अयोध्या का इतिहास/उपसंहार/(ङ) वसिष्ठ

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उपसाहर (ङ)
वसिष्ठ

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ इक्ष्वाकुवंशियों के कुलगुरु थे, परन्तु इतिहास को इस बात के मानने में बड़ा संकोच है कि एक ही वसिष्ठ इक्ष्वाकु से श्रीरामचन्द्र तक ६२ पीढ़ी के कुलगुरु रहें और प्रधान मंत्री का काम करें। सूर्यवंश के इतिहास में वसिष्ठ का नाम सब से पहले विकुक्षि के साथ आया है। विष्णुपुराण में लिखा है कि राजा इक्ष्वाकु ने विकुक्षि को श्रष्टका श्राद्ध के लिए मांस लाने भेजा। उसने बन में जाकर अनेक पशु मारे, परन्तु जब वह थक गया और उसे बड़ी भूख लगी तो एक खरहा खा गया। घर लौट कर उसने सारा मांस राजा के सामने रख दिया। राजा ने अपने कुलगुरु वसिष्ठ से श्राद्ध के लिए मांस धोने को कहा। वसिष्ठ ने उत्तर दिया कि यह मांस दूषित हो गया है क्योंकि तुम्हारे दुरात्मा पुत्र ने इस में से एक शशक भक्षण कर लिया है।

यही वसिष्ट श्रीमद्भागवत् के अनुसार इक्ष्वाकु के पुत्र विदेहराज स्थापन करनेवाले राजा निमि के यज्ञ में ऋत्विक् बनाये गये थे जिसका वर्णन उपसंहार (ग) में है।

ये दोनों वसिष्ठ एक ही हो सकते हैं।

इसके बाद वसिष्ठ इक्ष्वाकु की ३०वीं पीढ़ी पर त्रय्यारुण के राज में प्रकट होते हैं। हम पहिले लिख चुके हैं कि एक साधारण अपराध के लिए त्रय्यारुण ने अपने बेटे सत्यव्रत को देशनिकाला दे दिया था, और आप दुःखी होकर बन को चला गया। तब वसिष्ठ ने बारह वर्ष तक अयोध्या का शासन किया। त्रय्यारुण के पीछे सत्यव्रत को विश्वामित्र ने गद्दी पर बैठाया। सत्यव्रत त्रिशंकु के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसने सदेह स्वर्ग जाने की अभिलाषा पहिले वसिष्ठ से कही, फिर वसिष्टपुत्रों से [ २०६ ]कही। सत्यव्रत के मरने पर हरिश्चन्द्र राजा हुआ। इसके राज्य के आरम्भ में विश्वामित्र प्रबल थे। परन्तु उन्हें अयोध्या से हट जाना पड़ा और तपस्या करने पुष्कर चले गये। हरिश्चन्द्र के राज्य में वसिष्ठ फिर घुसे, और उन्हीं की चाल से राजकुमार रोहित को फिर विश्वामित्र की शरण जाना पड़ा।

ये दोनों वसिष्ठ भी एक ही थे।

मत्स्यपुराण में लिखा है कि कार्तवीर्य अर्जुन ने आपव वसिष्ठ के आश्रम को जला दिया, जिससे आपव ने उसको शाप दिया और वह परशुराम के हाथ से मारा गया। इस वसिष्ठ का नाम देवराज था।

हरिश्चन्द्र से आठ पीढ़ी पीछे बाहु के राज में फिर एक वसिष्ठ प्रकट हुए और जब वाहु पुत्र सगर ने शकों यवनों को परास्त किया तो वसिष्ठ ने बीच में पड़कर उनके प्राण बचा लिये और उनको जीवन-मृत-प्राय करा दिया। इस वसिष्ठ का उपनाम अथर्वनिधि भी है।

पांचवें वसिष्ठ कल्माषपाद के समय में थे। अर्वुदमाहात्म्य मेंलिखा है कि एक दिन राजा मित्रसह कल्माषपाद[१] शिकार को जा रहे थे रास्ते में वसिष्ठ के बेटे शक्तृ से तकरार हो गई जिससे कल्माषपाद राक्षस हो गया और शक्त और उसके भाइयों को खा गया। पद्मपुराण और रघुवंश के अनुसार दिलीप वसिष्ठ के आश्रम में गाय चराने गये जिसके आशीर्वाद से रघु का जन्म हुआ। इस वसिष्ठ की भी उपाधि अथर्वनिधि है। दशरथ और श्रीरामचन्द्र के दरबार में भी वसिष्ठ कुल-गुरु थे। इनके अतिरिक्त एक वसिष्ठ भरतों के राजा संवरण के पास वहां पहुंचे जहां संवरण पांचाल राजा सुदास से हारकर सिन्धु महानद के तट से पर्वत के निकट तक एक फुलवारी में सौ बरस से रहते थे। [ २०७ ]वसिष्ठ ने उनको फिर पुराने राज्य पर अभिषिक्त किया।[२] इन्हीं वसिष्ठ ने राजा का तपती के साथ ब्याह कराया जिससे कुरु का जन्म हुआ और इन्हीं वसिष्ठ ने राजा के राज में पानी बरसाया।[३]

वंशावलियों के मिलाने से यह संवरण उत्तर पांचाल के सुदास और अयोध्या के कुशपुत्र अतिथि का समकालीन निकलता है। परन्तु ऋग्वेद ७, १८ का ऋषि वसिष्ठ का पोता पराशर है; जिससे प्रकट है कि वसिष्ठ उस समय बहुत बुड्ढे हो गये थे। एक वसिष्ठ पिजवन-पुत्र सुदास के भी पुरोहित थे। सुदास ने एक यज्ञ किया। इसमें वसिष्ठ पुत्र शक्तृ ने विश्वामित्र को परास्त कर दिया परन्तु जामदग्न्यों ने कौशिकों की सहायता की। कहीं कहीं यह भी लिखा है कि विश्वामित्र के कहने से राजा के सेवकों ने शक्तृ को दावानल में डाल दिया। कुछ भी हो इस में सन्देह नहीं कि शक्तृ मारा गया और उसके मरने पर उसकी स्त्री अदृश्यन्ती के पराशर पुत्र उत्पन्न हुआ। इससे प्रकट है कि एक वसिष्ठ उत्तर पाञ्चाल के राजा सुदास के भी पुरोहित थे। अर्वुदमाहात्म्य में लिखा है कि एक वसिष्ठ उस पर्वत पर रहते थे जिसे आज कल आबू पहाड़ कहते हैं। यह स्थान गोमुख के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें गोमुखरूपी टोंटी से नीचे के कुंड में पानी गिरता है। इसी के पास वसिष्ठ का मन्दिर है। इस मन्दिर में सिंहासन पर वसिष्ठ की मूर्ति के दाहिने बायें राम लक्ष्मण की मूर्तियां, वसिष्ठ पत्नी अरुन्धती और बछरे समेत नन्दिनी गाय की मूर्तियाँ हैं। यहीं अग्निकुण्ड है जिसमें से वसिष्ठ के यज्ञ करने पर अग्निकुल क्षत्रिय उत्पन्न हुये थे। जब परशुराम ने पृथ्वी निःक्षत्रिया कर दी तो ब्राह्मण भी [ २०८ ]व्याकुल हो गये क्योंकि उनका रक्षण करनेवाला कोई न रह गया। इस पर वसिष्ठ ने आबू पहाड़ पर सब देवताओं का आह्वान किया और गोमुख के पास अग्निकुण्ड में एक यज्ञ किया जिसकी समाप्ति पर चार देवताओं ने चार क्षत्रियकुल उत्पन्न किये। इन्द्र ने परमार-कुल, ब्रह्मा ने चालुक्य-कुल, शिव ने परिहार-कुल, और विष्णु ने चौहान-कुल। इसी से चारों कुल अग्निकुल कहलाये।

हमारे इस लिखने का प्रयोजन यही है कि वसिष्ठ के वंशज भी वसिष्ठ कहलाते थे, और यद्यपि इस कुल का सम्बन्ध साठ पीढ़ी तक अयोध्या राजवंश से रहा परन्तु और राजाओं के यहाँ भी वसिष्ठ और उनके वंशज पहुँचते थे।

 

  1. प्रथाथवनिधेस्तस्य विजितारिपुरः पुरा।
    अर्थ्यामर्थपतिर्वाचमाददे वदतां वरः। विष्णुपुराण १.२६।

  2. विष्णुपुराण के अनुसार कल्माषपाद के भरमांस परसने की कथा इतिहास में दी हुई है। महाभारत आदिपर्व में यह कथा बड़े विस्तार के साथ लिखी है।
  3. महाभारत श्रादिपर्व अ॰ १७४।