अहिल्याबाई होलकर/तेरहवाँ अध्याय
तेरहवाँ अध्याय ।
अवतार-समाप्ति ।
आप करे उपकार आति, प्रति उपकार न चाह ।
हियरो कोमले संत सम, सुहृदय सोइ नरनाह ॥
बड़े बड़े वैभवाले, बड़ी आयुवाले, अगाध महिमावाले मृत्यु मार्ग से चले गये हैं। बहुत से पराक्रमी, बहुत से युद्ध करनेवाले, संग्राम-शूर भी कालकवलित हो चुके हैं। अनेक प्रकार की चल रखनेवाले, बहुत काल देखनेवाले, और बड़े बड़े प्रतापशाली राजा लोग भी मृत्यु के ग्रास बने चुके हैं। बहुतों के पालक, बुद्धि के चालक युक्तिवान नाश को प्राप्त हो चुके हैं। विद्या के सागर, बल के पर्वत और धने के कुवेर इसी पथ से जा चुके हैं। बड़े बड़े तेजवाले, बड़े पुरुषार्थ वाले, और बहुत विस्तार के साथ काम करनेवाले भी इसी मार्ग का पदानुकरण कर गये हैं। अनेक तपस्वियों के समूह, अनेक संन्यासी और तत्वविवेकी परलोकवासी बन चुके हैं। अस्तु, इस प्रकार सभी चले गए हैं और एक दिन सब जायँगे। तो फिर अपना परमार्थ सिद्ध करने के अतिरिक्त और दूसरा मार्ग ही नहीं है। केवल :—
श्रवण कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ॥
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमामृनिवेदनम् ॥ १ ॥ विद्वानों का कथन है कि परमार्थ का मुख्य समाधान कारक साधन श्रवण है। श्रवण से भक्ति मिलती है, विरक्ति उत्पन्न होती हैं और विषयों की आसक्ति दुटती है। श्रवण से चित्त की शुद्धि होती है, बुद्धि दृढ़ होती है और अभिमान की उपाधि का लोप होता है। इससे विवेक आता है और ज्ञान प्रबल होता है। श्रवण से निश्चय आता है, ममता टूटती है और अंतःकरण में समाधान होता है। श्रवण से संदेह का नाश होता है और सद्गुण आते हैं। श्रवण से मनोनिग्रह होता है, समाधान मिलता है और देह-बुद्धि का बंधन अलग होता है। श्रवण से अहंमन्यता दूर होती है, जड़ता नहीं आती और अनेक प्रकार के विघ्न भस्म होते हैं। इससे कार्य-सिद्धि होती है और पूर्ण शांति प्राप्त होती है। श्रवण से प्रबोध बढ़ता है, प्रज्ञा प्रबल होती है और विषयों के पाश टूट जाते हैं। श्रवण से सद्बुद्धि आती है, विवेक जागता है और मन भगवत-भजन में लगता है। श्रवण से काम की वासनाएँ क्षीण होती हैं, भय का नाश होता है, स्फूर्ति का प्रकाश होता है और निश्चयात्मक सद्वस्तु का भास होता है। श्रवण के समान और कोई उत्तम साधन नहीं है। यह तो सब को प्रत्यक्ष ज्ञात है कि प्रवृत्ति माग हो अथवा निवृत्ति मार्ग हो, परंतु श्रवण के बिना किसीको भी मोक्ष मार्ग की प्राप्ति नहीं होती। नाना प्रकार के व्रत, दान, तप इत्यादि श्रवण के बिना नहीं जाने जाते। जिस प्रकार अनंत वनस्पतियाँ एक ही जल से बढ़ती हैं और एक ही रस से सब जीवों की उत्पत्ति है; और जैसे संपूर्ण जीवन एक ही पृथ्वी, एक ही सूर्य और
एक ही वायु से सधे हैं, जिस प्रकार अब जीवों के आस पास आकाश एक ही है और संपूर्ण जीव एक ब्रह्म में बसते हैं, उसी प्रकार मनुष्य मात्र के लिये शरण ही एक मात्र साधन है। श्रवण का ऐसा तात्कालिक गुण है कि महा दुष्ट और चांडाल भी पुण्यशील हो जाता है। श्रवण से शांति मिलती है और निवृत्ति तथा अचल पद प्राप्त होता है। इस संसार रूपी भवसागर को पार करने के लिये श्रवण ही नौका है।
शास्त्र के श्रवण से ही मनुष्य धर्म जानता है और उसीसे बुद्धि सुधरती है, उससे मनुष्य ज्ञान पाता है और उसे उसीसे मोक्ष पाता है । यह शरीर नश्वर है। सपत्ति भी सदा नहीं रहती और मृत्यु सर्वदा साथ ही रहती है । इसलिये धर्म का संग्रह करना आवश्यक है । जीना उसी मनुष्य का सफल है जो गुणी और धर्मात्मा हो । गुण धर्म से हीन मनुष्य का जीवन व्यर्थ है । बुरों का सहवास छोड़ साधु और बुद्धिमान की संगति करना लाभदायक है । अपने पुरुषार्थ भर धर्म-संग्रह करें और नित्यप्रति ईश्वर का भजन पूजन तथा स्मरण करें, क्योंकि यह संसार अनित्य है । विद्वानों ने कहा है कि जो जीव आत्मा परमात्मा को जाने, जो अच्छे अच्छे कार्य करे, सहनशील हो, सदा धर्म पर ही आरूढ़ हो और जो धन के लोभ में न फँसता हो वही बुद्धिमान् है। जिसके विचार को और विचारे हुए कार्य को सब कोई जानते हैं वही चतुर है । जिसकी बुद्धि धर्म और कार्य की अनुयायिनी होती है और जो कार्य से अर्थ को स्वीकार करता है, वही सुजान है । जो
मनुष्य निश्चय करके कार्य आरंभ करता है, और दुःख तथा विघ्न होने पर भी जो बीच में कार्य को नहीं छोड़ता, जिसका समय व्यर्थ नहीं जाता और जिसका मन वश में रहता है वही बुद्धिमान् है। जो सदा उत्तम कामों में मन लगाता है, जो सदा मंगलदायक कार्य करता है और जो किसी की बुराई नहीं करता वही मनुष्य पंडित है।
क्षमा संसार भर को वश में कर लेती है । जिसके हाथ में क्षमारूपी तलवार है उसका कोई बिगाड़, अथवा अनर्थ नहीं कर सकता । क्षमा ही उत्तम शांति है । विद्या ही एक परम तृप्ति है और अहिंसा ही परम सुख की खानि है। सत्य, दान, आलस्य न करना, क्षमा और धर्म ये काम मनुष्य को कभी न छोड़ने चाहिएँ । जो मनुष्य नित्य दान करता है, सब से प्रीति रखता है, देवताओं का सत्कार करता है और सदा पापों से बचता रहता है, वही पुण्यवान् है । आत्मा का ज्ञान, थकावट का न होना, सहनशीलता, नित्य धर्म करना, वाणी को वश में रखना, और दान, ये कार्य पुण्यवान ही करते हैं। जो मनुष्य धर्म के समय धर्म, अर्थ के समय अर्थ, काम के समय काम करता है, वही श्रेष्ठ है।
संसार में सत्य धर्म के अतिरिक्त और परमात्मा के नाम स्मरण के सिवा मनुष्य का हित करनेवाली और कौन सी वस्तु है ? क्या माता, पिता, भाई, बन्धु, स्त्री, पुन्न अथवा नाना प्रकार के ऐश्वर्य, और सुख देनेवाले पदार्थ मनुष्य के सच्चे हितैषी हैं ? और की तो बात ही निराली है, परंतु संसार में स्त्री पुरुष का सब से अधिक घनिष्ट संबंध और प्रेम होता
है और दोनों परस्पर हितैषी माने जाते हैं; तथापि कहीं कहीं तो इनमें भी वैमनस्य देखा गया है कि एक दूसरे के प्राणनाशक शत्रु होते हैं। परंतु जो दंपति सर्वदा परछाईं के समान रहते हैं
और अलग होने पर, विफल और मिलने पर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्या उनमें से भी अंत समय में कोई एक दूसरे का साथ देता है ? औरों की तो कथा ही क्या है, परंतु शरीर की नाड़ी भी मनुष्य के देह त्यागने पर उसको तुरंत त्याग देती है। कहा भी हैः--
इक दिन ऐसा होयगा, कोउ काहू का नाहिं ।
घर की नारी को कहे, तन की नारी जाहिं ।। (कबीर)
इसके उत्तर में यही कहा जायगा कि जो आया है वह जायगा, कौन किसके साथ जाता है और गया है ? परंतु मनुष्य अकेला कभी नहीं जाता । उसके साथ उसकी प्राणप्यारी कमलमुखी की जगह उसके सत्कर्म ही उसके साथ रहते हैं। और जब यह सत्य है कि कर्म बंधन नहीं टूटते तो फिर क्यों माया की कोठड़ी में बैठकर मनुष्य छल, कपट, मिथ्या और पाप के कार्य करके अपना भविष्य नष्ट किये डालते हैं ? क्या परम पूज्य प्रह्लाद, सर्वगुणसंपन्न राजा हरिश्चंद्र, परम कृपालु और सच्ची भक्त मीराबाई आदि के नामस्मरण से पुलकित शरीर और प्रेमाश्रु हो देह रोमांच नहीं होता। ये सब इसी भारतभूमि की गोद में हो गए हैं। श्रीमहात्मा तुकाराम, रामदयाल, श्रीगोस्वामी तुलसीदास आदि बड़े बड़े लोग नामरमरण से मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं। उनका नाम आज दिन भी समस्त भारत में गूँज रहा है। उन्हीं के सदृश अहिल्याबाई
ने अपनी मन रूपी डोर को धर्मग्रंथो के श्रवण, मनन
और पठन के रस में भिगोया था और जब उस पर "श्री राम नाम" रूपी मंत्र का तेजोमय और प्रभावशाल पालिश किया गया तब वह इतना कोमल और दृढ़ हो गया कि उसे दिन दूना और रात चौगुना उल्लास नित्य प्रति दान, पुण्य
आदि सत्कार्यों के करने में होता था । वह मन रुपी डोर इतना दृढ़ हो गई थी कि बड़े बड़े संकटों के और नाना प्रकार के दुःखों के खिंचाव पर भी वह अंतिम समय तक जैसी की तैसा ही बनी रही थी । अपनी ६० वर्ष की अवस्था में बाई अपने विमल और मन लुभानेवाले यश की ध्वजा उड़ाती हुई नित्य लोक में जा बसी ।
इस विषय में मालकम साहब का भी ऐसा लेख है कि "अहिल्याबाई का स्वर्गवास" ६० वर्ष की अवस्था में चिंता और रुग्नता के कारण हुआ था । कोई कोई यह भी कहते हैं कि उनका स्वर्गवास धर्मशास्त्रानुसार अत्यंत कठिन व्रत और उपासना के ही कारण हुआ था । बाई उँचाई में मध्यम श्रेणी की और देह से दुबली थी । यद्यपि उनका सांसारिक जीवन सुखपूर्वक नहीं व्यतीत हुआ था तथापि उनका वण जो गेहुँए रंग को लिए हुए था, बहुत ही देदीप्यमान
और प्रभावशाली जान पड़ता था । ऐसा कहा जाता है कि वह दिव्य रूप उनके प्राण निकलने के समय तक उनकी धार्मिक वृत्ति के कारण तेजस्वी बना रहा था । बाई का अंतःकरण भक्ति से सराबेार था और उनका मन सर्वदा धर्म पर ही आरूढ़ रहता था जिसका कारण पुराणों का
श्रवण, मनन और नामस्मरण ही था । बाई परमार्थ के कार्यों में अधिक उद्यत रहती थीं । जब उनकी अवस्था २० वर्ष की थी तब ही उनके पति का स्वर्गवास हो गया था । उस दुःख की निवृत्ति नहीं होने पाई थी त्यों ही पुत्रशोक भी प्राप्त हुआ जिसके कारण उनका कोमल अंतःकरण और भग्न हो गया । विधवा होने के उपरांत इन्होंने कभी भी रंगीन वस्त्र धारण नहीं किए । अलंकारों में एक माला के अतिरिक्त और कोई भी रत्नजड़ित भूषण वे धारण नहीं करती थी। सुख, चैन और सदा लुभानेवाली सब प्रकार की उपस्थित सामग्रियों से मन को हटाकर उसे परमार्थ पर आरूढ़ करना कोई साधारण बात नहीं थी । उनको अपने मान अभिमान, तथा ठकुरसुहाती बातों से घृणा थी । एक समय एक ब्राह्मण ने बाई के संपूर्ण सदगुणों का ब्योरा लिख कर एक पुस्तक बनाई और उनको भेंट की । बाई ने भी उस पुस्तक को बड़ी सावधानी और चित्त से सुना परंतु ऐसा कह कर कि "मुझ सरीखी पापिनी दूसरी होना दुर्लभ है, मुझमें ये सब प्रशंसनीय गुण नहीं हैं।" उस पुस्तक को नर्मदा जी में फेंकवा दिया और इस ब्राह्मण को शीघ्र विदा कर दिया ।
अहिल्याबाई के जीवन की जितनी घटनाएँ कही जाती हैं वे सब नितांत साधारण और सत्य हैं। उनके विषय में किंचित भी संदेह करने की जगह नहीं है । तथापि बाई का जीवनचरित्र एक बड़ी अद्भुत और आश्चर्यमय वस्तु है। वे स्त्री होकर भी अभिमान से नितांत रहित थीं, धर्मवीर होकर भी वे धर्म का विरोध न करने वाली थीं,
उनका मन अंधविश्वास में गहरा डूबा हुआ होने पर भी ऐसे कोई विचार उनको उत्पन्न नहीं होते थे जो उनकी आश्रित प्रजा के सुख में बाधा डालनेवाले हों। अनियंत्रित राजसत्ता का पूर्ण अधिकार बड़ी योग्यता के साथ काम में लाती हुई भी वे अत्यंत विनीत भाव से ही नहीं किंतु मनुष्य के कार्यों पर तीव्र कटाक्ष करनेवाले विवेक के नीतियुक्त बंधन में सब कार्य करने वाली थी और इतना होने पर भी वे दूसरों के अपराधों को अत्यंत दया की दृष्टि से देखता थीं।
मालवा के लोग बाई के विषय में जो वर्णन करते हैं वह ऐसाही है। और तो क्या ये लोग बाई के नाम मात्र को भी पावत्र समझ उनको अवतार मानते हैं। यथार्थं में उनके चरित्र की ओर गंभीरता की दृष्टि से देखा जाय तो यह स्वयं मालूम होता है कि अपने नियमित राज्य में उनका अत्यंत पवित्र और धार्मिक शासन था। वे आदर्श शासक थी। अहिल्याबाई एक ऐसा उदाहरण हो गई हैं कि अपने को ईश्वर के समक्ष उत्तरदाता समझ कर संसार के संपूर्ण कर्तव्यों का पालन करनेवाला अपने अत:करण से कितना सच्चा उपकार कर सकता है इसका वे एक उत्तम नमूना बन गई हैं।
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