आदर्श हिंदू ३/६५ प्रेत का मोक्ष
"क्या जी! तब आपका बहम अभी तक नहीं निकला ? जब जिक्र आता है तब ही "आबू के साधु" का नाम लेकर आप ताना दिया करते हैं। क्या सचमुच ही आपका संदेह है ? अथवा विनोद के लिये ?" ,
वहम और विनोद, परस्पर शत्रु हैं । जहाँ वहम वहाँ बिनोद नहीं और जहाँ बिनोद वहाँ वहम का काम क्या ? परंतु यहाँ वहम भी है और विनोद भी है । जो हैं तो दोनों हैं और नहीं तो दोनों नहीं ! अथवा कभी एक और कभी दूसरा !"
"वाह ! सब कुछ कह दिया और कुछ भी नहीं कहा । आपके ऐसे तर्क से मैं गंवारी क्या समझूं कि आपके मन में क्या है ? पहेली न बुझाइए। साफ कहिए कि आपके मन में क्या है ? इस दासी को अच्छी तरह समझा दीजिए कि आपके मन में क्या है ? आप विनोद से कहते हैं और मेरे ऊपर सौ घड़े पानी पड़ जाता है ।"
“अच्छा ! तू ही कह कि मेरे मन में वहम है अथवा विनोद ? जब मेरे दिल का तेरे दिल में टेलीफोन है तब तू स्वयं सेाच सकती है कि वहम हैं या विनोद ! तैने तो दावा किया है न कि तू दूसरे के मन के पहचान सकती है ?" "बेशक ! दावा किया है और अब भी मेरा दावा है। मैंने उसके हाव, भाव और कटाक्ष से जान लिया था कि उसका मन निर्विकार है। जैसा तप उसके मुख़ पर वरुणा गुफा के निकट झलकता था वैसा ही आबू पर। फिर आप भी तो बताइए कि वह कहाँ तक निर्दोष था ?"
"हाँ ! मैंने मान लिया,मैं पहले ही से मान रहा हूँ कि तू निर्दोष है और जब तू दृढ़ है तब यदि उसका मन भी विचलित होता तो वह तेरा कर ही करता सकता था ?परंतु तो मन में संकल्प भी क्यों हुआ कि उसके पास रात्रि में जाना चाहिए और सो भी बेटा माँगने के लिये ?"
“संकल्प बेशक हुआ। और हुआ भी इसी लालसा से किंतु बूढ़ी माँ के परामर्श से हुआ और आपको और उन्हें साथ ले जाने के इरादे से ! इरादा वास्तव में हुआ और सो भी नारी-हृदय की उस अलौकिक वासना के कारण ! पुरुषों की अपेक्षा रमणियों को अपनी संतान पर अधिक प्रेम होता है । स्त्रियों की सृष्टि हीं इसलिये है कि प्रजा की वृद्धि हो । विवाह ही संतान की उत्पत्ति के लिये किया जाता है। माता ही पिता की अपेक्षा संतान के लालन पालन में अधिक कष्ट पाती है किंतु स्नेह भी उसका अलौकिक है, अमानुपी है, दैवी है । यदि दैवी नहीं है तो पशु पक्षी अपनी संतान का लालन पालन किस सेवा के लिये, किस कमाई के लिये करते हैं। केवल
आ० हिं०-१३ संतान के लिये नारियाँ न मालूम क्या क्या कर डालती हैं, ताजियों के नीचे निकलती हैं, पीर पैगंबरों को, भूत प्रेतों को, कबरो और मसानों को पूजती हैं। यदि आप थोड़ी देर के लिये रमणी बन जायं अब आपके हमारा हृदय मालुम हो सके ।"
"नारी न बनने पर भी मैं हदय से उस अलौकिक वासना का अनुभव कर रहा हूँ । नारी भी तो एक बार तू बना चुकी है किंतु वासना वही करनी चाहिए जो अपने हाथ हु, उपाय वही करना चाहिए जो निर्दोष हो ।"
"वासना बेशक मेरी थी और उसका नतीजा भगवान् के हाथ था । और मनुष्य की यातना वासनाओ का परिणाम पश्मेश्वर के अधीन है। जब स्त्री जाति में संतान उत्पन्न करने की स्वाभाविक वासना है तब मैंने भी की तो बुरा क्या किया ? संतान बिना गोड सूनी, घर सूना और कुल सूना पाकर और अपना कर्तव्य पालन करने के लिये, अपना जीवन सार्थक करने की इच्छा से मैंने वैसा किया था ।"
"वास्तव में सत्य है। मैंने मान लिया कि तेरी इच्छा निर्दोष थी परंतु जो उपाय तैने सोचा था वह उचित नहीं था । भयंकर था । उसका परिणाम शायद यहाँ तक हो सकता था कि हम दुनिया में मुँह दिखाने योग्य न रहते ।"
"हाँ यह मेरी भूल है। यो तो मेरा इरादा आपके साथ लेकर जाने का था । आपकी सहगामिनी रहने में भय नहीं किंतु इरादा भी करना अच्छा नहीं ।" “खैर ! तैने अपनी भूल स्वीकार कर ली । तब मैं पूछता हूँ कि यदि वह निर्दोष था तो उसने रात्रि को तुझे क्यों बुलाया ?"
“उसका चेहरा निर्विकार था, तप उसके मुख के भाव से टपका पड़ता था इसलिये मानना पड़ेगा उसने मुझे बुरी नीयत से नहीं बुलाया ! उसने बुलाया था मंत्र देने के लिये और दिन के अवकाश न मिलने से, अपाह्निक के निपट जाने पर रात्रि के समय देने के लिये । तिस पर भी मैं भूल स्वीकार करती हूँ। भूल जगजननी जानकी से हुई है। मैं बिचारी गंवारी किन गिनती में !"
“अच्छा भूल स्वीकार करती है तो बोल हारी !”
"एक बार नहीं लाख बार हारी । आपसे तो हारने में ही शोभा है, हारने में ही कर्तव्यपालन है ।"
"अच्छा हार गई तो दंडे ! दंड भी भोगना होगा ।"
"पर दंड आपने क्या सोचा हैं ?"
प्रयाग का सा साफा और कोट !"
“नहीं सरकार, ऐसा नहीं होगा ! मैं एक बार पहन चुकी ! अब पारी आपकी हैं। आपको पहनना पड़ेगा । पहनकर वादा पूरा करना होगा। आज मैं अपने हार्थों से पहनाऊँगी । पगड़ी की जगह साड़ी, धोती के बदले लहँगा और केट की ठौर अँगिया पहनाऊँगी और रुच रुचकर सजाऊँगी । ऐसी सजाऊँगी जिससे कोई पहचान न सके कि आप पंडित प्रियंवदानाथ हैं।" "भला तो पक्की खान ली ? सचमुच ही ? जरूर ही ?तब"प्रिया नाथ" क्यों नहीं ?"
"हां ! हां !(कुछ झेपकर) सत्य ही ! और सो भी इसलिये कि जीते को हारना चाहिए,हारी को जितना चाहिए। मैं एक बार हारकर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी । पितामह भीष्मा ने अपना सर्वस्व अर्पण करके ही भगवान् को हराया था । श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा तुड़वा दी थी । बस मैं भी हराऊँगी ।" इस तरह कहकर भगवान् पुष्पधन्वा के वाणों का प्रयोग करती हुई खूंटी पर से कपड़े उतारकर ज्यों ही हँसते हँसते, मुसकुराते मुसकुराते वह पहनाने लगी त्यो ही किवाड़ अकस्मात खटके । बाहर से कुछ सुरकुराहट की हलकी सी आवाज आई और तब “हाय यह फिर नया गजब हो गया !" कहकर वह उसी दम मूच्छित हो गई। "हैं ! हैं ! बावल यह क्यों ? क्या अब भी तेरे दिमाग में से भूत का भय नहीं निकला ।” कहते हुए प्राणनाथ ने शीतोदक सिंचन से प्यारी के नेत्र युगलों का अभिषेक किया और साथ ही थोड़ा सा ठंढा ठंढा शरबत पिलाया। कोई पाँच मिनट में जब उस के होश ठिकाने आ गए तब प्रियंवदा कहने लगी-----
"आपके पुण्य प्रताप से भूत बेशक अब नहीं रहा किंतु मेरे अंत:करण से अभी तक भय नहीं निकला। योंही मुझे रस्सी का साँप दिखाई दिया करता है।" "भय न निकलने में मेरा कुसूर नहीं । प्रयाग और गवा की घटना ने मुझे भी मनवा दिया कि यह भी कोई योनि है । जिन बातों को तर्क साबित नहीं कर सकता वे अनुभव से प्रमाणित हेाती हैं। परंतु जैसे अनुभव ने यह साबित कर दिया कि ( रोकर ) माता के प्रेतयोनि मिली थी वैसे ही यह भी तो प्रमाणित कर दिया कि उसकी मौक्ष हो गई। फिर डरती क्यों है ?"
"सरकार डरना स्त्रियों का स्वभाव हैं । उनकी रक्षा करने का साधन है। एक बार जब भय अंत:करण में प्रवेश कर जाता है फिर उनका निकलना मुश्किल है। केवल भय ही नहीं, नारी-हृदय में बुरे वा भले जैसे संस्कार अंकित हो जाते हैं उनका निकलना कठिन है। रमणी-हृदय वज से भी कठोर और कमल से भी कोमल है। परंतु क्यो जी, उसकी ऐसी योनि क्यों मिली जिन्होंने आजीवन कोई पाप नहीं किया ? जिन्होंने पचास वर्ष अपने सतीत्व की रक्षा करके विधवापन में निकाल दिए और जो सदा ही भगवान् के भजन में अपना मन लगाए रहती थीं उन्हें ऐसा दंड ? कुछ समझ में नहीं आता।"
"अवश्य ऐसा ही है। वह मेरी जन्मदात्री न सही परंतु माता से भी बढ़कर थी । उन्होंने हमारा लालन पालन किया है। यह शरीर उन्हीं के अनुग्रह से है । वह हमें पेट के बेटों से भी बढ़कर समझती थीं। उन्होंने जब से जन्म लिया तब से कभी सुख नहीं पाया था। हमारे दु:ख को अपना दुःख और हमारे सुख में अपना सुख मानने से ही उन्हें आसक्ति हुई । बस' यह आसति ही सब' झगड़ों की जड़ है । केवल आसक्ति से ही जब क्रीड़ा भंवर हो जाता है तब वही उसे इस योनि में घसीट ले गई । घसीट ले जाने पर भी उसके सदगुणों के प्रभाव ने, उसके सुकर्मो ने उसे प्रेतयोनि पाने पर भी कुकर्मों में प्रवृत्त नहीं होने दिया, इसलिये ही उसने तुझको सताने के व्याज से सुझाव और अल्प प्राप्त का, अल्प आसक्ति का अल्प' ही दंड मिलकर उसका छुटकारा हो गया ।”
“हाँ ठीक है। यथार्थ है । वास्तव में उन्होंने मरने पर भी हमारी भलाई की । यह ( बालक को दिखाकर } उन्हीं के आशीर्वाद का फल है। उन्होंने स्वयं दु:ख उठाकर हमें सुख पहुँचाया । हमें अपने कर्तव्य की, गया-श्रद्धादि करके की, यात्रा क सुख लुटने की याद दिलाई । धन्य है ! लाख बार धन्य है !! मैं अब बहुत पछताती हैं। उन्हें बुरा भला कहने पर अपने आपको धिक्कारती हूँ। अब, जब मैं सोचती हूँ तब निश्चय होता है कि उनके जीते जी मैं जो उनसे अपना दुःख' मानती थी सो भी भूल से। उसमें दोष मेंरा ही था । उनकी सीधी शिक्षा भी मुझे टेढ़ी लगती थी । भगवान् इस पाप से मेरी रक्षा करे ।"
जिस समय इनका इस तरह संभाषण हो रहा था फिर वही पहले की सी अवाज आई । “कोई है ? बाहर कोई अवश्य है। शायद कोई तुझे बाहर बुला रहा है ।" "रात के बारह बजे मुझे कौन निगोड़ा बुलाने अक्षर ?"
"शायद घुरहू है या आबू का साधु !"
“नहीं जी ! हर बार की दिल्लगी अच्छी नहीं । बाहर से कोई सुनता हो तो न मालूम क्या समझे ? आग लगे उन दोनों के ! एक तो गया जहन्नुम में और दूसरे का भी मेरे सामने नाम न लो ।"
“खैर तो और कोई होगा, शायद बहू आई हो । आज छोटा भैया भी तो यहाँ नहीं है। जीजी को अपना दुःख दर्द सुनाने आई हो ! जल्दी किवाड़ा खोलकर देख तो कौन है ?"
“नहीं मैं न खोलूंगा। मुझे डर लगता है। फिर आपके लिये कोई नई दिल्लगी खड़ी हो जाय ।"
इतनी बातचीत हो चुकने पर पंडित जी खड़े हो गए है। प्रियंवदा ने किवाड़ खोले । किवाड़ खुलते ही लालटेन लिए हुए सुखदा संकोच' से पीछे को हटी और तब “बहन क्या बात है ?" कहकर प्रियंवदा ने उसे रोका । पंडित जी हटकर अलग चले गए और देवरानी जेठानी में इस तरह बातें हुई ----
“मैने यहाँ आकर तुमको जगा दिया । मैं माफी माँगती हूं परंतु करूं क्या ? (लड़के की ओर इशारा करके) आज न आप सोता है और न मुझे नींद लेने देता है । बस "अम्मा ! अम्मा !!" की रट लगाकर इसने मेरा बुरा हाल कर रखा है । मैने तो पहले ही तुमसे कह दिया था कि यह मेरे पास न रहेगा । बस' सँभालो अपनी धरोहर ताकि मैं सुख से सोऊँ !" “हाँ वीर ! मेरी धरोहर बस मुझे भी यही चाहिए । दिए जा ऐसी ऐसी धरोहरें और में भरोसे सुख से सो । जितने होगे सबको मैं अबेर लूंगी ।"
"बस बस ! ( मुस्कुराकर ) दिल्लगी न करो ! भगवान् ने जो दिए हैं वे ही सुख से रहें ।" कहती हुई बालक को जेठानी की गोदी में देकर सुखदा अपने कमरे में जा सोई और इधर छोटा नन्हा बड़े भाई के पास जाकर सो गया। दोनों को सुलाकर' बस वे दोनों भी सो गए ।