आनन्द मठ/सोलहवाँ परिच्छेद

आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ६४ से – ६७ तक

 

सोलहवां परिच्छेद

उस स्त्रीकी अवस्था पचीस वर्षके लगभग थी; पर देखने में वह निमीसे अधिक वयसवाली नहीं मालूम पड़ती थी। जिस समय वह मैले कुचैले वस्त्र पहने, उस घरके अन्दर आयी, उस समय ऐसा मालूम पड़ा, मानों उजाला हो गया। ऐसा मालूम ‘पड़ामानों किसी वृक्षके पत्तोंसे ढकी हुई सभी कलियां एक साथ खिल गयीं। मानों बन्द गुलाबजलके करावेका मुंह किसीने खोल दिया। मानों किसीने बुझती हुई आगमें धूप और गुग्गुल डाल दिया! वह रमणी घरमें प्रवेश कर चारों ओर अपने स्वामी को ढूंढने लगी। पहले तो उसने उन्हें नहीं देखा, पर थोड़ी देर बाददेखा कि आंगनमें आमके छोटे पेड़के सोरपर सिर रखे जीवा नन्द रो रहे हैं। सुन्दरी ने उनके पास पहुंचकर धीरे-धीरे उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसकी आंखोंमें जल आया ही नहीं, पर उसने उसे बाहर नहीं होने दिया, क्योंकि परमात्मा जानता है, कि जो सोता उसकी आंखोंसे जारी हुआ चाहता था, वह यदि निकल पड़ता, तो जीवानन्द उसमें डूब जाते। लेकिन उसने उसे बहने न दिया। जीवानन्दका हाथ अपने हाथमें लेकर उसने कहा-"है! रोते क्यों हो? मैं जानती हूं कि तुम मेरे ही लिये रो रहे हो; पर मेरे लिये रोनेका कोई काम नहीं है। तुमने मुझे जिस अवस्थामें रख छोड़ा है, मैं उसीमें सुखी हूं।"

जीवानन्दने सिर ऊपर उठाया, आंखें पोंछकर पूछा-"शान्ति! तुम्हारे बदनपर यह जोर्ण शीर्ण फटा कपड़ा क्यों? तुम्हें तो खाने पहननेका कोई दुःख नहीं है?"

शांतिने कहा-"तुम्हारा ऐश्वर्य तुम्हारे लिये है। मैं क्या जानूं कि रुपया पैसा किस काम आता है। जब तुम घर फिर आओगे, मुझे ग्रहण करोगे।"

जीवा-"ग्रहण करना, क्या मैंने तुम्हें त्याग दिया है?"

शांति-"त्याग नहीं दिया है तो भी जब तुम्हारा व्रत पूरा होगा और तुम फिर मुझे स्नेह करने लगोगे”-बात पूरी भी न होने पायी थी कि जीवानन्दने शांतिको गलेसे लगा लिया और उसके कन्धेपर सिर रख बड़ी देरतक चुप रहे। फिर लम्बी सांस लेकर बोले-"हाय, मैंने क्यों मुलाकात की।"

शांति-"क्यों की। इससे तुम्हारा व्रत भङ्ग हो गया।"

जीवा०-हुआ करे। इसका प्रायश्चित्त भी तो है? इसकी चिन्ता मुझे नहीं हैं, पर तुम्हें देखकर तो अब मुझसे जाया नहीं जाता। मैं इसीसे निमाईसे कह रहा था, कि मिलने मिलाने का काम नहीं है, क्योंकि तुम्हें देखनेके बाद मुझसे घर नहीं छोड़ा जायगा। एक ओर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जगत, संसार, व्रत, होम, याग, यज्ञ सब कुछ और दूसरी तरफ तुम अकेली

तो भी मैं निश्चय नहीं कर सकता कि कौन पलड़ा भारी है। देश तो शांत है, देश को लेकर मुझे क्या करना है? देश की एक कट्ठा भूमि पा जाऊ तो तुम्हें लेकर मैं वहीं स्वर्ग को रचना कर सकता हूं। फिर मुझे देश से क्या काम है? देश के लोग दुःखी हैं—रहें। पर जिसने तुम-सी सती पाकर भी त्याग कर दी है, उससे बढ़कर दुखिया देश में और कौन होगा? जो तुम्हारे इस कोमल शरीरपर सौ सौ पैबंद लगे हुए कपड़े देखता है, उससे बढ़कर दरिद्र इस देश में दूसरा कौन होगा? तुम मेरी सहधर्मिणी हो। जब मैंने तुम-सी सहायक को छोड़ दिया,तो फिर मेरे लिये सनातन धर्म क्या चीज है? मैं किस धर्म के लिये बंदूक कंधे पर लिये देश विदेश, जङ्गल-जङ्गल भटकता जीव हत्या कर अपने ऊपर पाप का बोझ लाद रहा हूं? पृथ्वी पर संतानों का राज्य होगा या नहीं, नहीं, कहा जा सकता; पर तुम तो मेरे हाथ में ही हो। तुम पृथ्वी को अपेक्षा कहीं बड़ी हो—तुम मेरे लिये साक्षात् स्वर्ग हो। चलो घर चले। अब मैं लौटकर वहां न जाऊंगा।"

शान्ति के मुंह से कुछ देरतक बात न निकलो। फिर बोली,—"छिः! तुम वीर पुरुष होकर ऐसी बातें करते हो? मुझे तो इस संसार में यही सबसे बढ़कर सुखकी बात मालूम होती है कि मैं वीर-पत्नी हूं! तुम एक अधम नारी के लिये अपना वीर-धर्म त्याग करते हो? तुम मुझे प्यार करो—मुझे वह सुख नहीं चाहिये; पर तुम अपना वीर-धर्म कदापि न छोड़ो। हां, एक बात और है, इस व्रतभङ्गका प्रायश्चित्त क्या है?"

जीवानन्द ने कहा,—"प्रायश्चित्त है दान, उपवास ओर १२ काहन[] कौड़ी।

यह सुन, शान्ति मुस्कुराते हुए बोली,—"प्रायश्चित्त क्या है, सो मैं जानती हूं; पर एक अपराध करने पर जो प्रायश्चित्त करना होता है, वही क्या सौ अपराधोंके लिये भी करना होता है?"

जीवानन्दने आश्चर्य और उदासोके साथ कहा, “यह सब बातें किस लिये पूछ रही हो?”

शान्ति–“मैं एक भिक्षा मांगती हूं। मुझसे मिले बिना प्रायश्चित्त न करना।"

यह सुन, जीवानन्दने हँसकर कहा,-"इस बारेमें तुम निश्चिन्त रहो। मैं तुमसे मिले बिना नहीं मरूंगा। मरनेकी वैसी कुछ जल्दी भी नहीं पड़ी है। अब मैं यहां न ठहरूंगा। इस बार तुम्हें जीभर देखने नहीं पाया; पर किसी दिन यह साध अवश्य पूरी करूंगा। एक दिन हमारी मनोकामना अवश्य ही पूरी होगी। अब मैं चला, पर मेरा एक अनुरोध है उसे मान लेना। यह फटे पुराने वस्त्र छोड़ दो और मेरे पैतृक घरमें ही जाकर रहो।"

शान्तिने पूछा, “इस समय तुम यहांसे कहां जाओगे?"

जीवानन्द-“अभी तो मठमें जाकर ब्रह्मचारीजीका पता लगाना है। उन्हें जिस हालतमें शहरकी ओर जाते देखा है, उससे मुझे बड़ी चिन्ता हो गयी है। अगर वे मन्दिर में न मिले तो उन्हें ढूंढ़नेके लिये शहर जाऊंगा।"


  1. १ काहनमें १ रुपयेकी कौड़ियाँ होती हैं।