आदर्श हिंदू ३/५८ राग में विराग

आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ १२१ से – १३० तक

 
राग में विराग

अनेक माह तक भक्तिपूर्वक भारत के अनेक तीर्थ स्थलों में विचरकर दुनिया का अनुभव और परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने के अनंतर पंडित जी घर आ गए हैं । यात्रा का फल भी इन्हें अच्छा मिल गया । प्रियंवदा की मनोकामना पूर्ण हो गई । भगवान् ने उसको पुत्र प्रदान किया। सुखदा के भी गिरते गिरते सँभल जाने पर, उसके पश्चाताप से, उके अटल ब्रत ने और उसके प्रायश्चित्त ने पितृपिंड का भक्षण करने के केवल एक माह के भीतर ही भीतर शुभाश का वीजारोपण कर दिया। वीज' से अकुर, अंकुर से वृक्ष और वृक्ष में पुष्प लगकर फल भी उसे मिल गया । फल भी ऐसा वैसा नहीं । मधुर फल । प्रियंवदा के कमलनाथ और सुखदा के इंदिरानाथ के जन्म देने में केवल तीन मास सत्रह दिन का अंतर था। पंडित प्रियानाथ जो ही घर में कर्ता धर्ता और वह दृद सनातन धर्मावलंबी। गौडबोले ने जब शुभ संतान होने का भार उन पर डाल दिया और जब उनका सिद्धांत ही यह था कि संस्कारहीन बालक किसी काम के नहीं होते, उनके पैदा होने से न होना अच्छा है, ये सचमुच अपने पुरखाओं के तारने के बदले स्वय' नरक में पड़कर उन्हें भी घर घसीटते हैं, तब दोनों बालक के लिये सीमंत, पुसवन आदि संस्कार यदि ठीक समय पर शास्त्रविधि से किए गए हो तो आश्चर्य क्या ? थे संस्कार सब ही किए गए और से भी आडंबरशून्य क्योंकि पंडित जी के दिखावट पसंद नहीं, बनावट पसंद नहीं । केवल शास्त्रीय संस्कार ही नहीं वरन् उनकी इच्छा थी कि गर्भधारण करने के समय दंपती के शुद्ध चित हों, उनके मन में विकार न हो, शरीर में दैहिक, दैविक और भौतिक विकार न हों । गर्भधारण करने के समय से स्त्री की इन सब बाते से रक्षा की जाय । वह सदा प्रसन्न बदन, प्रशन मन रहे, कोयले,राख, खपरे और अखाद्य पदार्थ का सेवन न करने पाये । काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय और शोकादि विकारों से रहित रहे तो अवश्य ही संतान उत्तम होगी । पैदा होने के समय से बालक के अंतःकरण में खोटे संस्कार में पैदा होने देने चाहिएं । पंडित जी नें प्रियंवदा के अच्छी तरह समझा दिया, कांतानाथ को अनुक अमुक ग्रंधे का अवलोकन करने का संकेत कर दिया और कुछ पति से और कुछ जीजी से सुखदा में भी जान लिया।

बस इन बातों के पालन करने का फल यह हुआ कि दोनों बालक रूप, गुण संपन्न पैदा हुए । अब सुखदा प्रियंवदा के जीजी कहकर पुकारती है और वह उसे कभी बहन, कभी छोटी और कभी बहुत प्यार में आ जाती है तो सुखदिया कह देती है। दोनों में सगी बहले से भी बढ़कर प्रेम हैं । यों मूर्ख, लड़ाकू और कलहिनी स्त्रियाँ लड़ाई मोल ले लेकर आपस में उलझ पड़ती हैं। हवा से लड़ने लगती हैं। सुखदा भी पहले इन बातों के लिये सरनाम थी । परंतु अब इनमें न पैसे के लिये लड़ाई है, न बालकों के लिये लड़ाई है और न काम काज के लिये । काम काज करने के लिये "मैं करूंगी ! मैं कहूँगी" ?, की कभी प्रेमपूर्वक उलझन हो जाय तो जुड़ी बात है किंतु सब अपना अपना काम पहले से कर लेती हैं। अपना करके दूसरी का भी करने दौड़ती हैं। "रुपए पैसे और खर्च की बात आदमी जाने ।" हमें कुछ मतलब नहीं । जो काम हमारे जिम्मे के हैं उनका ही निपटाना कठिन है ।" यहीं दोनों की राय हैं । अब काम से अवकाश निकालकर सुखदा जीजी से पढ़ना लिखना सीखती हैं, सींचा पिरोना सीखती है और दस्तकारी के अनेक काम सीखती है। बालकों के पालन पोषण में नौकर नौकरानियों तक को यह मालूम नहीं होने पाया कि कौन किसका बच्चा है। उन बच्चों में भी न मालुम क्या नैसर्गिक प्रेम है । दोनों खाते साथ हैं, सोते साथ हैं, जागते साथ हैं, रोते साथ हैं और दूध पीने का भी उनका एक विचित्र ढंग है। एक बच्चा जब एक घूट पी लेता है तब दूसरे की ओर इशारा करता है । हजार कोशिश करो किंतु जब तक दूसरा एक घूंट न पी ले तब तक वह कटोरी मुंह को छूने तक नहीं देता । उनका ऐसा प्रेम देखकर पंडित पंडिलयिन में कुछ हँसी भी होती हैं । उनकी सख्त ताकीद है कि कभी कोई काम' ऐसा न करो जिससे बालक चिड़चिड़ा हो जाय । खबरकार किसी ने डरने की, झूठ बोलने की और इस तरह की बुरी आदत डाली तो । रात को यदि उन्हें पैशाब पायखाने की बाधा हुई हो रो रोकर माता को जगा देंगे परंतु कपड़े बिग़ाड़ने का वास्ता नहीं । मैले कुचैले से उन्हें बचपन से ही घृणा है । दोनों बच्चे ज्यो ज्यो बड़े होते जाते हैं त्यो त्यो शक्ति के अनुसार शारीरिक परिश्रम की उनमें आदत डाली जाती है। अब वे खूब दौड़ धूप करते हैं, बर्जिश करते हैं, गेंद बल्ले खेलते हैं और धीरे धीर बलिष्ट,हृष्ट पुष्ट और सदाचारी, माता पिता के भक्त बनते जाते हैं। शिष्टों का सत्कार, समान से प्रेम और छोटों पर दया उन्हें सिखलाई जाती है । नित्य प्रातःस्मरण करना, परमेश्वर की भक्ति करना उनके कोमल अंत:करण में ठेठ से ही अंकित कर दिया गया है। जब से उनका उववीत हो गया है ।स्नान संध्या उनका प्रधान कर्तव्य है। उनकी मजाल नहीं जो इन कामों में अतिकाल कर दें। पंडित जी को मारने 'पीटने से पूरी घृणा है इसलिये कोई उन पर हाथ नहीं उठाने पाता परंतु इसका यह मतलब नहीं कि वे दुलार में आकर बिगड़ जायें । शिष्टों का नाराज होना ही उनके लिये भारी भय है । उनकी शिक्षा दीक्षा का कार्य गौड़बोले के सिपुर्द है ।पंडित जी ने उनका हिदायत कर दी है कि आवश्यकता और समय के अनुसार घोड़ा बहुत परिवर्तन भले ही कर दिया जाय परतु बालके के। उसी ढंग की शिक्षा मिलनी चाहिए जैसी "हिदूं गृहस्थ" में हरसहाय को दी गई है। जब तक विश्वविद्यालय की शिक्षा-प्रणाली का उचित संशोधन न हो जाय तब तक पास का पुछल्ला लगाना वह चाहे अनावश्यक, निरर्थक, निकम्मा, हानिकारक और बोझा ही क्यो न समझे किंतु जब आजकल परीक्षा के बिना योग्यता की नाप नहीं होती और हर जगह सर्टिफिकेट रूप लकड़ी की तलवार अपेक्षित होती है तब स्कूल और कालेज की शिक्षा दिलाए बिना काम न चलेगा । इस बात को पंडित जी अच्छी तरह जानते हैं किंतु “हिंदू गुहस्थ" के अनुसार बालक को सदाचारी, धार्मिक और कार्यकुशल बनाने के लिये, कमाऊ पुल बनाने के लिये जिन बातों की आवश्यकता है उन्हें पहले घर पर सिखा पाकर तैयार कर देना चाहिए। इसी उद्देश्य से पंडित जी ने दोनों बालक को पहले घर पर शिक्षा दिलाई फिर परीक्षा दिलाकर डिगरियाँ दिलाई।

इस तरह तैयार होकर क्योंकर बडे कमलानाथ और छाडे इंदिरानार्थ परमेश्वर की भक्ति में, माता पिता की सेवा करने में कुटुंब का पालन करने में और लोकोपकार में प्रवृत्ते हुए, कब और किस तरह से कहा किस किस के साथ उनके विवाह हुए और कैसे उन्होंने दुनिया की नीच ऊँच देखकर अनुभव प्राप्त किया,सो नसूना खड़ा कर देना एक जुड़े उप न्यास का विपय है। मैं नहीं कह सकता कि इस बात का एश किसे मिलेगा । हां साहित्य का मैदान तैयार है और लेखनी के घोड़े की बाग भी ईश्वर की कृपा से अब एक नही, अनेक लेखकों के हाथ में है। यदि इस कार्य में किसी को सफलता का यश लेना हो तो कल्पना के भरोसे अच्छी खासी "राम लक्ष्मण की जोडी" तैयार हो सकती है, वाल्मीकीय रामायण के से मर्यादापुरूषोत्तम नही क्योंकि उसमें कल्पना का लेश नहीं, वह उपन्यास नहीं इतिहान है। रामलीला के से राम लक्ष्मण नहीं क्योंकि उसमें भगवान् के चरित्रों की छाया है किंतु आजकल के समय के अनुसार दो भाइयों के जोड़ी, सज्जनों की जोड़ो, धार्मिकों की, लोकोपकारको की जोड़ी की कथा कही जा सकती है ।

अस्तु ! यह इतना अवश्य लिखना चाहिए कि अपनी योग्य संतानो के नीरखकर पंडित, पंडितायिन, कांतानाथ और सुखदा राग में प्रवृत्त नहीं हो गए हैं। कांतानाथ जब छोटे भाई और सुखदा जब छोटी बहू है तब उन्हें औरों के आगे हिंदू गृहस्थी की प्राचीन परिपाटी के अनुसार प्रेम विह्वल हो जाने का अवसर ही क्यों मिलने लगा !दंपती जब अकेले होते हैं तब आपस में आमेद प्रमोद की बातें करते हैं, हँसी दिल्लगी करते हैं और अपने लड़के का प्यार भी करते हैं किंतु भाई भौजाई के समक्ष नहीं, बड़े बूढ़ों के सामने नहीं । कभी बालक का हँसना बोलना देखकर भौजाई के सामने कांता नाथ की कली कली खिल उठती है। रोकतें रोकते वे मुसकुरा भी उठते हैं परंतु प्रियंवदा से चार नजरें होते ही शर्माकर भाग जाते हैं और यदि विनोद में विनोद बढ़ाने के लिये हँसकर उसने बुलाया भी तो "भाभी तुम भी लड़के से हँसी करती हो ! तुम माता के बराबर हो ! तुम्हें ऐसी हँसी शोभा नहीं देती।" कहकर आंखे’ झुका लेते हैं। बस इस तरह की लज्जा से हिंदू गृहस्थ का आनंद है, इसमें भले घर की शोभा है। कुछ इससे बड़ाई नहीं कि धड़ो के सामने, “बेटा, मुन्ना, लाला, रज्जा !" कद्दकर बालक के गालों का चुंबन करें, पति पत्नी हँस हँसकर आपस में बात करें

"खैर ! प्रियंवदा एक साथ दो दो बालकों को निरखकर यदि आनंद में, सुख में मग्र है, यदि वह फूले अंग नहीं सभाती है तो अच्छी बात है। भगवान् ने उसे अतीव अनुग्रह करके वर्षों तक राह तकते तकते ऐसा सुख प्रदान किया है और वह उसका उपयोग करती है किंतु इससे यह न समझना चाहिए कि पह पतिसेवा से उदासीन हो गई है। लोग कहते हैं कि प्रेम में द्विधा विष रूप होती है। परन्तु दोनों प्रेमपात्रों के प्रेम ही दो भिन्न प्रकार के हो तब द्विधा कैसी ! फिर "आत्या वै जायते पुत्र" इन सिद्धांत से जब वह प्यारे पुत्र की चाल ढाल में, रहन सहन में, बोल चाल में और सूरत शकल में स्वामी की छाया देख रही है तब कहना पड़ेगा कि परमेश्वर के अवतार की जैसे छाया अंतःकरण की दूरवीन से देखने पर मूर्ति में दिखलाई देती है और दर्शन होते ही साक्षात् करने का अनुभव हो उठता है वैसे ही वह क्षणा- क्षणा में पुत्र के शरीर में पतिदर्शन का आनंद लूट रही है, किंतु जैसे भगवान् को साक्षात् दर्शन होते ही मनुष्य के मूर्ति की अपेक्षा नहीं रहती उसी तरह पति का दर्शन होते ही वह अपने आपे को भूल जाती हैं, पुत्र को भूल जाती है और सब कुछ भूल जाती है । बस जिधर देखो उधर पति परमात्मा ।

इस तरह यदि पाठक प्रियंवदा में राज का उदय समझ ले तो उनकी इच्छा है। राग स्त्रियों का स्वाभाविक धर्म है । पतित्रत का प्रधान प्रयोजन ही राग है और इस प्रकार का राग ही साध्बी तलनाओं की गति है क्योकि पति को जब वे साक्षात् परमात्मा मानती हैं तब वहां उनकी गति है। जब कीड़ा भौंरे के भय से ही भ्रमर बन्द जाता है तब इस तरह पति की आत्मा में पलो अपनी आत्मा को जोड़ दे तो क्या आश्चर्य! इसी लिये पति पत्नी के दो भिन भिंन शरीर होने पर भी पत्नी अद्वगिनी कहलाती है। यदि ऐसा न हो तो दोनों के शरीर को सी नहीं दिया जा सकता, दोनों को खड़ा चीरकर एक दूसरे से जोड़ नहीं दिया जा सकता!

किंतु पंडित जी स्त्री-सुख में, पुन्न-सुख में और गृहस्वाश्रम में मग्र रहने पर भी 'जल कमलवत' अलग है। समय पढ़ने पर वह यदि राग दिखलाते हैं तो हद दर्जे का और बुरी बातों से उनका दोष दिखलाई देता है तो सीमा तक, किंतु उनके अंतःकरण में न राग के लिये स्थान है और न द्वेष की वहाँ तक गुजर है । जब वह अपने कर्तव्यपालन में पके पंडित हैं तब कोई उनके बर्ताव के देखकर नहीं कह सकता कि वह कच्चे दुनियादार हैं किंतु यदि किसी के पास किसी का मन परखने का कोई आला हो, यदि "एक्स रे" जैसे पदार्थ की सृष्टि से शरीर के भीतरी भाग की तरह मन का निरीक्षण करने की किसी को सामर्थ्य हो तो वह कह सके कि ऊनका अंत:करण इन बाते से बिलकुल कोरा है। उसमें भगवान की भक्ति, प्रभु के चरणारविंदे से प्रेम ओतप्रोत, लबालब भरा हुआ है और कहना चाहिए कि जिस मनुष्य में यह बात हो, ऐसी अलैकिक अनिर्वचनीय अखंड संपदा जिसे प्राप्त हो वह सचमुच ही जीवन्मुक्त हैं, उनके लिये वानप्रस्थ आश्रम की आवश्यकता नहीं, उसके लिये संन्यास कोई पदार्थ नहीं ।

लोकाचार में पड़े रहने से यदि किसी को इस बात की थाइ मिल जाय' तो उनके इस ब्रह्मसुख्य में विन्न उपस्थित हो इसलिये वह अपने मन के भावों को गुप्त रखते हैं। काशी, प्रयाग, मथुरा और पुरी तथा गया की भाँति उनके भक्तिरसामृत का प्याला किनारे तक, सीक उतार भरा रहने से कभी कभी झलक भी उठता है और जब झलक उठता है तब लोग उनके न परखकर उन्हें पागल भी समझ बैठते हैं, किंतु उन्हें इन बातों से कुछ मतलब नहीं । वह इधर दुनियादारी में खूब रंगे हुए हैं और उधर प्रेम सरोवर में

आ हिं०-६ गोते लगाया करते हैं । उनका सिद्धांत यही है किंतु वह अपने मन को ---

"पातालमाविशति यासि नभो विलंध्य
दिल्लमंडलं ब्रजसि मानस चापलेन ।
धांत्या तु यातु विमलं न तुल्मलीन्यं ।
तद्व्रह्म संस्मरसि निवृतिमोष येन ।।"

की रट लगाकर प्रबंध दिया करते हैं।