्ठ से निकला हुआ कलरव, मन्दमन्द हवाके वेगसे चलायमान वृक्षके पत्तोंके मरमर शब्द, बालुकामयी तरंगिणीका मृदु कल-कल शब्द, नीले आसमानके चन्द्र-तारे, स्वच्छ मेघोंके समूह, हरी-भरी भूमिपर हरा-भरा कानन, नदीका स्वच्छ जल, उजले रंगकी रेत, विकसित कुसुम-राशि और सबके वित्तको प्रसन्न करनेवाला बीच-बीचमें होनेवाला "वन्देमातरम्' गान क्या ही मनोहर दृश्य था! ऐसे ही समय सत्यानन्द उल सन्तान-मण्डलीके बीच में आ खड़े हुए।

उस समय उन दस हजार सन्तानों के मस्तक वृक्षोंके बीचसे छन-छनकर आनेवाली चन्द्र-किरणोंके पड़नेसे हरी-हरी घासोंवाली जमीन की तरह मालूम पड़ने लगे। आंखों-में आंसूभरे, दोनों हाथ ऊपर उठाये सत्यानन्दने बड़े ऊचे स्वर-से कहा-"शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, वनमाली, वैकुण्ठनाथ, केशीसहारक, मधुमुरनरकमदेन, लोकपालक तुम्हारा मंगल करें। वे ही तुम्हारी भुजाओं में बल दें, मनमें भक्ति, धर्ममें मति दें। एक बार सब लोग प्रेमसे उनकी महिमाका गीत गाओ। यह सुनते ही हजारों कण्ठोंसे उच्चस्वरमें यह संगीत निकल पड़ा।

“जय जगदीश हरे!
प्रलय पयोधि जले धृतवानसि वेदं,
विहितवहिनचरित्रमखेदम्,
केशव धृत मीन शरीर,
जय जगदीश हरे!"

फिर सबको आशीर्वाद देते हुए सत्यानन्दने कहा-"सन्तान गण! आज मैं तुम लोगोंसे एक जरूरी बात कहना चाहता हूं। टामस नामक एक विधर्मी दुष्टने बहुतसे सन्तानोंको मार डाला आज रातको तुम सब उसे सैन्य-समेत मारकर ढेर कर दो। जगदीश्वरकी यही आशा है; बोलो, तुम लोग क्या कहते हो?"

भीषण हरि-ध्वनिसे सारा जङ्गल गूंज उठा-"अभी मार कर ढेर कर देंगे। चलिये, बतलाइये, वे सब कहां हैं!” "मारो, मारो! अभी दुश्मनोंको मार गिराओ” इत्यादि शब्द दूरके पर्वतोंमें प्रतिध्वनित होने लगे।

तब सत्यानन्दने कहा- "इसके लिये हमलोगोंको थोड़ा धैर्य रखना होगा। शत्रुओं के पास तोपें हैं। जबतक अपने पास भी तोपें न हों, तबतक उनसे युद्ध नहीं किया जा सकता। विशेषतया वे सब वीर-जातिके हैं। पद चिह्नसे १७ तोपें आ रही हैं। उनके आ जानेपर हमलोग युद्ध-यात्रा करेंगे। यह देखो सवेरा हो रहा है। चार घड़ी दिन चढ़ते-चढ़ते-अरे, यह क्या?-धायं धाय धायं।"

अकस्मात् उस जंगलमें चारों ओरसे तोप छूटनेकी आवाज़ आने लगीं। तोपें अंगरेजोंकी थीं। जालमें फैली हुई मछलियोंकी तरह कप्तान टामसने सन्तान सम्प्रदायको उस जङ्गलमें घेरकर मार डालनेका विचार किया था।