आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ५२ से – ६० तक

 

प्रकरण--२९
घर की फूट

"बाबा को गए हुए अभी 'जुम्मा जुम्मा आठ दिन' हुए है। गया भी वापिस आने के लिये है। मर थोड़े ही गया है ओर न लौट आये। हट्टा कट्टा है। बहुतों को मारकर मरेगा। और रामजी उसे बनाए रखे। उसके जीने ही में भला है। 'बुढ़िया ने पीठ फेरी और चर्खे की हो गई ढेरी।' इतने ही दिनों में जब चौपट हो रहा है तब उसके सौ वर्ष पूरे होने पर न मालूम क्या गति होगी।" इस तरह करते हुए पनघट के कुएँ से घड़ा खैंचती हुई एक लुगाई जब ठंढी ठंढी आह खैंचकर रोने लगी तब दस बारह पनिहारियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया। जिसके सिर पर भरे हुए घड़े का बोझा था वह वैसे ही खड़ी रह गई। जो पानी खैंच रही थी उसने खैंचना छोड़कर कान उधर और आँखें डोल की और लगाई। सबका काम हाथ का हाथ में, डोल कुएँ में और बरतन कंधे पर रह गए। "हैं हैं! क्या हो गया? गजब क्या हुआ? कह तो सही बोर हुआ क्या?" कह कह- कर सवाल पर सवाल पूछे जाने लगे। किसी ने उस औरत से सास का, किसी ने बहू का, किसी ने ननद और किसी ने भौजाई का नाता निकालकर उसके साथ सहानुभूति दिख-

लाई। समय के फेर से चाहे भारतवासियों के दिल से हमदर्दी भाग गई हो, चाहे उनमें आपस के लड़ाई झगड़े बढ़कर अदालतों की आमदनी ही दिन रात साहूकार के कर्जे की तरह बढ़ती बढ़ती हद तक क्यों न पहुँच जाय परंतु गाँवों में अब तक नीच ऊँच की, धनवान् दरिद्र का विचार छोड़कर आपस में एक दूसरे से किसी न किसी रिश्ते नाते ही से बोलते चालते हैं। यदि जाति का चमार हो ते कुछ हर्ज नहीं। बूढ़ा होना चाहिए। ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर और गांव के जमींदार नंवरदार तक उससे बाबा कहेंगे और एक छोटी बड़ी औरतें उसके आगे घूँघद निकाले बिना, अदब के कपड़े पहने बिना कभी न निकलेंगी। यही गाँवों की परिपाटी है। यदि इस बात को कुछ सुधारकर बढ़ाया जाय तो उनमें परस्पर हमदर्दी बढ़कर गांवों की बहुत उन्नति हो सकती है और राजा प्रजा दोनों ही का इसमें लाभ है।

मुफ्ती में रहकर बूढ़ा भगवानदास जब सबसे पहले सिर के बल सब ही छोटे मोटे के काम आने में तैयार था, अब वह सब ही के दुःख दर्द का साथी था और जब सब ही के ऊपर की धाक थी तब गाँव की दस बारह औरतों ने यदि सेवा की बहू के साथ इतनी हमदर्दी दिखलाई तो इसमें में अचरज क्या है? मनुष्य जितना किसी के कोप से नहीं डरता, जितना विपत्ति से नहीं घबड़ाता और जितना उसकी पुकार न सुनने पर नहीं रोता उतना हमदर्दी का सहारा पाकर उसका

हृदय भर आया करता है। बस सेवा की बहू की यही दशा हुई। पनिहारियों के पूछते ही वह फूट फूटकर रोने लगी। उसकी आँखों से सावन भादों की सी आँसुओं की झड़ी लगकर उसके गालों पर बहकर अँगिया भिगोती हुई कलेजे को ठंढक पहुँचाने लगी। उसकी घिग्घियाँ बँध गई। अब वह जाड़े के मारे काँपने लगीं। अच्छा हुआ कि दो औरतों ने उसे गिरते गिरते सँभाल लिया नहीं तो कुएँ में पड़ जाने में कुछ कसर नहीं रही थी। किसी ने अपने घड़े में से दो चुल्लू पानी लेकर उसकी आँखें छिड़कीं और कोई अपने अंचल से उस पर हवा करने लगी। ऐसा करने से जब थोड़ी देर में उसके होश कुछ ठिकाने आए तब वह इस तरह कहने लगी कि --

"मैं अपना दुखड़ा क्या रोऊ वीर! कहने से घर की बात बिगड़ती है! जब से वे लोग गए हैं उनकी कोई चिट्ठी नहीं आई। मैं तो इस फिकर के मारे पहले ही मरी जाती हूँ। फिर जब से यहाँ से बाबा गए, कोई किसी की नहीं सुनता। जिसके जी में जो आता है वही करता है। कहाँ तक कहूँ । आठ बजे तो सोते ही उठते हैं, मन में आया काम किया और मन में आया न किया। खेत सूख जायँ तो कुछ पर्वाह नहीं। चूल्हे पर रखा हुआ दूध जलकर राख हो जाय तो हो जाय। घर में से जो कोई चीज उठा ले गया तो ले जाने दो। किवाड़ा खुला पड़ा है। इस बारह दीनों में तीन

बीसी रूपयों के नुकसान हो गया और आया छदाम भी नहीं। किसी से कुछ कहा जाता है तो वह खाने को दौड़ता हैं। जरा सी बहू बेटियों को धमकाया तो उनके अदमी सिर फोड़ने को तैयार होते हैं। बच्चे रसोई में जूती फेंक दे। चौके में उतर ही क्यों न जायँ, पर खबरदार किसी ने उनकी ओर आँख भी निकाली तो । जो कहीं किसी को समझाया तो वह तुरंत अपनी जोरू बच्चों को लेकर जुदा होने को तैयार। गालियाँ (अपने आदमी के लिये इशारा करके कुछ लजाली हुई) खाते खाते दिन भर कान के कीड़े झड़ा करते हैं। सुनते सुनते उकता गई। इस दु:ख से तो रामजी मौत दे दें तो छूट्टँ। अभी छोटी देवरानी की छोटी ने दही की तमहेड़ी लात मारकर फोड़ डाली। छोटी क्या है एक अफत है । ससुरालवालों में जनम भर गालियाँ न दिलवावे तो मेरा नाम फेर देना। आफत के मारे उनके मुँह से कुछ निकल गया। निकल भी जाय। अदमी है। घर का नुकसान होता देखकर निकल गया। बाबा उन पर ही घर का सारा बोझा डाल गए हैं, इसलिये उन्होंने एक हलकी चपत मारकर कह दिया। कहा भी क्या था? कोई गाली थोड़े ही दी थी। यों ही जरा सा धमकाया था। बस आफत आ गई। देवरानी को अपने ससुर के बराबर जेठ के सामने होते शर्म आई। औरत क्या है बोकड़ा है। ऐसी गालियाँ सुनाई हैं कि एक एक मेहर की। उसक आदमी बाहर से आया

सो बस मारता कुटता ही। पहले तो अपने बाप के बराबर, भाई के लकड़ी मारी और फिर छोटो को मार मार कर गिरा दिया। बहन, मुझसे देखा नहीं गया इसलिए भाग आई। रामजी ऐसे जीने से तो मौत दे दे। हाय! अब क्या करूँगी ?

सेवा की बहू की रामकहानी सुनकर जब सब ही औरतें "हाँ बहन ! सच है! हाँ बीर सच है!" कहकर उसकी हाँ में हाँ मिल रही थीं तब घर से भागे हुए तीन चार बालक आए। ताई चल! म्ममी चल! अम्मा चल!!" कहकर किसी ने उसका लंहगा पकड़ा किसी ने साड़ी और कोई हाथ पकड़कर उसे खैंचने लगा और तब ही "हाय हाय! क्या गजब हो गया? मुझ मुई के क्यों बुलाने आए।" कहती हुई जल का घड़ा सिर पर उठाए वह घर पहुँची। वहाँ जाकर देखती क्या है कि उस की आफत की परकाला लड़की का बाप देवा, सेवा की टाँग पकड़कर खैंचता जाता है और यि ही गोलियों के गोले बरसाना जाता हैं। बिचारे सेवा का कुसूर यही है कि उसने देवा की इकलौती लाड़ली छोरी से कहा सो कहा ही क्यों? लड़की बेशक लाड़ली थी और सो भी इसलिये कि उसकी अटपटी बातों से कुछ चटपटापन पाकर बूढे बाबा ने उसका नाम ही मिरची रख दिया था। मिरची थी तो जरा सी पर इधर की उधर झूठी सच्ची मिड़ा देने में बड़ी बहादुर थी। आज उसने अपने मा बाप से कह दिया है कि "ताऊजी जूते मारकर तुम दोनों को निकाल देंगे। यही

उन्होंने मेवा ताऊ से कहा है।" बस इतना सुनते ही आग लग गई।" वर हमारा और हमारे बाप दादा का। मजूरी करते करले तो हम मर रहे हैं। और यह साला हमें निका- जानेवाला कौन?" ऐसा कहकर देवा सेवा को, जो उससे उमर में बीस वर्ष बड़ा होगा, निकाल देने के लिय घसीट रहा है। इस दशा को देखकर सब बच्चे चिल्लपों मचाने लगे तब मेवा ने उनके एक एक चपत जमाई। बच्चे चुप होने के बदले अधिक अध क रोने लगे और उनके रोने में सेवा की बहू ने भी साथ दिया। जिन बच्चों ने मेवा की चपते खाई थी उनकी महतारियाँ लड़ने को दौड़ी आई। औरतों को लड़ती देखकर उनके खसमों ने वे समझे बूझे गालियाँ देना आरंभ किया। बस इस तरह घर में ऐसा कुहराम मचा कि काम पड़ी बात भी सुनना बंद हो गया।

बस बात की बात में गाँव के चौकीदार आ गए। उन्होंने आकर सेवा, मेवा और देवा को गिरफ्तार किया। गिरफ्तार करते ही जो गोलियोँ की गोलियाँ अपने देवर जेठों पर, दिव- रानियों जिठानियों पर चलाने के लिये तैयार की गई थीं उनसे चौकीदारों की खबर ली गई। यों तो बूढ़े भगवानदास के दबाव से अथवा संकोच से ही सही, चौकीदार उन्हें समझा बुझाकर छोड़ भी देते परंतु जब उन पर ही गालियाँ पड़ने लगीं तब उन्हें गुस्सा भी आना ही चाहिए। बस उन्होंने तीनों की भुशकें कस लीं। घर के चार पाँच आदमी और

आठ सात औरतों को घेरकर आगे कर लिया और यों वे थाने की ओर रवाना हुए। बस कानों कान यह खबर बस्ती भर में फैल गई। एक भले घर की बहू बेटी का थाने में जाना सुनकर बस्ती में जो भले आदमी थे उनका माथा उनका किंतु जहाँ गाय है वहाँ ढेडवाड़ा भी होता है। बस्ती में पचास भले थे तो दो चार बुरे भी थे। बस जो बुरे थे ने तालियाँ पीटने लगे। किसी ने कहा -- "देवा की बहू के साथ सेवा ने किसी को देख लिया बस इसी की लड़ाई है।" और कोई बोला -- "किसी को क्या? मेवा को!" कोई कहने लगा -- "वह क्या आज से है? मुद्दत से।" और किसी ने कहा -- "वह तो अपने पीहर से ही बिगड़ चुकी है।" बस बात की बात में बात का बतंगड़ बनकर धूल हो गई। जो पनिहारियाँ थोड़ी देर पहले सेवा की बहू के साथ हमदर्दी करने में थीं वे ही अब नाक पर अँगुली रखकर इस घर की बदनामी करने लगीं, पानी पी पीकर कोसने लगीं और गीत जोड़ जोड़कर कवियों में अपने नाम लिखवाने लगीं।

बूढ़ा भगवानदास जानता था कि उसके लड़कों की अकल चरने गई है। उसे संदेह भी था कि ये आपस में कहीं लड़ न पड़ें। इसलिये वह सबको इकट्ठा करके अपने मित्र पन्ना के सिपुर्द कर गया था। इसमें संदेह नहीं कि यदि पन्ना गाँव में होता तो इतना झगड़ा ही न बढ़ने पाता। प्रथम तो वे लोग ही आपस में लड़ मरने के बदले पन्ना के पास पुकारू

जाते और जो न जाते तो कान में जरा सी आहट पाते ही वह रस्सा तोड़ दौड़ा हुआ आता। उसका वर भी इनके मकान से दूर नहीं था और जब से भगवनिया गया, वह दिन में चार पाँच बार आ आकर सँभाल जाया करता था। बात यह हुई कि पन्ना किसी आवश्यक काम के लिये कहीं गया था और इस झगड़े से तीन चार घंटे पहले इन सबको समझा- कर गया था। जब वह सामने से सीधा भगवानदास के मकान पर आया तो यहाँ इस तरह की लीला देखकर एक- दम हक्का बक्का रह गया। विपत्ति के समय जैसे परमेश्वर के दर्शन हों उस तरह पन्ना को देखकर सबके सब रो पड़े। उसने सबको ढाढ़स दिलाकर असली भेद जाना और चौकी- दारों को एक ओर ले जाकर न मालूम उनके कान में क्या मंत्र पढ़ दिया कि उन्होंने फौरन ही तीनों की रस्सियाँ खोल दीं। चौकीदारों ने जिन जिन को पकड़ा था, जिन जिनकी शिकायतें थीं उनका राजीनामा जेब में डालते हुए चौकीदार राजी होकर अपने घर गए और भगवानदास के बेटे बहू रो धोकर अपने घर गए। पानी के चार छीटे लगते ही दूध का उफान जैसे बंद हो जाता है, वैसे इनका झगड़ा मिट गया। जैसे सिंह की एक ही गर्जन से स्यार डर के मारे अपनी माँदों में जा छिपते हैं वैसे ही जो इनकी बदनामी करनेवाले थे वे अपने कानों पर हाथ लगा लगाकर अपने अपने घरों में जा लुके।

जब इस तरह की शांति हो गई तब पन्ना भगवानदास

के लड़कें बहुओं को सुनाकर उनके घर के भीतर चवूतरे पर बैठा हुआ, हुक्का गुड़गुड़ाते गुड़गुड़ाते उनसे कहने लगा --

"चार ही दिन में तुम लोगों ने अपने पोत दिखला लिए । जिस दिन भगवान भैया आँखें मुँदेगा उस दिन तुम्हें कोई ठोकरे में भीख डालनेवाला भी न मिलेगा। तुममें इतनी भी अकल नहीं है? अपने ही हाथ से अपनी फजीती कर डाली। हमें क्या? हम तो वर्ष दो वर्ष के पाहुने हैं। भोगोगे अपनी करनी को और याद कर करके रोओगे! क्या तुम्हारा बाप सदा ही जीता रहेगा? चार पाँच बच्चों के बाप हुए अब तो कुछ शऊर सीखो। क्यों रे देवा! तेरी ऐसी मजाल जो तू अपने बाप के बराबर बड़े भाई को मारे? और कहाँ गई देवा की बहू! वही सब झगड़े की जड़ है। और बस्ती भर में उसी को लोग थुकते हैं! जिस दिन सुनेगी भली होगी तो जहर खाकर सो रहेगी! और कहाँ है वह मिरची! पकड़ ला रे मेवा! उसे पकड़कर मेरे सामने ला। मैं लगाता हूँ उसे जूते जिससे फिर नारद विद्या भूल जाय।"

"हाँ चाचाजी सच है! हाँ साहब सच है!" कहकर सेवा, मेवा और देवा ने अपनी गर्दनें झुका लीं। देवा की बहू ने जब खबर पाई तो बेशक उसे मरने के समान कष्ट हुआ। पन्ना की फटकार से देवा और देवा की बहू ने सेवा के पैर पकड़- कर क्षमा माँगी और जो जो गालियाँ देने में थे वे सबके सब लज्जित हुए और इस तरह बूढ़े के आने तक बंधी बुहारी रह गई।