आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ २९ से – ३५ तक

 
दसवां परिच्छेद

उस चांदनी रातमें दोनों व्यक्ति उस निस्तब्ध मैदानको पारकर चले। महेंद्र चुप थे। उनके मनमें शोक, गर्व और कौतूहलकी लहर उठ रही थी सहसा भवानदने अपना वेश बदला। अब भवानद शान्त और धीर प्रकृति संन्यासी न रहे, वह रणनिपुण वीर, वह सेनापतिका सिर काटनेवाले योद्धा न रहे। अभी जिसने पूर्ण अभिमानसे महेंद्रका तिरस्कार किया था, वह न रहे। उस ज्योत्स्नामयो, प्रशांत पृथ्वीके गिरि, कानन, और नदोकी शोभा देख, उनके मनमें उमङ्ग पैदा हो गयो, मानों चंद्रमाको उदय होते देख, समुद्र खिलखिला उठा। भवानदके मुखपर प्रसन्नता की गहरी रेखा छा गयी, मीठो मीठी बातें करनेके लिये उनका जी व्याकुल हो उठा। भवानदने बातचीत करनेकी बड़ी चेष्टा की, पर महेंद्र न बोले। लाचार भवानद आप ही आप गाने लगे,-

बन्दौं भारत भूमि सुहावन।
सजल सफल श्यामल थल सुंदर,
 
समीर चलय मम भावन॥

महेंद्र गीत सुनकर बहुत विस्मित हुए। वे यह न समझ सके कि यह सजल सफल श्यामल थल सुदर मलय समीर चलय भावन आदि गुणों से युक्ता माता कौन है। उन्होंने पूछा--“यह माता कौन है?” पर भवानंद इसका उत्तर न दे, गाते चले गये

हिमकर निकर प्रकाशित रजनी,
कुसुमित लता ललित छबिवारी॥
दिन मनि उदित मुदित मन पक्षी।
विकसित कमल नयन सुखकारी॥

महेंद्र ने कहा—"यह देश है; माँ नहीं।"

भवानंद बोले,—"हम लोग अन्य कोई माता नहीं जानते। 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' जन्मभूमि ही हमारी माता है। हमारे माँ नहीं, पिता नहीं, बन्धु नहीं, कलत्र नहीं, पुत्र नहीं, घर नहीं, द्वार नहीं—हमारी तो बस वही 'सजल सफल श्यामल थल सुंदर मलय समीर चलय मनभावन' आदि गुणोंसे युक्ता सब कुछ हैं।"

भवानंदके भावको समझकर महेंद्रने कहा—"अच्छा तो एक बार गाओ।"

भवानंदने फिर गाना आरम्भ किया :—

बन्दौं भारत भूमि सुहावन।
सजल सफल श्यामल थल सुन्दर,
मलय समीर चलय मन भावन॥
हिमकर निकर प्रकाशित रजनी,
कुसुममित लता ललित छबिवारी।
दिनमनि उदित मुदित मन पक्षी,
विकसित कमल नयन सुखकारी॥
तीस कोटि सुत जाके गजित,
दुगुन करन करवाल उठाये
कौन कहत तोहि अवला जननी,
प्रबल प्रताप चहूं दिसि छाये॥
धर्म कर्म अरु मर्म तुही है,

शक्ति मुक्ति देनी जय करनी।
तू जगत जननी आराध्य हमारी,
बहुबल धारिनि रिपुदल दमनी॥
तू दुर्गा दस आयुध धारिनि,
तू ही कमला कमल विहारिनि॥
सुखदा, वरदा, अतुला, अमला,
वानी, विद्या-दायिनि, तारिनि॥
सुस्मित, सरला, भूषित विमला,
धरती, भरती, जननी, पावनि।
“जगन्नाथ” कर जोरे बंदत;
जय जय भारत भूमि सुहावनि॥

महेंद्रने देखा, डाकू गाते गाते रोने लगा। महेंद्रने विस्मित होकर पूछा—"भाई! आप लोग कौन हैं?"

भवानंद—"हमलोग संतान हैं।"

महेंद्र—"सन्तान क्या? किसकी सन्तान?"

भवा॰—"माँ की सन्तान।"

महेंद्र—"अच्छा तो क्या संतानका काम चोरी डकैती करके माँ की पूजा करना है? यह कैसी मातृ-भक्ति है?"

भवा॰—"हमलोग चोरी डकैती नहीं करते!"

महेंद्र—"अभी तो तुम लोगोंने भरी गाड़ी लूट ली है?"

भवा॰—"यह चोरी डकैती थोड़े ही है? हमने किसका धन लूटा है?"

महेंद्र—"क्यों? राजाका?"

भवा॰—"राजाका यह धन लेनेका उसे क्या अधिकार है?"

महेंद्र—"यह राजकर था।"

भवा॰—"जो राजा प्रजाका पालन नहीं करता, वह राजा कैसा?"

महेंद्र—"देखता हूं, तुम लोग किसी दिन सिपाहियों की तोपके सामने खड़े करके उड़ा दिये जाओगे।"

भवा०-"बहुत सुसरे सिपाहियोंको हम देख चुके हैं। आज भी तो कितने ही थे।"

महेंद्र-"अभीतक पूरी तरह पाला नहीं पड़ा है, जिस दिन पड़ जायगा, उस दिन छठीका दूध याद आ जायेगा।"

भवा०-"अच्छी बात है, मरना तो एक दिन है ही, दो बार तो मरेंगे ही नहीं।

महेंद्र-"फिर जान बूझकर जान देनेसे क्या लाभ?"

भवा०-"महेंद्रसिंह! तुम्हें देखकर मैंने समझा था, तुममें भी कुछ मनुष्यत्व है पर अब मालूम हुआ कि जैसे सब हैं वैसे हो तुम भी हो, तुम केवल पेट पालनेके लिये ही पैदा हुए हो। देखो, साँप पेटके बल रेंगता है, उससे घटकर नीच जीव हो और कोई नहीं है। पर पैर तले दब जानेपर वह भी फन काढ़कर खड़ा हो जाता है। पर क्या तुम्हारा धैर्य अब भी नष्ट नहीं हुआ? क्या मगध, मिथला, काशी, काञ्ची, दिल्ली, काश्मीर किसी भी देशको ऐसी दुर्दशा हो रही है? क्या इनमेंसे एक भी देशके निवासी दाने दानेको तरसते हुए घास, पत्ता, जङ्गली लताएं, सियार-कुत्तोंके मांस और आदमी तककी लाश खानेको मजबूर हो रहे हैं? किस देशमें प्रजाको द्रव्य रखने में भी कल्याण नहीं है? देवताकी उपासना करने में भी कल्याण नहीं है? घरमें बहू-बेटियोंको रखनेमें कल्याण नहीं हैं? बहू-बेटियोंके गर्भ धारण करनेमें कल्याण नहीं। उनके पेट चीर कर लड़के निकाल लिये जाते हैं! सब देशोंके राजा प्रजाका पालन करते हैं, परन्तु हमारे मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा करते हैं? धर्म गया, जाति गयी, मान गया और अब प्राण भी जाया चाहते हैं। इन नशाखोरोंके भगाये बिना हिन्दुओंकी हिन्दुआई अब नहीं रह सकती।

महेंद्र-“कैसे भगाओगे?" भवा०-"मार भगायेंगे?"

महेन्द्र-"तुम क्या अकेले ही थप्पड़ मारकर भगा दोगे?" डाकूने फिर गाया,

तील कोटि सुत जाके गजित दुगुन करन करवाल उठाये कौन कहत तोहि अबला जननी, प्रबल प्रताप चहूं दिसि छाये।

महेन्द्र -"पर मैं तो देखता हूं, कि तुम अकेले ही हो।"

भवा०-"क्यों? अभी तो तुमने दो सौ आदमी देखे हैं?"

महेन्द्र-"क्या वे सभी सन्तान ही हैं?"

भवा०-"हां, सबके सब सन्तान ही हैं।"

महेन्द्र-“और कितने लोग हैं?"

भवा-“ऐसे हजारों हैं। धीरे धीरे और भी हो जायेंगे।"

महेन्द्र-“मान लिया, कि दस बीस हजार आदमी इकट्ठे? ही हो गये, तो क्या होगा? क्या इसीसे मुसलमानोंको मार भगाओगे?"

भवा०—“पलासी में अंग्रेजोंके पास कितनी फौज थी"

महेन्द्र-"अंग्रेजों और बंगालियोंकी क्या तुलना?"

भवा० -“क्यों नहीं? देहके जोरसे क्या होता है? देहमें अधिक जोर होनेसे क्या अधिक गोली चलाई जा सकती है?"

महेन्द्र-"फिर मुसलमानों और अंग्रेजोंमें इतना फर्क क्यों?"

भवा०-“देखो, अंग्रेज प्राण जानेपर भी मैदानसे नहीं भागते और मुसलमान देहमें आंच लगते ही भाग जाते हैं और शरवत पानीकी धुनमें लग जाते हैं। इसके सिवा अंग्रेजोंमें दृढ़ता होती है, वे जिस कामको उठा लेते हैं, उसे पूरा किये बिना नहीं छोड़ते। पर मुसलमान महा आलसी हैं। बिचारे सिपाहीरुपयेके लिये प्राण देते हैं, फिर भी बिचारोंको ठीक ठीक वेतन नहीं मिलता। इसके सिवाय साहस चाहिये। तोपका गोला एक जगह छोड़कर दस जगह तो गिरेगा नहीं, फिर एक गोलेके डरसे दस आदमियोंके भागनेका क्या काम है? पर एक गोला छूटते ही दलके दल मुसलमान भाग खड़े होते हैं। इधर सैकड़ों गोले देखकर भी एक अंग्रेजका बच्चा नहीं भागता।"

महेन्द्र-"तो क्या तुम लोगोंमें ये सब गुण मौजूद हैं?"

भवा०-"नहीं; पर गुण किली पेड़में फलते नहीं, अभ्यास करनेसे ही आते हैं।"

महेन्द्र-"क्या तुम लोग अभ्यास कर रहे हो?"

भवा०-"देखते नहीं, हम सब सन्यासी हैं? इसी अभ्यासके लिये हमलोगोंने सन्यास ग्रहण किया है। काम पूरा होनेपर, अभ्यास भी पूरा हो जायगा और हमलोग फिर गृहस्थ हो जायंगे। हमारे भी पुत्र कलत्र हैं।"

महेन्द्र-"तुम लोग तो इस बन्धनसे मुक्त होकर मायाका जाल काट चुके हो?"

भवा०-"सन्तानको झूठ नहीं बोलना चाहिये। मैं तुम्हारे सामने झूठी बड़ाई न करूंगा। मायाका जाल कौन काट सकता है? जो यह कहता है, कि मैंने मायाका फन्दा काट दिया है, उसे तो माया व्यापी ही नहीं, अथवा वह बड़ा भारी झूठा है, व्यर्थकी डींग मारता है। हमलोगोंने मायाका फन्दा नहीं काटा है, केवल व्रतकी रक्षा कर रहे हैं। क्या तुम भी सन्तान होना चाहते हो?

महेन्द्र-"बिना स्त्री कन्याका संवाद पाये मैं कुछ नहीं कह सकता।"

भवा०-"चलो तुम्हारी स्त्री कन्यासे मुलाकात करा दूं।" इतना कह, दोनों चल पड़े। भवानन्द फिर “वन्देमातरम्' गाने लगे। महेन्द्रका गला बड़ा सुरीला था; सङ्गीत विद्यामें कुछ अनुराग भी था, अतएव वे भी साथ ही साथ गाने लगे। उन्होंने देखा, कि गाते गाते आंखें आप ही आप भर आती हैं। महेन्द्र कहा, यदि स्त्री कन्याको न छोड़ना पड़े तो मुझे भी यह व्रत ग्रहण कराओ।"

भवा०-"जो यह व्रत ग्रहण करता है, उसे स्त्री कन्या छोड़ देनी पड़ती है। यदि तुम यह व्रत ग्रहण करोगे, तो स्त्री कन्यासे न मिल सकोगे। हां उनको रक्षाका पूरा बन्दोबस्त किया जायगा, परन्तु व्रतकी सफलता पर्यन्त तुम उनका मुख देख न सकोगे।"

महेन्द्र,—तब तो मैं यह व्रत न लूंगा।"