आदर्श हिंदू २/प्रकरण-३४ प्रियंवदा को पकड़ ले गए

आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १०५ से – ११५ तक

 

प्रकरण--३४
प्रियंवदा को पकड़ ले गए

प्रियंवदा को गायब हुए आज शनि शनि आठ दिन हो गए। लोग कहते हैं कि शनिवार को किया हुआ काम चिरस्यायी होता है। मालूम होता है कि यह खयाल सच्चा है। वास्तव में वह ऐसी कुसायत में गई है, गई क्या उस बिचारी को बदमाश पकड़ ले गए हैं कि कहीं अब तक उसके पते तक का पता नहीं। पंडितजी केवल नाम के पंडित नहीं, वह अच्छे ज्योतिषी भी हैं और उन्होंने काशी के बड़े बड़े धुरंधर ज्योतिषियों से पूछकर भरोसा कर लिया है कि उनकी प्राणप्यारी अवश्य मिल जायगी और मिलेगी भी अछूत, बेलाग, अपने सतीत्व की रक्षा करके। उसे पकड़कर ले जाने में उसका दोष क्या? पति के साथ ऊपर न जाने में उसकी भूल वास्तव में हुई किंतु प्राणनाथ और देवर दोनों को, मृग के लिये भेजकर जन-शून्य वन में अकेली रह जाने में जब जगज्जननी जानकी की भूल हुई तब बिचारी प्रियंवदा किस गिनती में है! कुछ भी हो कितु वह गई पंडितजी के बारहवें चंद्रमा में और मंद नक्षत्र में। इसलिये यदि मिलेगी तो असह्य चिंता के बाद, जी तोड़ परिश्रम के अनंतर और खोज करने में धरती आकाश एक कर डालने पर। हाँ ठीक,

परंतु उस चिंता की, उस परिश्रम की और उस उद्दोग की भी तो कुछ सीमा होनी चाहिए। वह गौड़बोले को साथ लेकर काशी की गली गली छान चुके, वहाँ की पुलिस पसीना- झार परिश्रम करय पच हारी। इनामी नोटिस देने में भी कुछ उठा नहीं रखा गया।

उन्हें अपने इष्टदेव का पूरा विश्वास है कि वह निःसंदेह कृपा करेगा। वह बारंबार ऐसा ही कहा करते हैं। वह सहसा घबड़ानेवाले आदमी नहीं। वह अच्छी तरह जानते और मानते हैं कि जब शरीर ही अनित्य है तब स्त्री क्या? उन्हें निश्चय है कि नर-शरीर धारण करने पर भगवान मर्यादापुरुषोत्तम दशरथनंदन भी जब ऐसी ऐसी विपत्ति से नहीं बच सके तब बिचारे कीटानुकीट प्रियानाथ की बिसात ही कितनी! वह इसी सिद्धांत के मनुष्य हैं कि जो कुछ भला और बुरा होता है वह अपने कर्मों के फल से। वह समझते हैं कि उद्योग मनुष्य का कर्तव्य है और परिणाम परमेश्वर के अधीन है। इन्हीं बातों को सोचकर, वह चाहे अपने मन को ढाढ़स देने में कुछ कमी न रखते हों, साथ ही गौड़बोले जैसे विद्वान् और बूढ़े भगवानदास जैसा अनुभवी उन्हें उपदेश देने को मौजूद है किंतु सचमुच ही आज उनकी दशा में और एक पागल में कुछ भी अंतर नहीं है। वह खूब जोर देकर साहस बटोरते और अपनी अकल ठिकाने लाते हैं किंतु आज- कल धीरज का भी धीरज भाग गया है। जब उनका चित्त

ठिकाने आता है तन कम कसकर प्यारी की तलाश में प्रवृत्त होते हैं और जब उनका प्रयत्न निष्फल चला जाता है तब हाथ मारकर रो देते हैं। एसे वह घंटों तक , रोया करते हैं, रोते रोते मूर्च्छित हो जाते हैं और जब उन्हें कुछ होश आती है तब वावले की तरह यों ही बाही तबाही बकने लगते हैं। वह अपनी प्यारी का पता राह चलते आदमियों से पूछते हैं, मकानों से पूछते हैं, घाटों से पूछते हैं, सड़क की लालटैनों से पूछते हैं और जो कुछ सामने आता है उससे पूछते हैं। किंतु लाखों आदमियों की बस्ती में उनकी गृहिणी का पता बतलाने- वाला नहीं, पता गया भाड़ चूल्हे में, ऐसा भी कोई माई का लाल नहीं जो मीठी बातों से कोरी सहानुभूति दिखलाकर, "बचने का दरिद्रता" का तो दिवाला न निकाल दे। हाँ! उन्हें पागल समझकर चिढ़ानेवाले, लूलू बनानेवाले गार झूठे- मूठे पते बतलाकर उनको सतानेवाले अवश्य मिलते हैं।

वह आज इसी दशा में रात्रि के दस बजे एक तंग और अंधेरी गली में, जिसके विशाल विशाल भवन अपना सिर ऊँचा उठाए आकाश से बातें कर रहे हैं, पंडितजी घूम रहे हैं। वह कभी खड़े होकर "प्यारी प्यारी!" और "प्रियंवदा प्रियंवदा!" की चिल्लाहट से कान की चैलियाँ उड़ाते हैं और कभी "धप! धप!! धप!!!" पैरों को बजाते गली के एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर लगाते फिरते हैं। कहीं से, किसी की, कैसी भी सुरसुराहट उनके कान पर पड़ जाती है तो तुरंत ही

वहाँ खड़े होकर, कान लगाकर उसे सुनने का प्रयत्न करते हैं। कदाचित् इसी से कुछ मतलब निकल आवे इस आशा से टूटे फूटे शब्दों को जोड़ते हैं और फिर निराश होकर चल देते हैं।

इस तरह कई बार निराश होने के अनंतर गली के दोनों ओर से मकान की खिड़कियों में से मुँह निकाले हुए दो रमणियों के मृदु, मधुर और मंद स्वर आ आकर उनके कानों के पर्दों पर टकराने लगे। प्रथम तो काशीवालियों की बोल चाल, फिर चाहे लज्जा से अथवा भय से उनके शब्द ही अस्फुट और फिर पंडितजी नीचे और वे ललनाएँ आमने सामने दो मकानों की चौथी मंजिल पर। इस कारण उनकी बातचीत में से वह केवल इतना सा सुन पाए कि --

"चाँद का टुकड़ा है ... प्रियंवदा...... नाम भी बढ़िया है...... मर जाना मंजूर है......मानती नहीं......"

वे दोनों स्त्रियाँ न मालूम किस प्रियंवदा के बारे में बातें कर रही थीं। क्या पंडितजी ने नगर दुहाई फेर दी थी कि उनकी प्यारी के सिवाय किसी का नाम प्रियंवदा रखा ही न जाय किंतु उन्होंने मान लिया कि -- "चर्चा मेरी प्रियंवदा ही के लिये है।" बस इस भरोसे पर अत्यंत चिंता के अनंतर अपनी इच्छित वस्तु पाकर जैसे आदमी हर्षविह्वल हो जाया करता है वैसे ही वह भी हो गए। उस समय यदि अंतःकरण को थोड़ा सा रोककर दोनों की बातचीत कुछ और भी सुन लेते तो खोज करने में उन्हें कुछ सहारा मिल

जाता। वह मन को रोक न सके। वह तुरंत ही चिल्ला- कर बोल उठे --

"हाँ! वही इस अभागे की घरवाली! उसका पता बत- लाकर हम दोनों प्राणियों को जीवदान दो। उसके बिना मैं मरा जाता हूँ। बड़ा उपकार होगा।"

पंडितजी की आवाज सुनकर वे दोनों एक बार खिल- खिलाकर हँस पड़ीं और तब "कल जलसाई पर मिलेगी।" कहती हुई अपने अपने कोठों में जा छिपीं। इसके अनंतर बीसों बार पुकारने पर भी किसी ने कुछ जवाब न दिया। कुछ खटका तक सुनाई न दिया। यों जब फिर निराश होकर इसी उधेड़ बुन में लगे हुए पंडितजी आगे बढ़े तब कोई पचास साठ पग चलने के अनंतर उनके आगे "फट्ट" की आवाज के साथ कोई चीज आकर गिरी। उन्होंने वह वस्तु उठाकर टटोली, खूब आँखें फाड़ फाड़कर देखी परंतु अँधेरे में कुछ भी निश्चय नहीं हो सका कि कपड़े में क्या बँधा हुआ है! और वह न गांठ ही खालकर देख सके। अस्तु वह कदम बढ़ाए उतावले उतावले चलकर गली की मोड़ पर लालटेन के निकट पहुँचे। वहाँ गाँठ खोलकर देखते ही हलकी सी चीख मारकर एकदम बेहोश हो गए और उसी दशा में धरती पर गिर पड़े।

शायद इस बात से मनचले पाठक ऐसा अनुमान कर लें कि इस पोटली में कोई बेहोशी की दवा होगी अथवा ऐसा कोई चिह्न अवश्य होना चाहिए जिसका संबंध उन रमणियों

के समर्पण में "मर जाना मंजूर है" और "जालसाई (भरघर) पर मिलेगी' से लगाकर पंडितजी ने अपनी प्रियतमा की मृत्यु हो जाना भाग लिया है। जो अटकल लागानेवाले हैं उन्हें इसका मतलब निकालने के लिये उलझने दीजिए। उनकी उलझन से यदि प्रियानाथ की प्रिया का पता लग जाय तो अच्छी बात है। किंतु हाँ! यह अवश्य लिख देना चाहिए कि इस जन-शून्य स्थान में इस समय न तो कोई उनकी आँखें छिड़ककर उनकी वेहोशी छुड़ानेवाला मिला और न उनकी चोट पर पट्टी बाँधकर कोई उपचार करनेवाला। एक बार पंडितजी ने किसी साधु के सामने वैद्यक शास्त्र के उपचारों की जब बहत प्रशंसा की थी तब उसने स्पष्ट ही कह दिया था कि -- "ये सब निमित्त मात्र हैं। यदि परमेश्वर रक्षा करना चाहे तो बिना किसी उपचार के प्रकृति स्वयं इलाज कर लेती है।" उस समय पंडितजी साधु की बात पर चाहे हँसे भले ही हों। किंतु आज प्रकृति के सिवाय उन्हें कोई चिकित्सक नहीं मिला। कोई घंटे डेढ़ घंटे तक यों ही पड़े रहने के अनंतर उनकी अकस्मात् आखें खुलीं। वह अब अपने रूमाल को चोट पर बाँधने के बाद कपड़ों की धूल झाड़कर खड़े हुए और जेब में पोटली डालकर आगे बढ़ निकले।

इस तरह जब वह कोई सत्तर अस्सी कदम आगे बढ़ चुके तब इस अँधेरी गली के एक अँधेरे कोने में से निकलता हुआ अचानक एक आदमी मिल गया। यद्यपि पंडितजी नहीं

जानते थे कि यह कौन है और कहाँ जा रहा है परंतु वह मनुष्य इन्हें देखकर कुछ ठिठका। उसने खड़े होकर -- "घबड़ाओ नहीं। मैं तुम्हें प्रियंवदा से मिला दूँगा। यदि अभी मेरे साथ चलो ना मैं अभी मिला सकता हूँ।" कहते हुए भर- पूर ढाढ़स दिलाया और सो भी इस ढंग से कहा कि जिसे सुनते ही उन्होंने समझ लिया। उन्हें भरोसा हो गया कि "यह कोई स्वर्ग का देवता है जो नर-रूप धारण कर मुझे इस विपत्ति सागर से छुड़ाने आया है, अथवा कोई परोपकारी सज्जन है जिसका हृदय, मेरा करुण क्रंदन सुनकर, पसीज गया है।" बस उस समय उन्हें वैसा ही आनंद हुआ जैसा कई दिन के भूखे को बढ़िया से बढ़िया भोजन के लिये न्योता पाकर होता है। वह ऐसी आशा ही आशा में मनमोदक वनांत एक अपरिचित व्यक्ति के साथ हो लिए। साथ क्या हुए उन्होंने अपनी जान, अपना माल और अपना शरीर एक अन- जान आदमी के सिपुर्द कर दिया। उन्होंने यह न सोचा कि "कहीं मैं किसी गुंडे के जाल में न फँस जाऊँ?" होता वही है जो होनहार है। भावी को बदल देने की शक्ति मनुष्य में नहीं, देवता में नहीं और परमात्मा के सिवाय किसी में नहीं। सर्वशक्तिमान् परमेश्वर, जिसका भृकुटी-विलास भी काल तक को खा सकता है, अवतार धारण करने के अनंतर जब केवल नरलीला करने के लिये इस भावी का वशवर्ती होकर जैसे वह नचाती है तैसे ही नाचने लगता है फिर बिचारे पंडितजी को

क्या कहा जाय! बस वह अनजान आदमी उन्हें चक्कर में डालने के लिये, ताकि वह यह न जान सकें कि कहाँ जा रहे हैं, भूलभुलैया में डालकर एक गली से दूसरी में और दूसरी से तीसरी में घुमाता हुआ दाल की मंडी में ले गया। यद्यपि पहले भी दो बार पंडितजी काशी आ चुके थे किंतु एक परदेशी के लिये रात्रि के समय यहाँ की गलियों का पता पाना सहज नहीं।

जिस समय ये दोनों वहाँ पहुँचे अकस्मात कहीं से किसी स्त्री के रोने की आवाज आई। "सुनो! सुनो! तुम्हारी प्रियंवदा! हाँ वही रो रही है! बस पहचान ला उसकी आवाज! बोलो कैसे समय पर लाया? अगर आधे घंटे की भी देरी हो जाती तो अपनी प्यारी से जन्म भर के लिये हाथ धो बैठते।" इस तरह कहकर वह आदमी पंडितजी का हाथ थाँमे उन्हें एक मकान की सीढ़ियाँ चढ़ा ले गया। यद्यपि होनहार के बशीभूत होकर उन्हें चला जाना पड़ा किंतु जिसे उन्होंने देवता समझा था वह पामर राक्षस निकला, जिसे वह महात्मा समझ बैठे थे वह तुलसीकृत रामायण का कपट मुनि निकला। कपट मुनि ने राजा प्रतापभानु से बदला लेने के लिये उसे कुकर्म में प्रवृत्त कर ब्राह्मण को मांस खिला दिया था और इस व्यक्ति का प्रपंच भी पंडितजी से बैर लेकर उन्हें दीन दुनिया से बिदा करने के लिये था। नाव में उनके हाथ से घूँसा खाकर वह चाहे उस समय भीतर ही भीतर दाँत पीसता रह गया था किंतु आज उसने ब्याज कसर से पंडितजी

का ऋणा चुका दिया। पंडितजी यदि उसे अब तक न पहचान सके हों तो जुदी बात है किंतु इतना लिखने ले पाठकों ने अवश्य समझ लिया होगा कि यह वही व्यक्ति है जो एक बार माधुवेष धारण किए उनके साथ भगवती भागीरथी में नाव पर दिखलाई दे चुका हैं। संभव है कि शायद फिर भी किसी न किसी रूप में पाठकों के सामने आ खड़ा हो।

अंधेरी गली के अँधेरे मकान की अँधेरी सीढ़ियाँ चढ़ाकर वह आदमी पंडितजी को चौथी मंजिल पर ले गया। अब ठीक मौका पाकर उसने उनको छुरे के दर्शन कराए और जब उन्होंने अपने को सव तरह पराए वश समझ लिया तब वह गुंडा पंडितजी के पास से माने के बटन, बॉदी की तगड़ी और जेब के रुपए पैसे छीनकर अधखुले मकान क किवाड़ों को धक्का देकर उन्हें भीतर डालाने तक अनंतर बाहर की जंजीर चढ़ाता हुआ फौरन ही नौ दो ग्यारह हुआ।

बाहर जो कुछ पंडितजी पर बीती सो बीती किंतु भीतर का दृश्य और भी भीषण था। वहाँ पहुचने पर उनकी जो दशा हुई उसे या तो उनका अंत:करण ही जानता होगा अथवा घटघटव्यापी परमात्मा। जो बात उन्होंने कभी अपनी आँखों नही देखी थी, जिसके लिये उन्हें कभी स्वप्न में भी ख्याल नहीं हुआ था वही उनके नेत्रों के सामने खड़ी होकर नाचने लगी। वह वहाँ का दृश्य देखकर एकदम हक्के बक्के रह गए। उसी समय घबड़ा उठे और "हाय! बड़ा गजब
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हो गया!" कहकर ज्यों ही अपनी छाती पर एक ओर से घूँसा मारते हुए बेहोश होकर गिरने लगे न मालूम किसने उनको सँम्भाला। यदि वह गिर जाते तो उस जगह स्तंभ से सिर फूटकर उसकी जीवन लीला वहाँ की वहाँ समाप्त हो जाती। उनको जिसने मारते मरते बचाया वह कौन था सो पंडितजी न जान सके। जान क्या न सके उन्होंने देखा तक नहीं, उन्हें भले प्रकार बोध तक न हुआ कि उनको किसी ने सँभम्ला है। जिन व्यक्ति ने उनको मारने से बचाया वह वास्तव में कोई महात्मा होना चाहिए। सचमुच ही उसके पवित्र कर कमलों का सुख स्पर्श होते ही इस विपत्ति महासागर में से उनका उद्धार समझ लो। एकदम उनके हृदय में दुःख चिंता के शोक और मोह के प्रलय पयोधर छिन्न भिन्न होकर शरत् पूर्णिमा के विमल चंद्रमा का शीतल प्रकाश निकल आया। उस शीत रश्मि की अमृत वर्षा से उनके अंत:करण की चिंता के सदृश चिंता का दहकता हुआ भीषण कृशानु एकदम बुत गया। परमात्मा को कोटि कोटि धन्यवाद देकर पंडितजी अपनी करनी पर पछताए। अब उन्हें विदित हो गया कि --

"वास्तव में इस विपत्ति का दोषभागी मैं ही हूँ। जो अंतर्यामी दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से अपने भक्तों की रक्षा करने के लिये सदा तैयार है उसको मेरी मूर्खता ने भुला दिया। मुझे निष्काम भक्ति का घमंड था। आज गर्वप्रहारी भक्तभयहारी भगवान् ने मुझे उबारने के लिये, केवल भुझ

अकिंचन पर दया करके मेरा अभिमान छुड़ा दिया। निष्काम भक्ति अवश्य करनी चाहिए। निष्काम के बिना मुक्ति नहीं। किंतु परमेश्वर ले कमी, कैसी भी विपत्ति पड़ने पर ल माँगने का दावा मरना भूमिशायी होकर आकाश प्रहण करने के ख्याल बुद्धिहीनता है। आज मुझे अच्छा दंड मिल गया।"

बस इस प्रकार का विचार मन में उत्पन्न होते ही पंडितजी ने परमेश्वर को सँभारा। कौरव-सभा में वस्त्र बनकर पाँचों पतियों से निराश हो जानेवाली द्रौपदी के रक्षक भगवान वासुदेव का, आह में बचाकर गज को उबारने के लिये नंगे पैरों दौड़ आनेवाले गरूड़हीन गोविंद का और पापी पिता के कोप की अग्नि में भस्म होते होते रक्षा कर अखंड ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले भक्तशिरोमणि प्रह्लाद के जीवन- सर्वस्व भगवान् नृसिंह का उन्होंने स्मरण किया। उनके पश्चाताप उनकी प्रार्थना और उनके पूर्वकृत पुण्यसंचय से प्रसन्न होकर इस घट घट व्यापी परमात्मा ने चाहे प्रगट होकर नहीं किंतु उनकी बुद्धि द्वारा उन्हें ढाढ़स दिलाया। यद्यपि वह जन्म भर इस मूर्खता के लिये अपने को धिक्कारते भी रहे हों किंतु इस समय तुरंत ही अपना कर्तव्य स्थिर करके अब वह सच्चे उद्योग में प्रवृत्त हो गए।

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