आदर्श हिंदू २/प्रकरण-३६ प्रियंवदा का सतीत्व

आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १२२ से – १३० तक

 

प्रकरण--३६
प्रियंवदा का सतीत्व

तेंतीसवें प्रकरण के अंत में पंडित प्रियानाथ की प्राणप्यारी प्रियंवदा को माधवराध के घरहरे के निकट सं जब चार लठैत गठरी बांधकर ले गए तब अवश्य सूर्यनारायण के अस्ताचल विश्रांतगृह में चले जाने से अँधेर ने अपना डेरा- डंडा आ जमाया था और इसलिये उसकी ऐसी दशा देखने का किसी को अवसर ही न मिला, तब यदि उसकी रक्षा के लिये कोई न आ सका तो लोगों का दोष क्या? किंतु जो प्रियं- वदा सतीत्व का इतना दम भरनेवाली थी जिसका सिद्धांत ही यह था कि जब तक पति विद्यमान रहे तब तक जीवित रहना और मरते ही मर जाना, पति के सुख में अपना सुख और उनके दुःख में अपना दुःख, जिसके लिये पंडित प्रियानाथ कार्य में मंत्री, सेवा में दासी, भोजन में माता और शयन में रंभा की उपमा दिया करते थे, जो क्षमा में पृथ्वी और धर्म में तत्पर बतलाई जाती थी वह बाँधी जाते समय रोई चिल्लाई क्यों नहीं? परमेश्वर की कृपा से एक सती रमणी में अब तक भी इतनी शक्ति विद्यमान है कि यदि उसकी इच्छा न हो तो चार क्या चार सौ लठैल भी उसका बाल तक बाँका नहीं कर सकते फिर चुपचाप उसने अपनी गठरी क्यों बँधवा ली?

क्या उसकी मिली भगन थी जिससे उसने चूँ तक न की! किंतु नहीं! प्रियंवदा के विषय में ऐसी राय देनेवाले खाँड खाते हैं। एक सती का कुलटा कहकर कलंकित करना सूर्य या धूल फेकना है। ऐसे यदि उसने चुप्पी साध जाने के सिवाय कुछ भी नहीं किया तो उसका दोष नहीं। चार लठैतों की सूरत देखने ही वह भय के मारे थरथराने लगी थी और उनमें से एक ने उसकी नाक में बेहोशी मल दी थी और सो भी थोड़ी सी नहीं! इतनी भली थी कि इसे बाँधकर ले जाने के अनंतर रात भर चेत न हुआ।

दूसरे दिन प्रातःकाल जब उसकी मूर्छा नष्ट हुई, वह एक साफ सुधर पलंग पर लेटी हुई थी। आँखों पर गुलाब- जल छिड़ककर, शर्वत वेद मुश्क पिलाकर, पंखा झलकार उसे आराम देने के लिये चार दासियाँ खड़ी थीं। उसका गोरा गाल गुलाबी चेहरा, हिरन के बच्चे की सी उसकी आँखें, उसकी नागिन सी अलकें और उसकी भरी जवानी को निरखकर जिन साहब के मुँह में पानी भर आया था वह एक आराम कुर्सी पर बैठे हुए कभी प्रियंवदा का बढ़िया से बढ़िया शर्वत पिलाने के लिये दासी से ताकीद करते थे, कभी पंखा झलनेवालो को झिड़ककर आप ही उसके हवा करने लगते थे और कभी रात भर उपचार करने पर भी उसकी मूर्छा दूर न होती देखकर आपने नौकरों को और विशेष कर उन आदमियों को गालियाँ दे देकर कोसते थे जिन्होंने एक

फूल सी कोमल रमणी को अनाप सनाप बेहोशी सुँघाकर उनकी रात का मजा मिट्टी में मिला दिया था। उनका एक एक मिनट एक एक युग के समान व्यतीत होता था। वह बेताबी के मारे कभी घबड़ाकर "यदि इसे होश न आया तो हाय! मैं क्या करूँगा? धोबी का कुत्ता घर का रहा न घाट का, जूँठा भी खाया और पेट भी न भरा।" कहते हुए ठंढी सॉस लेते और इस अवसर में यदि प्रियंवदा ने करवट बदलते हुए मूर्छा ही मूर्छा में कह दिया कि "हाय मैं मरी! अजी मुझे बचाओ।" तो अपने मन को ढाढ़स देते हुए यह कहने से नहीं चूकत थे कि "नहीं जान साहब! मैं आपको मरने कभी न दूँगा। आपके लिये मेरा और तो और सिर तक हाजिर है।" और इतना कहकर उसके उभरे हुए कपोलों पर मुहर लगाने के लिये मुँह भी फैलाते थे किंतु फिर न मालूम किस विचार से हट बैठते थे।

अस्तु! जब उसे अच्छी तरह होश आ गया तब वह एका- एक चौंककर बोली -- "हैं! मैं कहाँ हूँ? मरे प्राणनाथ कहाँ गए? यहाँ मुझे कौन राक्षस किसलिये ले आया?"

"राक्षस नहीं! तुम्हारा दास! प्यारी के चरणों का चाकर! तुझ जैसी इंद्र की अप्सरा से मजे उड़ाने के लिये! उसी की हवेलो के तहखाने में। प्यारी! एक बार नजर भर मुझे देख ले, मेरा कलेजा ठंडा कर दे! मैं बिरह की आग से जला जाता हूँ!"

"जला जाता है तो (मुँह फेरकर) जा भाड़ में पड़! खबरदार मुझसे प्यारी कहा तो! मैं जिसकी एक बार प्यारी बन चुकी उसी की जन्म भर दासी रहूँगी! मुझे नहीं चाहिए तेरे मौज और मजे! तुझे झख मारना हो तो और किसी कुलटा को टटोल! मुझसे एक जन्म में तो क्या तीन जन्म में भी आशा छोड़ दे!"

"अरी बाबली! यों क्या बकती हैं? जरा समझकर बाद कर। आदमी तो आदमी तुझे अब ब्रह्मा भी नहीं छुड़ा सकता, तू मेरी कैद में हैं! उस विचारे तक तो तेरी हवा भी नहीं पहुँच सकती। सीधी अँगुलियों न निकलेगा तो फिर मुझे जोर दिखलाना पड़ेगा। तू जिसके लिये मरी मिटती है वही यमराज की दाढ़ में पहुँच चुका!"

"झूठ है (कुछ सोचकर) सरासर झूठ है! कभी ऐसा हो ही नहीं सकता! मुझे भगवान् का, अपने अहिवार का, अपनी (चूड़ियाँ निरखकर) चार चूड़ियों का भरोसा है कि उनका बाल भी बाँका नहीं होगा! और तेरी क्या मजाल जो मेरे हाथ भी लगा सके! जिसने जगज्जननी जानकी को राक्षसराज रावण के पंजे से बचाया, जो वस्त्र बनकर द्रौपादी की लाज बचानेवाला है और जिसने गरुड़ छोड़कर नंगे पैरों भागकर गजराज को उवारा वही गोविंद प्रत्येक सती का सतीत्व बचाने के लिये तैयार है।" "बस जमाना गया! आप वैसी जातियो जमीन के पर्दे पर नहीं रहीं और न यह गोविंद ही रहा! तू कहाँ भूली है? छोड़ इन झगड़ों को। और दुनिया के मजे लूट। और तू ही बता! तू सती कब से बनी? तेरे सब गुण मेरे पेट में है! वृथा होंगें न हाँक! छोड़ इस झूठे झगड़ों को और जन्म भर मेरी बनकर आनंद कर! यह अटूट खजाना, यह विशाल भवन और यह अप्रतिम वैभव, सब तेरे ही लिये है। केवल तेरी मृदु मुसकान पर न्योछावर है।"

"अपनी न्योछावर को फूँक दे! आग लगा अपने लोग विलास को! मैं कुलटा हूँ तो अपने मालिक की हूँ और सती हूँ तो उसकी! तुझो क्या? तू हजार सिर मारने पर भी, जान दे देने पर भी मुझे नहीं पा सकुंगा! मुझे पाने के लिय काच में, नहीं नहीं मेरी जूती में मुंह देख ले।"

"अच्छा देख लूँगा! देखूँ कहाँ तक तेरा सत निबहता है? तू झख मारेगी और मेरी होकर रहेगी। तू मेरी कैदी है। मेरी बनकर रहने के सिवाय तेरे लिये कुछ चारा ही नहीं। मान जा! प्यारी मान जा! तेरे पैरों पड़ता हूँ मान जा! न मानेगी, यों सीधी सीधी न मानेगी तो मैं जबर्दस्ती मनवा लूँगा।"

तैंने मेरे हाथ भी लगा दिया तो उसी समय मर मिटूँगी! मरना मेरे हाथ में है।" "मरे मत! ऐसी गोरी गोरी प्यारी को मैं मरने थोड़े ही दूँगा! अच्छा! अभी मैं जाता हूँ। आज के दिन भर की मुहलत है। बस रात को वारे न्यारे!" इतना कहता हुआ वह व्यक्ति उन चारों भासियों को खूब नाकीद करके उनका कड़ा पहला रखता हुआ, कहीं उनके पहरे में भाग न जाय इसलिये प्रियंवदा के पैरों में हनकी हलकी बेड़िया डालकर वहाँ से गया और जात जाते उससे इतना अवश्य सुन गया कि -- "बेड़ियाँ क्या तू यदि मुझे जान से मार डाले, मेरे टुकड़े टुकड़े कर डाले तब भी मैं तेरी न बनूँगी।"

इस तरह उसने एक ही बार समझाया हो, एक ही बार डराया हो सो नहीं। वह नित्य आता है नित्य ही खुशा- मद करता है, रोज ही लालच देता है और बार बार डर दिखाता है किंतु प्रियंवदा टस् से मस् नहीं। जो उसने एक बार कह दिया वह लोहे की लकीर। अब जब वह आता है तब ही वह उसकी ओर से मुँह फेर लेती है। उसके हजार सवालों का एक "नहीं" के सिवाय जवाब नहीं। वह सब तरह कर हारा परंतु प्रियंवदा का वज्र हृदय बिलकुल नहीं पसीजा, तब उसने बलात्कार के सिवाय कोई उपाय ही न देखा! उसने हजार चाहा कि इसे नशा देवार अपना काम निकाल लूँ किंतु बेहोशी के समय के बाद जब उसने एक दाना मुँह में न डाला, एक घूँट पानी तक का वास्ता नहीं तब नशे का ठिकाना कहाँ! भूखों के मारे, प्यास के मारे

उसकी जान निकाली जाती है। पेट सूखकर आँतें पीठ से जा चिपटी हैं। आँखें बैठ गई और गल पिचक गए हैं परंतु ऐसे पामर का, उसकी नौकरानियों का भरोसा ही क्या?

कुछ भी हो आज वह साम, दाम, दंड और भेद से -- जैसे बने तैसे प्रियंवदा के अपने गले के पक्के इरादे से आया था। आज उसने ठान लिया था कि "यदि प्रियं- वदा स्वीकार न करे तो या तो आज वह नहीं या मैं नहीं।" किंतु उसके समस्त उद्दोग, सब हिकमतें, सारी चालबाजियाँ वृथा गई। उसके समस्त प्रयत्नों पर पानी फिर गया और ऐसे जब वह सब तरह निराश हो गया तब उसने, क्या उसकी बेतावी ने प्रियंबदा को हृदय में लगाकर अपना कलेजा ठंढा करने के लिये हाथ बढ़ाए। जिस समय उसने हाथ फैलाए प्रियं- वदा ऐसी जगह में घिर गई थी कि उसका कालपाश में से निकल जाना असंभव था। बस एक ही मिनट में उसके पाति- व्रत के नष्ट हो जाने में संदेह न था। वह पहले खूब रोई, चिल्लाई और तब बस ऐसे समय उसने विपत्ति-विदारण भक्तवत्सल परमात्मा को याद किया। वह बोली -- राग सारंग --

'अब कुछ नाहीं नाथ रह्यो।

सकल सभा में बैठि दुशासन अंबर आनि गह्यो॥

हारयो सब भंडार भूमि अरु अब बनबास लह्यो।

एको चीर हुतो मेरे पर सो इन हरन चह्यो॥

हा जगदीश! राख यहि अवसर प्रगट पुकारि कह्यो।
सूरदास उसगे दोउ नैना बसन प्रवाह बह्यो।
राग बिलाबल -- जेती लाज गोपालहि मेरी।
तेती नाहिं बधू हैं। जिनकी अंबर हरत सबन तन हेरी॥
पति अति रोप मारि मन माहियाँ भीषम दई वेद विधि टोरी॥
हा जगदीश! द्वारका स्वामी भई अनाथ कहत हौं टेरो॥
वसन प्रवाह बढयो जब जान्यो साधु साधु सबहिन मति फेरी।
सूरदास स्वामी यश प्रगट्यो जाली जन्म जन्म की चेरी॥
राग धनाश्री -- "निबाहो बाँह गहे की लाज।
द्रुपदसुता भाषत नँदनंदन कठिन भई है आज॥
भीषम कर्ण द्रोण दुर्योधन बैठे सभा विराज।
तिहिं देखत मेरो पट काढ़त लीक लागो तुम काज॥
खंभ फारि हिरनाकुश मारवोध्रुव नृप घरमो निवाज।
जनकसुता हित हत्यो लंकपति बाँध्यो सादर गाज॥
गद्गद सुर आतुर तनु पुलकित नैननि नीर समाज।
दुखित द्रौपदी जानि प्राणपति आए खगपति त्याज॥
पूरे चीर बहुरि तनु कृष्णा ताके भरे जहाज।
काढ़ि काढ़ि थाक्यो दुःशासन हाथनि उपजी खाज॥
बिकल अमान कह्यौ कौरवपति पारयो सिर को ताज।
सूर प्रभू यह रीति सदा ही भक्त हेतु महाराज॥"

इस तरह सूरदासजी के पद गा गाकर ज्योंही वह प्रार्थना करने लगी, न मालुम कहाँ से आठ दस लठैतों ने आकर

आ० हिं०--९
उस आदमी की मुश्कें कस ली। कसने के अनंतर लात और घूँसों से उसकी खूब ही खबर ली। ऐसे जब प्रियंवदा की ऐन समय मी लाज बच गई तब उसने उन लठैतों जो लेकर आए थे उन्हें धन्यवाद दिया। उन चारों चेरियों में से श्यामा जो औरों से छिप छिपकर उन लोगों के पास खबर पहुँचाने का काम करती थी, छिप छिपकार प्रियंवदा के लिये खाना ला देती थी और गाढ़ी भीड़ को समय लाज बचाने के लिये जिस खंजर ला दिया था इसे भरपूर इनाम दिया गया।


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