आग और धुआं
चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ १०८ से – ११७ तक

 

तेरह

फ्रांस की राज्य-क्रान्ति के दिनों में वहाँ सभी दल शासन-सूत्र अपने हाथ में लेने के लिये आपस में झगड़ते रहते थे। जिस दल के हाथ में शासन अधिकार आ जाता, वही भाग्य विधायक समझा जाता। इन्हीं अधिकारियों के कारण उस समय फ्रांस में खून बहाया जा रहा था। विरोधियों के प्राण हरण के लिए सैकड़ों बधिक नियुक्त किये जाते थे। १७६२ के सितम्बर मास में ऐसे दो सौ बधिकों द्वारा तीन दिन के भीतर चौदह सौ मनुष्यों का वध केवल पेरिस नगर में हुआ। थक जाने पर इन बधिकों को मद्य और भोजन देकर कार्य जारी रखने के लिये फिर उत्तेजित किया जाता था। इन बधिकों पर १४६३ लिवर मुद्रा व्यय किये गये थे। इतने मनुष्यों की गर्दन काटने के लिए गिलेटिन यन्त्र काम में लाया जाता था। जून १७६३ में गिरोण्डिस्ट दल शासन से च्युत हो गया और दल के सदस्य छिपकर संघर्ष चलाने लगे। वे स्थान-स्थान पर भाषण देकर जनता को अपना पक्ष समझाते रहते थे।

नार्मण्डी प्रान्त के केईन नगर की एक गरीब किसान परिवार की युवती कन्या इन भाषणों को बहुत उत्सुकता से सुनती थी। इसका नाम शालोति कोर्दे था। कोर्दे के पिता को राजनीति और साहित्य से प्रेम था। बाल्यावस्था में माता की मृत्यु होने पर पिता ने उसका लालन-पालन किया और इस प्रकार तभी से वह भी अपने पिता के विचारों से प्रभावित होती गई। गरीबी असह्य होने पर पिता अपने बच्चों का भार उठाने में असमर्थ होकर गृह त्याग, एक मठ में ईश्वर चिन्तन करने लगे। कोर्दे भी अपने पिता के साथ वहीं रहने लगी। इससे वह संयमी और कठोर जीवन की अभ्यस्त हो गई। उसने रूसो, रेनल, प्लूटार्क आदि प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया। और देश सेवा की भावना मन में भरकर उसमें जूझ गई। नए सत्तारूढ़ दल के नेता मारोत की अमानवीय क्रूरता ने जनता में भय का संचार कर दिया। गिरोण्डिस्ट दल मारोत को नष्ट करने के उपाय सोचने लगा। उन्होंने उसके विरुद्ध एक राष्ट्रीय सेना की भरती आरम्भ की।

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सैनिकों की संख्या में नित्य वृद्धि होती जा रही थी। एक दिन कोर्दै का एक परिचित युवक सेना में भरती होने के लिए आया। वह कोर्दे से स्नेह करता था। कोर्दे भी उसकी ओर आकृष्ट हुई थी, परन्तु वह अपना जीवन देश-हित में अर्पण करने की प्रतिज्ञा कर चुकी थी, अतः उस युवक के सम्मुख आत्म-समर्पण न कर सकी।

उसने अपना एक चित्र उस युवक को देकर कहा-"तुम्हें प्रेम करने का मुझे अधिकार नहीं है, व्यवहारिक दृष्टि से भी मुझे साथ रखने में तुम्हें कष्टों के सिवा और कुछ न मिल सकेगा। हाँ, इस चित्र के रूप में ही तुम मुझसे प्रेम कर सकते हो।"

युवक को निराश और उदास जाते देखकर कोर्दे की आँखों से अनायास आँसू निकल पड़े।

कोर्दे को रोती देखकर सेनापति पितियन ने पूछा-"यदि यह मनुष्य यहाँ से न जाय तो तुम्हें प्रसन्नता होगी?"

कोर्दे ने ये शब्द सुने और लज्जा से सिर झुका लिया। वह मुख से एक शब्द भी न निकाल सकी और वहाँ से चली गई।

इस घटना के बाद को का वहाँ रहना कठिन हो गया और शीघ्राति-शीघ्र पेरिस पहुँचने की इच्छा प्रबल होती गई। नवीन सेना के पेरिस पहुँचने से पूर्व मारोत का प्राणान्त कर देना ही उसका एक मात्र उद्देश्य था। उसने अपना कार्यक्रम और साधन निश्चित किया। किसी को भी उसके विचारों का पता न था और न स्वयं उसने किसी से इस विषय में कुछ कहा था, परन्तु हृदय के आवेग में आकर उसने अपनी चाची से एक दिन कुछ ऐसे शब्द कह दिये, जिससे अप्रत्यक्ष रूप में उसके विचारों का पता चल गया।

कोर्दे एकान्त में बैठी रो रही थी। चाची ने कारण पूछा।

कोर्दे के मुंह से निकल पड़ा-“मैं अपने देश, अपने सम्बन्धियों और तुम्हारे दुर्भाग्य के लिये रोती हूँ। जब तक मारोत इस संसार में मौजूद है, कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्र जीवन की आशा नहीं कर सकता।"

उसी दिन बाजार में कुछ मनुष्यों को ताश खेलते देखकर बड़े तीन शब्दों में कोर्ट ने उनसे भी कहा- "तुम लोगों को खेलने की सूझी है और तुम्हारा

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देश मृत्यु-मुख में पड़ा है।"

पेरिस जाने की तैयारी करने के बाद कोर्दे मठ में जाकर पिता और बहनों से मिली। उसके दोनों भाई राजा की सेवा में चले गये थे। पिता से उसने इंगलैंड जाने का बहाना किया। पिता ने अनुमति दे दी। कोर्दे चाची के पास लौट आई। दो दिन चाची की सेवा करने के बाद, अपनी सखी-सहेलियों और चाची से विदा होकर और अन्तिम बार उस स्थान का नमस्कार कर कोर्दे ने पेरिस के लिये प्रस्थान किया। दो दिन के पश्चात् वह पेरिस पहुंच गई और यहाँ एक होटल में रहने का उसने प्रबन्ध किया।

पेरिस में कोर्दे नगर में एक प्रतिनिधि दूप्रे से मिली। उससे परिचय करने के लिये गिरोण्डिस्ट दल के एक सदस्य बार्बरी से कोर्ट ने केईन नगर में ही एक पत्र लिखा लिया था।

भेंट होने पर उसने प्रतिनिधि से कहा-"मुझे आप मन्त्री मारोत से मिला दीजिए, मुझे उनसे काम है।"

दूप्रे ने अगले दिन कोर्दे को मारोत के पास ले चलने का वचन दिया। चलते समय कोर्ट ने बहुत धीमे स्वर में दूप्रे से कहा-"आपका जीवन सुरक्षित नहीं है, आप इस स्थान को छोड़ दीजिये और केइन नगर जाकर अपने साथियों में मिल जाइए, परिषद् में आप अब कोई भी अच्छा कार्य नहीं कर सकते।"

दूप्रे ने कहा-“मैं पेरिस में नियुक्त हुआ हूँ, मैं इस स्थान को नहीं छोड़ूँगा।"

कोर्ट ने फिर कहा-"आप भूल करते हैं, मेरा विश्वास कीजिये और आगामी रात्रि से पूर्व ही यहाँ से चले जाइये।"

परन्तु दूप्रे ने उस समय कोर्दे की बातों पर ध्यान नहीं दिया, परन्तु शीघ्र ही अधिकारियों की शनि-दृष्टि उस पर पड़ गई। उसका नाम संदिग्ध मनुष्यों की सूची में लिख लिया गया।

दूसरे दिन बड़े सबेरे ये दोनों मारोत से मिलने गये, परन्तु मारोत ने संध्या के पूर्व भेंट करने में असमर्थता प्रकट की। कोर्दे उससे मिलकर मारोत के विषय में कुछ बातें जानना चाहती थी, पर अब उसने अपना विचार बदल दिया। समय नष्ट करना उसे व्यर्थ प्रतीत होने लगा। दूप्रे को धन्यवाद

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सहित विदा करके कोर्दे ने उसी दिन एक पैना छुरा खरीदकर अपने वस्त्रों में छिपा लिया। उसकी इच्छा मारोत को खुलेआम मारने की थी, परन्तु ऐसा अवसर मिलना कठिन था, अतएव उसने मारोत के स्थान पर ही उसका बध करने का निश्चय किया।

मारोत से भेंट होना बड़ा कठिन था। कोर्दे को एक युक्ति सूझी। कोर्दे जानती थी कि मारोत प्राणपण से प्रजातन्त्र-शासन-विधान की रक्षा करेगा। यदि उससे कहा जाय कि अमुख स्थान पर शासन-विधान के विरुद्ध लोगों ने उपद्रव किया है, तो वह मेरी बात अवश्य सुनेगा। इसी बहाने से कोर्दे ने मारोत से मिलना चाहा। इस आशय की सूचना उसने मारोत के पास भेजी, पर कोई सुनवाई न हुई। दो बार जाने पर भी कोर्दे को लौट आना पड़ा, पर वह हताश न हुई। उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि चाहे जैसे हो, तीसरी बार जाने पर अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूँगी।

कोर्दे उसी दिन सन्ध्या-समय तीसरी बार फिर मारोत के मकान पर पहुँची। द्वार-रक्षक के द्वारा अन्दर जाने से रोकने पर वह उससे झगड़ने लगी। द्वार-रक्षक कोर्दे का मार्ग रोकता था और कोर्दै मारोत से मिलने के लिये अपने हठ पर अड़ी हुई थी। इन दोनों के वाक्युद्ध का शोर मकान के अन्दर मारोत के कानों में पड़ा। शब्दों द्वारा उसने इतना जान लिया कि यह वही स्त्री है, जो आज ही मुझसे मिलने के लिए दो पत्र भेज चुकी है। मारोत ने वहीं से कोर्दे को भीतर आने के लिये द्वार-रक्षक को आदेश दिया।

अन्दर जाने पर कोर्ट ने देखा कि मारोत अपने कमरे में उपस्थित है। उसके चारों ओर कागज-पत्र फैले हुये हैं और वह बड़े गौर से उनकी देख-भाल कर रहा है।

कुछ समय तक कोर्दै और मारोत में बातचीत होती रही। उपद्रवियों के नाम एक पर्चे पर लिखने के बाद बड़े निःशंक भाव से मारोत ने कहा-"एक सप्ताह पूर्व ही ये सब मौत के घाट उतार दिये जाएंगे।"

कोर्दे ऐसे शब्द सुनने की प्रतीक्षा में ही थी। मारोत के अभिमान को चूर्ण करने का उसे अवसर मिल गया। उसने बड़ी फुर्ती से अपने वस्त्रों में से छुरा निकाला और मारोत की छाती में पूरे वेग से घोंप दिया। यह सब करने

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में कोर्दे को पल भर का भी समय नहीं लगा। मारोत के मुँह से निकाला-"सहायता" और फिर उसका प्राण-पखेरू उड़ गया।

'सहायता' का शब्द सुनकर मारोत के कुछ भृत्य कमरे में दौड़ आये। उन्होंने कोर्दे को पकड़ लिया। एक मनुष्य ने एक कुर्सी उठा कर कोर्दे के शरीर पर दे मारी और वह बेहोश होकर गिर पड़ी। उसकी अचेतन अवस्था में मारोत की प्रेयसी ने, जो उस समय वहाँ खड़ी थी, कोर्ट को अपने पैरों से रौंद डाला। मारोत का मृत्यु समाचार बिजली की तरह सारे नगर में फैल गया। थोड़ी देर में पास-पड़ोसी, सरकारी कर्मचारी, नगर-रक्षक आदि सभी घटना-स्थल पर आ पहुँचे, मारोत का मकान बाहर और भीतर नर-समूह से भर गया।

बेहोशी दूर होने पर कोर्दै बिना किसी की सहायता के फर्श पर से उठ बैठी। उसने देखा, सैकड़ों आदमी उसे देखकर दाँत पीस रहे हैं। लाल-लाल आँखें दिखाकर अपने क्रोध में वे उसे भस्म कर देना चाहते हैं और घूसों द्वारा मारने के लिए प्रस्तुत हैं। वास्तव में यदि उस समय पुलिस कर्मचारी वहाँ न होते तो कोर्दै की अस्थियाँ तक मिलना कठिन हो जाता। कोर्ट इस दृश्य को देखकर तनिक भी विचलित न हुई। केवल मारोत की प्रेयसी को देखकर उसे कुछ पीड़ा हुई, परन्तु वह भी क्षणिक थी। पुलिस ने कोर्दे को ले जाकर कारागार में बन्द कर दिया।

पुलिस ने उससे प्रश्न किये-

"तुम इस छुरे को पहचानती हो?"

"हाँ।"

"किस कारण तुमने यह भीषण अपराध किया है?"

"मैंने देखा कि गृह-युद्ध से फ्रांस नष्ट हुआ चाहता है। मुझे यह विश्वास हो गया कि इन सब आपत्तियों का मुख्य कारण मारोत ही है।

मैंने अपने देश को बचाने के लिये अपना जीवन स्वेच्छा से बलिदान किया "जिन मनुष्यों ने तुम्हें इस कार्य में सहायता दी है, उनके नाम बताओ।"

"कोई भी मेरे विचारों से अवगत न था, मैंने अपनी चाची और पिता

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तक को धोखा दिया। बहुत कम मनुष्य मेरे सम्बन्धियों से मिलने आते रहे, किसी को भी मेरे विचारों के बारे में जरा भी सन्देह न था।"

"क्या केईन नगर छोड़ने से पूर्व मारोत के मारने का तुमने पूर्ण निश्चय नहीं कर लिया था?"

“यही तो मेरा एकमात्र उद्देश्य था।"

एक पुलिस अधिकारी को प्रतीत हुआ कि कोर्दे की साड़ी के एक छोर में कागज बंधा है। उसे जानने की उसे इच्छा हुई, परन्तु कोर्दे उसके विषय में विल्कुल भूल गई थी। उस अधिकारी को इस प्रकार घूरते देखकर कोर्दे ने समझा कि यह मेरे कौमार्य पर दृष्टिपात करके मेरी पवित्रता का अनादर कर रहा है। उसके हाथ बंधे हुए थे। वह किसी तरह भी अपने वस्त्रों को संभाल नहीं सकती थी। उसने अपनी लज्जा को ढकने के लिए शरीर को दुहरा करने की चेष्टा की, परन्तु उसके वक्षस्थल पर से वस्त्र हट गया और उसके स्तन वाहर निकल पड़े। कोर्दे को अपनी इस दशा से बड़ी लज्जा प्रतीत हुई। उसने बड़े दीन शब्दों में अधिकारियों से अपने हाथ खोलने की प्रार्थना की।

उसकी प्रार्थना स्वीकृत हुई। हाथ खुलने पर दीवार की ओर मुँह करके उसने झटपट अपने वस्त्रों को ठीक किया और अपने बयान पर हस्ताक्षर कर दिये। रस्सी से बंधने पर उसके हाथों में नीले दाग पड़ गये थे। इस बार हाथ बाँधे जाने पर उसने दस्ताने पहनाने का अनुरोध किया, परन्तु उसकी वह प्रार्थना स्वीकृत नहीं हुई।

मृत्यु-मुख में पड़े रहने पर भी एक लड़की के ऐसे शिष्ट, संयत और निर्भीक उत्तर सुनकर अधिकारी दंग रह गये। उस कागज में कोर्दै ने फ्रांस निवासियों के प्रति अपना सन्देश लिखा था। उस सन्देश की प्रत्येक पंक्ति में एक युवती के मार्मिक हृदय के उद्गार भरे हुए थे। सन्देश इस प्रकार था-"अभागे फ्रांस-निवासियो! मतभेद और इस प्रकार की मुसीबतों में कब तक पड़े रहोगे? मुट्ठी-भर मनुष्यों ने सर्व-साधारण का हित अपने हाथ में कर रखा है, उनके क्रोध का लक्ष्य क्यों बनते हो? अपने प्राणों को नष्ट करके फ्रांस के भग्नावशेष पर उनके अत्याचारों को स्थापित करना क्या तुम्हें उचित दीखता है? चारों ओर दल-बन्दियाँ हो रही हैं और मुट्ठी-

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भर मनुष्य क्रूर और अमानुषिक कार्यों द्वारा हम पर आधिपत्य जमाए हुए हैं। वे नित्य हमारे विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हैं। हम अपना नाश कर रहे हैं। यदि यही दशा रही तो कुछ समय में हमारे अस्तित्व की स्मृति के अतिरिक्त और कुछ शेष न रह जायेगा।

"फ्रांस निवासियो! तुम अपने शत्रुओं को जानते हो, उठो और उनके विरुद्ध प्रस्थान कर दो, उन्हें शासनाधिकार से हटाकर फ्रांस में सुख और शान्ति स्थापित करो।

"ओ मेरे देश, तेरे दुखों से मेरा हृदय फटा जाता है। मैं तुझे अपने जीवन के अतिरिक्त और क्या दे सकती हूँ? मैं परमात्मा को धन्यवाद देती हूँ कि मुझे अपना जीवन अन्त करने की पूरी स्वतन्त्रता है। मेरी मृत्यु से किसी को भी हानि न होगी। मैं चाहती हूँ कि मेरा अन्तिम श्वास भी मेरे नागरिक भाइयों के लिए हितकर हो, मेरे कटे सिर को पेरिस नगर में मनुष्यों द्वारा इधर-उधर घुमाते देखकर वे कार्य-सिद्धि के लिए एक मत हो सकें, मेरे रक्त से अत्याचारियों का अन्त लिखा जाए और उनके क्रोध का अन्तिम निशाना बनूं।

"मेरे संरक्षक और मित्रों को किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाय, क्योंकि मेरे विचारों से कोई भी अवगत न था। देशवासियो! मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकी हूँ, पर मैंने आप लोगों को मार्ग दिखा दिया है। आप अपने शत्रुओं को जानते हैं। उठो और उनके विरुद्ध प्रस्थान करके उनका अन्त कर दो।"

दूसरे दिन क्रांतिकारी न्यायालय के अध्यक्ष उस वीरबाला कोर्दै को देखने के लिये आये। कारागार की अँधेरी कोठरी में वह उससे मिले। कोर्दे की युवा अवस्था और सुन्दरता को देखकर उनके हृदय में बड़ी दया उत्पन्न हुई। उसने कोर्ट को बचाना चाहा, परन्तु कोर्ट ने झूठ बोलकर अपना प्राण बचाने से इन्कार कर दिया। कारागार में कोर्ट को लिखने की सामग्री मिल गई थी। अपने मित्रों और पिता को उसने जो पत्र लिखे हैं, उनमें उसने अपने कार्य, दशा और विचारों का वर्णन किया है। पिता को उसने बड़े संक्षिप्त शब्दों में लिखा-"आपकी अनुमति बिना अपने जीवन का अन्त करने के लिये आप मुझे क्षमा करें। मेरे प्यारे पिता, विदा। आप मुझे भूल

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जाइये अथवा यदि उचित समझें तो मेरे भाग्य पर हर्ष मनाइए। मैंने बड़े पवित्र कार्य के लिये अपना उत्सर्ग किया है। मैं अपनी बहन को हृदय से प्यार करती हूँ। बाबा कोर्नेल के इस वाक्य को कभी न भूलियेगा-"मनुष्य को फाँसी से नहीं, वरन् अपने अपराधों से लज्जित होना चाहिए।"

कोर्नेल फ्रांस का प्रसिद्ध नाट्यकार हुआ है। वह कुशल कवि भी था। कोर्दे उसकी पौत्री थी। कदाचित् कोर्दे की वीरता में अप्रत्यक्ष रूप से कोर्नेल की कविता ही काम कर रही थी। कवि और वीर में कोई विशेष भेद नहीं। एक भावों द्वारा अनुभव करके जिस बात को शब्दों में व्यक्त करता है, दूसरा उसी को अपने कार्यों में परिणत कर देता है।

क्रान्तिकारी न्यायालय में कोर्दे का विचार हुआ। नियमानुसार अपनी ओर से एक वकील करने का कोर्दे को अधिकार था, परन्तु जिस मनुष्य को उसने नियुक्त किया था, वह वहाँ पर नहीं दिखाई दिया। तव अध्यक्ष ने एक दूसरे मनुष्य को इस कार्य के लिये नियत किया।

कोर्ट ने कहा-"मैं मानती हूँ कि वह साधन मेरे उपयुक्त न था, परन्तु मारोत के सम्मुख पहुँचने के लिये धोखा देना आवश्यक था।"

जज ने कोर्ट से पूछा-"तुम्हारे हृदय में मारोत के प्रति घृणा किसने उत्पन्न की?"

कोर्दे ने उत्तर दिया- "मुझे किसी दूसरे की घृणा की जरूरत ही क्या थी, स्वयं मेरी घृणा पर्याप्त थी। इसके अतिरिक्त जो कार्य स्वयं सोच-विचारकर नहीं किया जाता, उसका अन्त ठीक नहीं होता।"

"तुम उसकी किस बात से घृणा करती थीं? उसके दोषों से उसको मारकर किस फल को प्राप्त करने की इच्छा थी?"

"देश में शान्ति स्थापित करने की।"

"क्या तुम्हारा विश्वास है कि तुमने सब मारोतों का अन्त कर दिया है?"

"मारोत के मारे जाने से सम्भवतः दूसरे मनुष्य अत्याचार करने का साहस न कर सकेंगे। मैंने हजारों मनुष्यों को बचाने के लिये एक मनुष्य को मारा है। मैं क्रान्ति के पूर्व से ही प्रजातन्त्रवादी रही हूँ, परन्तु क्रान्ति की ओट में व्यर्थ का रक्तपात मुझे पसन्द नहीं है।"

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जूरियों की सहायता से जज ने एकमत होकर कोर्ट को मृत्यु-दण्ड सुना दिया। कोर्दे के मुख पर भय अथवा शोक का कोई चिह्न प्रकट नहीं हुआ। उसने बड़े हर्ष से मृत्यु-दण्ड स्वीकार किया।

जज ने कोर्दे से पूछा-"तुम्हें इस दण्ड पर कोई आपत्ति तो नहीं है?"

कोर्दे ने कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु अपने वकील के प्रति उसने अवश्य ही कृतज्ञता प्रकट की। उसकी ओर देखकर कोर्दे ने कहा आपको धन्यवाद देती हूँ। आपने मेरी इच्छानुसार ही मेरी ओर से बयान दिया है। न्यायालय ने मेरी सब सम्पत्ति को जब्त कर लिया है, परन्तु कारागार में मेरी कुछ वस्तु अभी शेष है। आपके परिश्रम-स्वरूप वह वस्तु मैं आपको अर्पण करती हूँ।"

जिस समय कोर्ट का मुकद्दमा चल रहा था, एक चित्रकार कोर्दे का चित्र बनाने में मग्न था। कोर्ट को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सोचा कि इस चित्र द्वारा ही उसके देशवासी उसकी स्मृति बनाए रखेंगे। एक और भी मनुष्य वहाँ पर उपस्थित था, जिसे कोर्दे से पूर्ण सहानुभूति थी। उसकी मुखाकृति और भावों के उतार-चढ़ाव से यही प्रतीत होता था। जब मृत्यु-दण्ड सुनाया गया, तो उसका विरोध करने के लिये उसने अपने होंठ हिलाए, अपने स्थान से उठा भी, परन्तु असंख्य जन-समुदाय में कोर्ट का पक्ष-समर्थन करने की उसे हिम्मत न हुई। वह अपने स्थान पर बैठ गया। कोर्दे ने उसकी समस्त चेष्टाओं को देखा। उसे जानकर परम सन्तोष हुआ कि कम से कम एक मनुष्य वहाँ ऐसा अवश्य मौजूद है, जिसे उसके कार्यों से सहानुभूति है। कोर्दै ने मन ही मन उसको धन्यवाद दिया। वह युवक जर्मनी का एक प्रजातन्त्रवादी व्यक्ति था। उसका नाम आदमलक्ष था। किसी कार्यवश वह उस समय पेरिस आया हुआ था।

कोर्दै कारागार को लौट गई। वहाँ पर अपने अपूर्ण चित्र को पूरा करने के लिये दूसरे दिन सवेरे चित्रकार उससे मिला। बड़ी देर तक कोर्दे चित्रकार से बातचीत करती रही। थोड़ी देर में एक कैंची लेकर बधिक वहाँ पहुँचा। कोर्दै ने उससे वह कैंची ले ली और अपने रेशम के समान मुलायम बालों को काटकर चित्रकार को देते हुए उसने कहा-"आपके कष्ट के लिए किन शब्दों में धन्यवाद दूँ। आपको देने के लिए इसके अतिरिक्त मेरे पास

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कुछ नहीं है। कृतज्ञता-स्वरूप इनको आप अपने पास रख लीजिये, और मेरी स्मृति वनाए रखिएगा। आपसे एक अनुरोध है, कृपया मेरा एक चित्र मेरे पिता के पास भेज दीजियेगा।"

बधिक ने कोर्दे के हाथ बाँध दिये और एक गाड़ी में बैठाकर उसको वधस्थल की ओर ले चला। असंख्य मनुष्यों की भीड़ उसके साथ थी। उस भीड़ में आदमलक्ष भी था। अन्य सब मनुष्य तो कोर्दे की मृत्यु का कौतुक देखने के लिए जा रहे थे, परन्तु आदमलक्ष की धारणा दूसरे प्रकार की थी। उसका विश्वास था कि यदि मैं कोर्ट के निमित अपने प्राण विसर्जन कर दूँ, तो हम दोनों एक रूप होकर ब्रह्म में लीन हो जायेंगे।

कोर्दे निर्भय-चित्त से फाँसी के तख्ते पर चढ़ी। बधिक ने उसकी गर्दन से कपड़ा हटा दिया, जिसके कारण उसकी छाती खुल गई। मृत्यु के समय भी इस अनादर से कोर्ट को अपार कष्ट हुआ, परन्तु उसने शीघ्र ही छुरी के नीचे अपना गला रख दिया। क्षण मात्र में ही उसका गला कटकर नीचे गिर पड़ा। यह १७६३ के जुलाई मास की बात है। कोर्दे की मृत्यु पर गिरोण्डिस्ट दल के एक नेता वर्जीनियाँ ने कहा था-कोर्दै ने हमको मरने का पाठ पढ़ाया है।

कोर्दे की मृत्यु के कुछ दिनों बाद आदमलक्ष ने कोर्ट की निर्दोषता सिद्ध करते हुए एक विज्ञप्ति प्रकाशित की थी, जिसमें लिखा था कि कोर्ट के कार्य में मैंने भी सहायता की है। लक्ष शीघ्र ही बन्दी कर लिया गया। मृत्यु-दण्ड ने उसको संसार से मुक्त कर दिया। मरते समय उसके मन में केवल एक ही भावना थी-"मैं एक आदर्श रमणी के निमित्त प्राण-दान कर रहा हूँ।"

मारोत की मृत्यु के बाद देश में और भी अशान्ति हो गई। शासकों को कोर्दे के कार्य से गुप्त षड्यन्त्र की गन्ध आने लगी। उन्होंने अपने सब विरोधियों को मौत के घाट उतारने का निश्चय कर लिया। मारोत की मृत्यु के दिन से ही फ्रांस में 'आतंक का राज्य' आरम्भ हुआ। फ्रांस के कोने-कोने में गिलेटिन का प्रचार हो गया। राज्य-सत्ता के पक्षपाती, उदार-नीति के समर्थक सब मनुष्य कारागार में डाल दिए गए, उपद्रवियों को मृत्यु-दण्ड दिया गया, उनके गाँव के गाँव नष्ट कर दिए गए।

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