अद्भुत आलाप/१९—भयंकर भूत-लीला

अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ १४४ से – १५४ तक

 

१९--भयंकर भूत-लीला

पढ़े-लिखे एतद्देशीय लोगों का भूत-प्रेतों के अस्तित्व पर बहुत कम विश्वास है। अँगरेज़ों को तो कुछ पूछिए ही नहीं। वे तो इस तरह की बातों को बिलकुल ही मिथ्या समझते हैं। परंतु एक असल अंगरेज़-बहादुर को—कम असल को भी नहीं—एक भूत ने बेतरह छकाया—उनका कलेजा दहला दिया। भूत ने उन पर एक प्रकार दया ही की, नहीं तो साहब बहादुर इंगलैंड लौटकर अपनी कहानी कहने को जीते ही न रहते। आप हिंदोस्तान की एक पल्टन में कर्नल थे। कोई ऐसे-वैसे डरपोक आदमी भी न थे। आप पर बीती हुई बातें आपके एक मित्र ने आपकी तरफ से अँगरेज़ी की मासिक पुस्तक 'आकल्ट रिव्यू' में प्रकाशित की हैं। कर्नल साहब ने उन बातों की सचाई की सर्टिफ़िकेट दी है। अब आपकी कहानी आप ही से सुनिए—

जिस अजीब घटना का मैं ज़िक्र करने जाता हूँ, उसे हुए कोई १६ वर्ष हुए। उस समय मैं हिंदोस्तान में था। मैं अपना नाम नहीं लेना चाहता, क्योंकि हिंदोस्तान में मुझे बहुत आदमी जानते हैं। नाम लेने से वे मुझे झट पहचान लेंगे। मैं एफ दफ़े शिकार के लिये अपनी छावनी से दूर एक गाँव को गया। साथ सिर्फ़ दो आदमी थे—मेरा वेहरा और मेरा ख़ानसामा। प्रायः दिन-भर मैं घोड़े की पीठ पर रहा, शाम को मैं एक गाँव के पास आया। मैं ख़ाक में डूबा हुआ था। भूखा भी बहुत था। थका भी बहुत था। यह गाँव रास्ते से ज़रा हटकर था, और कपास के खेतों के बीच में बसा हुआ था।

एक क़ुदरती तालाब वहीं पर था। उसी के किनारे मैंने डेरा डाला। यह तालाब गाँव के पास ही था। तालाब के किनारे एक बहुत बड़ा छायादार बरगद का पेढ़ था। उसी के नीचे मैंने रात काटने का विचार किया। जो कुछ सामग्री वहाँ मिल सकी, उसी से मरे 'नेटिव' नौकरों ने मेरे लिये खाना बनाने की तैयारी की। वे लोग मेरे लिये खाना बनाने में लगे, ओर मैं यह देखने के लिये कि पास-पड़ोस में क्या है, एक दोरा लगाने निकला। चलते ही मुझे एक फ़क़ीर देख पड़ा। ये लोग हिंदोस्तान के सब हिस्सों में अधिकता से पाए जाते हैं। इसकी
जटाएँ बढ़ी हुई थीं। कमर में एक मैला लँगोटा था। सारे वदन में खाक लिपटी हुई थी। तालाब के दूसरे किनारे पर यह फ़कीर ध्यान में मग्न-सा था। इस तरह के धार्मिक विक्षिप्तों का लोग बड़ा आदर करते हैं। उनसे डरते भी हैं, क्योंकि इन लोगों में अलोकिक शक्तियाँ होती है। यह अघटित घटनाएँ दिखलाने में बड़े पटु होते हैं। ये लोग अपने मन को यहाँ तक अपने क़ाबू में कर लेते हैं कि जब चाहते हैं, समाधिस्थ हो जाते हैं। इस दशा में इनका शरीर तो जड़वते पृथ्वी पर पड़ा रह जाता है, पर आत्मा इनकी आकाश में यथेष्ट भ्रमण किया करती है। जब मैं इस बुड्ढे फकीर के पास होकर निकला, तब इसने अपना ध्यान भंग करके मेरी तरफ़ नजर उठाई। इसने मुझे सलाम किया, और मुझसे यह प्रार्थना की कि तुम इस तालाब का पानी न तो पीना और न छूना। पानी को हाथ भी न लगाना, नहीं तो कहीं कोई आफ़त न तुम पर आ जाय।

मैं समझा कि इसमें इनका कुछ स्वार्थ है। यह भी मैंने अपने मन में कहा कि यह फक़ीर शायद मुझे कोई ऐसा ही वैसा आदमी समझता है। यह मुझे भला कहाँ गँवारा था। मैंने डपटकर कहा-"चुप रहो।" मैंने उससे यह भी कह दिया कि इस तालाब का पानी पीने से तुम क्या, कोई आदमी दुनिया भर में मुझे मना नहीं कर सकता।

मेरे नौकर फ़क़ीर की बातें सुनकर बेतरह डर गए। डरते और काँपते हुए मेरा बेहरा ताल़ाब से पानी निकाल लाया।
मैंने उससे खब नहाया; खूब रगड़-रगड़कर बदन धोया। इससे मेरे बदन की थकावट और गर्मी बहुत कुछ दूर हो गई। मैं फिर तरोताज़ा हो गया। इसके बाद मैं तालाब की और उस झकोर की भी बात बिलकुल ही भूल गया। मगर कुछ देर में मैंने देखा कि बहुत-से देहाती, और मेरे दोनो नौकर भी, एक दूर के तालाब से पानी लाने दौड़े चले जा रहे हैं। तब मुझे फिर वे बातें याद आ गई। मैंने इस बात की तहक़ीक़ात की कि ये लोग इस पास के तालाब से पानी न लेकर उतनी दूर दूसरे तालाब से क्यों पानी लाने जाते हैं। इस पर मुझे मालूम हुआ कि एक आदमी ने अपनी स्त्री को मार डाला था, और मारकर खुद भी इस तालाब में डूबकर आत्महत्या कर ली थी। इस घटना के कारण लोगों को यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि जो कोई इस तालाब में स्नान करेगा या इसका पानी पिएगा, वह या तो उस मनुष्य के प्रेतात्मा से मारा ही जायगा, या यदि बच जायगा, तो उस पर कोई बहुत बड़ी विपत्ति आवेगी।

उस रात को दस बजे के बाद मैंने अपना सब असबाब अपने नौकरों के साथ अगले पड़ाव पर भेज दिया। उनके साथ कुछ क़ुली भी गए। उनको भेजकर मैं अपने बिस्तर पर लेट रहा, और उसी बरगद के नीचे कंबल ओढ़कर तीन-चार घंटे सोया।

दो बजे मैं उठा। बंदूक़ मैंने हाथ में ली। घोड़े पर मैं सवार हो गया। साथ में मैंने एक पथ-दर्शक लिया। मेरा एक नौकर भी मेरे साथ हुआ। खेतों से होकर मैं सीधा ही रवाना हुआ।
मैंने कहा, क्या डर है, क्यों दूर की राह जाकर व्यर्थ फेर खायँ। चलो, सीधे खेतों ही मे निकल चलें।

इस वक्त रात के ३ बजे होंगे। हवा खूब ठंडी-ठंडी चल रही थी, कुछ दूर तक हम लोग मजे में गए और तेजी से गए। मैं घोड़े पर था। मेरे दोनो हमराही मेरे अगल-बग़ल दौड़ रहे थे।

इस समय हम एक ऐसी जगह पहुँचे, जिसके चारो तरफ़ दूर-दूर तक कपास के खेत थे। मैंने अकस्मात् आगे देखा, तो मुझे जलती हुई आग का एक धुंधला-सा छोटा गोला देख पड़ा। मैं उसी की तरफ़ ध्यान से देखता रहा। देखते-देखते मुझे ऐसा मालूम हुआ कि वह बड़े वेग से मेरी तरफ़ आ रहा है। मुझे मालूम हुआ कि वह एक मशाल है, और बराबर आगे को बढ़ रही है। इस पर मैंने अपने साथी, उन दोनो हिंदोस्तानियों से पूछा कि यह जंगमशील ज्वाला क्या चीज़ है? मेरे पूछते ही वे लोग भय से बेतरह चिल्लाने और काँपने लगे। उनका दम फूलने लगा। वे चिल्ला उठे-"यह तो विजली है।" यह दशा देख मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। बिजली से उन लोगों का मतलब उसी तालाबवाले भूत से था। मैं और कुछ कहने भी न पाया था कि वे दोनो कापुरुष भयभीत होकर अपनी-अपनी जान लेकर पीछे को भागे। मैं अकेला रह गया। इस कापुरुषता के लिये मैंने उनको बहुत कोसा। पर कोसने से क्या होता था। मैंने घोड़े के ऐंड़ मारी, और जिस तरफ़ से वह ज्वाला उड़ती हुई आ रही थी, उसी तरफ़ को मैं बढ़ा।
अब मुझे साफ़-साफ़ देख पड़ने लगा कि वह मशाल एक हिंदोस्तानी हरकारे, के हाथ में है। इसलिये जहाँ तक मुझमें ज़ोर था, मैंने हिंदी में आवाज़ दो कि तू वहीं ठहर जा। मैंने इस बात का प्रण कर लिया था कि मैं अपने उन दोनो डरपोक साथियों के निर्मूल भय का कारण जरूर मालूम करूँगा। परंतु उस मशालवाले ने मेरे चिल्लाने की कुछ भी परवा न की। वह पूर्ववत् बेतहाशा आगे को दोड़ता हुआ देख पड़ा। इस हुक्मउदूली पर---इस गुस्ताख़ी पर---मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। मैंने घोड़े की बग़ल में ज़ोर से ऐंड़ मारी, और यह निश्चय किया कि उस गुस्ताख मशालवाले को अपने दौड़ते हुए घोड़े से कुचल दू़ँगा। पर अफ़सोस है, मेरा घोड़ा भी अकस्मात् बिगड़ उठा। उसने अपनी टापें वहीं ज़मीन के भीतर गाड़ सी दीं। वह फुफकारने लगा। पर एक क़दम भी आगे को न बढ़ा। जब मैंने उसे आगे बढ़ने के लिये बहुत तंग किया, तब वह यहाँ तक बिगड़ उठा कि उसने मुझे क़रीब-क़रीब ज़मीन पर पटक देना चाहा। घोड़े का प्रत्येक अंग काँपने लगा। अब मेरे लिये उतर पड़ने के सिवा और कोई चारा न रहा। इससे मैं उतर पड़ा, और पैदल ही आगे बढ़ा। ज्यों ही मैंने घोड़े की रास छोड़ी, त्यों हो वह भयभीत होकर पीछे को उसी गाँव की तरफ़ भागा, जिसे हम लोगों ने एक घंटे पहले छोड़ा था।

मामला ज़रा संगीन होता जाता था। न मेरे पास मेरा घोड़ा ही रहा, और न वे दोनो आदनी ही रहे। वक्त रात का। राह का

पता-ठिकाना नहीं। खेतों का बीच। मैंने समझा, इस अवस्था में आगे बढ़ना मुश्किल है। सो, मैंने अपनी रफ़ल उठाकर अपने कंधे पर रक्खी, और जोर से आवाज दी---"वे हिले-डुले ख़ामोश, अपनी जगह पर खड़ा रह; नहीं मैं तुझ पर गोली छोड़ता हूँ।" मुश्किल से मेरे मुँह से ये शब्द निकले होंगे कि मुझे बेतरह खौफ़ मालूम हुआ। इसलिये कि जो आदमी अभी तक मेरी तरफ़ वेग से दौड़ता हुआ आता मालूम होता था, और मुझसे कुछ ही गज़ के फ़ासले पर था, वह आदमी ही न था। वह आदमी की अस्थिमय खोपड़ी-मात्र थी। आँखों की जगह उसमें सिर्फ आँखों के गढ़े थे। एक हाथ भी था; पर उसे हाथ नहीं, हाथ की ठठरी कहना चाहिए। उसी से वह मशाल थामे था। उसके शेष अंग धुँधले धुँधले धुएँ-से मालूम होते थे। उनकी हड्डियाँ भी न देख पड़ती थीं।

मैं वहीं पर ठहरा रहा। मेरी उँगली रफ़ल के घोड़े पर थी। वह प्रेत उस समय मुझसे सिर्फ़ १० या १५ फीट पर होगा। अब क्या हुआ कि वह सहसा एक तरफ़ को मुड़ा, और मुझसे कोई बीस फ़ीट पर, पलक मारते-मारते, जमीन के भीतर घुस गया। वह उस समय मेरे बहुत निकट था। इससे मैं उसे अच्छी तरह देख सका। उसके ज़मीन में लोप होते ही मैं उस जगह दौड़ गया। पर वहाँ मुझे उसका कुछ भी पता न मिला। मैंने उस जगह ज़ोर से लात मारी। पर वहाँ क्या था ? था सिर्फ़ मशाल की लाल-लाल जलती हुई आग का कुछ अंश। मैंने उसे हाथ

से उठा लिया। पर वह इतना गर्म था कि फ़ौरन ही मुझे फेक देना पड़ा। यह मैंने इसलिये किया, जिसमें मेरा संशय दूर हो जाय, और इस बात का मुझे विश्वास हो जाय कि सचमुच ही वह मशाल थी या नहीं। खैर, मेरा संशय दूर हो गया, और मेरा हाथ जलने से बचा। इस पर मुझे बड़ा अचंभा हुआ, और मैं पीछे लौटा। मैं कुछ ही दूर लौटा हूँगा कि सौभाग्य से मुझे अपना घोड़ा चरता हुआ मिल गया। मैं प्रसन्न होकर उस पर सवार हुआ, और बहुत पुकारने पर मुझे अपने उन दोनो भगोढो का पता लगा। खैर किसी तरह मैं सूर्य निकलते-निकलते, राम-राम करके, अपने पड़ाव पर पहुँचा।

इस घटना की खबर मेरे पथ-दर्शक ने चारो तरफ़ फैला दी। उसे सुनकर गाँव का नंबरदार मेरे पास आया। उसन कहा---"साहब, आपको बिजली ने दर्शन दे दिए। अब आप पर कोई-न-कोई आफ़त आने का डर है।" उसने और मेरे नौकरों ने मुझसे बहुत कुछ कहा-सुना, मेरे बहुत कुछ हाथ-पैर जोड़े कि मैं वहाँ आस-पास के जंगल में शिकार न खेलूँ। उन्होंने कहा---"साहब, क्या आपको इंजीनियर साहब की बात भल गई? उन्होंने जिस रात बिजली को देखा था, उसके दूसरे ही दिन उनके तंबू के भीतर घुसकर तेंदुए ने उनको मार डाला। साहब, आप शिकार को न जाइए। शिकार को जाने से कोई-न-कोई संकट आप पर जरूर आवेगा।" उन्होंने यह भी कहा कि एक हिंदोस्तानी ने एक वर्ष पहले इसी तालाब का पानी पिया था।
पर फल क्या हुआ? जिस मैदान में बिजली से मेरी भेंट हुई; उसी में वह आदमी मरा हुआ पाया गया। उसके सिर पर जल जाने का एक बड़ा घाव था। मैं उन लोगों के इस अंध- विश्वास पर बहुत हसा और शिकार के लिये चल दिया।

एक पखवारा हो गया। मैं एक पहाड़ी गुफा के पास आया। मैंने सुना कि गत रात को दो रीछ वहाँ देख पड़े थे। मैंने कुछ आदमियों को भेजा कि वे हल्ला करके रीछों को अपनी माँद से निकालें। वे उधर गए। इधर मैं इस गुफा के मुँह पर बैठकर रीछों को राह देखने लगा।

सहसा वे दोनो रीछ दौड़ते हुए बाहर निकले। मैंने उनमें से एक पर फ़ैर की। गोली उसे भरपूर लगी। परंतु ज्यों ही मैंने दूसरी तरफ़ गर्दन फेरी, मैंने आश्चर्य से देखा कि अकस्मात् एक तीसरा रीछ मेरी तरफ़ आ रहा है। उसे देखकर मैं इसलिये ज़रा पीछे हटा कि उसके आघात से बचूँ, और सँभलकर उस पर गोली छोढ़ूँ। परंतु ऐसा करने में मेरा पैर फिसल गया, और मैं एक बहुत गहरे गढ़े में जा गिरा। गिरने से मेरा हाथ टूट गया। मेरी कुहनी भी उतर गई, और एक लकड़ी मेरे गाल में घुस गई, जिससे बड़ा भारी घाव हो गया। किसी तरह अपने घाव पर पट्टी बाँधकर हिंदोस्तानियों की मदद से मैं घोड़े पर सवार हुआ, और बड़ी मुश्किलों से अपने ठहरने की जगह पर पहुँचा। वहाँ मैं कई रोज़ तक विषमज्वर और दर्द की यातनाएँ भोगता हुआ पड़ा रहा। जब ज़रा तबियत ठीक हुई,