आग और धुआं/5
हेस्टिग्स तेजस्वी और कर्मठ युवक था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अन्य गुमाश्तों की भाँति वह रिश्वत और अन्याय को पसन्द नहीं करता था। क्लाइव के साथ युद्ध में भाग लेकर उसने अपने देश के प्रति पवित्र कर्तव्य निभाया था। उसने जिस विधवा से विवाह किया था, वह दो पुत्र छोड़कर स्वर्गवासिनी हुई। हेस्टिग्स ने पिता की भाँति पुत्रों की देखभाल की। परन्तु
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एक पुत्र तो बचपन में ही मर गया, दूसरे को उसने इंगलैंड अपनी बहन के पास पालन-पोषण के लिए भेज दिया। उसका व्यय वह वहां भेजता रहता था।
सन् १७६१ तक हेस्टिंग्स मुर्शिदाबाद की ऐजेण्टी करते रहे, बाद में उन्हें कौंसिल का मेम्बर बनाकर कलकत्ते भेज दिया गया। उस समय कलकत्ते के गवर्नर वेनसीटार्ट थे, जो हेस्टिग्स के बहुत प्रशंसक थे।
कौंसिल के मेम्बर की हैसियत से हेस्टिग्स १७६२ में पटना की दशा देखने गए। उन दिनों पटना बाहर जन-शून्य था। व्यापार बन्द था, दुकानें बंद थीं। अंग्रेजों की लूट-खसोट से डरकर लोग भाग गए थे। इस दयनीय दशा को देखकर उनका युवक हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने कलकत्ता गवर्नर को लिखा-पटना में भारी अन्याय हुआ है, नवाब और हमारे अधिकारियों में समझौता हुए बिना इस प्रकार के अत्याचार नहीं रोके जा सकते।
हेस्टिग्स ने इन झगड़ों का अध्ययन करके ठोस प्रस्ताव बनाये, जिन्हें लेकर वह मीरकासिम से मिला। हेस्टिग्स और मीरकासिम के बीच उन प्रस्तावों पर उचित विचार हुआ, जिसे दोनों ही पक्षों ने स्वीकार किया। परन्तु जब कलकत्ता काउन्सिल में हेस्टिंग्स के समझौते की रिपोर्ट पहुँची, तब अधिकांश स्वार्थी अंग्रेजों ने उसका विरोध किया और उसे रद्द कर दिया। इस कारण मीरकासिम से फिर विग्रह छिड़ा, जिसमें उसे पराजित होकर बंगाल से भागना पड़ा। अंग्रेजों ने बंगाल में विजय प्राप्त की।
हेस्टिग्स को इंगलैंड से भारत आए चौदह वर्ष बीत चुके थे। उन्होंने कौंसिल की सदस्यता से त्यागपत्र देकर अपने देश जाने की तैयारी की। उनके मित्र गवर्नरवेनसीटार्ट भी उनके साथ स्वदेश लौटने को तैयार हुए। हेस्टिग्स चौदह वर्ष बाद अपने घर लौट रहे थे। उन्हें अपनी बहन मिसेज बुडमैन और अपने प्रिय पुत्र की स्मृति बेचैन कर रही थी। अपने पुत्र को अपने हृदय से लगाने की आशा में ज्योंही वे जहाज से उतरकर इंगलैंड भूमि पर उतरे। उनकी बहन उदास मुख उनके स्वागत के लिए तैयारखड़ी थी। पुत्र को उसके साथ न देखकर उन्होंने पूछा-"वह कहाँ है?"
बहन ने भाई को अपने गले से लगाते हुए रुंधे कण्ठ से कहा-"अभी दो दिन पहले ही संक्षिप्त बीमारी में उसका निधन हो गया है।"
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हेस्टिग्स यह सुनकर विमूढ़ हो गए। उन्होंने बहन को कसकर पकड़ लिया। उन्होंने कहा-"मुझे संभालो, मैं गिर रहा हूँ।"
बहन ने उनके दुख को धीरे-धीरे कम किया। हेस्टिग्स इंगलैंड में रह। कर कम्पनी के कर्मचारियों को अधिक शिक्षित करने के उपाय करने लगे। उन्होंने वहाँ एक ट्रेनिंग कालिज खुलवाया, जिसमें भारत में जाकर नौकरी करने वाले अंग्रेजों को हिन्दी, उर्दू, फारसी भाषा की शिक्षा देकर वहाँ की कार्य-प्रणाली सिखाई जाती थी।
हेस्टिग्स जो रुपया भारत से कमाकर ले गए थे, धीरे-धीरे सब खर्च हो गया और चार वर्ष बीतते-बीतते उन्हें अर्थसंकट रहने लगा। उन्होंने फिर भारत आने के लिये प्रयत्न किया। भाग्य से मद्रास की कोठी के लिए एक सुयोग्य व्यक्ति की आवश्यकता थी। हेस्टिंग्स को उस पद पर नियुक्त करके भेजा गया। सन् १७६६ में ड्यूक ऑफ ग्रंफटन नामक जहाज पर उन्होंने भारत यात्रा की। इसी जहाज में एक जर्मन यात्री बेरनइमहाफ भी भारत आ रहे थे। उनकी अत्यन्त सुन्दर पत्नी भी उनके साथ थी। जहाज प्रवास में उनकी पत्नी का हेस्टिग्स से प्रेम-भाव उत्पन्न हुआ। मद्रास पहुँचकर हेस्टिंग्स बीमार पड़ गए, जिसमें इमहाफ पत्नी ने उनकी सेवा-सुश्रूषा की। इस समय तक दोनों में प्रगाढ़ प्रेम हो चुका था। इमहाफ उन दिनों घोर अर्थकष्ट में थे तथा अपनी सुन्दर पत्नी की इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाते थे।
हेस्टिग्स और इमहाफ की पत्नी ने परस्पर विवाह करने का निश्चय किया।
एक दिन इमहाफ को बहुत अधिक चिन्ताग्रस्त देखकर हेस्टिंग्स ने कहा -"मैं आपको चिन्तामुक्त कर सकता हूँ।"
इमहाफअपनी पत्नी के विश्वासघात से दुखी तो थे ही, उन्होंने विरक्त मन से पूछा-"कैसे?"
"आपकी पत्नी को ग्रहण करके।"
इमहाफ कठोर दृष्टि से हेस्टिग्स को देखने लगे।
"पर इसमें आपका ही हित है। अब वह आपको प्रेम नहीं करती, मुझे करती है। मैं आपको उस पत्नी का मूल्य दे सकता हूँ, आपको उसकी सब
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चिन्ताओं से मुक्ति मिल सकती है।"
इमहाफ की आँखों से आँसू झरने लगे। परन्तु हेस्टिग्स ने उस ओर ध्यान न देकर कुछ स्वर्णं मोहरें उनके सामने बखेर दीं। उन्होंने इमहाफ के हाथ अपने हाथों में लेकर कहा-“सौन्दर्य मूर्ति और कमनीय मिसेज इमहाफ के सुखी भविष्य के लिए आप यह स्वीकार कीजिए।"
वह उठकर चले गये। इमहाफ आँसू भरे उन विखरी स्वर्णमुद्राओं को देखते रह गए।
मिसेज इमहाफहेस्टिग्स के घर आ गईं। इमहाफ भी वहीं रहने लगे, क्योंकि नियम के अनुसार अभी इमहाफ को अपनी पत्नी के तलाक की स्वीकृति देनी शेष थी। मिसेज इमहाफ ने हेस्टिंग्स के परामर्श और व्यय से फ्रेंकोनियन कोर्ट में तलाक की दरखास्त भेज दी। जब तक उसकी कार्यवाही पूर्ण नहीं हो जाती, जब तक लोकाचार के कारण इमहाफ को दिल पर पत्थर रखकर अपनी पत्नी का पति बने रहकर समय व्यतीत करना था। इस समय हेस्टिग्स की आयु चालीस वर्ष की थी।
मद्रास में उन्हें डूप्रे का सहायक बनकर कार्य करना पड़ा। उस समय कम्पनी के अधिकारी मैसूर के शासक हैदरअली के विरुद्ध षड्यन्त्रों का जाल रच रहे थे। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के बाद अब दक्षिण अंग्रेजों का अभिमान क्षेत्र था। परन्तु हेस्टिंग्स की दृष्टि इस ओर न थी। वह कम्पनी के व्यापार को अधिक लाभदायक बनाने के उपाय सोच रहा था। मद्रास में वह कम्पनी की कोठी का गुमाश्ते था। इंगलैंड भेजने के लिए जो भारतीय माल खरीदा जाता था, उसके जमा-खर्च और लदान का उत्तरदायित्व उन पर था। कम्पनी के कर्मचारी राजनैतिक स्वार्थों में फंसे रहते थे, व्यापार की ओर उनकी व्यवस्था ठीक नहीं थी। जुलाहों से घटिया माल तैयार कराकर बढ़िया माल के दाम बहीखातों में दिखाकर बाकी रुपया आपस में बाँट लेते थे। वे जुलाहों को जबरदस्ती पेशगी रुपये देकर घटिया माल तैयार कराते और लागत-मात्र का मूल्य उन्हें देते। इससे कम्पनी के कर्मचारी तो मालामाल होते गये, परन्तु जुलाहे गरीब होते गये। उन्हें ऋण भी लेना पड़ जाता था। दलाल अधिक रिश्वत लेकर कम्पनी को भारतीय माल खरीदवाते थे। माल की चौकसी भी ठीक नहीं होती थी। इन कारणों से
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इंगलैंड पहुँचते-पहुँचते भारतीय माल में लाभ की सम्भावना नहीं रहती थी।
हेस्टिग्स ने इन सब अव्यवस्थाओं में कड़ाई से सुधार किया। जुलाहों को कम्पनी के कर्मचारियों और दलालों से मुक्त कराया। माल की पूरी चौकसी की व्यवस्था की, जिससे व्यापार में लाभ होने लगा। उनकी कार्य-दक्षता से करनाटक, मैसूर और निकटवर्ती उत्पादन-क्षेत्रों में व्यापार में वृद्धि हुई।
इसी समय बंगाल में भारी दुर्भिक्ष की घड़ी आ उपस्थित हुई। १७६८ में बंगाल में अनावृष्टि के कारण बहुत कम उपज हुई, परन्तु कम्पनी के गुमाश्तों ने किसानों से मालगुजारी बहुत सख्ती से वसूल की। बीज के लिए रखे गए चावलों को भी उनसे वसूल कर लिया गया। अगले वर्ष १७६६ में उपज और भी कम हुई। धान के सब खेत सूखे और बिना उपज के पड़े हुए थे। इस भयानक दुभिक्ष के संकट की घड़ी में भी अंग्रेजों ने किसानों को निचोड़ कर २७९७३०६ पौंड की लगान-राशि अपने देश भेजी जबकि अब से १० वर्ष पूर्व यह राशि केवल १३६५६५६ पौंड थी।
उस समय भी कुछ लोग धनी थे। जगतसेठ, मानिकचन्द नष्ट हो चुके थे-पर कुछ धनी बच रहे थे। पर, क्या किसान, क्या धनी-अन्न बंगाल में किसी के पास न था। अफियाँ थीं-मगर कोई अन्न बेचने वाला न था।
अंग्रेजों ने बहुत-सा चावल कलकत्ते में सेना के लिए भर रखा था। यह सुनकर पूनिया, दीनापुर, बाँकुड़ा, वर्द्धमान आदि चारों ओर से हजारों नर-नारी कलकत्ते को चल दिये। गृहस्थों की कुलकामिनियों ने प्राणाधिक बच्चों को कन्धे पर चढ़ाकर विकट-यात्रा में पैर धरा। जिन कुल-वधुओं को कभी घर की देहली उलाँघने का अवसर नहीं आया था, वे भिखारिन के वेश में कलकत्ते की तरफ जा रही थीं। बहुमूल्य आभूषण और अशर्फियाँ उनके आँचल में बँधे थे, और वे उनके बदले एक मुट्ठी अन्न चाहती थीं।
पर इनमें कितनी कलकत्ते पहुंचीं? सैकड़ों स्त्री-पुरुष मार्ग में ही भूखे-मर गये, कितनों के बच्चे माता का सूखा स्तन चूसते-चूसते अन्त में माता की छाती पर ही ठण्डे हो गये। कितनी कुल-वधुओं ने भूख-प्यास से उन्मत्त
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हो, आत्मघात किया।
घोर दुर्भिक्ष समुपस्थित था। सूखे नर-कंकालों से मार्ग भरे पड़े थे। सहस्रों नर-नारी मर-मरकर मार्ग में गिर रहे थे। भगवती गंगा अपने तीव्र प्रवाह में भूखे मुर्दो को गंगासागर की ओर बहाये लिए जा रही थी। अपने अधमरे बच्चों को छाती से लगाये, सैकड़ों स्त्रियाँ अधमरी अवस्था में गंगा के किनारे सिसक रही थीं। पापी प्राण नहीं निकलते थे। कभी-कभी डोम अन्य मुर्दो के साथ उन्हें भी टाँग पकड़कर गंगा में फेंक रहे थे। जहाँ-तहाँ आदमियों का समूह हिताहित शून्य हो, वृक्षों के पत्तों को खा रहा था। गंगा-किनारे वृक्षों में पत्ते नहीं रहे थे।
कलकत्ता नगर के भीतर रमणियाँ एक मुट्ठी नाज के लिये अपनी गोद के प्यारे बच्चों को बेचने के लिए इधर-उधर घूम रही थीं।