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आठवाँ अध्याय ।
अहिल्याबाई का राज्य-शासन ।

जिस समय अहिल्याबाई ने सुख और शांति के साथ राज्यशासन का कार्य आरंभ किया था, वह समय वर्तमान समय के महाप्रतापी अँगरेजों का सा शांतिमय न था, वरन् घोर युद्ध, विग्रह, उत्पात और लूट-मार का था । उस समय भारतवर्ष एक ओर से कट्टर लड़ाके मरहठे डाकुओं से और दूसरी ओर से उद्दंड जाट, रुहेले, पिंजारे और अनेक लुटेरों का रंगस्थल हो रहा था । ऐसे भयंकर समय में और ऐसे भयानक प्रदेश में भी बाई ने सुख, शांति और धर्म पर आरूढ़ रह कर नियमपूर्वक राज्य का शासन, किया, यह क्या एक अबला स्त्री के लिये विशेष गौरव का विषय नहीं है ? यह केवल अहिल्याबाई के पुण्य का प्रत्यक्ष उदाहरण था कि वे ही लुटेरे, वे ही लड़ाके, और वे ही उपद्रवी जो संपूर्ण भारत में हलचल मचा रहे थे, धर्म की मूर्ति प्रतापशालिनी अहिल्या बाई के शासित राज्य की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते थे, यद्यपि वे सब लुटेरे और डाकू उनके राज्य की सीमा के निकटवर्ती स्थानों में ही रहा करते थे ।

अहिल्याबाई ने तुकोजीराव होलकर को राज्य के कठिन कार्यो का भार सौंप कर बड़ी बुद्धिमानी की थी। युद्ध, राज्य की शांति और धन इकट्ठा करने का काम इनको सौंप [ ८७ ] कर आप निश्चित हो धर्म करतीं और प्रजा की किस बात में भलाई हो, यह सर्वदा विचारा करती थीं। वे नित्य सूर्योदय के पूर्व शय्या से उठ कर प्रातःकृत्य से निपट पूजन करने बैठतीं और उसी स्थान पर पूजन के अनंतर योग्य और श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा रामायण, महाभारत और अनेक पुरणादि की कथा श्रवण करती थीं। उस समय राजमहलों के द्वार पर सैकड़ों ब्राह्मणों और भिखारियों की दान लेने के उद्देश्य से भीड़ लगी रहती थी। बाई श्रवण से निवृत्त हो कर अपने निज कर कमलों से ब्राह्मणों को दान और भिखारियों को भिक्षा देती थीं; और इसके पश्चात वे निमंत्रित ब्राह्मणों को भोजन कराने के अनंतर स्वयं भोजन करती थीं। उनका भोजन बहुत सामान्य रहता था। उसमें राजसी ठाठ के व्यंजनों की भाँति विशेष आडंबर नहीं रहता था। आहार के पश्चात् वे कुछ काल पर्यंत विश्राम करतीं और फिर उठ कर एक साधारण साड़ी पहन राजसभा में जातीं और सायंकाल तक बड़ी सावधानी से राजकार्य करती थीं। दरबार के समय बाई के निकट पहुँचने के लिये किसी व्यक्ति को रोक टोक नहीं थी, जिस किसी को अपना दुःख निवेदन करना होता वह स्वयं समीप पहुँच कर निवेदन करता था, और बाई भी उसके निवेदन को ध्यानपूर्वक श्रवण करती थीं और पश्चात् यथोचित आज्ञा देती थीं। संध्या होने के कुछ समय पूर्व बाई अपने दरबार को विसर्जित करती थीं और संध्या काल के पश्चात् प्रायः तीन घंटे पुनः भजन पूजन में व्यतीत [ ८८ ]
करती थीं। फिर फलाहार करके राज्य के प्रधान कर्मचारियों को एकत्र कर राजकार्य के संबंध में प्रबंध अथवा और जो कुछ मंत्रणा आदि करनी होती वह करती, राज्य के आय व्यय के हिसाब को ध्यानपूर्वक निरीक्षण करती और रात्रि के ग्यारह बजे के उपरांत शयनगृह में सोने जाती थी। अहिल्याबाई का संपूर्ण समय राजकार्य, प्रजापालन, उपवास और धर्माचरण आदि कार्यों में ही बीतता था। ऐसा कोई धर्म-संबंधी त्योहार अथवा उत्सव न था जिसको वे बड़े समारोह के साथ न मनाती हों। लोगों का यह विश्वास है कि जो सांसारिक कार्यों में लिप्त रहता है, उसमें धर्मकर्म, अथवा परमार्थ नहीं हो सकता; और जो परमार्थ में लगा रहता है उससे सांसारिक कार्य नहीं होता। परंतु धन्य थी अहिल्याबाई कि एक संग दोनों कार्यों को विधिपूर्वक, उचित रीति से, भली भाँति और निर्विघ्न संपादन करती थी, और किसी कार्य में त्रुटि अथवा उसको अपूर्ण नहीं होने देती थी। जिन लोगों को यह भ्रम है कि एक साथ परमार्थ और स्वार्थ दोनों कार्य नहीं हो सकते हैं, उन मनुष्यों के लिये अहिल्याबाई एक अच्छा उदाहरण हैं। भोग-सुख, की लालसा को छोड़ कर बहुत उत्तमता और नियम के साथ अहिल्याबाई ने अपना राजकार्य चलाया था। ऐसे उदाहरण इतिहासों में बहुत कम दृष्टिगोचर होते हैं।

अहिल्याबाई की सभा में अन्यान्य राजाओं के जो दूत रहा करते थे, वे भी बाई की बुद्धिमानी और नम्रता से सर्वदा प्रसन्न रहा करते थे। बाई केवल दानी या धर्मात्मा ही नहीं-
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थीं, वरन् जितने गुण राज़ा में होने चाहिएँ; वे सब उनमें विद्यमान थे। जिस समय अहिल्याबाई राजसिंहासन की शोभा बढ़ा रही थी, उम समय इंदौर एक छोटा सा नगर था। परंतु कुछ काल व्यतीत होने पर उन्हीं के समय में इंदौर एक उत्तम नगर हो गया था। बाई के शासन और मद्व्यवहार के गुणों की कीर्ति सुनकर देशांतरो से अनेक व्यापारी अपना समय और द्रव्य खर्च कर अनेक प्रकार की वस्तुएँ वहाँ लाते और बेचते थे। इन बाहर से आए हुए लोगों पर अहिल्याबाई का विशेष ध्यान रहता था, कि बाहर से जो मनुष्य अपनी गाँठ से द्रव्य और समय लगा कर यहाँ आया है, उसे उमक व्यय के अनुसार लाभ भी हो, न कि हानि उठानी पड़े। देश की उन्नति और वाणिज्य की वृद्धि का होना ऐसी ही राजनीति पर निर्भर है। बाई के शासन-काल में कोई किसी को दुःख अथवा सकंट नहीं पहुँचा सकता था। यदि कोई बलवान किसी निर्बल पर किसी प्रकार का अत्याचार करता और उसकी सूचना अहिल्याबाई को पहुँचती तो वे अवश्य ही उस दुष्ट को यथोचित दंड देती थीं। वे धन संग्रह करके इतना प्रसन्न नहीं होती थीं जितना न्याय करने से प्रसन्न और संतुष्ट रहती थीं। प्रजा के साथ न्याय से, वरताव कर अपराधी को उचित दंड देने और निरपराध पर दया करके इसको मुक्त करने में वे सदा सुखी और संतुष्ट रहा करती थी।

द्रव्य संग्रह करने के विषय में बाई का यह मत रहता था[ ९० ]
कि अधिक धन एकत्र करने से सर्वदा अपने को सुख और लाभ होगा, यह बात निश्चित नहीं है । एक विद्वान् का कथन है कि धनहीन मनुष्य धनी बनने की इच्छा करता है; और जैसे जैसे वह धनी होता जाता है, वैसे वैसे वह धन संग्रह करने की अधिक अधिक लालसा करता जाता है। जिस प्रकार मद्यपान करने से उसके पीने की रुचि बढ़ती ही जाती है, वैसे ही धनप्राप्ति के साथ साथ अधिक धन संग्रह करने की इच्छा भी बढ़ती जाती है । धन का सच्चा उपयोग क्या है, इस बात को न विचार कर धन संग्रह करने की बलवती इच्छा से उसका संग्रह करते जाना मानो धनतृष्णा का अधिक दृढ़ व्यसन संग्रह करना है ।

एक समय तुकोजीराव होलकर अपनी सेना के साथ इंदौर के समीप ठहरे हुए थे । वहाँ उन्होंने सुना कि देवीचंद नामक एक साहूकार जिसके कोई संतान न थी, अपनी एक मात्र स्त्री को छोड़ स्वर्ग को सिधार गया है । उन्होने प्रचलित राजनियमानुसार देवीचंद की संपूर्ण संपत्ति ले लेनी चाही । तुकोजी का इस प्रकार का अभिप्राय सुनकर देवीचंद की विधवा ने अहिल्याबाई के समीप पहुँच कर उनसे अपनी सारी विपत्ति रो सुनाई । इस विधवा की विकलता और दीनता से बाई का कोमल हृदय ऐसा द्रवीभूत हुआ कि उन्होंने उस विधवा को सम्मानसूचक वस्त्रादि देकर विदा किया और तुकोजी को लिख भेजा कि इस प्रकार की निर्दयता और कठोरता को मेरे राज्य में स्थान न मिलना चाहिए । इस आज्ञा को पाकर तुकोजी ने अपना
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विचार छोड़ दिया और बाई के उदार व्यवहार से संतुष्ट हो इंदौर की प्रजा मात्र उनको धन्य धन्य कहने लगी ।

इसी प्रकार अहिल्याबाई राज्य के दो लक्ष्मीपुत्र स्वर्गवासी हुए और उनके घरों में भी विधवाओं के अतिरिक्त कोई उत्तराधिकारी नहीं था, और न इन विधवा ने कोई दत्तक पुत्र लेना स्वीकार किया था। वरन् अपनी संपूर्ण संपत्ति अहिल्याबाई को ही देना निश्चय किया । परंतु बाई को ज्ञात होने पर उन्होंने इन दोनों विधवाओं को अपने समीप बुलवा कर यह उपदेश दिया कि तुम दोनों अपनी अपनी संपत्ति ऐसे उचित कार्य में लगाओ जिससे तुम्हारा यह लोक और परलोक दोनों सुधरें । अहिल्याबाई के इन उपदेश को शिरोधार्य करके उन दोनों विधवाओं ने अपनी अपनी संपत्ति से दान, धर्म, देवालय, कूआँ, बावड़ी आदि बनवाई और अनेक प्रकार के व्रत पूजन कर ब्राह्मणों को दक्षिणा आदि देकर वे यश की भागी बनीं ।

उस समय आस पास के ऐसे अनेक राजा महाराज थे जिनकी उद्दंडता के कारण प्रजा अपना धन छिपा छिपा कर रखती थी । क्योंकि अमुक के पास इतना द्रव्य है, यह बात राजदरबार में प्रकट हो जाती तो तुरंत वह धन प्रजा से छीन कर राजा उसको नष्ट भ्रष्ट कर दिया करते थे । इस समय पालकी पर चढ़कर निकलना, उत्तम उत्तम पाँच पाँच सात सात मंजिल के मकान बनवाना साधारण प्रजा का कार्य नहीं था । इस प्रकार के सुख और वैभव से वही भाग्यशाली मनुष्य रह सकता था जो कि राजा का पूर्ण कृपापात्र
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होता था। सर्व साधारण को यह सुख अपना निज का द्रव्य व्यय करते हुए भी असंभव जान पड़ता था । परंतु धन्य थीं अहिल्याबाई जो अपनी सारी प्रजा को पुत्रवत् मानती थीं और उनके साथ सर्वदा वात्सल्य का भाव रख उनको सत् मार्ग पर चलने के लिये पुत्रभाव से उपदेश करती थीं । उनके राज्य में यदि कोई धनवान होता था तो वे उससे अपनी और अपने राज्य का गौरव समझती थीं, उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने का यत्न करती थीं और उसकी उन्नति पर पूरा पूरा ध्यान रखती थीं । अनुचित रीति से दूसरे के धन को अपने धनभांडार में एकत्र करना अहिल्याबाई बहुत बुरा ही नहीं वरन् एक प्रकार का पाप मानती थीं । उनका सदा यह विचार रहता था कि द्रव्य सदा सब के साथ नहीं रह सकता है, आज कहीं है तो कल कहीं है; और न उसका उपभोग करनेवाला ही सदा अटल रहता है । हाँ यदि मनुष्य अपने नाम की प्रतिष्ठा बढ़ाने और धनसंग्रह करने की अपेक्षा उपकार, दान, धर्म, सदव्यवहार आदि संग्रह करने पर आरूढ़ हो तो वह अनेक जन्मों तक सुखी और भाग्यशाली रह सकता है । दुःखी और सुखी होना मनुष्य के लिये अपने ही हाथ की बात है । जैसे -

यथाकारी यथाचारी तथा भवति ।
साधुकार साधु भवति, पापकारी पापी भवति ।। १ ।।

अर्थात् जो जैसा आचरण तथा कर्म करता है वह वैसा ही कर्म करनेवाला पुण्यात्मा और पाप करने वाला पापी होता है। इसी प्रकार मार्कस औरेलियस का कथन
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है कि सुख दुःख उपजाने के सब साधन ईश्वर ने मनुष्य के ही अधीन रखे हैं।

भारतवर्ष की जंगली जातियों में से भील जाति के लोग चोरी और लूट मार आदि कार्यों में प्रख्यात हैं । आजकल के ब्रिटिश गवर्मेंट ऐसे शांतिमय राज्य में भी अनेक स्थानों में भीलों और कंजरों का उपद्रव वर्तमान है । जब ऐसे निरुपद्रव काल में भी पथिकों को इन लोगों की लूट मार से भयभीत होना पड़ता है तो अहिल्याबाई के शासनकाल में प्रजा को जितना कुछ दुःख तथा कष्ट होता होगा, उसका सहज ही में अनुमान किया जा सकता है । उस समय कई ऐसे धनलोलुप और नीतिरहित राजा थे जो भीलों के द्वारा धन उपार्जन करने में अपने को लज्जित और कलंकित नहीं समझते थे । बाई के राज्य में तथा दूसरे राज्यों की सीमा पर ये लोग दिन रात लूट मार मचा कर पथिकों और गाँव में रहनेवालों को नाना प्रकार के कष्ट पहुँचाया करते और उनका माल-असबाब धन-दौलत छीन लिया करते थे । इस कारण भीलों का भय उन दिनों में इतना प्रबल हो गया था कि मनुष्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना अत्यंत दुःखदायी तथा भय का कारण होता था । उन्होंने अनेक स्थानों पर आने जानेवाले, पथिकों और लदे हुए बैल, घोड़ों आदि पर एक प्रकार का कर नियत कर दिया था जो "भीलकौड़ी" नाम से प्रख्यात था । इन नाना प्रकार के कष्टों का वृत्तांत जब बाई को विदित हुआ तब बाई ने पहले तो उन लोगों के मुखियों को अपनी कोमल प्रकृति के अनुसार बहुत कुछ समझाया
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बुझाया, परंतु जब उन जंगली मूर्खों ने एक न सुनी तब बाई ने उन लोगों के साथ कठोर बर्ताव आरंभ कर बड़े बड़े भील दलपतियों को अपनी कोपाग्नि से भस्म कर डाला और उनके अनेक ग्राम भस्म तथा उच्छिन्न करा दिए । यहाँ तक कि भील जाति का बीज ही नष्ट हुआ चाहता है, यह जान विवश हो सब भीलों ने प्रतापशालिनी अहिल्याबाई की अधीनता सहर्ष स्वीकार करने के हेतु प्राणरक्षा की भिक्षा चाही । और जब बाई को पूर्ण रीति से यह विश्वास हो गया कि ये लोग अब मेरे ही आश्रय में रहने पर आरूढ़ हैं तब दयामयी बाई ने उन्हें आश्रय दिया और उन लोगों को पुनः प्रेमयुक्त वचन से उपदेश दे कृषि और वाणिज्य करने के निमित्त धन की सहायता पहुँचा उनको उद्यम में लगाया । इसके अतिरिक्त बाई ने प्रत्येक भील दलपति के अधीनस्थ स्थान से होकर आने जानेवाले पथिकों के धन और प्राण की रक्षा का पूरा पूरा उत्तम प्रबंध कर दिया । इस प्रकार उन जंगली मनुष्यों के रहन सहन तथा जीविका का प्रबंध करके उनकी उद्दंडता अहिल्याबाई ने एक दम मिटा दी थी ।

इस प्रकार की व्यवस्था और प्रबंध से उन लोगों को शांतिमय जीवन निर्वाह करने के उपयुक्त बना देने से बाई की कीर्ति इतनी अधिक हो गई थी कि सपूर्ण प्रजा अपनी संपत्ति और अपना जीवन बाई के निमित्त लगाने के लिये उद्यत हो गई थी । और ज्यों ज्यों बाई की उत्तम राजनीति का स्वाद प्रजा को मिलता था त्यों त्यों उनकी श्रद्धा और भक्ति बाई पर अधिक नित्य नूतन बढ़ती थी । अपनी प्रजा को अपनी सत्ता तथा प्रबंध द्वारा अपने
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अनुकूल बनाना तथा इन पर प्रभाव डालना राजा, महाराजाओं के लिये यदि सहज नहीं है तो कठिन भी नहीं है। परंतु अपनी प्रजा के अतिरिक्त अपने उत्तम शासन तथा प्रबंध द्वारा दूसरे मनुष्यों के चित्त पर उत्तम प्रभाव डाल अपनी ओर श्रद्धा रखने को बाध्य करना सहज काम नहीं है। परंतु बाई के सुप्रबंध का प्रभाव और लोगों पर कितना पड़ता था, यह एक छोटे से लेख से सहज प्रतीत होता है। मालकम साहब कहते हैं। कि---"अहिल्याबाई बहुत प्रसन्नचित्त थीं और यों ही कभी अप्रसन्न होती थीं । परंतु जब कभी पाप या उद्दंडता के कारण उनकी अप्रसन्नता की अग्नि भड़कती थी उस समय औरों की क्या कथा, स्वयं उनके निज सेवकों का भी साहस उनके समीप पहुँचने का नहीं होता था। उन सेवकों का धैर्य छूट जाता था और उनका कलेजा थर्राने लगता था । बरामत दादा नामक एक सेवक ने, जो महेश्वर में कई वर्षों से व्यवस्थापक था और जिस पर बाई अपना पुराना सेवक समझ बहुत प्रेम करती और मानती थीं, मुझे विश्वास दिला कर कहा कि जब कभी बाई क्रोधाग्नि से संतप्त होती थीं उस समय बड़े बड़े शूर वीरों के मन में भी भय उत्पन्न हो जाता था । परंतु ऐसा समय क्वचित् ही उपस्थित होता था ।"

बाई ने अपने राजदूत पूना, हैदराबाद, श्रीरंगपट्टन, नागपुर और कलकत्ता आदि स्थानों में नियत करके परस्पर की सहानुभूति और मेल मिलाप बनाए रखने की उत्तम व्यवस्था की थी। इन स्थानों में यदि स्वयं अपनी राजनीति के कारण किसी प्रकार का वाद विवाद उपस्थित होता था तो
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उसको सहज में ही बड़ी बुद्धिमानी से वे निबटा देती थीं। उनके शासनकाल में दूसरे अनेक राजा, महाराज, नवाब अदि अपने अपने राज्यों में राज्य करते थे; परंतु यश और प्रजा के प्रेम-पात्र बनने में बाई के समान कोई न था। उनके पास अपने प्रताप प्रदर्शन तथा रक्षा के लिये और और राजा, महाराजाओं तथा नवाबों के समान न तो अधिक सैनिक बल था और न बाई ने इस प्रकार से अपना प्रभुत्व तथा कीर्ति स्थापन करने के लिए अपरिमित धन का व्यय ही किया था; क्योंकि बाई को यह पूर्ण विश्वास हो गया था कि देह-बल की अपेक्षा धर्म-बल ही प्रधान और श्रेष्ठ है। अतएव वे पूर्ण रीति से महाभारत के इस महावाक्य पर आरूढ़ रहती थीं-

"यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः"

अहिल्याबाई की सदग्रंर्थों में बड़ी रुचि रहती थी और उनके विचारों के अनुकूल ही वे मान अपना सब काम किया करती जिससे वे सदा प्रसन्न रहती थी। उनको इस बात का भली भाँति, विश्वास था कि पवित्र आचरण और परोपकार-धुद्धि न हो तो मनुष्य को सुख मिलना असंभव है। मनुष्य को सुखी होने के लिये मन को निर्मल और शांत विचारों से परिपूरित कर देना चाहिए और गत दुःखों के लिये शोक न करते हुए संतोष करना चाहिए; और जिस आचरण से हमें पश्चाताप हो, उसे दूर करना चाहिए।

बाई के विचार पाश्चिमात्य देश के विद्वान् एंटोनियस के विचारों के सदृश प्रतीत होते हैं। इन विद्वान् के विषय में लिखा है कि वे "विवेक-दृष्टि के अनुकूल श्रद्धा, धार्मिक भाव,
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सब के विषय में समदृष्टि, प्रसन्नमुख, मीठा स्वभाव, झूठी बड़ाई से घृणा और सब विषय समझने की प्रीति आदि गुणों से परिपूरित थे ।" यदि हम भी न्यायदृष्टि से बाई के विचारों की ओर ध्यान दें तो यही कहना पड़ता है कि बाई में भी उपर्युक्त सबगुण विराजमान थे । तथापि वे सैन्यबल की अपेक्षा आत्मबल का गौरव अधिक ही मानती थीं और इसी कारण अपनी संपत्ति का अधिकांश सैना विभाग अथवा दूसरे किसी विषय में व्यय न करते हुए वे धर्म में व्यय करती थीं । इस विषय में लिखा है कि-"बाई का पत्र व्यवहार सारे भारतवर्ष में फैला हुआ था और यह कार्य उन ब्राह्मणों द्वारा होता था जो बाई के आश्रित और अद्वितीय उदारता के प्रतिनिधि थे । जिस समय होलकर घराने का कोष उनके हाथ में आया तब उन्होंने उसका व्यय धार्मिक कार्यों में ही किया । बाई ने विंध्याचल पर्वत जैसे अनेक दुर्गम स्थानों पर अपरिमित धन व्यय करके बड़ी बड़ी सड़के मंदिर, धर्मशालाएँ, कुएँ, बावड़ियाँ इत्यादि बनवाई थीं । उनका दान केवल उन्हीं के राज्य में निवास करनेवालों के निमित्त नहीं होता था किंतु प्रत्येक तीर्थ स्थान पर पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक होता था । बाई ने कई देवालय हिमालय पर्वत पर, जो सदा बर्फ से ढका रहता है, अमित धन खर्च करके बनवाए थे, और उनका नियमित खर्च चलाने के लिये नियमित रूप से वार्षिक खर्च बाँध दिया था । बाई ने दक्षिण के बहुत से मंदिरो में नित्य गंगा जल से मूर्ति का स्नान कराने के हितार्थ गंगा तथा गंगोत्री के जल की काँवरे भेजवाने का बहुत उत्तम प्रबंध लाखों रुपयों का खर्च करके कर
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दिया था । बाई ने केवल धार्मिक कार्यों में ही कोष का द्रव्य खर्च करके अपना अटल गौरव स्थापित किया था । बाई ने अपने राज्य के ब्राह्मणों और कंगालों को नित्य भोजन कराने का उत्तम प्रबंध किया था, और गरमी के दिनों में धूप से व्याकुल पथिकों तथा खेत में काम करनेवाले किसानों और चौपायों तथा दूसरे प्राणियों के लिये स्थान स्थान पर पौसाल बैठा कर पानी पिलाने की उत्तम व्यवस्था की थी । और शरद ऋतु के आरंभ होते ही वे ब्राह्मणों, गरीबों, अनाथों और अपने आश्रित जनों को गरम वस्त्र बाँटती थीं । उनके धर्म और दान की सीमा केवल मनुष्यों तक ही न थी वरन् वन के पशु पक्षियों और जल के कच्छ मच्छ तक को भी बाई की असीम दया का आश्रय मिलता था । बहुधा लोग फसल के खतों पर बैठनेवाले पशु पक्षियों को भगा दिया करते हैं, इस कारण बाई विशेष रूप से पके अन्न के खेत मोल लेकर उन पशु पक्षियों के चुगने के हितार्थ छुड़वा देती थी ।

इस प्रकार से जीव मात्र पर दया रखने के कारण बाई को हम कदापि न हँसेंगे और न यह कहेंगे कि इतने अपरिमित धन का इस प्रकार खर्च करना सरासर भूल था । परंतु इस विषय में एक विद्वान् ब्राह्मण ने कहा है कि यदि बाई इससे दुगुना भी धन अपने सैन्य बल की और व्यय करती तो भी उनका इतना प्रताप और गौरव न होता जितना कि इस प्रकार धन व्यय करने से हुआ है । और यथार्थ में यदि अहिल्याबाई को सांसारिक अभिमान होता तो वे इतना बड़ा परमार्थ का कार्य किसी प्रकार भी नहीं कर सकती थीं ।