आदर्श हिंदू ३/५२ अपकार के बदले उपकार

आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ ५७ से – ६६ तक

 
उपकार के बदले उपकार

“भुआ ऐसा भी क्या आदमी जिसने दुःख दे देकर मेरी बेटी का सा डील सुखा डाला !"

“हाँ ! विचारी को न पेट भर खाने को मिलता हैं और न पहनने के अच्छा सा कपड़ा !"

“बेशक ! सूखकर काँटा हो गई। एक एक हड्डी गिन लो ।"

“आदमी नहीं ! भूत है ! जिन्न हैं। राकस है ! पत्थर से भी कठोर !"

"हाँ हाँ ! देखो तो सही गरीब का बदन सूखकर पिंजर निकल आया !"

कार्तिक शुक्ल प्रवोधिनी एकादशी के दिन पंलित जी के मकान पर भगवान के दर्शनों के लिये आनेवाली चार पाँच स्त्रियों ने सुखदा के पास आकर इस तरह उसके साथ सहानुभूति प्रकाशित की । ये औरतें और कोई नहीं, इनकी किसी न किसी प्रकार से दूर की और पास की नातेदार था। उनकी हमदर्दी सच्ची थी अथवा सुखक्षा का मन टटोलने के लिये ही वे आई थीं सो कहने से कुछ लाभ नहीं किंतु पंड़ित काँतानाथ की स्त्री ने उनको उत्तर दिया यह यहां उल्लेख कर देने योग्य है। उसने कहा...

“नहीं जी ! मैं दुबली कहाँ हैं? अच्छी खासी, मोटी सुदंडी हूँ। और खाते खाते ही सूख जाऊँ तो किसी का क्या वश ? और जो दुब्ली भी होऊ, मर ही क्यों न जाऊँ तो किसी को क्या ? मैं बुरी हूं तो (आंखें तिरछी करके, इशारा से समझाती हुई और तब लात से मुंह को आंचल की ओर करके) उनकी हामी, चरणों की घोकर--और भली हूं तो उनकी । वाह हजार मारेंगे और एक गिरेंगे । तुम्हें क्या मसलब ? मारें तो वह मेरे मालिक और प्यार करेंगे तो मेरे मालिक ! भगवान् ऐसा मालिक सबको दे !मेरे स्वामी है । मैंने कभी कुसूर किया तो सजा भी पा ली । तुमको तुम्हारे आदमियों ने मारा पीटा, यहां तक कि (एक की ओर इंगित करके) इनके तो जूते मारकर घर से निकाल दिया था तब मैं किसके पास सुख पूछने गई थी जो आज मेरे पास भली बनकर तुम सब थाह लेने आई हो ? तुम भी क्या करो ? सारा कुसूर इस हरामजादी मथुर का है । इसी ने झूठी भूठी बाते बनाकर मुझे बदनाम कर डाला । मैं फिर भी कहती हूं (मथुरा से) तू अपना भला चाहती है तो अभी घर से निकल जा । नहीं तो जो उन्हें खबर हो गई हैं। अभी तेरी गत बना डालेंगे । आदमी हैं। गुस्सा बुरा होता हैं ।"

इनकी बातचीत किवाड़ की ओट ने कांतानाथ सुन्न रहे थे। किसी के कुछ खबर न हो इसलिये उन्होंने चुपचाप साँस खैंचकर सारी बातें सुनीं । बेशक उनका इरादा नहीं था कि वे इनकी बातों में जाकर दखल देते किंतु मथुर का नाम आते ही इनका क्रोध भड़क उठा। इन्होंने ज्यो ज्यो रोका त्यो त्यो वह अधिक अधिक ज्वाला छोड़ने लगा । किवाड़ के एक ही धक्का देकर खोलते हुए गुस्से से लाल लाल होकर यह भीतर घुसे । इनकी विकराल मूर्ति देखकर सबके होश उड़ गए। वे सब की सब भागी और ऐसी भागी कि किसी का रूमाल गिर गया, किसी का बटुआ गिर पड़ा और यहाँ तक कि किसी की पायजेब निकल गई । इनमें से दो एक उलझ उलझाकर गिर भी पड़ों और एकाध का सिर भी फूट गया किंतु इस भाग दौड़ में मथुर की चोटी इनके हाथ आ गई। वह उसे खैंचकर उसकी लातों से पूजा करने ही वाले थे । उसकी गत बनने में कुछ कसर बाकी नहीं थी । क्रोध बहुत बुरी बला है। हृदय में उसका प्रवेश होते ही बुद्धि भाग जाती है, ज्ञान का नाश हो जाया करता है । इसी लिये अनुभवी विद्वानों ने इसको भूत की उपमा दी है। वास्तव में यदि क्रोध का भूत सवार हो जाने से पंडित जी उसके एकाध हाथ मार बैठते तो जाता । वह चाहे जैसी पापिनी क्यों न हो, उसने इनका कितना ही अपकार क्यों न किया हो किंतु स्त्री जाति पर हाथ उठाना घोर अनर्थ है । खैर किसी तरह के पाप कर्म में प्रवृत्त होते समय जैसे मनुष्य का अंत:करण, उसकी बुद्धि मन का हाथ पकड़ लिया करती है, जैसे एक बार हुआ ऐसा काम ना करने की चि देती है वैसे हो उनके मन के बस लेते हुए, चौकड़ी भरते हुए घोड़े की बाग उसने पकड़ ली । जूते समेत लात और घुसा बंधा हुआ हां क्यों नहीं उठाया तो सही किंतु एकदम कुछ विचार आते ही संभले और इसके शरीर की और देखते ही इनका क्रोध दया में बदल गया---

"राम राम! बढ़ा अनर्थ हो जाता !जाने दो रोड को! परमेश्वर इसे दंड दे रहा है। इससे भी बढ़कर देगा । इसके शरीर में कोढ़ चू उठा। इससे बढ़कर क्या दडं होगा!" कहते हुए इन्होंने अपना हाथ और पैर अमित लिया और वह भी समय पाकर अपनी जान लिए हुए ऐसी भगी कि मुदत तक उसकी शकत भी न दिखलाई दी । कोई वर्ष दो वर्ष के अनंतर यदि वह दिखलाई भी दो तो कोढ़ के मारे उसकी अँगुलियाँ गल गई थीं। तमाम' बदन फूट निकला था । मक्खियाँ काट काटकर उसे कल नहीं लेने देती थी और दुर्गंध के मारे किसी से उसके पास होकर निकलना तक नहीं जाता था । खैर उसने जैसे किया वैसा पा लिया। जो बबूल बोता है उसे काटा ही मिलते हैं, आम नहीं। इन लोगों की भलाई है कि उसके इतने अपकार का बदला उन्होंने उपकार में दिया। जब तक उसके शरीर में प्राण रहे उसके पापी प्राण वास्तव में बड़े ही घोर कष्ट भोग कर निकले, उन्होंने उसके खाने-पीने, पहनने ओढ़ने का और दबा दारू का प्रबंध कर दिया और जब उसका शरीर कीड़े पड़ पड़कर, दम घुट घुटकर बड़ी मुशकिल से घोर नरक यातना भेजकर छूटा तब उसे गड़वा दिया और उसके मरने के बाद उसका कर्म करवा दिया । अपकार के वाले उपकार करने का सही नमूना है, जो जैसा करता है यह वैसा पा लेता है। इसे साबित कर देने के लिये यही प्रमाण है । अस्तु इस बात से इस किस्से का विशेष संबंध नहीं । यदि सबंध भी हो तो विशेष कागज रंगने से पुस्तक की मोटाई बढ़ जायगी । इसलिये इतना ही बहुत हैं । यहाँ यह अवश्य लिख देना चाहिए कि जिसका जो कुछ गिरा था वह आदमी के हाथ से उसके मकान पर भेज दिया गया और जब उसके घरवाले को इस बात की खबर हुई तब उन्होंने अपनी अपनी स्त्रियों की फटकार भी खूब । खैर ! इस तरह जश् मथुर अपनी जान लेकर भाग निकली वतब पति में पत्नी से कहा---

"बेशक, अब तू सँभल गई । इतने दिनों के कठिन ब्रत ने तुझे सँभाल लिया । परमेश्वर ने तुझे बचाया । वही सब की लाज रखने वाला हैं। भाई साहब भी अब शीघ्र ही आने वाले हैं। अब विशेष विलंब का काम नहीं । घबड़ाना मत !"

"यह सब आपके चरणों का प्रताप है ! मेरे तो भगवान् भी आप और पाप भी आप ! नहीं जी ! इतने दिन न घब ढ़ाई तो अब क्या घबड़ाऊंगी? अब वे दोनों आने ही वाले हैं । वे जैसी आज्ञा दे वैसा करने का तैयार हूं । उसने भी अपने उसूलों के लिए मुआफी मांगगी ।"

इतने कहते हुए सुखदा रोने लगी । पति ने धीरज दिलाकर दिलासे के वचन कहकर उनको संतुष्ट किया और तब वह अपने काम काज में प्रवृत्त हुए । ऐसे कांतानाथ अपने काम में लग ही गए तो क्या हुआ किंतु उनके अंत:करण में एक तरह का खटका हो गया। अब उन्हें दो बातों की चिंता थी । एक इस प्रकार की बदनामी उड़ाने कौन कौन हैं और दूसरे हमारे लिये सर्व साधारण की राय क्या है ?जब से वह अधबिच में यात्रा छोड़कर घर आए उन्होंने अपने काम काज में विशेष जी लगाकर, नए नए कम खोलने में प्रवृत्त होकर लेने से मिलने भेटने से मन खैंच लिया था । संसार का मुख्य सुख, यावत् सुखो का केंद्र स्त्री और उसके ऐसे कुकर्म । बस इन बातों को याद करके वह एक तरह दुनिया ही से उदासीन हो गए थे। क्योंकि अपने नित्य और नैमित्तिक काम में दिन रात उलझे रहने के सिवाय यदि वह जरा सा भी अपने जी को किसी तरफ लगाते तो उनके सामने स्त्री के कर्म, उसके दडं इत्यादि बातें आ खड़ी होती थीं । वह अपने भाव' का बहुतेरा छिपाते किंतु जो बात मन में होती हैं मुख उसकी चुगली खा दिया करता है । लोगों से न मिलने जुलने का एक यही प्रधान कारण था । अस्तु, अब उक्त प्रश्नों से उनके अंत:करण को दबाया । अब देवदर्शनों में काम काज में वह लोगों से मिलने लगे । जिनसे राह में भेट होने पर वह कतरा जाया करते थे उनले खड़े होकर बातचीत करने लगे । कान लगा लगाकर इधर उधर की बातें सुनने लगे । परिणाम इसका यह हुआ कि इनके प्रश्नों का इन्हें यथार्थ उत्तर मिल गया । इन्होंने निश्चय कर लिया कि बदनामी करनेवाले की बदनामी है। लोग उन्हीं के जीवन पर थूकते हैं, यहाँ तक कि जे तार देनेवाला था तथा जिसने पुलिस में रिपोर्ट की थी उन्हें कोई भला आदमी पास बैठने नहीं देता है । जहाँ ये लोग जाते हैं वहीं से दुतकारे जाते हैं। यदि यह घटना न होती तो शायद लेागों के मन पर' कतिनाथ की, उनकी सुखदा की बुराहयां बनी रहती किंतु कपड़े की मैल जैसे धोबी की भट्टो में पड़कर उबाले जाने से निकल जाती है वैसे ही इस घटना ने दंपती के चरित्र को स्वच्छ कर दिया, उज्ज्वल कर डाला, यहाँ तक कि इस घर की सज्जनता देखकर जो लोग इनकी बदनामी उड़ाने में थे वे अब पछताते हैं, कितने हो लजा के मारे इन्हें मुंह नहीं दिखाते और कितने ही इनसे क्षमा माँगने को तैयार हैं ।

लेागां का यह ढंग देखकर दो तीन अदमियों ने इनको यहाँ तक सलाह दी कि "ऐसे बदमाशों पर नालिश ठोंककर उन्हें सजा दिलानी चाहिए ताकि आगे से किसी भले आदमी की इज्जत बिगाड़ने की किसी की हिम्मत न हो ।" दस बीस आदमी प्रादालत में जाकर गंगा उठाने को तैयार थे और सबसे बढ़कर पुलिस का रोजनामचा इसके लिए पक्का सुबोध था किंतु यह सलाई ने पसंद न आई । उन्होंने उन लोगों से खुले शब्दों में कह दिया--

“नहीं जी ! यह सलाह अच्छी नहीं। उस दिन मैंने उस आदमी को मारा, इन पर मैं पछताता हूँ। भाई साहब भी मुझसे नाराज होंगे। जैस के साथ वैसा बर्ताव करने में हमारी शोभा नहीं । जिन्हांले बुरा किया है उन्हें परमेश्वर अश्य दंड देगा । देख लेना । और उसे दंड भी न मिले तो क्या ? परमेश्वर उन पर दया करे । यदि बिच्छू भन्ने डंक मारने आदत न छोडे, बेशक वह नहीं छोड़ेगा क्योंकि उसका वह स्वभाव ही है, तो हम उसकी रक्षा करने का काम क्यों छोड़े ? हिंदू उसी उदारता से, ऐसी ही दयादृष्टि से साँप बिच्छू को नहीं मारते और न मारने देते हैं। एक बार एक महाशय जलाशय के किनारे बैठे बैठे संध्या कर रहे थे । एकाएक उनकी दृष्टि जल में पड़े हुए बिच्छू पर पड़ी । उन्होंने जिस हाथ' में लेकर उसे निकाला था बाहर आते ही उसने उसी पर डंक मारा ! डंक मारते ही उनके हाथ से वह जल में गिर गया फिर उन्होंने दया करके उसे निकाला किंतु फिर डंक मारे बिना उससे न रहा गया । यो उन्होने जैसे उसे निकालना न छोड़ा वैसे उसने भी उन्हें डंक मारना न छोड़ा । जय ऐसे ऐसे उदाहरण हमारे सामने विद्यमान हैं, जब घोर कलिकाल में भी हम ऐसी ऐसी अनेक घटनाएँ देखा करते हैं तब हमें चाहिए कि हम सजनता का, भलाई का और क्षम्म करने का अनुकरण करे ।"

कांतानाथ की इन बातों ने उन लोगे का हृदय पिघला दिया। चारों ओर से वाह वाही का डंका बजने लगा, शाबाशी की अवाजें आने लगी और धन्यवाद की बैीछारे प्रारंभ हो गई । उनकी दयालुता, उनकी क्षमाशीलता और उनका उदार हृदय देखकर सचमुच ही जो लोग उनकी बदनामी करने में अगुआ थे वे पछताए । उनके मन पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने कांतानाथ के चरणों में सिर रक्खा । “तुम्हारा कुछ दोष नहीं । समय पर ऐसी ऐसी चूक बड़ो बड़ो से ही पड़ती हैं। दोष हमारे नसीब का है। मैं तुम्हारा समस्त अपराध क्षमा करता हूँ । पाप का प्रायश्चित्त पश्चा ताप ही है। इससे बढ़कर कोई नहीं, । तुम अपने अंत:करण से कर रहे है । तथापि यदि हो सके, हो ही सकेगा, तो सवा लक्ष गायत्री का जप करना । इससे बढ़कर कोई प्राय नहीं ।" यह कहकर जब उन दोंनों को बिदा करने लगे तब इनकी पड़ेसिन बुड़िया ने, जो कुँए की आवाज का लंक पीटनेवाली थी, इनके पैरों पड़कर कहा---

“आप चाहे मारे' चाहे निकालें । आपका मुझसे बहुत बड़ा कुसूर हो गया । मैं ही इस झगड़े की जड़ हूँ। मैंने मथुरिया के बहकाने से, उससे एक रुपया पाने के लालच

आओ हि़----५ में आकर, झूठभूल जाहिर कर दिया । मैं न तो उस रात अपने मकान में सोई और न कोई धमक्का सुना । नाराज होते होते चाहे ये दोनों मेरी जान ही क्यों ना ले डाले',आगे पीछे मुझे मरना ही हैं, अब जीकर कहाँ तक चक्की पीसती रहूँगी, परंतु सच कहती हूं । इस राँड़ मथुरिया का इन दोनो में ऐसा ही वास्ता है । मैं क्या कहूँ ? आपकी बदनामी इन तीनों की गोष्टी में हुई है। झूठ मानो तो इनसे पूछ देखो । इस पर उन दोनों ने अपना अपराध स्वीकर किया। कातांनाथ हें उनका अपराध अवश्य क्षमा कर दिया परंतु विर दरीवालों ने उनको, और बुढ़िया के जाति बाहर कर दिया । इसके अनंतर क्षय से, कोढ़ में, अन्न बिना तरस तरस कर उन लोगों की मौत हुई सो लिखकर किस्सा बढ़ाने की आवश्यकता नहीं ।