आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १०९ से – ११३ तक

 

अब क्या डर है अब अपने बाल-बच्चोंको कलकत्तेसे यहीं ले आओ; विद्रोहका तो मैंने अंत ही कर दिया। डनवर्थ साहबने कहा,-"अच्छी बात है, आप यहां दस दिन और ठहर जाइये। देशथोड़ा और स्थिर हो जाय, तब मैं अपने स्त्री-पुत्र आदिको बुलवा लूंगा।" डनवर्थ साहबने बहुतसी मुर्गियां और भेड़ें पाल रखी थीं। उनके यहांका पनीर भी अच्छा होता था। तरह तरह को जंगली चिड़ियोंका मांस उनके भोजनालयकी शोभा बढ़ाया करता था। इधर लम्बी दाढ़ीवाला बावर्ची भी मानों द्रौपदीका ही अवतार था। इसलिये कप्तान टामस बड़ी बेतकल्लुफीके लाथ वहीं रहने लगे।

इधर भवानन्द मन ही मन दांत पीस रहे थे। वे यही सोच रहे थे कि कब टामस साहबका सिर काटकर द्वितीय सम्बरारिकी उपाधि धारण कर लूं। अंग्रेज लोग भारतवर्षकी भलाई करने आये हैं, उस समय संतानोंकी समझमें यह बात नहीं आती थी। समझते भी कैसे? कप्तान टामसके समान अंगरेज भी इस बातको नहीं जानते थे। उस समय यह बात विधाताके मनमें ही छिपी हुई थी। भवानन्द सोच रहे थे, “एक दिन इन असुरोंका सवंश नाश करूंगा। सबको जमा होकर यहां चले आने दो, बस उनकी जरा सी असावधानी देखते ही उनपर टूट पड़गा। अभी जरा दूर ही दूर रहनेका काम है।” इसीलिये वे अपने दलबल समेत दूर ही दूर रहे। कप्तान टामस निष्कण्टक होकर द्रौपदोके गुणों की बानगी लेने लगे।

साहब बहादुरको शिकारका बड़ा शौक था, इसलिये वे कभी कभी शिवग्रामके पासवाले जंगलमें शिकार खेलनेके लिये जाया करते थे। एक दिन टामस साहब डनवर्थ साहबके साथ घोड़ेपर सवार हो, कई एक शिकारियों के साथ शिकार खेलने निकले यह तो कहना ही व्यर्थ है कि टामस साहब बड़े भारी साहसी और बलवीर्यमें अंगरेजोंमें भी अद्वितीय थे, वह घना जंगल बाघों, भैसों और भालुओंसे भरा हुआ होनेके कारण बड़ा भयावह था। इसलिये कुछ दूर आनेपर शिकारियोंने आगे बढ़नेसे इनकार कर दिया। वे बोले,—"बस, अब आगे भीतर जानेका रास्ता नहीं है। हमलोग तो अब आगे नहीं जा सकते।" एक बार डनवर्थ साहब इसी जंगलमें एक भयानक शेरके पंजे में पड़ते पड़ते बच गये थे, इसलिये उन्होंने भी आगे जाना स्वीकार नहीं किया-सबको इच्छा लौटनेकी ही थी। कप्तान टामसने कहा,-"तुम लोग न जाओगे, तो लौट जाओ, पर मैं तो अब नहीं लौटता।" यह कह, कप्तान साहब उस घोर जंगलमें घुस पड़े।

सचमुच उस जंगलमें रास्ता नहीं था। घोड़ा आगे न बढ़ सका; पर साइब घोडेको छोड़, कन्धेपर बन्दूक लिये अकेले ही आगे बढ़े। वे घुसे तो बाघकी खोजमें थे; पर खोजते-खोजते हैरान हो गये, तो भी कहीं बाघ न दिखाई दिया। उसके बदले उन्होंने देखा कि एक बड़े भारी पेड़के नीचे खिले हुए फूलोंवालो लताओं और छोटे छोटे पौधोंके बीच में न जाने कौन बैठा है? वह एक नवीन संन्यासी था, जिसके रूपसे वह सारा जंगल उज्ज्वल हो रहा था। खिले हुए फूल मानों उसके स्वर्गीय शरीरके सम्पर्कलसे और भी अधिक सुगन्धमय हो गये थे। कप्तान साहब भौंचक से हो रहे पर तुरन्तही क्रोध आ गया। वे हिन्दुस्तानी बोली विचित्र तरहसे बोलते थे। उन्होंने पूछा,-"टुम कौन हाय?"

संन्यासीने कहा, "मैं संन्यासी हू।"

कप्तानने पूछा,-"टुम बागी है?"

संन्यासी-“यह किस जानवरका नाम है?"

कप्तान-“हम टुमको गुली मार देगा।"

संन्यासी-"मार दो।”

कप्तान मन हो मन विचार कर रहे थे, कि गोली मारुं

या न मारुं, कि इतने उस संन्यासीने बिजली की तरह तड़पकर साहबके हाथकी बन्दूक छीन ली। इसके बाद संन्यासीने अपना रक्षावरण-चर्म खोलकर फेंक दिया और एक ही झटके में जटा भी हटाकर दूर कर दी। कप्तान टामसने देखा, कि एक अपूर्व सुन्दरी सामने खड़ी है। सुन्दरीने हँसते हँसते कहा,-"साहब! मैं स्त्री हूं; मैं किसीको मारती नहीं। मैं तुमसे पूछती हूँ कि हिन्दू मुसलमानोंमें झगड़ा होता है, तुम लोग क्यों बीचमें कूदते हो? अपने घर चले जाओ।"

साहब-"टुम कोन हाय?"

शान्ति-“देखते तो हो कि मैं संन्यासिनी हूँ, तुम जिनके साथ लड़ाई करने आये हो, उन्हीं में से किसी एककी पत्नी हूं।"

साहब-"टुम हमारा धारपर चलेगा?"

शान्ति- क्या तुम्हारी रखेली होकर?"

साहब-“औरटका माफिक रहना, लेकिन शाडी नहीं होगा।"

शान्ति-"अच्छा, मैं भी तुमसे एक बात पूछती हूं, हमारे घरपर पहले एक बन्दर था पर हालमें वह मर गया। पींजरा खाली पड़ा है। क्या तुम उसके पीजरेको आबाद करने चलोगे? मैं तुम्हारी कमरमें भी साँकल बांध दूंगी। हमारे बागीचे में खूब मीठे केले फलते हैं, उन्हें भरपेट खाया करना।"

साहब-"टुम बड़ा बहादुर औरट है। टुमारा साहस देखकर हम बहुट खुशी हुआ। टुम हमारा घारपर चलो टुमारा खाविण्ड टो लड़ाईमें मारा ही जायगा; फिर टुम क्या करेगा?"

शान्ति-"अच्छा, तो हमलोग अभीसे आपसमें एक बात तै कर रखें। युद्ध तो दो चार दिनोंमें होगा ही। यदि उस लड़ाई में तुम जीतोगे, और मैं जीती बचुंगी, तो तुम्हारी रखेली होकर रहूंगी। पर कहीं हमारी जीत हुई, तो तुम हमारे घर आकर बन्दर बनकर पींजरेमें रहोगे और केले खाया करोगे न?"

साहब—केला बहुत उमडा चीज होटा है। इस वखट टुमारे पास है।"?

शान्ति—"ले जा अपनी बन्दूक! ऐसो जङ्गली जातिसे बातें करना भी बेवकूफी है!"

यह कह, बन्दूक फेंककर शांति हंसती हुई चली गयी।


तीसरा परिच्छेद।

शान्ति, साहबको वहीं छोड़कर हरिणीकी भांति उछलती कूदती जङ्गलके अन्दर न जाने कहां गायब हो गयी। थोड़ी देर बाद साहबको किसी स्त्रीके मधुरकण्ठसे निकला हुआ सुनाई दिया,—

"यह यौवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"

फिर न जाने कहांसे सारंगीकी सुरीलो तानमें भी यही गीत बज उठा—

"यह यौवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"

फिर उसी सुरमें सुर मिलाकर किसी पुरुषने भी गाया,—

"यह पौवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"

तीनों सुरो ने एक में मिलकर बनकी सारी लताओंको हिला डाला। शान्ति गाती हुई चली;—

"तह याैवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!
नदिया बिच नैया जाती है, अंधड़ पानी सह लेती हैं।
चतुर खिवैया डांड़ चलावे, नहि क्यों पार उतरि हौं?