आदर्श हिंदू १/११ सुखदा—नहीं दुःखदा
प्रकरण―११
सुखदा―नहीं दुःखदा।
जब कौरव-कुल-तिलक सुयोधन ही अपने कुकर्मों के कारण दुर्योधन कहलाया गया तब पति को गालियाँ देनेवाली, परमेश्वर तुल्य प्राण नाथ की झाडू से खबर लेनेवाली और इस तरह अपना घोर अपराध होने पर भी पति से क्षमा माँगने के बदले रूठ कर चली जानेवाली सुखदो को कोई दुःखदा कह दे तो उसका दोष क्या? यह अवश्य ही दुःखदा के नाम से चिढ़ती थी। यदि किसी के मुँह से उसके सामने भूल से भी दुःखदा निकल जाय तो वह कहनेवाले की सात और सात चौदह पीढ़ी के पुरुखाओं को गालियाँ देते देते स्वर्ग से टाँग पकड़ कर नरक में ला डालती थी, वह कहनेवाले पर सत्रह भाटे लेकर मारने को दौड़ती थी और ऐसे ज्यों ज्यों वह चिढ़ती थी त्यों ही त्यों लोग अधिक अधिक उसे चिढ़ाते थे।
छठे प्रकरण में लिखी हुई घटना के अनंतर वह चली अवश्य! चली क्या? पीहर के धन का भूत जो उसके सिर पर सवार था उसे लिवा ले गया। यदि माता पिता से गहरा धन पाने पर भी वह दुलार में न पली होती, यदि माता की उसे हिमायत न होती तो वह हजार लड़ाई हो जाने पर भी पति नारायण के चरण कमलों को छोड़ कर जाने का हियाव ही न करती। मैके के कुसंस्कार से उसके मन में ऐसा कुविचार उत्पन्न हुना और ऐसे समय फूँक कर आग सुलग देने का काम उसकी पड़ौसिन ने किया। उसका नाम मथुरा था, किंतु इस समय पंडित जी के कुटुंब में कलह का दावानल प्रज्वलित करने के लिए वह मंथरा बन गई। वह लाख क्रोधी, सिर चढ़ी और ढीठ होने पर भी एक भले घर की बेटी और दूसरे भले घर की बहू थी। यदि मथुरा―मंथरा न मिलती तो शायद घर की चौखट लाँघने का उसे साहस ही न होता। कुलवधुएँ कहा करती हैं कि "जो चौखट पार लो दुनियाँ पार।" उनका कहना यथार्थ भी है। जब तक लड़ाई झगड़ा, बुराई भलाई घर की घर में रहे तब तक गृहस्थी के बड़े से बड़े उलझन के मसले सहज में, काल पाकर आप सुलझ जाते हैं। "देहली पर्वत है"। किसी काम के लिये घर की देहली को लाँध कर बाहर निकलना भी मुशकिल्ले और निकल जाय तो वापिस पाना भी कठिन।
क्रोध के भूत ने सुखदा को ऐसी बातें सोचने का अवसर ही न दिया और इस समय मथुरा की सलाह से वह "पहले हो कडुवी करेली और फिर नीम चढ़ी "बन गई। मथुरा ने उसे रंग पर चढ़ाते चढ़ाते यहाँ तक कह डाला कि―
"एक बार तू करके तो देखा निपूता झख मारता तुझे मनाने न आवे तो मेरा नाम! न आवेगा तो आप ही भूखों मर जायगा! प्रथम तो उस भिखारी को इतना पैसा ही कहाँ नसीब कि जन्म भर पड़ा खावे तो भी न बीते, फिर भाई ने उसे कुछ सहारा भी दिया तो उसे करके खिलावेगा कौन? उस नखराली भौजाई से रोटियाँ सेक कर खिलाना बनेगा? चार दिनों में लात मार कर निकाल देगी!"
"बहन, तेरी सलाह तो ठीक है। अब मैंने भी सोच लिया है। इस घर में पानी भी न पीयूँगी। पर जाऊँ भी तो जाऊँ कहाँ? कहीं जाकर माथा मारने का ठिकाना भी तो चाहिए। गुस्सा तो ऐसा आता है कि जहर खाकर सो रहूँ। मैंने मर मिटने के लिये अफीम की डिबिया भी निकाल ली थी। लेकिन (कुछ हँसी सी दिखाकर) महीने दो एक की आस है बस इसी विचार से रुक गई।"
"अरे तेरे लिये कहीं ठिकाना ही नहीं है? जिसकी माँ जान देने तक को तैयार उसके लिये माथा मारने को ठिकाना नहीं? देखो बात! मैं अपने ही यहाँ रख सकती हूँ। ऐसे संकट की बिरियाँ प्यारी बहन को मदद देने के लिये मेरा सिर तक हाजिर है पर करूँ क्या? मैं (अपने पति की ओर इशारा करके) उनसे डरती हूँ।"
"हाँ बहन सच है! पर मेरे बाप का मिजाज बहुत बुरा है। उनको पहले ही इन लोगों ने चुगलियाँ खा खा कर बहका रक्खा है। जो नाराज हो जाँय तो घर में घुसने तक न दें।"
"अरे बावली, माँ बाप कहीं बेटे बेटी से ऐसे नाराज हुआ करते हैं? तिसमें तू एकलौती बेटी। और जो तेरा बाप ही नाराज हो जाय तो करेगा क्या? तेरी मा के आगे उसकी कुछ चल थोड़े सकती है। वही लुगाई का गुलाम है। जरा तेरी माँ ने कुछ नखरा दिखलाया कि वस हाथ जोड़ने लगेगा। मैं कहती हूँ और छाती ठोक कर कहती हूँ कि तू जा और जब तक तेरा आदमी तेरे पैरों में पगड़ी डालकर न लावे कभी इस घर का मुँह न देखियो। तेरी माँ के यहाँ जो कुछ है तेरा ही है। तेरे बाप के एक तेरे सिवाय कोई लड़का बाला भी तो नहीं है।"
"हाँ वेशक! पर मुझे अपने चाचा जी का डर है। उनका स्वभाव बड़ा चिड़चिड़ा है। वह जिद्द में आकर घर में न घुसने दें तो मैं न घर की रहूँ न घाट की।"
"और न भी घुसने दें तो हर्ज क्या है? (कुछ मुसकरा कर) वहाँ चली जाना।"
"चल निगोड़ी (कुछ हँसती हुई उसके एक धक्का मार कर) ऐसे दुःख के समय तुझे दिल्लगी सूझी है। तू ही जाना? उनके यहाँ?"
"चल! चल! तेरे सब गुण मेरे पेट में हैं।"
"और तेरे मेरे पेट में हैं!!"
बस इस तरह मंथरा मथुरा ने जब सुखदा को पक्का कर लिया तब उसके लिये गाड़ी का प्रबंध किया। रात ही रात में सब घर का सामान दोनों ने ढो ढो कर गाड़ी में भरा और भोर होते ही सुखदा वहाँ से चला दी। इस समय प्रश्न यही उठता है कि यह मथुरा कौन थी और उसने कांतानाथ से किस जन्म का बैर लेने के लिये सुखदा के भड़कते हुए क्रोध को अधिक भड़का कर उसके हाथ से ऐसा कुकर्म कराया। अथवा पराया घर फोड़ने की उसकी आदत ही थी! खैर इस सवाल का जवाब पाने के लिये पाठकों को कुछ समय तक राह देखनी पड़ेगी।
गाड़ी में सवार होने के बाद जब सुखदा का जोश कुछ कम हुआ तब उसने अपनी सहेली से पूछा भी कि–"रास्ते में मुझे कोई लूट ले तब?" परंतु मथुरा ने यह कह कर–"आज कल अंग्रेजों के राज में कोई लूटनेवाला नहीं? भले ही सोना उछा- लते चले जाओ और फिर गाड़ीवान भी मैंने ऐसा कर दिया है जो अपनी जान दे दे पर तेरा एक पैसा न लेने दे। तू डर मत! सुख से चली जा! और है ही कितनी दूर। मैं तो अभी पैदल फटकारूँ तो बारह वहाँ जाकर बजाऊँ।"
अपनी सहेली के शब्दों से संतोष पाकर सुखदा वहाँ से चली अवश्य परंतु ज्यों ज्यों गाड़ी आगे बढ़ती गई त्यों त्यों उस का कलेजा अधिक अधिक धड़कने लगा। कहीं पत्ते की खड़- खड़ाहट सुनाई दी और "चोर आ गया" कहीं दो चार आदमी इकट्ठे दिखाई देते ही "डाका"। उसे पेड़ पेड़ में नाले नाले में और जंगल जंगल में चोर, उचक्के, उठाईगीर और डकैत दिखलाई देने लगे। उसमें और चाहे कितने ही दोष क्यों न हों परंतु इसमें उसका बिलकुल दोष न था। उसने एक दो, नहीं बीस वार कहा कि―"भैया रास्ता छोड़ कर जंगल में कहाँ लिये जाते हो?" उसने चिल्ला चिल्ला कर कहा कि―"इस गाड़ीवाले की नियत खराब मालूम होती है।" परंतु जो सचमुच बहरा हो वह तो शायद अधिक जोर देने से थोड़ा बहुत सुने तो सुने भी ले किंतु मतलबी बहरा ढोल बजाने पर भी नहीं सुन सकता। इस तरह बारह बजे पहुँचा देने के बदले जिस समय पाँच बजे वह गाड़ी को लेकर एक बयावान जंगल में पहुँचा। और वहाँ पहुँचते ही वह इधर गाड़ी टूट जाने का बहाना करके कुल्हाड़ी से जब खटखट करने लगा तो उधर जंगल में झाड़ियों की आड़ में से पाँच लठैतों ने निकल कर फौरन गाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। उसने इन्हें देख कर बहुतेरी गालियाँ दी, यह बहुत रोई चिल्लाई, इसने बहुतेरी हाहा खाकर उनके आगे अपना आँचल बिछाया परंतु उन लोगों ने इसकी एक भी न सुनी। उसने उनसे अपना जेबर देते हुए ची चपड़ भी कम न की परंतु एक आदमी जब लट्ठ से उसकी खोंपड़ी फोड़ने को तैयार हो गया, दूसरे ने उसके इस जोर से थप्पड़ें मारीं कि उसके नाक में से नकसीर चल निकली और तीसरा पैर के कड़े खुलने में देरी होते ही जब कुल्हाड़ी से पैर काट डालने को तैयार हुआ तब उसने अपने हाथ से अपना गहना उतार उतार कर दे दिया। दे क्या राजी खुशी से दिया? वे सब छीन कर ले गए। राई रत्ती ले गए। पानी पीने के लिये एक लोटा तक न छोड़ा। जहर खाने के लिये एक पाई तक नहीं। लाज ढाँकने के लिये कपड़े के नाम पर यदि एक फटी साड़ी भी दे देते तो कुछ बात भी थी परंतु सब बातों का सार यही है कि उन्होंने एक लंगोटी के सिवाय कुछ भी न दिया और उसी समय ये पाँचों और छठा गाड़ीवान चैलों की जोड़ी को लिए हुए जल्दी जल्दी कदम बढ़ाकर वहाँ से चंपत हुए। जब तक यह अपनी नजर के हरकारे भेजकर उनका पीछा कर सकी इसने किया और उनमें से इसने कुछ कुछ एक आदमी को पहचाना भी। यह शायद अधिक भी पहचान लेती परंतु एकाएक इसके कानों पर "मारो! मारो!" और "पकड़ो! पकड़ो!!" की आवाज आई। और बात की बात में आठ दस आदमियों ने उन पाँची को घेर लिया। घेरते ही दोनों ओर से खूब लठबाजी हुई। इसके देखते देखते दोनों ओर के दो तीन आदमी घायल होकर गिर गए, उनकी खोपड़ियाँ फरकर लहू से धरती लाल हो गई और एक पल भर में "हाय मरारे? हाय वेतरह मारा गया?" के गगनभेदी रुदन ने उस प्रशांत जंगल के पशु पक्षियों में हल चल मचा दी। जब इसके पास का सब माल मता लुट चुका था तब "नंगे का चोर क्या छीनै?" इस कहावत से इसे भय चोरों का भय नहीं था। इसलिये यह घने पेड़ों की आड़ में खड़ी रहकर यह देखना चाहती थी कि ये चोर कौन है? और उन्हें मार कूट कर चोरी में से मोरी करने, उनके पास से माल ताल छीन कर उनकी मुश्के कस लेनेशले कौन? इसीलिये प्राण भय होने पर भी यह थोड़ी देर तक वहाँ डटी रही किंतु जब वे लोग लाठी से आपस में लड़ते झगड़ते इसकी ओर बढ़ने लगे तब यह एकाएक डर के मारे काँप उठी। इसे भय हुआ कि "कहीं मुझे भी इन चारों की तरह नाँध ले जाँय तो? अथवा मैं किसी कह दूँगी इस शक से मुझे कोई मार ही डाले तो नाहक जान जाय।" इस तरह का भय पैदा होते ही यह भागी। भागते हुए इसने कई बार ठोंकरे खाईं, कई बार धरती पर गिरकर इसने दंडवत की। गिरने पड़ने से इसका शरीर छिल गया, जगह जगह खून निकल आया और ऐसे गिरती पड़ती जब रात के ग्यारह बजे अपने पिता के दर्वाजे पर पहुँची तब यह लगभग अधमरी सी होकर धड़ाम से धरती पर गिरकर बेहोश हो गई।
जब वह मूर्च्छित ही हो गई तब यदि वह पनाले के कीचड़ में गिरी तो क्या? और उसके मुँह को कुत्ते ने चाटा तो क्या? परंतु उस बेहोशी की दशा में जब जब इसे थोड़ा बहुत भी चेत हुआ तब तब इसकी माता ने इसके टूटे फूटे शब्दों को इकट्ठा कर के जो मतलब निकाला उसका भाव यह था―
"मैंने जैसा किया वैसा पा लिया। मैं जो अपने आदमी से रूठ कर उस हरामजादी के बहकाने से अपना सारा माल सता न ले आती तो चोर ही मुझे क्यों लूटते? मैंने अपनी आँखों से देख लिया कि लुटेरों में मथूरिया का आदमी था। परंतु हाय? अब मैं क्या करूँगी? मेरा धन गया, कपड़े गए, जेवर गया और चोरों को पकड़ ले जाने वालों में जो कहीं वे ही हों तो उनके भी चोट इतनी आई है कि उनका बचना मुशकिल। हाय? अब मैं विधवा होकर कैसे जियूँगी। मैंने जैसा किया वैसा पाया। कुसूर मेरा ही है। मुझे खूब दंड मिल गया। हाय मैं मरी? अरे कोई मुझे बचाओ?"
अपनी बेटी का दुःख देखकर माता बहुत रोई। पिता को कष्ट अवश्य हुआ परंतु इसलिये नहीं कि बेटी का सारा मालताल लुट गया। क्योंकि जब वह अपने खाविंद से रूठकर आई थी तब उसे ऐसा दंड देने में परमेश्वर ने न्याय ही किया किंतु दुःख इसलिये हुआ कि उनकी कर्कशा बेटी ने अपने आदमी को सताया और वे उसे छुड़ाने ही में बहुत घायल हुए।
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