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चौथा अध्याय ।
मालीराव की राजगद्दी और पश्चात् मृत्यु ।

जब तक मल्हारराव जीवित रहे तब तक जैसे अंतःपुरवासिनी बहू बेटियाँ रहती हैं उसी प्रकार अहिल्याबाई भी अपने एकमात्र पुत्र और कन्या के साथ रहीं। परंतु मल्हारराव के स्वर्गवासी होने के उपरांत अहिल्याबाई को अपने राजकार्य का बाहरी अंग भी विशेष रूप से सम्हालना पड़ा। मल्हारराव के पश्चात् अहिल्याबाई ने पुत्र मालीराव को राजसिंहासन पर विराजित किया, परंतु न तो उसके भाग्य में राज्यसुख था, और न भाई के ही भाग्य में पुत्रसुख था । पुत्र द्वारा लोग ससार में सुखी होते हैं, परंतु अहिल्याबाई अपने पुत्र के कुचरित्र से दुखी हो रही थीं। मालीराव का स्वभाव बचपन ही से बड़ा चंचल और उग्र था। इसके लिये बाई सोचा करती थी कि अपनी अवस्था को प्राप्त करने पर कदाचित् यह व्यवस्थित रीति से चलने लगेगा, परंतु बाई की यह आशा व्यर्थ हुई। मालीराव की उन्मत्तता और क्रूरता नित्य प्रति शुक्ल पक्ष के चंद्र के सदृश बढ़ती ही गई जिसके कारण प्रजा का अंत:करण और विशेष कर राजधानी के निवासियों का अंतःकरण ऐसा दुखी हुआ कि वे नित्य प्रति इसके नाना प्रकार के नवनूतन अत्याचारों से दुखित हो परमात्मा से त्राहि त्राहि पुकार कर इसका अनर्थ तथा अमंगल हृदय से चाहने लगे।
स्वयं अहिल्याबाई भी अपनी प्रजा को प्राणों से भी अधिक चाहती थीं। उनको दुख देखी वे भी बहुत चितिंत तथा दुखी रहतीं । बाई को अधिक दुखी तथा असंतुष्ट देख प्रजा सर्वदा यही कहा करती थी कि-

ऋणकर्ता पिता शत्रु माता च व्यभिचारिणी

भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपंडितः ।।१।।

( चाणक्य )

अर्थात् ऋण करनेवाला पिता शत्रु है, व्यभिचारिणी माता, सुंदर स्त्री और मूर्ख पुत्र ये सब वैरी के समान होते हैं । न जाने पूर्व जन्म के किस पाप से अहिल्याबाई के समान पुण्य, स्त्री के गर्भ से इसे दुष्ट पुत्र ने जन्म लिया । बाई को पुत्र के अत्याचारों से दिन-रात रोते और विलाप करते ही बीतता था। स्नेहवती माता के अंत:करण को निशि दिन पीड़ित करने के कारण मालीराव अधिक दिनों तक राज का सुस न भेाग सका, किंतु केवल नौ महीने राज्य का सुख भोग स्वर्गवास हुआ ।

मालीराव के अत्यंत दुराचारी होने से तथा थोड़े ही समय तक राज्य मुख भौग कर शीघ्र परलोक सिधारने से किसी किसी दुष्ट जीव ने यह समझा कि स्वयं बाई ने इसकी प्राणहत्या कराई है। इस प्रकार का अपवाद बाई पर रचा गया, परंतु वास्तव में उसकी मृत्यु ईश्वरी सूत्र से ही हुई थी । जिस माता ने बड़े कूष्ट से और नाना प्रकार के दुःखो को सह कर पुत्र जन्म दिया हो, चाहे वह कपूत ही क्यों न हो परंतु उसकी आत्महत्या करना कहाँ तक माननीय है ? बन के पशू पक्षी, जल
और थल के प्राणी मात्र अपने अशे में कितना झाड़ बचाव रखते हैं तो पुण्यशीला अहिल्याबाई पर यह दोष आरोपण करना कितनी प्रथम श्रेणी की मूर्खता का लक्षण है । हाँ, यह संभव हो सकता है कि बाई पर इस प्रकार का कलंक मढ़कर दुष्टों ने अपने हित की कोई संधि निकालनी चाही होगी परंतु इस न्यायाधीश परमात्मा के सम्मुख किसका हिसाब है कि अपने भक्त पर कोई कलंक लगा अपनी अर्थ सिद्धि कर ले ? इस अपवाद को सुन स्वयं मालफम साहब ने भी इस विषय की पूर्ण रीति से खोज की थी जिसके पढ़ने से पाठको को स्पष्ट रीति से ज्ञात हो जायगा कि मालीराव की मृत्यु में अहिल्याबाई का कुछ भी हाथ नहीं था। यह केवल दुष्ट और धनलोलुप मनुष्यों की एक चाल थी कि किसी भी प्रकार राज्य के मालिक स्वयं बन बैठे । मालकम साहब ने जो कुछ खोज इस विषय में की थी उसका भावार्थ इस प्रकार से है कि "मालीराव ने एक रफूगर को अत:पुर की किसी दासी से प्रेम करने के शक के कारण मरवा डाला था, जो कि सरासर निरपराधी था, परंतु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि मालीराव ने अपनी उद्ददता के कारण अपनी मृत्यु को चितावनी दे दी ।"

हिंदुस्थान के निवासियों को इस बात का पूरा विश्वास है कि मरी हुई आत्मा समय पाकर अपनी शक्ति से दूसरों के जीवन को भी नष्ट कर देती है । यह बात प्रसिद्ध थी कि रफूगर जादूगर था और उसने मालीराव को प्रथम ही चिता दिया था कि वह उसे जान से न मारे, वरना उसका कठिन बदला अवश्य लेवेगा । उस रफूगर पर यह अद्भुत और
निरर्थक अपवाद लगाया गया कि उसने प्रेत बनकर मालीराव के प्राण नष्ट किए और अहिल्याबाई को इस बात का पूर्ण विश्वास भी हो गया था। वे दिन रात अपने प्राणप्यारे एकमात्र पुत्र के पलंग के पास बैठकर उस प्रेत से, जिसको कि उन्होंने माना हुआ था कि इसके शरीर में है, वार्तालाप करती थी कि जिससे प्रेत शांत हा जाय। बाई ने प्रेत से यह भी कहा कि यदि तू मेरे बच्चे को छोड़ देगा तो मैं तेरे नाम से एक मंदिर बनवा दूंगी, और तेरे कुटुंब के लोगों के हितार्थ एक जीविका भी स्थापित कर दूंगीं परंतु यह सब व्यर्थ हुआ और बाई को इस प्रकार सुनाई दिया कि-"उसने मुझ निरपराधी के प्राण लिए है इस कारण मैं भी उसको जीवित न रहने दूँगा"। यह प्रख्यात कहानी मालीराव की मृत्यु की है, और इस घटना की बड़ा घनिष्ठ संबंध अहिल्याबाई के जीवन से है! इसी घटना के कारण होलकर घराने की दुरवस्था (बरवादी) के संरक्षणार्थ अहिल्याबाई को आगे आना पड़ा और उस अबला स्त्री को अपने उन सदगुणो का अर्थात् बुद्धिमानी, पानिवृत और काम करने की सहनशीलता का संयोग दिखाना पड़ा, जिसके कारण जब तक वे जीवित रह से अपने राज्य को सुख और समृद्धि देने वाली हुई। मालवा प्रांत के न्यायशील राज्यप्रबंध से और इसकी सुव्यवस्था से उन्होंने अपना नाम चिरकाल के लिये अमर कर दिया था।

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