आदर्श हिंदू १/१९ प्रयागी पंडे

आदर्श हिंदू-पहला भाग।
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

काशी नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १८७ से – १९६ तक

 
 

प्रकरण―१९

प्रयागी पंडे।

तीर्थराज प्रयाग के स्टेशन से बाहर होते ही कोई पचास चालीस लट्ठधारियों ने इन लोगों को घेर लिया। उनके हाथों में कान के बराबर ऊँची लाठियाँ, बगल में बटुवा, सिर पर सफेद टोपियाँ, शरीर में सफेद कुर्ते और कंधे पर एक एक दुपट्टे के सिवाय यदि और कुछ हो भी तो क्या हो? ललाट पर श्वेत चंदन के तिलक और उसमें भी विशेष कर मछलियों के से आकार। स्टेशन पर वहाँ के पंडे स्वयं नहीं आते हैं। आते हैं या तो उनके नौकर अथवा वे लोग जिनका पेशा ही यह है कि यजमानों को घेर धार कर गुरुओं के मकानों पर पहुँचा देना। इन लोगों की आखें विजया महारानी ने लाल कर रक्खी हैं। क्योंकि यह ऐसे ही जीवों का सिद्धांत है कि- "भंग कहै सो बावरो और विजया कहै सो कूर, याको नाम कमलापती रहे नैन भरपूर।" इनमें से जिन्हें विजया की लाली कुछ फीकी जँचती है वे गाँजा पीकर लाली जमाते हैं क्योंकि फीकी जो लाली नहीं और वह लाली ही क्या जो जरा देर में उड़ जावे।

इस यात्रापार्टी को आज भूख के मारे आँतें बैठी जा रही हैं, प्यास से गला सूखा जा रहा है और इस तरह सब के सब व्याकुल हैं। एक कदम आगे बढ़ने का जी नहीं चाहता। सबकी इच्छा होती है कि यदि कृपा करके गंगा महारानी यहाँ कहीं पास ही निकल आवें तो स्नान श्राद्धादि से निवृत होकर कुछ पेट की चिंता करें। पंडित, पंडितायिन और छोटे भैया की यदि वह दशा हो तो हो क्योंकि वे ब्राह्मण थे, कट्टर सनातनधर्मी थे, अंगरेजी के अच्छे विद्वान होने पर भी रेल में पानी नहीं पीते थे, स्टेशनों के नलों का पानी उनके काम नहीं आता था, खोमचों को पूरी तरकारी तो क्या बरन विलायती चीनी की मिठाई तक का स्पर्श करने से उन्हें घृणा थी। इन स्टेशनों पर अवश्य ही फल मिलने का अभाव नहीं था परंतु प्रथम तो आज स्नान संध्या का अवसर ही नहीं मिला और इनके बिना इनके लिये जल पान भी हराम फिर आज तीर्थ को उपवास है। भगवती भागीरथी में, त्रिवेणी में स्नान करके, श्राद्ध करने से पहले यदि खा लिया तो यात्रा करके भी झष ही मारी। ऐसी दशा केवल पंडित जी, उनकी गृहिणी, कांतानाथ और गौड़बोले की ही हो तो खैर। किंतु काछी होने पर भी बूढ़े भगवानदास ने और उसके डर से गोपीबल्लभ तथा उसकी माँ ने मुँह में एक दाना नहीं डाला, एक घूँट पानी नहीं पिया। और जब लोगों ने उनसे आग्रह किया तो उन्होंने कह दिया, साफ साफ कह दिया कि―"हम जाति के शुद्र हैं तो क्या हुआ? क्या भंगी चमारों से छूकर उनका छुआ हुआ खावें पियें? आदमी का चोला बार बार थोड़े ही मिल सकेगा? क्या एक दिन न खाने में मर जाँयगे और मरेंगे भी तो गंगा महारानी के किनारे?"

इस कारण जब यह पार्टी भूख प्यास से खूब व्याकुल हो रही थी तीर्थ गुरुओं के नौकर और ब्राह्मण होने पर वे इन्हें यमदूत से दिखलाई दिए। ये लोग चाहे इस तरह हज़ार व्याकुल हों तो क्या, ये भूख प्यास से मर ही क्यों न जाँय किंतु पंडों के नौकरों ने जिस काम के लिये घेरा है उसका जवाब पाए बिना वे इन्हें रास्ता देनेवाले थोड़े ही थे? उनमें से किसी ने पूछा―"कहाँ से आए हो?” कोई बोला―"तुम्हारी जात कौन?" "तीसरे ने दूसरे की बात काट कर कहा―"अगर जयपुर रहते हो तो हमारे साथ चलो।" चौथा तीसरे को घुड़क कर पंडित जी का हाथ खैंचते हुए कहने लगा―"आओं आओ हमारे साथ चलो। ये सब साले लुच्चे हैं। यों ही रोज रोज बिचारे यात्रियों को दिक किया करते हैं।" पाँचवा चौथे के हाथ में से पंडित जी का हाथ छुड़ाता हुआ चौथे को एक थप्पड़ मार कर―"तू साला और तेरा बाप साला? साला हमारे जजमानों को लिए जाता है। आओ जी हमारे साथ।" छठे ने कहा―"यह आए पंच। तेरा मुँह जो हमारे जजमान को ले जाय। अभी अघोड़ी बिगाड़ डालू? जूते मारते मारते चाँद गंजी कर डालू तो मेरा नाम! जानता है तू मुझे?" पाँचवें ने लाठी उठाकर छठे को आँखे दिखलाते हुए― "जूते तो जोरू के मारियो। जोरू का गुलाम! खबर भी है घर की? यारों के एक ही लट्ठ से खोपड़ी फूट जायगी। जेलखाने भी चले जाँयगे तो क्या फिक्र है। वह तो हमारी सुसराल है। जैसे तीन बार वैसे चौथी बार भी सही।" इन सब को हटाता हुआ, सब के बीच में पड़कर सातवाँ बोला―"विचारे यात्री को क्यों दिक करते हो?" तब आठवें ने कहा―"यात्री भी तो गूँगा बहरा है। अगर यह अपना नाम धाम बतला दे तो सब अपना रास्ता लें!" इस पर "हाँ! गूँगा बहरा है! इसके साथी भी उल्लू के पट्ठे हैं। कोई बोलता ही नहीं।" की आवाज आई। किसी ने कांतानाथ को घेरा और किसी ने प्रियंवदा को। किसी ने भगवानदास को और किसी ने बुढ़िया को किंतु सब के सब चुप। इतने ही में पंडित जी की दूर खड़े हुए एक आदमी पर नजर पड़ी और तब ही उन्होंने ललकार कर कहा―"हट जाओ। फौरन अलग हो जाओ। नहीं तो मैं अभी पुलिस को पुकारता हूँ। हमारा पुरोहित वह खड़ा है।" उनके ऐसा कहते ही सब वहाँ से एक एक करके खसक गए। वह बूढ़ा ब्राह्मण इन्हें गाड़ी पर बिठला कर दारागंज ले गया और एक साफ सुथरे मकान में उसने इन्हें डेरा दिया।

इस तरह मकान में पहुँचने से इन्हें विश्राम और सो भी थोड़ा बहुत अवश्य मिला। थोड़ा बहुत इसलिये कि यहाँ जैसे पंडों के नौकरों ने इनको घेरा था वैसे ही पहुँचने पर बगलों में बहियाँ दबा दबा कर पंडे स्वयं इनके पास आने लगे। स्टेशन पर नौकरों ने यदि सवाल पर सवाल करके कर्कश शब्दों से इन्हें दिक कर डाला तो यहाँ आइए, पधारिए, अन्नदाता आदि के संबोधन के साथ इन लोगों के बाप दादाओं के नाम पूछे जाने लगे, गाँव, जिला, राज्य का किसी ने सवाल किया तो कोई जाति पाँति का, कुल का, खानदान का पचड़ा ले बैठा। उस बूढ़े ने इन लोगों से बहुतेरा कहा कि ये हमारे जजमान हैं। हमें ही ये लिवा कर आये हैं और गुरु जी का भगवान स्वर्ग वास करै। गुरुआनी विचारी विधवा है। उसके मुँह का कौर न छीनो। सात घर में ताला लग गया है। उस अनाथ अबला को मत सतायो। परंतु सब ने उसे फटकार दिया और यहाँ तक कह दिया कि-"उस जाटों के पुरोहित के ब्राहाण यजमान कहाँ से आए? गढ़ाये भी है कभी ब्राह्मण?" किसी ने कहा- "गौड़ गौड़ हमारे!" कोई बोला "गुजराती गुजराती हमारे!" किसी ने कहा―"जयपुर हमारा! और कोई कहने लगा― "जोधपुर हमारा!" इन्होंने कहा―"यों हम किसी की नहीं मानते। यदि कोई भी न मिला तो यही बूढ़ा संतोषी (स्टेशन से साथ आनेवाले को दिखाकर) हमारा पुरोहित। तुम्हारे लफंगे नौकरों से तंग आकर ही हमने इसे पसंद किया था। हाँ! मुफ्त़ीपुर के पंडित रमानाथ शास्त्री के हस्ताक्षर कोई हमें दिखलादे तो वह हमारा पुरोहित। वही हमारे पूज्यपाद पिता जी थे।" पंडित जी के मुख से इसने शब्द निकलते ही दो एक को छोड़ कर सब के सब अपनी अपनी बहियाँ लेकर चल दिए। उन दोनों ने अपनी अपनी बहियों में गोता लगा कर नाम निकाले। यहाँ के जाट गूजर मिले। मुफ्त़ीगाँव के नाम के साथ भगवानदास के बड़े बूढ़े मिले और बहुत तलाश करने पर रामनाथ शास्त्री के हस्ताक्षरों की नकल मिली। नकल से पंडित जी का संतोष न हुआ तब असल मँगाई गई। पंडित जी के पिता ने जिसे अपना पुरोहित माना था उसके तीन भाई और तीनों के सब मिला कर सात बेटे थे। इन तीनों के नाम थे― मसुरिया, इमलिया, और मेंहदिया। तीनों में इमलिया विद्वान् था। उसके कर्मकांड से प्रसन्न होकर ही शास्त्री जी ने लिख दिया था कि―"

"हमने अपने प्राचीन पंडे को मूर्ख पाकर उसे छोड़ दिया। अब भी उसके घर में कोई पंडित पैदा हो तो हमारे बेटे पोते उसे मानें। पांडित्य ले प्रसन्न होकर हम इमलियादीन को अपना गुरु मान कर उसके चरण पूजते हैं। हमारी संतान यदि योग्य होगी तो योग्य को ही मानेगी। मुर्खौ को मानना अच्छा नहीं।"

अस इन तीनों भाइयों में से कोई नहीं रहा था, बीस वर्षों के बीच में इनके सातों बेटे मर चुके थे। दो तीन लड़के गोद अवश्य लिए गए किंतु वे भी अपनी विधवाओं के छोड़ कर चल बसे थे और जिस घर में पंडित रामनाथ शास्त्री ने बीस वर्ष पहले छोटे मोटे बाल बच्चे सब मिला कर पचास आदमियों का कुटुंब देखा था उसमें तीन विधवाओं के सिवाय कोई नहीं। इन तीनों ने अपनी वृत्ति चलाने के लिये तीन ही खड़के गोद लिए हैं किंतु तीनों लंठ हैं, तीनों अक्षर शत्रु हैं, तीनों की त्रिकाल संध्या के बदले तीनों बार विजया छानती है। गाँजा चरस, चंडू और कोकेन का तो हिसाब ही क्या? यजमानों के नामों की बहियाँ, उनके हस्ताक्षर बाँटने के लिये इनके आपस में अदा- लत चलती है। बहियाँ सब अदालत में पेश हैं। मुकद्दमा दिवानी तो है ही किंतु आपस में लाठी चल कर कितनों ही के सिर फूट जाने से फौजदारी भी हो गई है। तीनों में से इस कारण दो हवालात में हैं। एक जना उस लाठीवाजी के दिन यदि यहाँ होता तो अवश्य वह भी हवालात की हवा खाए बिना न रहता क्योंकि वह नामी लड़ाकू है। खैर वही आज पंडित प्रियानाथ के पास बैठा बैठा, बार बार हथेली में तंबाखू लेकर मीसता जाता है और खा खा कर उठने के आलस्य से दीवार को पिचक पिचक रंग कर लाली जमा रहा है।

इस पंडे का नाम था जंगी। बहियाँ असल मौजूद न होने से ज्यों ज्यों अपनी वृन्ति पर स्थिर रखने के लिये जंगी ने नकलें दिखा कर असल फिर दिखला देने का वादा करके पंडित जी का संतोष करना चाहा त्यों ही त्यों उनका बहस बढ़ा। नकल में पिता की आज्ञा पढ़ कर इनका विचार और भी पक्का हुआ, इसलिये इन्होंने बेधड़क होकर स्पष्ट कह दिया कि― "अपने पिता की आज्ञा को माथे चढ़ाकर आप यदि पंडित न हों तो आप को गुरु मानने में हम बाध्य नहीं हैं। पंडों में से कोई अच्छा विद्वान तलाश करके गुरु उसी को मानेंगे। यदि तुम पढ़े लिखे हो तो तुम्हारे पैर पूजने में हमें कुछ संकोच नहीं। हम माथे के बल तैयार हैं।"

गुरु जी ठहरे निरक्षर भट्टाचार्य। उनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर। इस लिये दोनों के परस्पर कहा सुनी हुई, सुर्खा सुर्खी हुई और तकरार भी हुई और अंत में अपनी दाल गलती न देखकर जंगी महाराज रमानाथ शास्त्री को गालियाँ सुनाते वहाँ से चले जाने के लिये भी तैयार हुए किंतु गौड़बोले ने प्रियानाथ जी के कान में उन्हें एक ओर लेजाकर चुपके ले कहा कि―

"आप करते क्या अनर्थ हो? प्रथम तो इन तीर्थगुरुओं में कोई पंडित मिलना ही कठिन है और यदि दैव संयोग से मिल भी गया तो इस में लाठी चलकर फौजदारी होगी। आज व्यतीपत का पर्व आपके हाथ न लगेगा और हम लोगों को गवाही देने के लिये खिंचे खिंचे फिरना पड़ेगा सो अलग।"

हाँ बेशक!" कह कर इन्होंने कांतानाथ की ओर देखा तो उसने भी यही राय दी और प्रियंवदा ने भी आँख के इशारे से पति को मथुरा की बात याद दिला दी। बस इसलिये इन्होंने जंगी गुरु को हाथ जोड़कर बिठलाते हुए कहा"महाराज नाराज न हुजिए। विद्या न पढ़ने से ही, क्षमा कीजिए, आप लोगों के घर बैठे जा रहे हैं। मैंने सुना है कि इन दस बीस वर्षों के बीच में कोई सौ सवा सौ घर नष्ट हो गए। यजमानों से जो पाते हो उसे न तो कभी सुकृत में लगाते हो और न ब्राह्मणों के पट्कर्म अग्निहोत्रादि से कभी प्रायश्चित करते हो, यजमान जिस कार्य के लिये आप लोगों को देता है जब वह काम ही आपके यहाँ नहीं तब ही आप लोगों की दुर्दशा है! मैंने सुना है कि, क्षमा करना, आप लोगों का पैसा कुकर्मों में जाता है।"

"हाँ यजमान सच है!"

"अवश्य सत्य है और हम अपने पिता की आज्ञा से आप को मानने में बाध्य नहीं हैं। परंतु आप का जी दुखाना भी नहीं चाहते। आपका हक़ आपको मिलेगा और कर्मकांड के लिये हम ब्राह्मण साथ ले आए हैं।"

"अच्छी बात है। आपकी मर्जी। नहीं तो ब्राहाण वहाँ भी अच्छा मिल सकता है। और अब हम लोगों के बालकों को पढ़ाने के लिये पाठशाला भी खुली है। थोड़े दिनों में आपकी यह शिकायत मिट जायगी।"

फिर भी निर्लोभी गौड़बोले ने गुरु जी के बतलाए हुए ब्राह्मण को श्राद्ध कराने का काम देने का आग्रह किया और ये सब वहाँ से नंगे पैरों, गुरु जी के सवारी के लिये आग्रह करने पर भी केवल भक्ति के विचार से पैदल चलकर सितासित संगम पर पहुँच कर कृतार्थ हुए, अपने लोचनों को सुफल करके भगवती त्रिवेणी से प्रार्थना करने लगे।