अद्भुत आलाप/२१—प्राचीन मेक्सिको में नरमेध-यज्ञ

अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ १६६ से – १७५ तक

 
२१---प्राचीन मेक्सिको में नरमेघ-यज्ञ

प्रेस्काट नाम के साहब ने अमेरिका के मेक्सिको देश के विजय किए जाने पर एक अच्छी पुस्तक अँगरेज़ी में लिख है। उसी के आधार पर हम प्राचीन मेक्सिको के उन उत्सवों का हाल लिखते हैं, जिनमें वहाँवाले नरमेघ-यज्ञ करते थे।

मेक्सिकोवालों के युद्ध-देवताओं में एक देवता 'टेज़-कैटली-कोपा' नाम का था। 'टेज़-कैटली-कोपा' का अर्थ है---'संसार की आत्मा'। वह संसार का रचयिता माना जाता था। उसकी पूजा में मनुष्य का बलिदान होता था। प्राचीन काल में, मेक्सिको में, मनुष्य के बलिदान की प्रथा थी तो; परंतु बहुत कम थी। चौदहवीं शताब्दी में उसने बहुत ज़ोर पकड़ा; और अंत में, सोलहवीं शताब्दी में, जब स्पेनवालों ने मेक्सिको पर अपना अधिकार जमाया, तब इस प्रथा का इतना प्राबल्य हो गया कि कोई पूजा इसके विना होती हो न थी।

युद्ध में पकड़े गए कैदियों में से एक सुंदर युवक चुन लिया जाता था। वह टैज़-कैटली-कोपा का अवतार माना जाता था। उसका आदर और सत्कार भी वैसा ही होता था, जैसा टैज़-कैटली-कोपा की मूर्ति का। कई पुजारी उसके पास सदा रहते थे। वह बहुमूल्य और सुंदर-सुवासित वस्त्र धारण करता। फूलों की मालाएँ उसके गले में पड़ी रहतीं । जब वह घूमने निकलता, तब राजा के सिपाही उसके आगे-आगे चलते। चलते-चलते जब वह कहीं गाने लगता, तब उसके गाने की

ध्वनि कानों में पड़ते ही लोग दौड़-दौड़कर उसके चरणों पर गिरते, और उसकी चरण-रज उठाकर सिर पर धारण करते। चार सुंदर युवा स्त्रियाँ सदा उसकी सेवा करतीं। जिस समय से वे उसके पास रहने लगतीं, उस समय से लोग उन्हें देवी के पवित्र नाम से पुकारने लगते। एक वर्ष तक यह देवता ख़ूब सुख भोगता। जहाँ जाता, वहाँ लोग उसका आदर करते और उसे ख़ूब अच्छा भोजन खिलाते। वह जो चाहता, सो करता; कोई उसे टोकनेवाला न था। वह एक बड़े भारी महल में रहता। जब जी चाहता, तब चाहे जिसके महल को अपने रहने के लिये खाली करा लेता। परंतु एक वर्ष के बाद उसका यह सब सुख मिट्टी में मिल जाता।

बलिदान के दिन उसके सब बहुमूल्य कपड़े उतार लिए जाते। पुजारी लोग उसे टैज़-केटली-कोपा के मदिर में ले जाते। दर्शकों की भीड़ उसके पीछे-पीछे चलती। मंदिर के निकट पहुँचते ही वह अपने फूलों के हारों को तोड़-ताड़कर भूमि पर बिखेरने लगता। अंत में उन सारंगियों और ढोलकों के तोड़ने की बारी आती, जो उसकी रंगरेलियों के साथी थे। मंदिर में पहुँचते ही छ पुजारी उसका स्वागत करते। इन छहों पुजारियों के बाल लंबे-लंबे और काले होते। वे कपड़े भी काले ही पहने रहते। उनके कपड़ों पर मेक्सिको की भाषा में लिखे हुए मंत्राक्षर चमकते रहते। छहों पुजारी उसे लेकर मंदिर के एक ऐसे ऊँचे भाग में पहुँचते, जहाँ उन्हें नीचे से सर्व-साधारण

अच्छी तरह देख सकते। वहाँ पर उसे एक शिला पर लिटा देते। पुजारियों में से पाँच तो उसके हाथ-पैर जोर से पकड़ लेते और एक उसके पेट में छुरा भोंक देता और तुरंत ही उसका हृदय बाहर निकाल लेता, जिसे पहले तो वह सूर्य को दिखाता और फिर टैज़-कैटली-कोपा की मूर्ति के चरणों पर डाल देता। देवता के चरणों पर हृदय-खंड के गिरते हो नीचे खड़े हुए सारे दर्शक झुक-झुककर देवता की वंदना करने लगते। तत्पश्चात् एक पुजारी उठता और लोगों को संसार की निस्सारता पर उपदेश देने लगता। अंत में वह कहता-"भाइयो, देखो, दुनिया कैसी बुरी जगह है। पहले तो सांसारिक बातों से बड़ा सुख मिलता है, जैसे कि इस मनुष्य को मिला था, जो अभी मारा गया है, परंतु अंत में उनसे बड़ा दुःख होता है, जैसा कि इस आदमी को हुआ। सांसारिक सुखों पर कभी भरोसा मत करो, और न उन पर गर्व ही करो।"

यह तो इस बलिदान की साधारण रीति थी। बलिदान किए जानेवाले व्यक्ति को बलिदान के समय प्रायः बहुत शारीरिक कष्ट भी पहुँचाया जाता था। उसे लोग शिला पर विठा देते थे, और खूब पीटते थे। लातों और घूसों तक ही बात न रहती; लोग तीर और छुरे तक उसके शरीर में चुभोते थे। उसका शरीर लोहू से लदफद हो जाता, और अंत में वह इस यंत्रणा से विह्वल होकर पुजारियों से प्रार्थना करने लगता कि शीघ्र ही मेरे प्राण ले लो। बलिदान के लिये चुने गए व्यक्ति के साथियों

में से यदि कोई सेनापति या प्रसिद्ध वीर पुरुष होता, तो उस व्यक्ति के साथ थोड़ी सी रियायत भी की जाती थी। उसके हाथ में एक ढाल और तलवार दे दी जाती थी। वह उपस्थित लोगों में से एक-एक से लड़ता। यदि वह जीत जाता, तो उसे अपने घर जीवित चले जाने की आज्ञा मिल जाती। हार जाने पर---चाहे वह एक दर्जन आदमियों को हराकर ही हारता--- उसकी वही गति होती, जो और लोगों को होती थी। जब इस प्रकार का युद्ध होता, तब बलिदान के स्थान में एक गोल पत्थर रख दिया जाता। उसी के चारो ओर घूम-घूमकर बलिदान किया जानेवाला पुरूष लड़ता और दर्शक नीचे खड़े होकर युद्ध देखते।

मेक्सिकोवाले इन नरमेघ-यज्ञों को अपने मनोरंजनार्थ न करते थे। उनकी धार्मिक पुस्तकों में इस प्रकार के यज्ञों का बड़ा माहात्म्य गाया गया है। समय आने पर बलिदानों का न होना अशुभ समझा जाता था। कभी-कभी स्त्रियाँ भी बलिदान होती थीं। जब पानी न बरसता, तब छोटे-छोटे बच्चे देवतों की भेंट चढ़ाए जाते। पहले इन बच्चों को अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाए जाते। फिर उन्हें एक बहुमूल्य चादर पर लिटाया जाता। इस चादर को पुजारी लोग तानकर उठाए हुए मंदिर में ले जाते। आगे बाजे बजते जाते, पीछे दर्शकों की भीड़ चलती। मंदिर में पहुँचकर बच्चों के गले में मालाएँ पहनाई जातीं, और उनसे कहा जाता कि लो, अब तुम मारे जाते हो। वे बेचारे रोने

उन्हीं पाश्चात्य विद्वानों के लेखों से नहीं मिलते, जिन्होंने मेक्सिको की बातों की खोज करके ऐतिहासिक पुस्तकें लिखी हैं, किंतु मेक्सिको के आदिम निवासी तक इस बात की गवाही देते हैं। इसके अतिरिक्त वह मंदिर, जिसमें यह महानरमेघ-यज्ञ हुआ था, उस समय भी विद्यमान था, जब स्पेनवालों ने मेक्सिको को अपने हस्तगत किया था। जिन लोगों का बलिदान होता था, उनकी खोपड़ियाँ मंदिर की दीवारों पर खूँटियों से लटका दी जाती थीं। उस मंदिर में स्पेनवालों की बहुत-सी खोपड़ियाँ लटकी मिली थीं। स्पेन के दो सैनिकों ने उन्हें गिना भी था। कहते है कि उनकी संख्या एक लाख छत्तीस हज़ार से अधिक थी। इन आदमियों के इस प्रकार, हाथ-पैर हिलाए बिना मर जाने का एक बड़ा भारी कारण भी था । वह यह कि उन लोगों को दृढ़ विश्वास था कि इस प्रकार की मृत्यु बहुत अच्छी होती है, और मरने के बाद हमें स्वर्ग और उसके सुख प्राप्त होंगे। इसी से वे अपना बलिदान कराकर बड़ी खुशी से मरते थे।

मेक्सिकोवाले हर साल अपने आस-पास के देशों पर चढ़ाई करते थे। दिग्विजय के लिये नहीं, केवल बलिदान के लिये दूसरे देशों के आदमियों को पकड़ लाने के लिये। मेक्सिको के पास टैंज़कीला नाम का एक राज्य था। मेक्सिको के राजा और वहाँ के राजा में यह अहदनामा हो गया था कि साल में एक खास दिन, एक नियत स्थान पर, दोनो राज्यों की सेनाएँ एक दूसरी से लड़ें। हार-जीत की कोई शर्त न थी। बात थी केवल इतनी

ही कि बलिदान के लिये एक पक्ष दूसरे पक्ष के जितने आदमी ज़बरदस्ती कैद कर सके कर ले जाय। नौबत हाथा-पाई तक ही न रहती, मार-काट अवश्य होने लगती। संध्या को लड़ाई बंद हो जाती। उस समय दोनो पक्षवाले एक दूसरे से मित्र की तरह मिलते, परंतु युद्ध के क़ैदियों की कुछ बात न होती। इन्हीं क़ैदियों का एक-एक करके बलिदान किया जाता। जब उनकी संख्या थोड़ी रह जाती, तब लोग राजा से फिर इसी प्रकार के युद्ध की आज्ञा माँगते।

मेक्सिकोवाले नर-मांस-भक्षी भी थे। बलिदान के बाद लाश उस आदमी को दे दी जाती थी, जो उसे युद्ध से पकड़ लाता था। वह उसे बड़ी प्रसन्नता से अपने घर उठा लाता और बड़े यत्न से पकाता। तब उसके बंधु-बांधव और मित्र एकत्र होते। सब लोग सब खुशी मनाते, और अंत में वे सब मिलकर उस नर-मांस को बड़ी प्रसन्नता से खाते।

कुछ वीर पुरुष अपने ही मन से अपने को बलिदान के लिये अर्पण कर देते थे। इन लोगों की खोपड़ियों की माला मेक्सिको का बादशाह बड़े प्रेम से पहनकर दरबार या त्योहार के दिन तख्त पर बैठता था।

जनवरी, १९१३