आदर्श हिंदू १/१३ गृहचरित्र
प्रकरण―१३
गृहचरित्र।
पंडित वृंदावन बिहारी को भोर ही स्नान के लिये जाते समय यदि सुखदा पनाले के कीचड़ में सनी हुई, मूर्च्छित अवस्था में धरनी पर पड़ी हुई, केवल एक लँगोटी लगाए हुए न दिखलाई दी होती, यदि जिस तरह वह अपना माल टाल लेकर ससुरार से रूट आई थी उसी तरह उनके सामने आती, बिमला के हजार सिर फोड़ने पर भी वह कदापि सुखदा को अपने घर की चौखट पर पैर न रखने देते। वह उसी समय चार आदमी साथ करके उसको ससुरार भेज देते और "जब तक उसका पति उसकी सिफारिश न करता तब तक केवल इकलौती बेटी होने पर भी, उसके सिबाय उनके और कोई संतान न होने पर भी, कभी उसका नाम तक न लेते क्योंकि उन्होंने बेटी की शिकायतें सुनकर अपनी गृहिणी विमला से स्पष्ट कह दिया था कि जब वह अपने पति को अनेक तरह से सताया करती है तब मेरे हिसाब मर गई। जैसे इतने मरे वैसे वह भी सही। यदि तुझे अपनी लाड़ली लड़की का पक्ष है तो तू भी जा उसके साथ। तैने ही लाड़ कर के उसे माथे चढ़ा कर बिगाड़ा है और तेरे ही जमाने में वह न थुकवावे अथवा न थूके तो मेरा नाम बदल देना। इस बात पर दंपत्ति की आपस में कलह होने में भी कलर न रही। विमला इतनी समझदार थी कि उसने सुखदा की तरह अपने पति की झाडू से पूजा नहीं की। यह बहुत रोई झाँकी तो पंडित वृंदाबन बिहारी चुप और उसने अपने पति से नाराज होकर दो दिन तक खाना न खाया तो वे चुप। वस हार झख मार कर वह सीधी हुई।
जिस लमय पंडित जी स्नान के लिये निकले रात के चार बजे थे। गर्मी का मौसिम था। अभी पौ नहीं फटी थी। चोखट से बाहर पैर रखते ही उनकी दृष्टि किसी लंबी लंबी वस्तु पर पड़ी। उन्होंने अपनी घरवाली को पुकार कर लालटैन के उजाले में देखा और देखते ही उसे पहचान कर "हाय तेरी यह दशा!" कह कर वे चुप हो गए। विमला अपनी बेटी की ऐसी दुर्दशा देख कर बहुत रोई चिल्लाई, उसने दामाद को, सुखदा के जेठ जिठानी को और उनकी सात और सात चौदह पीढ़ी को जी खोलकर गालियाँ दीं। उसने अपनी छाती माथा कूट कूट कर लाल कर डाला परंतु पंडितजी बोले―"अब रोने झींकने से होगा क्या? जैसा तैने बोया है वैसा ही काट!" इतना कह कर विमला की सहा- यता से वे उसे उठाकर भीतर ले गए। वहाँ जाकर उन्होंने उसे स्नान कराने के अनंतर चारपाई पर लिटाया। वे स्वयं एक नामी वैद्य थे। उन्होंने दवा दी। इसके बाद का जो कुछ हाल था वह प्यारे पाठकों ने गत ग्यारहवें प्रकरण में पढ़ ही लिया।
उस प्रकरण के अंत में बेहोशी की दशा में उसके मुँह से जो कुछ निकल गया था वही बात माता की जबानी सुन कर वह मन ही मन बहुत पछताई। उसने ऐसी भूल हो जाने पर अपने आप को कोसा भी बहुत। वह बोली―
"नहीं माँ! ऐसा नहीं! मैं न जाने क्या क्या बक गई? बात इस तरह हुई कि उन्होंने मुझे मार कूट कर घर से बाहर निकाल दिया। यह देख (अपने शरीर पर गिर जाने से जो चोटें आई थीं उन्हें दिखला कर) मार के निशान और निकाला इस लिये कि मैंने उनको उस छिनाल जिठानी के साथ देख लिया था। मेरा सब माल असबाब उन्होंने छीना है। विचारी मथुरा तो मेरे लिये जान तक देने को तैयार है। उसका आदमी मुझे क्या लूटेगा और मैं लाई भी क्या थी जिसे किसी ने लूट लिया। मेरे पास पहनने के लिये एक छल्ला तक तो रहने ही न दिया, फिर कोई लूटता भी तो क्या लूटता?, हाँ! रास्ते में एक कंजर जरूर मिल गया। बस उसी ने मेरी ऐसी खराबी कर डाली। हाय! अब मैं क्या करूँगी? जो बाबूजी ने मुझे निकाल दिया तो मेरा दुनियाँ में कहीं ठिकाना नहीं। भगवान मुझे मौत दे दे। ऐसे दुःख पाकर जीने से तो मारना अच्छा।"
"नहीं बेटी (आँसू पोंछती हुई) रोवै मत! मैं रक्खँगी मेरी लाली! (छाती से लगाकर) घबडावै मत। जो तेरा बाप तुझे निकाल दे तो मैं अपनी जान दे डालूँ! मैं मर मिटूँ!"
"तू कल जान देती आज ही दे डाल! भले ही तू भी इसके साथ ही चली जैयो। मैं आज कहता हूँ, साफ़ साफ़ कह देता हूँ। मैं इसे यहाँ नहीं रहने दूँगा। इसे जब तक आराम न हो यह बेशक यहाँ रहे। मैं नाहीं नहीं करता। परंतु आरोग्य होते ही मैं या तो उन्हें बुलाकर उनके सिपुर्द कर दूँगा अथवा किसी मौतबर आदमी के साथ वहाँ ही भेज दूँगा। जहाँ की चीज वहाँ ही अच्छी!"
पंडित जी की आज्ञा सुनकर माँ बेटी ने खूब रो धोकर कुहराम मचाया। उन दोनों के रोने के राग में छाती माथा कूटने की ताल मिल जाने से जो कोलाहल हुआ उसने पड़ोसियों के मन में कुतूहल पैदा किया। किसी ने समझा "इनके यहाँ कोई मर गया है।" कोई बोली―"मरैगा कौन? बिचारी सुखदा मरी होगी।" किसी ने कहा―"बिचारी नहीं! वह बड़ी हरामजादी है! रामजी ऐसे तिरिया चरित्तर से बचावै।" कोई कहने लगी―"नहीं! उसका कुछ कुसूर नहीं है। उसके ससुराल वाले बड़े खोटे हैं। बात बात में उसे मारते कूटते हैं। और उसका बाप भी उन्हीं की मदद करता है।" तब तुरंत किसी ने कह दिया "कुछ भी हो हमें क्या? चलो! तमाशा देखें।" बस इस तरह के सवाल जवाब का परिणाम यह हुआ कि पंडितजी के घर में गली मुहल्ले के लोग लुगाइयों का ताँता लग गया। कोई उनके साथ सहानुभूति दिखलाकर उनके दुःख का बोझा हलका करने के लिये आया और कोई सचमुच तमाशा देखकर उनकी जीट उड़ाने के लिये, उनकी फजीहत करने के लिये।
सुखदा ने जो बातें मूर्च्छा के समय कही थीं उन्हें पंडित जी चाहे सच्ची ही समझते थे परंतु इस समय उनकी सुनने वाला कौन? बस उसका दूसरी बार का बयान राई रत्ती सत्य समझ लिया गया। दोनों माँ बेटी ने आनेवालियों के सामने खूब रंग लगाकर कहा। उसकी जेठानी और पति का खोटा व्यवहार बतला कर खूब ही झूठ उदाहरणों से उसे सिद्ध किया और अंत में सब लुगाइयों ने मिलकर "कसरत राय" से यही फैसला दिया की "सुखदा निर्दोष है। जो कुछ कुसूर है उसकी जेठानी, उसके पति और उसके बाप का।" दो एक बड़ी बूढी तैश में आकर पंडित जी को समझाने के लिये भी गई परंतु उनकी लाल लाल आँखें और चढ़ी हुई भृकुटी देख कर डर के मारे दवे पाँच वापस आ गई। इतना लिखने से प्यारे पाठक यह न समझ बैठें कि सब ही ने सारा कसूर प्रियंवदा के माथे थोपा हो। उनमें से कितनी ही उसे निर्दोष सती और भली समझने वाली भी निकलीं। उन्होंने उसका पक्ष करने में कमी न की। इस बात पर उन स्त्रियों को आपस में खूब लड़ाई हुई। दोनों ओर से गालियों के खूब गोले बरसे। लड़ाई में कितनी ही औरतों की साड़ियाँ फट गई, अंगिया फट गईं, लंहगे फट गए और गाल नोच नुचा कर लहू लुहान हो गए।
पंडित जी अभी तक विचार में मग्न थे। वे नहीं चाहते थे कि इन लुगाइयों की लड़ाई में पड़ कर अपनी भी पत धूल में मिला दें क्योंकि उनमें कितनी ही औरतें ऐसी भी थीं जो मामला आ पड़े तो उनके सिर की पगड़ी उतार लें। परंतु जब नौवत यहाँ तक पहुँच गई तब उनसे रहा न गया। वे अपने पोथी पत्रा यों ही डाल कर लाल लाल आँखें निकाले, क्रोध के मारे होंठ फड़फड़ाते अपनी कोठरी से बाहर हुए। बाहर आकर उन्होंने एक ललकार मारी। वे बोले―
"कोई है भी यहाँ? अरे मुलुआ! अजी रामदुलारे! ए नसीरखाँ! अवे सेवा! इन राड़ों को अभी कान पकड़ कर निकाल दो। उन्हों ने मेरे कान खा डाले! और (अपनी घर वाली और लड़की के लिये) यदि ये कुछ चीं चपड करें तो इन्हें भी निकाल डालो।"
बस पंडित जी का ऐसा क्रोध देख कर किसी ने लंबा घूँघट तान लिया, कोई लज्जित होकर और औरतों की आड़ में छिप गई और सब ही उनको गालियाँ देती हुई आपने अपने घर चली गई। बस पाँच मिनट में मैदान खाली हो गाया और बात अधिक चंग पर चढ़ जाने से यदि पंडित जी को सचमुच हो गुस्सा आजावे तो वे तुरंत ही अपनी घर वाली को अपनी बेटी को लात मार निकाल ही दें, बस इसी डर से वे भी रो धो कर चुप हो गई।
वे चुप अवश्य हुई परंतु उनका अंतःकरण चुप न हुआ। वे मन ही मन जिस तरह के उधेड़ बुन में लगी रहीं, उनकी अनुपस्थिति में जो जो उनकी आपस में सलाह हुई और इसी प्रकार से जिस तरह का घाट पंडित जी अपने मन में घड़ते रहे, सो आगे चल कर किसा न किसी सूरत में प्रकट हो ही जायगा, परंतु पंडित जी ने उनसे बोलना, उनकी ओर आँख उठा कर देखना तक छोड़ दिया। जब दोनों ने मिल कर उनकी बहुत खुशामद की, खूब चिरौरी की, हाथ जोड़े, आँचल बिछाए और क्षमा माँगी तब पंडित जी ने कह दिया―
"अब बहुत हुआ। हद्द हो गई। बस हुआ। सहनशीलता का भी कहीं छोर है। बस क्षमा करो। 'धाया तेरे रीझने से खोजना ही निवार।' अब तुम अपने और मैं अपना। तुम्हारे मन में आवे सो करो। यह घोड़ा और यह मैदान। "जिमि स्वतंत्र होइ बिगरहिं नारी।" तुम्हारा अंकुश निकल गया। खैर? मेरा प्रारब्ध? भावी बलवान् है? ईश्वर की इच्छा कुछ ऐसी ही है?"
इसके अनंतर क्या हुआ सो यहाँ न लिखना किस्से को उलझन में डालना है और ऐसा करने से मामला तूल भी पकड़ेगा, इस लिये संक्षेप से यहाँ जतला देना चाहिए कि इस घटना के बाद पंडित वृंदावन बिहारी अपने घर में न रहे अपने गाँव में न रहे और गृहस्याश्रम में न रहे। वह इस तरह घर बार छोड़ कर, घर वाली और घर वालों से, धन दौलत से सगे संबंधियों से नाता तोड़ कर शिखा सूत्र का त्याग करके, न मालूम किधर चले गए। उन्होंने चोटी किससे कट- बाई, किसको गुरु बनाया और कब बनाया सो शायद कभी वही अपने मुख से बतावें तो मालूम हो सकता है। अभी तक उनके सिरहाने तकिए के नीचे जो एक पर्चा मिला उससे इतना ही मालूम हो सका कि―
'जब गृहचरित्र से, कुटुंब क्लेश से बड़े बड़े देवताओं को पराकाष्टा का दुःख भोगना पड़ा है, जब कुटुंब क्लेश ने महाराज दशरथ के प्राण लेकर भगवान रामचंद्र जी को घर से निकलवा दिया जब गृह चारित्र से―
"एका भार्या प्रकृतिसुखरा, चंचला च द्वितीय,
पुत्रस्त्वेको भुवनविजयी, मन्मथो दुर्निवार:
शेषः शय्या जलधि शयनं वाहन पन्नगारिः
स्मारं स्मारं स्वगृहचरितं दारुभूतो मुरारि;"
भगवान जगन्नाथ जी को भी काष्ट का हो जाना पड़ा तब मेरी क्या विसात? खैर जो कुछ हुआ मेरे भले ही के लिये है। यदि यह घटना न होती तो मैं संसार के बंधन से मुक्त भी न होता। श्री कृष्णभक्त महात्मा नरसिंह (नरसी) जी को जब भौजाई के ताने से तंग आकर घर छोड़ना पड़ा तब उन्होंने भाभी से नाराज होने के बदले उस का उपकार माना भी था और कपिराज सुग्रीव ने मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्र जी से―"बालि परमहित जासु प्रसादा, मिले मोही प्रभु शमन विपादा।" कहकर वैरी वाली को धन्यवाद दिया था। यदि भगवान की कृपा से मेरी भी नरसी जी की तरह मनो- कामना सिद्ध हो जाय तो मेरा सौभाग्य। बस इस लिये, इसी आशा से मैं भी इन दोनों का उपकार मानता हूँ। जब इन्होंने कोई ऐसा काम ही नहीं किया तब इनके लिये राग होने का तो वास्ता ही क्या? धन दौलत मिट्टी है। न सदा किसी के पास रहा और न रहेगा। किंतु हाँ! इनके खोटे बर्ताव पर घृणा करके मेरे अंतःकरण में द्वेष नहीं है। अब भी भगवान इन्हें सुबुद्धि दे तो ये सुख से रह सकती हैं। नहीं तो जैसा करेगी वैसा पावेंगी।"
माँ के लिये काला अक्षर भैंस बराबर था। बेटी थोड़ी थोड़ी मथुरा की संगति से पढ़ चुकी थी परंतु वह भी इस पत्र को अच्छी तरह न पढ़ सकी और इस लिये अपने पड़ोसी के लड़के को बुला कर पढ़वाया। सुनते ही दोनों के होश उड़ गए। "हाय अनर्थ होगया।" कहकर माता मूर्छित हो गई। बेटी ने भी गगनभेदी रूदन से सुननेवालों का कलेजा फाड़ डाला। विस्तार जानने के लिये तो प्यारे पाठक कुछ धैर्य्य धारण करें किंतु सार यही है। इनका सारा धन धूल में मिल गया। ये अब दाने दाने को मुहताज हो गईं और इन्हें अपने किए का फल यहाँ ही मिल गया।
खैर। जो हुआ सो हुआ किंतु घर छोड़ने के पूर्व एक चिट्ठी जिसमें न मालूम क्या क्या लिखा था लिख कर पंडित वृंदावद बिहारी आपने दामाद के नाम भेज गए थे।
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