आदर्श हिंदू ३/४९ समुद्र स्नान की छटा

आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ २६ से – ३४ तक

 
समुद्र स्नान की छटा

आज इन लोगों को पुरी में आए ठीक दस दिन हो गए । शरीर कृत्य, स्नान् संध्यादि और खाने सोने के सिवाय इनका सारा समय जगदीश के दर्शन ही में व्यतीत होता है । ये लोग दिन रात भक्तिरसामृत का पान करते तो हैं किंतु अधाते नहीं । इनकी इच्छा नहीं होती कि श्री चरणों के छोड़ कर घर का नाम ले ! इन्होंने यहां आकर पुरी के यावन् तीर्थों का स्नान कर लिया,समस्त मंदिरों के दर्शन कर लिये और हमारी इस पंडित पार्टों ने श्री जगदीश-माहात्मय भी चित्त की एकाग्रता के साथ सुना । माहात्म्य श्रवण करने में इस पार्टी के अतिरिक्त वे दो यात्री और भी संयुक्त हो गए थे। पंडित जी और गौड़बोले विद्वान थे । “धृताधारे पात्रं वा पात्राधारे धृतं" करनेवाले शुष्क नैयाधिक नहीं,वेदांत की फक्किकाएं रट रटकर माथा खाली कर देनेवाले और संसार को तुच्छ समझ- कर,अकर्मण्य हो जानेवाले वेदांती नहीं,साहिय शास्त्र का मथनकर बाल की खाल निकालने के साथ केवल प्यारी के,नायिका के चरणों में लोटनेवाले रसिक वनकर कुएं के मेंढक बननेवाले साहित्य -चार्य नहीं,अश्विनी,भरणी और कृत्तिका तथा मीन,मेष, वृष का अँगुलियों की पोरों पर योंही अटरम सटरम गिनकर यजमान की प्रसन्नता के लिये मिथ्या मुहूर्त बतानेवाले ज्योतिषी नहीं और प्रश्नकर्ता की इच्छा के अनुसार हां में हां मिलाकर कभी स्याह की सफेद और कभी सफेद की स्याह ब्यवस्था देकर व्यवस्था की मिट्टी खराब करनेवाले धर्मशास्त्री नहीं और सबसे बढ़कर यह कि व्याकर के बल से बेद मंत्रों का अर्थ बदलकर, उनमें जो अश अपनी राय के प्रतिकूल हो उसे जो क्षेपक बतला कर वेदों में रेल और तारों का सब्ज बाग दिलाने वाले आजकल की नई रोशनी के पंडित नहीं । ये लोग ऐसे पंडितों के कार्यों पर घृणा करते थे और इनकी दुर्दशा देख देखकर दुःखित भी कम नहीं होते थे । इसमें संदेश नहीं कि पंडित जी की थोड़ी और बहुत गति सब शास्त्रों में थी और जितना उन्हाने पढ़ा, जितना उन्होंने भनन किया वह सार्थक था। केवल इतना ही क्यों ? वह अंगरेजी के अच्छे विद्वान् थे और भारतवर्ष की प्रचलित प्रायः समस्त प्रांतीय भाषाओं का भी ज्ञाने उन्हें कम नहीं था ।।

बस इनको ऐसा विद्वान्, ऐसा गुणवान् देखकर उन दोनों यात्रियों ने समझ लिया कि जहाँ तक बन सके इनसे पूछ पूछकर अपने संदेहे के निवृत्त कर लेना चाहिए । इसी उदेश्य से जब तक पंडित जी पुरी तरह से रहे उन्होंने इनका पिंड न छोड़ा । उन्होनें समय समय पर सवाल पर सवाल पूछे और जो पूछे उसका संतोषजनक उत्तर पाया । उन यात्रियों का नाम हरिभक्त और बानीराय था । देनों ही राजपूताने में मारवाड़ के रहने वाले वैश्य थे । अन्यान्य प्रश्नों के साथ का एक प्रश्न ऐसा था जिसका संक्षेप से यहां उल्लेख कर देना चाहिए । “श्री जगदीश माहात्सय" सुनकर उन्होंने पंडित जी से पूछा---

"महाराज, पुराणों में ऐसी असंभव बातें क्यों भर दी गई है जिन्हें सुनकर शिक्षित समुदाय उन्हें कपोल कल्याण समझ रहे हैं?"

“नहीं ! कपोलकल्पना बिलकुल नहीं । उनका अचार अक्षर सत्य हैं । जो बात अपनी समझ में न आये उसे मिथ्या वतल देना मूर्खता है, सूर्य पर धूल फेंकना हैं। पुराणों में दो प्रकार की कथाएं हैं । जो लोगों को असंभव मालूम होती है उनमें अध्यात्म है । भागवदाज्ञा में “पुरजनोपाख्यान" इसका नमूना है। वेद भगवदाज्ञा है,संसार के लिये एक ऐसा कानून है जिसका कभी परिवर्तन नहीं और पुरात उसके दृष्टटांस हैं,उदाहरण हैं,हाईकोर्ट की सी नजीरे हैं ! माता के स्तनों पर बालक भूख लगा पय पान करता है। किंतु वह जोंक के लगने पर दूध के बदले रक्त निकलता है । यह बात जुदो है, किंतु जो बाते उनको आज असंभव दिखलाई देती हैं वे समय पाकर संभव भी तो सिद्ध हो रही हैं । जैसे आजकल बेलुन ने सिद्ध कर दिया कि देवताओं के विमान सच्चे थे । हमारे शिक्षित समाज में सबसे प्रबल दोष यह है कि जब तक पश्चिमी विद्वान् उन्हें न समझावे कि तुम्हारे शास्त्रों में अमुक बात अच्छी है तब तक वे उस अच्छी को भी बुरी मानकर उससे घृणा करते हैं, उसकी निंदा करते हैं और पानी पी पीकर उसे कोसते हैं । "

“हाँ महाराज सत्य है । अब हमारी समझ में आया । आप ठीक कहते हैं ।” ये कहकर उन्होंने पंडित जी का पिंड छोड़ा। तब से उनका इस किस्से से संबंध नहीं रहा और न इसलिये उनके विषय में कुछ लिखने की आवश्यकता रही । अस्तु अब पंडित जी प्रभृति यहाँ के देवदर्शनों से विभृत हो गए । अब उनके लिये केवल एक ही काम शेष रह गया। उस कार्य के भी उन्होंने समय निकालकर कभी का निफट लिया होता परंतु जब शास्त्र की आज्ञा है कि पवणी में बिना समुद्र स्नान नहीं करना चाहिए तब उन जैसा धार्मिक यदि पर्वणी की राह देखता हुआ वहाँ ठहरा रहे तो इसमें प्राचरज क्या ? फिर जितने दिन अधिक ठहरना हो उतना ही पंडित जी का लाभ और पवर्शी को भी अधिक दिन नहीं फिर यदि उसके साथियों ने शीघ्र चलने को तकाजा भी किया तो वह समुद्र-स्नान का लाभ छोड़नेवाले व्यक्ति कहाँ ?

खैर ! आज कार्तिक कृष्णा अमावस्या है। दिवाली से बढ़कर परव कौन है ? आज शीध्र ही उठकर ये लोग स्नान संध्या से निवृत्त होकर श्री जगन्नाथ जी की मंगला की झांकी करने के अनंतर समुद्र में गोता लगाने गए । और तीर्थों की तरह यहां यात्रियों की भीड़ नहीं, मुँड़चिर भिखारियों का जमघट नहीं और यहां तक कि यदि यह लोग किसी को एक पैसा देना चाहे तो कसम खाने के लिए कोई लेने वाला ना मिले। इस सुविस्तीर्ण महासागर के तट पर कोई घाट नहीं,किनारे किनारे मीलों तक चले जाइए, बस्ती से कोस दो कोस जहां तक जी चाहे चले जाइए और जहां जगह अनुकूल दिखाई दे मन भर कर स्नान कर लीजिए। घर से चलते चलते दर्शन करते करते, उटावड़ करते-करते इन्हें देरी भी बहुत हो गई। ये लेग ऐसे समय में पहुंचे हैं। जब समुद्र देवता अपनी विशाल विशाल लहरों का उछाल' उछालकर घरघरआहट की विजय दुंदुंभी बजाते, वायु भैया की सहायता पाकर किनारे पर फटकार का अस्त्र चलाते टकराकर लैट जाते हैं। जहाँ अभी तक रेणुका की राशि पर राशि है वहाँ एक मिनट में जल ही जल । किंतु यह चिरस्थायी नहीं । लोग सच कहते हैं कि समुद्र के "पाल नहीं कार है ।" अथवा यो कहो कि जा पृथ्वी से उसकी पीरी नहीं चलती तब यों ही मन मारकर लौट जाता है। अस्तु ! और कुछ न हो तो हमें समुद्र से दो बातो की शिक्षा अवश्य लेनी चाहिए। एक यह कि “क्षमाखङ्ग' करें यस्य दुर्जना: किं करिष्यति और दूसरी यह कि यदि समुद्र की तरहू हमें हजार बार किनारे को पार कर देने में आकर निष्फत लौट जाना पड़े तब भी निराश नहीं होना चाहिए । पृथ्वी क्षभा की मूर्ति है । क्षमा ही की बदौलत सागर जैसा बलवान पड़ोसी उस पर आक्रमण पर आक्रमण करते रहने पर भी उसकी एक अंगुल जमीन नहीं ले सकता । जो मुठभर्दी से छीन लेता है उसे उसके भख मारकर ब्याज कसर के साथ लैादा देना पड़ता है ।।

'समुद्र के किनारे खड़े होकर पंडित जी के मन में ये ही भाव पैदा हुए और, इस तरह जो उन्होंने पाया उसे कंजूस के धन की तरह छिपाया नहीं । जो कुछ पाया उसे औरों को दे दिया किंतु विद्यादान, शिक्षादान जैसे औरे के देने से बढ़ता है वैसे ही पंडित जी के अनुभव के खजाने में भी एक की वृद्धि हुई ।

अस्तु ! यहाँ और विशेषकर झाटे के समय स्नान करना हँसी खेल रहीं। समुद्र-राज्य और ऐसे एकांत को याद करके प्यारे पाठक यह ना समझलें कि दंपती ने मैदान पर खूब जलविहार किया होगा, खूब हेलियाँ खेली होगी । जहाँ जल में घुसते ही लहरों के जोर से पैर तले का रेला खिसकता है, जहाँ दस पंद्रह हाथ' की मोटी लहर स्नान करनेवाले के माथे पर हाथ फेरती हुई उसे जलमग्न करके किनारे की ओर ढकेलती और आदमी को चित्त गिरा देती हैं वहाँ यदि प्रियंबदा डर के मारे जल में घुसने से धबड़ाती है। तो आश्चर्य नहीं। बड़ी देर तक समझा बुझाकर उसका भय छुड़ाने के अनैतर किनारे से कोई पाँच छः हाथ आगे बढ़कर उसने स्नान किया और तब भीगे हुए कपड़े के इधर उधर से खैंचकर अपनी लज्जा छिपाती हुई वह मथुरा की घटना याद करके कभी शर्माती और कभी पछतावी, यहाँ निर्विन्न स्नान जाने से मुद्रित होती हुई बाहर निकली । ऐसे ही जब सब लोग स्नान कर्म से निवृत हो चुके तन पंडित जी बोले ----

"ओहो ! बड़ा गंभीर है। जिधर आँखें फैलाओ उधर मिलो तक, दृष्टिमर्यादा तक जल ही जल ! जया क्या है मानो जल का एक पहाड़ खड़ा है ! किनारे की भूमि के अवश्य ही नीचा होना चाहिए। नीचा है तब ही धुरी के अपनी ओर खैंचकर जलग्न नहीं कर देता किंतु इन धर्मचक्षुओं से पहाड़ के समान ऊँचा दिखलाई दे रहा है। यह नीचा हो चाहे उँचाई में आकाश तक ही क्यों न पहुँच जाय, यह देवताओं का पूज्य और नदियों का स्वामी भी क्यों न हो। ्र्र््र्र्््र्र््््र्र्र््र्र्््र्र्र्र््र्र्््र्और सूर्य भगवान् भी इसी से जल लेकर मेह झयों न बरसावे किंतु बड़ा ही मंद भी है। भगवान् के चरणों के निकट बस.. कर संसार सागर से पार कर देने वाले पादपघो का दर्शन नहीं पा सकता। शायद सागरत्व का इसे घमंड हुआ था। उस समय भगवान् रामचंद्र के बाणों की मार से इसकी अकल टिकाने आ गई थी। तीन चुल्लुआओं में महासागर का पान करके महर्षि अगस्त जी ने इसका अभिमान गुंजन कर दिया । और तो और एक शुद्राति हुई क्षुद्र पतों के अंडे तक को यह न बहा ले जा सका। मानो इस तरह यह पुकार पुकार कर कह रहा है कि एक अतुल ऐश्वर्यशाली, पदम परक्रमी और बलवान् होने पर भी जब ईश्वर के चरणों के दर्शन पाने से वंचित हैं तब मैं किसी काम का नहीं । मेरे घमंड को चूर करने के लिये ही मेरे विशाल बक्षःस्थल पर जहाज दौड़ाए जाते हैं। मेरे अभाग्य में केवल इतने ही सौभाग्य का चिह्न समझो जो किसी सुकृत के फल से मेरे मोती प्रभुचरणों तक पहुँच जाते हैं और इसी का यह फल है कि पर्वणी पर लोग मुझमें आकर स्नान करते हैं। नहीं तो मेरा खारा पानी न किसी के पीने के काम आता है और न नाना प्रकार के पदार्थ पैदा करने के ।"

बस इसी प्रकार की कल्पनाएँ करते और उन्हें साथियों को सुनाते पंडित जी घर गए । मार्ग में उड़ियों के शरीर से तेल की दुर्गध, मरी हुई मछलियां की खरीद फरोख्ल और उनकी दुर्गधि के मारे सिर फटा पड़ने की दुहाई देकर नाक पर कपड़ा लगाए चले जाने से लोगों ने पंडित जी से शिकायत भी कम न की किंतु उस समय वह गले में उपवीत डाले एक ब्राह्म का मछरियाँ खरीदते देखकर मन ही मन घबड़ा रहे थे, पछताते जाते थे और उनका ऐसा पाप कर्म देखकर उन पर क्या करने जाते थे । इसलिये उन्होंने किसी की शिकायत पर कान न दिया । मकान पर पहुँचकर थोड़ा सुस्ता लेने के अनंतर उन्हाने इतना अवश्य कहा कि---

“बाबा का यहाँ यदि मंदिर न होता तो कदाचित् भारतवर्ष के धार्मिक हिंदू इसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। विहार को गया और मिथिला ने पवित्र किया और उड़ीसा

अ० हिं०---३ को बाबा ने। इतिहास से, पुराणों से इस बात का पता लगाया है कि पहले ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया में हिंदुओं का राज्य था । जब तक वहाँ वणाश्रङ्ग धर्म का पालन होता था तब ही तक हिंदू वहाँ जाते ते थे । जब उस ओर श्त सनातनधर्म निर्वाह न देखकर वहाँ गोबधादि धर्म नाशक कार्य होते देखे तब ही प्राचीनों का अटक नदी के पार उतरने का निषेध करना पड़ा । विलायत जाने में लोग समुद्र-यात्रा की बाधा बतलाते हैं । यह भी बाधा सही है परंतु मैं इसे उतनी जोरदार नहीं समझता ! मैं मानता हूँ कि वह भूमि गोवधादि देषों से युगयुगांतरों में अपवित्र हो गई हैं इसलिये धर्मशास्त्र के मत से वहां का जाना अनुचित है भारतवर्ष में भी इसी कारण अकाल पर अकाल पड़ते हैं ।"

पंडित जी का इस विषय में जो मत था उन्होने अपने साथियों के संक्षेप से सुना दिया और गौड़बोले ने उनके कथन का अनुमोदन भी किया। दर्शन करने से अवश्य मन नहीं भदता किंतु यों ही करते करते चलने का दिन निकट आ गया । अब निश्चय हुआ कि जे कुछ कार्य अवशिष्ट है उसे एक दो दिन में निपटाकर यहाँ से विदा होना चाहिए। चलने की औरों का उतावल न थी । केवल तकाजा बूढे भगवानदास' का था । बस उसी के तकाजे से इन्होंने वहाँ से चलने की मंसूबा किया ।