आग और धुआं
चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ १२९ से – १३५ तक

 

सोलह

भारत के हृदय में अवध स्थित है। भारत में अंग्रेजों के आगमन के समय भी इस भूमि में अनेक उपयोगी आकर्षण थे। इस भूमि को देखकर अंग्रेजों ने इसे विपुल जलभूमि, ऊँचे-ऊँचे बाँस के जंगलों से लहराते हुए शोभायमान दृश्य, आम्रवृक्षों की घनी शीतल छाया और हरी-भरी फसलों से लहलहाती हुई शस्य श्यामला अत्यन्त वैभवशाली और मनोरम बताया था।

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इमली के वृक्षों की घनी छाया से, नारंगियों की सुगन्ध से, अंजीरों के मनोहारी रंगों से और पुष्प रेणुओं से सर्वत्र महकती हुई मधुर सुगन्ध से इस प्रकृत सुन्दर भूमि के वैभव में चार चाँद लग गए थे।

दिल्ली इस्लाम की परम प्रतापी राजधानी अवश्य रही, परन्तु इस्लामी नजाकत, जो ऐयाशी और मद से उत्पन्न हुई थी उसका जहूर तो लखनऊ ही में नजर आया। आज भी लखनऊ अपनी फसाहत और नजाकत के लिये मशहूर है। लखनऊ के नवाबों के एक-से-एक बढ़कर मजेदार और आश्चर्यजनक कारनामे सुनने को मिलते हैं। वह बाँकपन, वह अल्हड़पन, वह रईसी बेवकूफी दुनिया में सिर्फ लखनऊ ही के हिस्से में आई थी। आजभी वहाँ सैकड़ों नवाब जूते चटकाते फिरते हैं। यद्यपि अंग्रेजी दौरे-दौरे ने लखनऊ को पूरा ईसाई बना दिया था, पर कुछ बुढ़ऊ खूसट अब भी गज-भर चौड़े पायचे का पायजामा और हल्की दुपल्ली टोपी पहनकर उसी पुराने ठाठ से निकलते हैं। ताजियेदारी के पुराने शाही जल्बों के दिन मानो लखनऊ कुछ देर के लिए भूल जाता है कि अब हम बीसवीं सदी के नवीन आलोक में है। इस समय भी उसमें वही शाही छटा देखने को मिलती है। आज भी वहाँ नवाब कनकव्वे और नवाब बटेर देखने को मिल सकते हैं। खम्मीरी तम्बाकू की भीनी महक में डूबकर प्रत्येक पुराना मुसलमान अब भी अपने ऊपर इतराता है।

लखनऊ की नवाबी की नींव नवाब सआदतखाँ बुर्दामुल-मुल्क ने डाली थी। उसका असली नाम मिरजा मुहम्मद अमीन था। उन दिनों दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद शाह रंगीले मौज कर रहे थे। अवध तब शेखों ने बड़ा ऊधम मचा रखा था। उनकी देखा-देखी दूसरे जमींदार भी सरकश हो उठे थे। जो कोई अवध का सूबेदार बनकर जाता, उसे ही मार डालते थे। इसलिये बादशाह किसी जबरदस्त आदमी की तलाश में थे। सआदतखाँ और आसफजाह दो पराक्रमी सरदारों से बादशाह सलामत सशंक रहते थे और इन्हें दरबार से हटाना चाहते थे। अतः अब अवसर देखकर सआदत को अवध और आसफजाह को हैदराबाद दक्षिण की सूबेदारी देकर उन्होंने इन्हें दूर किया।

बादशाह ने मिरजा साहब को अवध की सूबेदारी और खिलअत तो दे

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दी थी पर फौज का कोई भी बन्दोबस्त न था। मिरजा साहब ने हिम्मत न हारी। उन्होंने दिल्ली के आवारा और बेकार मुसलमान युवकों को बटोर-कर संगठित किया और कहा-"क्यों पड़े-पड़े बेकार जिन्दगी बरबाद करते हो? खुदा ने चाहा तो अवध पर दखल करके मजा करेंगे।"

कुछ ही दिनों में हजारों आदमी जमा हो गये। कुछ तोपें और हथियार शाही शस्त्रागार से मिल गए। इस फौज को दिल्ली से अवध तक ले जाने और सामान के लिये बैल खरीदने को मिरजा ने अपनी बेगम के जेवर तक बेच डाले।

जब मिरजा इस ठाठ से चले तो रास्ते में आगरे के सूबेदार ने इनकी खातिरदारी करनी चाही। आपने कहा-"जो रुपया मेरी खातिर-तवाजे में खर्च करना चाहते हो, वह मुझे नकद दे दो, क्योंकि रुपये की मुझे बड़ी जरूरत है।"

आगरे के सूबेदार ने यही किया।

वहाँ से बरेली पहुंचे तो वहाँ के सूबेदार से भी दावत के बदले रुपया लेकर फर्रुखाबाद आये।

वहाँ नवाब ने कहा-"लखनऊ के शेख बड़े लड़ाके और अवध के आदमी भारी सरकश हैं। आप एकाएक गंगा पार न कर, पहले आसपास जमींदारों और रईसों को मिला लें, तब सबकी मदद लेकर लखनऊ पर चढ़ाई करें।"

मिरजा ने यही किया और जब वे धूमधाम से लखनऊ पहुँचे और शेखों को अपने आने की सूचना दी तो वे इनकी सेना से डर गये और कहा--'आप गोमती के उस पार मच्छी-भवन में डेरा डालिये।"

मच्छी-भवन अनायास ही दखल हुआ देखकर मिरजा बहुत खुश हुए, क्योंकि उन्हें आशा न थी कि बिना रक्तपात हुए सफलता मिल जायगी।

नवाब ने अपने सुप्रबन्ध और चतुराई से थोड़े ही दिनों में सूबे की आमदनी सात लाख रुपया कर ली और अट्ठाईस वर्षों तक बड़ी सफलता से शासन किया। मृत्यु के समय खजाने में नौ करोड़ रुपये जमा थे।

उनकी मृत्यु पर उनके भांजे और दामाद मिरजा मुहम्मद मुकीम अबुल मन्सूरखाँ सफदरजंग के नाम से वजीरे-नवाब नियुक्त हुए। वह

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अपनी राजधानी लखनऊ से उठाकर फैजाबाद ले गये। यहाँ नवाब की सेना की छावनी थी। वह बुद्धिमान न थे, इसलिए उनका जीवन युद्ध और झगड़ों में बीता। उनके समय में शेख फिर सिर उठाने लगे। अन्य सरदार भीबागी हो गये।

उनमें एक गुण था कि वे एक नारी-व्रती थे। उनकी पत्नी नवाब सदरजहाँ बेगम युद्ध-स्थल में भी छाया की भाँति उनके साथ रहती थीं। वह सोलह वर्ष नवाबी भोगकर मरे।

उनके बाद मिरजा जलालुद्दीन हैदर नवाब शुजाउद्दौला के नाम से मसनद पर बैठे। वह चौबीस वर्ष की आयु के वीर युवक थे पर चरित्र ठीक न था। गद्दी पर बैठते ही किसी हिन्दू स्त्री का अपमान करने के कारण हिन्दू बिगड़ गये। परन्तु इनकी माता ने बहुत कुछ समझा-बुझाकर हिन्दू-रईसों को शान्त किया। उन्होंने बाईस वर्ष तक नवाबी की। उनके जमाने में दिल्ली की गद्दी पर बादशाह शाहआलम थे, और बंगाल की सूबेदारी के लिये मीरकासिम जी-जान से परिश्रम कर रहा था। शुजाउद्दौला बादशाह के वजीर और रक्षक थे। मीरकासिम ने उनसे सहायता मांगी थी। उस समय अंग्रेजी कम्पनी के अधिकारियों ने मीरजाफर को नवाब बनाया था। शुजाउद्दौला ने एक पत्र अंग्रेज कौंसिल को लिखकर बादशाह के अधिकार और उनके कर्तव्यों की चेतावनी दी, पर उसका कोई फल न देख, युद्ध की तैयारी कर दी। युद्ध हुआ भी, परन्तु अंग्रेजों की भेद नीति से शुजाउद्दौला की हार हुई, उसमें नवाब को हर्जाने के पचास लाख रुपये और इलाहाबाद तथा कड़े के जिले अंग्रेजों को देने पड़े। अंग्रेजों का एक एजेण्ट भी उनके यहाँ रखा गया और दोनों ने परस्पर के शत्रु-मित्रों को अपना निजू शत्रु-मित्र समझने का कौल-करार भी किया।

नवाब को इमारतों का भी बड़ा शौक था। दस लाख रुपये के लगभग वह इमारतों पर भी खर्च किया करते थे। इनकी बनाई इमारतें आज भी लखनऊ की रोशनी हैं। दौलतगंज या दौलतखाना, जहाँ नवाब स्वयं रहते थे-इन्द्र-भवन के समान शोभा रखता था।

उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कौंसिल में वारेन हेस्टिग्स का दौर-दौरा था और मुगल-तख्त शाह आलम के पैरों के नीचे डगमगा रहा

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था। लखनऊ में भी कम्पनी का एक रेजीडेण्ट रहता था। उस समय तक रेजीडेण्टों को नवाब के सामने आने पर दरबार के नियमों का पालन करना पड़ता था और अन्य दरबारियों की भाँति उन्हें भी अदब के साथ नवाब से मिलना पड़ता था।

नवाब ने रेजीडेण्ट के रहने के लिये एक विशाल इमारत बनवाई थी जो १८५७ की घटनाओं के कारण अब बहुत प्रसिद्ध हो गई है।

एक बार नवाब घोड़े पर सवार सैर को निकले तो एक चूहा उनके घोड़े की टाप के नीचे दब गया। इस पर उन्होंने वहीं उसकी कब्र बनवा दी और एक बाग लगवाया, जो 'मूसा बाग' के नाम से प्रसिद्ध है। यह बाग नवाब को बहुत प्रिय था। इसी में बादशाह जानवरों की लड़ाई देखा करते थे। सन् १७७५ में उनकी मृत्यु हुई।

उनके बाद इनके तीसरे पुत्र मिरजा अनजीअलीखाँ आसफउद्दौला के नाम से गद्दी पर बैठे। ये प्रारम्भ में ७ वर्ष तक फैजाबाद में रहे। परन्तु बाद में लखनऊ चले आये और उसे ही राजधानी बनाया।

उनके लखनऊ आने से लखनऊ की तकदीर चेती। उस समय तक लखनऊ एक साधारण कस्बा था। आसफउद्दौला ने उसे अच्छा खासा शहर बना दिया। उन्होंने कई मुहल्ले और बाजार बनवाये। वह बड़े शाहखर्च, स्वाधीन प्रकृति के, और हिम्मतवाले शासक थे। उन्होंने सब पुराने दरबारियों को निकालकर नयों को नियुक्त किया। उनके जमाने में दरबार की शानो-शौकत देखने योग्य थी। दाता तो अनोखे थे। उनकी शाहखर्ची से उनकी माँ ने अंग्रेजों से कह-सुनकर खजाना अपने अधिकार में कर लिया था, परन्तु नवाब ने लड़-भिड़कर ६२ लाख रुपये ले लिये। होली, दीवाली, ईद, मुहर्रम के अवसरों पर लाखों रुपये स्वाहा हो जाते थे। ब्याह-शादी की दावतों में ५-५, ६-६ लाख रुपया पानी हो जाताथा। नवाब का अपना रोजाना खर्च भी कम न था। उनके यहाँ १२०० हाथी, ३००० घोड़े, १००० कुत्ते, अगणित मुर्गियाँ, कबूतर, बटेर, हिरन, बन्दर, साँप, बिच्छू और भाँति-भाँति के जानवर थे, जिनके लिए लाखों की इमारतें बनी थीं और लाखों रुपये खर्च होते थे। उनके निजू नौकरों में २००० फराश, १०० चोबदार और खिदमतगार तथा सैकड़ों लौंडियाँ थीं। ४ हजार तो माली थे। रसोई

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का खर्च ही २-३ हजार रुपये रोजाना का था। सैकड़ों बावर्ची थे। शाहजादे वजीरअली की शादी में ३० लाख रुपये खर्च किये थे। वह सिर्फ दाता और उदार ही नहीं, एक योग्य शासक और गुणग्राही भी थे। मीर, सौदा और हसरत आदि उर्दू के नामी कवि थे जो साल में सिर्फ एक बार दरबार में हाजिर होकर हजारों रुपये पाते थे। संगीत और काव्य के ऐसे रसिक थे कि एक-एक पद पर हजारों रुपये बरसाये जाते थे।

वारेन हेस्टिग्स को रुपये की बड़ी जरूरत थी। अंग्रेज कम्पनी ने नवाब से कई बड़ी रकमें बार-बार तलब की थीं। विवश हो नवाब ने चुनार के किले में हेस्टिग्स से मुलाकात की और बताया कि केवल सेना की मद्द में ही मुझे एक बड़ी रकम देनी पड़ती है।

अन्त में हेस्टिग्स ने यह निश्चय किया कि चूंकि स्वर्गीय नवाब शुजाउद्दौला मृत्यु के समय में अपनी माँ और विधवा बेगम को बड़े-बड़े खजाने दे गया है, और फैजाबाद के महल भी उन्हीं के नाम कर गया है, तथा ये बेगमें अपने असंख्य सम्बन्धियों, बाँदियों और गुलामों के साथ वहीं रहती थीं-अतः उनसे यह रुपया ले लिया जाय।

आसफउद्दौला यह शर्त सुनकर बहुत लज्जित हुआ, पर लाचार हो उसे सहमत होना पड़ा, और इसका प्रबन्ध अंग्रेज-अधिकारी स्वयं कर लेंगे, यह भी निश्चय हो गया।

मृत नवाब शुजाउद्दौला अपनी इन बेगमों को अंग्रेजों की संरक्षकता में छोड़ गये थे। परन्तु उस मनुष्यता को भुलाकर और उनका रुपया हड़पने का संकल्प करके इन विधवा बेगमों पर काशी के राजा चेतसिंह के साथ विद्रोह में सम्मिलित होने का अभियोग लगाया गया, और सर इलाइजाह इम्पे कहारों की डाक बैठाकर इस काम के लिए कलकत्ते से तेजी के साथ रवाना हुआ। लखनऊ पहुँचकर उसने गवाहों के हलफनामे लिये और बेगमों को विद्रोह में सम्मिलित होने का फैसला करके कलकत्ते लौट गया।

फैजाबाद के महलों को अंग्रेजी फौजों ने घेर लिया और बेगमात को हुक्म दिया कि आप कैदी हैं, और आप तमाम जेवरात, सोना, चाँदी, जवाहरात दे दीजिए।

जब उन्होंने इन्कार किया, तो बाहर की रसद बन्द कर दी गई, और वे

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भूखों मरने लगीं। अन्त में बेगमों ने पिटारों पर पिटारे और खजानों पर खजाने देना शुरू कर दिया। यह रकम एक करोड़ रुपये के अनुमानतः होगी।

इस घटना से अवध-भर में तहलका मच गया, और आसफउद्दौला का दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया।

इसके बाद हेस्टिंग्स ने कर्नल हैनरी को नवाब के यहाँ भेजा और उसे बहराइच तथा गोरखपुर जिलों का कलक्टर बनवा दिया। उसने उन जिलों पर भयानक अत्याचार किया, और तीन वर्ष के अन्दर ही पतालीस लाख रुपया कमा लिया। नवाब ने तंग होकर उसे बर्खास्त कर दिया, पर हेस्टिंग्स ने फिर उसे नवाब के सिर मढ़ना चाहा।

नवाब ने लिखा-"मैं हजरत मुहम्मद की कसम खाकर कहता हूँ कि यदि आपने मेरे यहाँ किसी काम पर कर्नल हैनरी को भेजा-तो मैं सल्तनत छोड़कर निकल जाऊँगा।"