अयोध्या का इतिहास/६—वेदों में अयोध्या

[ ५८ ]बनारस और शाहजहाँपूर। पासी बड़े लड़नेवाले और प्रसिद्ध चोर हैं। पहिले पासी लोग सिपाहियों में भरती होते थे अब भी अधिकांश गाँव के चौकीदार हैं। "नवाबी में अवध के पासी तीर चलाने में बड़े सिद्धहस्त थे और सौ गज का निशाना मार लेते थे। किसी प्रकार की चोरी या डकैती ऐसी नहीं जो वे न करते हों।" पासियों में एक वर्ग रज़पासी है जिसके नाम ही से प्रकट है कि यह लोग पहिले राजा थे।

ऐसी ही एक जाति थारू की है। थारू आजकल तराई में रहते हैं जहाँ कदाचित क्षत्रियों के डर के मारे जाकर बसे हैं। थारू मांस खाते मद्य पीते फिर भी बड़े डरपोक होते हैं। जिन बनों में थारू बस गये हैं वहाँ की आब-हवा मैदान के रहनेवालों के लिये प्राणघातक हैं। यद्यपि थारू यहाँ सुख से रहते हैं तो भी इनका स्वास्थ्य देखने से यह अनुमान किया जाता है कि तगई की आब-हवा ने इन्हें ऐसा दुर्बल कर दिया है।

इनके अतिरिक्त कितनी पुरानी जातियाँ आर्यों के बीच में रहकर उनसे मिलजुल गयी हैं।

 

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छठा अध्याय।
वेदों में अयोध्या

वेदत्रयी में स्पष्ट रूप से न कोशल का नाम आया है न उसकी राजधानी अयोध्या का।[१] अथर्ववेद के द्वितोय खण्ड में लिखा है:—

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूः अयोध्या;
तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गा ज्योतिषावृतः।

[देवताओं की बनाई अयोध्या में आठ महल, नवद्वार और लौहमय धन-भण्डार है, यह स्वर्ग की भाँति समृद्धिसंपन्न है।]

ऋग्वेद मं॰ १०,६४, ९ में सरयू का आह्वान सरस्वती और सिन्धु के साथ किया गया है और उससे प्रार्थना की गई है कि यजमान को तेज बल दे और मधुमन् घृतवत् जल दे।

सरखतीः सरयुः सिन्धुरूमिभिः महोमही रवसायंतु वक्षणीः,
देवी रायो मातरः सूदयिल्वो घृतवतपयो मधुमन्नो अर्चत।

इससे प्रकट है कि हमारे देश के इतिहास के इतने प्राचीन काल में भी सरयू की महिमा सरस्वती से घट कर न थी। पंजाब की दो नदियों के [ ६० ]साथ सरयू का नाम आने से कुछ विद्वान यह अनुमान करते हैं कि इस नाम की एक नदी पंजाब में थी परन्तु हमें यह ठीक नहीं जँचता।

शतपथ ब्राह्मण में कोशल का नाम आया है और ऋग्वेद में कोशल के सूर्यवंशी राजाओं का कहीं कहीं नाम है। ऋग्वेद मं॰ १०, ६०, ४ का ऋषि राजा असमाती और देवता इन्द्र हैं।

यस्येक्ष्वाकुरुपव्रत रेवान्मराय्येधते। दिवीव पंच कृष्टयः॥

इसमें इक्ष्वाकु या तो पहिला राजा है या उसका कोई वंशज। और वह इन्द्र की सेवा में ऐसा धनी और तेजस्वी है जैसे स्वर्ग में पाँच कृष्टियाँ (जातियाँ) हैं।

इक्ष्वाकु से उतर कर बीसवीं पीढ़ी में युवनाश्व द्वितीय का पुत्र मान्धातृ हुआ। वह दस्युवों का मारनेवाला बड़ा प्रतापी राजा था और ऋग्वेद मं॰ ८,३९, ९ में अग्नि से उसके लिये प्रार्थना की जाती है।

वह मंत्र यह है:—

'यो अग्निः सप्तमानुषः श्रितो विश्वेषु सिंधुषु।
तमागन्म त्रिपस्त्य मंधातुर्दस्युहन्तममग्निपक्षेषु
पूर्व नभंतामन्यके समे।'

ऋग्वेद मं॰ ८, ४०, १२ में मान्धातृ अंगिरस के बराबर ऋषि माना गया है।

एवेन्द्राग्निभ्यां पितृवन्नवीयो मन्धातृवदंगिर स्वादवाचि।
विधातुना शर्मणां पातमस्मान्वयं स्याम पतयो रयीणां॥

इसके आगे ऋग्वेद मं॰ १०, १३४ का ऋषि यही यौवनाश्व मान्धता है। उस सूक्त का अन्तिम मंत्र यह है:—

नकिर्देवा मनीमसि नत्किरायो पयामसि, मंत्रश्रुत्यं, चरामसि।
पक्षेभिरभिको भिरपामि संरभामहे।

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इसको ध्यान से पढ़िये तो ऋषि का अच्छा शासक होना प्रकट होता है। वह केवल अपने वैरियों का विनाश नहीं चाहता वरन् यह भी कहता है कि हम उन दोषों से मुक्त रहें जिनके कारण राजा लोग अपने धर्म से विचलित होते हैं। इन मंत्रों में नाम कहीं मन्धातृ और कहीं मान्धातृ है परन्तु दोनों के एक होने में सन्देह नहीं।

 

  1. इसका हमें कोई सन्तोषजनक कारण नहीं मिलता। प्रसिद्ध विद्वान् मिस्टर पार्जिटर का मत है कि बड़े बड़े राजाओं को अपने बाहुबल और अपनी बड़ी बड़ी सेनाओं पर भरोसा था और उन्हें उस दैवी सहायता की परवाह न थी जो ऋषि लोग उनको दिला सकते थे। पुराणों में इतना हो लिखा है कि वे राजा लोग बड़े वानी और बड़े यज्ञ करनेवाले थे परन्तु ऋषियों ने उनके नाम के कोई मंत्र नहीं छोड़े। कोशल के राजाओं के विषय में यह कोई नहीं कह सकता कि कोई ऋषि उनके दार में न था क्योंकि वसिष्ठ जिनके और जिनके शिष्यों के नाम अनेक मंत्र हैं सूर्यवंश के कुलगुरु थे।