अद्भुत आलाप/मनुष्येतर जीवों का अंतर्ज्ञान

अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ ८३ से – ९१ तक

 

८--मनुष्येतर जीवों का अंतर्ज्ञान

मनुष्येतर अर्थात् मनुष्यों के सिवा और दूसरे पशु-पक्षी आदिक जो जीवधारी हैं, उनको भी परमात्मा ने ज्ञान दिया है। वे सज्ञान तो हैं, परंतु उनको इतना ज्ञान नहीं है, जितना मनुष्य को होता है। उनको भूख-प्यास निवारण करने का ज्ञान है; उनको अपने शत्रु-मित्र के पहचानने का ज्ञान है; उनको चोट लगने अथवा मारे जाने से उत्पन्न हुई पीड़ा का ज्ञान है। ऐसे ही और भी कई प्रकार के ज्ञान पशु-पक्षियों को हैं। परंतु उनके ज्ञान की सीमा नियत है। ज्ञान के साथ-साथ ईश्वर ने उन्हें एक प्रकार की सांकेतिक भाषा भी दी है। हम देखते हैं, जब बिल्ली अपने बच्चे को बुलाती है, तब वह एक प्रकार की बोली बोलती है; जब उसको कोई प्यार करने अथवा उस पर हाथ फेरने लगता है, तब वह दूसरे प्रकार की बोली बोलती है; और जब वह क्रोध में आती है अथवा किमी दूसरी बिल्ली को देखती है, तब वह एक भिन्न ही प्रकार का शब्द करती है। पक्षियों में भी प्रायः यह बात पाई जाती है। वे भी भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न प्रकार का शब्द करते हैं। योरप और अमेरिका के गवेषक विद्वानों ने पशु-पक्षियों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त किया है। किसी ने मछलियों के विषय में, किसी ने पक्षियों के विषय में और किसी ने जंगली जीवों के विषय में ज्ञान-संपादन करने में अपना सारा आयुष्य व्यतीत कर डाला है; यहाँ तक कि अत्यंत छोटे प्राणी चिउँटी पर भी किसी-किसी ने बड़े बड़े ग्रंथ लिखकर अनेक अद्भुत अद्भुत बातें प्रकट की हैं। चिउँटियाँ घर बनाती है, और वर्षा आने के पहले ही, तीन-चार महीने के लिये, चारा संचित कर रखती हैं। यह हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। परंतु शोधक विद्वानों ने देखा है कि चिउँटियों में भी धनी और निर्धन होते हैं; दास और दासियाँ होती हैं; गाय और भैंसें होती हैं; और विरुद्ध दलों में कभी-कभी घोर संग्राम तक होते हैं। ये दास-दासियाँ और गाय-भैंसें सब चिउँटियाँ ही होती हैं। यही नहीं, वे बोलती भी हैं, और अपनी बोली में सुख-दुख, हर्ष-विमर्ष भी प्रकट करती हैं। अतएव मनुष्येतर जीवों की सज्ञानता के संबंध में संदेह न करना चाहिए। जो लोग समाचार-पत्र पढ़ते हैं, उन्होंने पढ़ा होगा कि एक अमेरिका-वासी विद्वान् इस समय बंदरों की बोली समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। कई वर्ष तक वह आफ्रिकाके अगम्य जंगलों में गुरिल्ला, सिंपैंजी इत्यादि बंदरों के बीच रहे हैं। उनकी बोली, उनकी चेष्टा और उनके आचरण को ध्यान से देखा है; उनकी बोली को शब्द-ग्राहक यंत्र (ग्रामो-
फ़ोन) में भरकर उसकी परीक्षा भी उन्होंने की है[]। यदि ऐसे ही प्रयत्न होते रहे, तो कोई दिन शायद ऐसा आवेगा, जब ये अथवा और कोई विद्वान् पशु-पक्षियों के साथ बातचीत करने में भी समर्थ होंगे। इस देश के पुराणादिक में पशु-पक्षियों की शब्द-ज्ञान-संबंधिनी बातों का कहीं-कहीं उल्लेख पाया जाता है। पंच-पक्षी इत्यादि पुस्तकें भी, कुछ-कुछ, इसी विषय से संबंध रखनेवाली विद्यमान हैं। संभव है, भारतवर्ष के प्राचीन विद्वानों ने मनुष्येतर प्राणियों की भाषा की मर्म जाना हो।

जैसे मनुष्यों में ज्ञान संपादन करने की पाँच इंद्रियाँ हैं, वैसे ही मनुष्येतर जीवों में भी हैं। परंतु दूसरे जीवों की कोई-कोई ज्ञानेंद्रियाँ मनुष्यों की इंद्रियों से प्रबल होती हैं। उदाहरण के लिये गृद्ध की दृष्टि का विचार कीजिए। वह मनुष्यों की अपेक्षा बहुत दूर की वस्तु देख सकता है। बिल्ली की घ्राण-शक्ति भी प्रबल होती है। चाहे जितनी छिपी हुई जगह में ढका हुआ दूध रक्खा हो, वह वहाँ शीघ्र ही पहुँच जाती है। घ्राण की विशेष शक्ति प्रायः सभी पशुओं में देखी जाती है। परंतु इन पाँच इद्रियों के अतिरिक्त, जान पड़ता है, पशुओं में और भी कोई इंद्रिय है। यदि नहीं है, तो क्यों सिकरे के आने के पहले
ही चिड़ियाँ सशंक होकर इधर-उधर भागने लगती हैं। जंगल में शेर के कोसों दूर होने पर भी उस ओर पशु नहीं जाते। विद्वानों ने परीक्षा करके देखा है कि ऐसे अवसर पर जीवों को घ्राण-शक्ति काम नहीं देती। एकाएक, दो-दो मील पर स्थित वस्तु का ज्ञान घ्राण द्वारा होना असंभव है। परंतु पशुओं को हिंस्र जीवों के होने का ज्ञान बहुत दूर से हो जाता है। ललितपुर से होती हुई जो सड़क झाँसी को आई है, उस पर कई बार इक्केवालों के घोड़े शेर के शिकार हो गए हैं। जो इक्केवाले जीते बचे, उन्होंने बतलाया है कि जहाँ पर शेर था, उसके एक मील इधर ही से घोड़े ने आगे बढ़ना अस्वीकार किया। परंतु हंटरों की मार ने, बड़ी कठिनाई से, उसे किसी प्रकार आगे बढ़ाया, और दो-ही-चार मिनट में शेर ने आकर घोड़े पर आक्रमण किया। इससे क्या सिद्ध होता है? इससे यही सिद्ध होता है कि मनुष्येतर जीवों को ईश्वर ने एक प्रकार का अंतर्ज्ञान दिया है अथवा उनको कोई ऐसी इंद्रिय दी है, जिससे भावी विपत्ति की उन्हें पहले ही से सूचना हो जाती है, और वे अपने प्राण बचाने का उपाय करने लगते हैं। परमात्मन्! तेरी दयालुता की सीमा नहीं! हमारे देश के ज्योतिष- ग्रंथों में जहाँ उत्पातों का वर्णन है, वहाँ कहीं-कहीं लिखा है कि यदि कुत्ते ऐसा शब्द करने लग जायँ, अथवा उलूक यों चिल्लाने लगें, तो अमुक-अमुक उत्पात होने की सूचना समझनी चाहिए। आश्चर्य नहीं कि प्राचीन ऋषियों ने सूक्ष्म परीक्षा द्वारा पशु-

छोटा-सा द्वीप फ़रांसीसियों का है। उसका क्षेत्रफल ३८१ वर्गमील है। उसमें १,६९,२३० मनुष्य रहते हैं। वह ४५ मील लंबा और १५ मील चौड़ा है। उसकी पहली राजधानी फोर्ट-डी फ्रांस-नामक नगर था परंतु कुछ दिनों से सेंटपीरी-नामक नगर राजधानी बनाया गया है। सेंटपीरी के उत्तर और दक्षिण, दोनो ओर, ज्वालामुखी पर्वत हैं। इन पवतों में मौंटपीरी सबसे बड़ा है। उसकी उँचाई ४,४३० फ़ीट है। ये ज्वाला-वर्षी पर्वत बड़े ही विकराल हैं। परतु बहुत समय से ये निहित थे। किसी को यह शंका न थी कि फिर कभी ये पर्वत ज्वाला उगलने लगेंगे। मनुष्यों का यह अनुमान झूठ निकला। गत वर्ष, मई के महीने में, एक दिन, प्रातःकाल, मौंटपीरी ने अपना विकराल मुख सहसा खोल दिया। बड़े वेग से उसका स्फोट हुआ, और राख, पत्थर, तप्त धातु इत्यादि की अखंड वृष्टि होने लगी। एक ऐसा विषाक्त धुआँ उसके भीतर से निकलना आरंभ हुआ कि उसके फैलते ही कोई पंद्रह-बीस मिनट में ही, सेंटपीरी मनुष्यहीन हो गया। लगभग ३०,००० मनुष्य थोड़ी ही देर में भूमिशायी हो गए। जो जहाँ था, वह वहाँ ही रह गया। फ्रास का गवर्नर और उसकी स्त्री भी मृत्यु के मुख में पड़ी। अमेरिका और इँगलैंड के सरकारी मुलाजिम भी न बचे। बचा एक हबशी अपराधी! उसने मनुष्य-हत्या की थी। इसलिये उसे प्राण-दंड की आज्ञा हुई थी। दो-ही-चार दिनों में उसे फाँसी होनेवाली थी। वह भू-गर्भ में एक कोठरी के भीतर बंद था। अतएव वही

न कर जाते। जहाँ पर जो जन्म से रहता है. वह बिना किसी प्रबल कारण के उस स्थान को नहीं छोड़ता। मौंटपीरी के ज्वाला उगलने के लक्षण इन जीवों को चाहे किसी स्वाभाविक रीति पर विदित हो गए हों, चाहे उनकी किसी ज्ञानेंद्रिय के योग से विदित हो गए हों, चाहे साधारण इंदियों के अतिरिक्त उनके और कोई इंद्रिय हो, जिसके द्वारा विदित हो गए हों, परंतु विदित अवश्य हो गए थे। भावी बातों को जान लेना अंतर्ज्ञान के बिना संभव नहीं। अतएव यह सिद्धांत निकलता है कि ईश्वर ने पशुओं को, अपनी रक्षा करने-भर के लिये, यह अंतर्ज्ञानज्ञा अवश्य दिया है। यदि इस प्रकार का अंतर्ज्ञान किसी स्वाभाविक रीति पर, अथवा किसी इंद्रिय द्वारा हो सकता हो, और उसे मनुष्य साध्य कर सके, तो लोक का कितना कल्याण हो। नदियों के सहसा बढ़ने, भूकंप होने और ज्वाला-गर्भ पर्वतों से आग, पत्थर इत्यादि के निकलने से जो अनंत मनुष्यों की बलि होती है, वह न हो। भावी उत्पात के लक्षण देख पड़ते ही मनुष्य, अन्यत्र जाकर, अपनी रक्षा सहज ही कर सके।

कर्वी और स्वैंस इत्यादि पंडितों ने पशु-पक्षियों के जीवन-शास्त्र-संबंधी अनेक ग्रंथ लिखे हैं, और उनमें इन प्राणियों के ज्ञान, इनकी बुद्धि, इनकी भाषा, इनके स्वभाव और इनके आचरण इत्यादि का उन्होंने बहुत ही मनोरंजक वर्णन किया है। सर जान लबक-नामक एक शास्त्रज्ञ विद्वान, इस समय भी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग इत्यादि जीवों का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं।
परंतु जब से पूर्वोक्त-घटना मारटिनीक में हुई है, तब से योरप और अमेरिका के विद्वानों का ध्यान इस शास्त्र की ओर और भी अधिक खिंचा है। वे इस समय बड़ी-बड़ी परीक्षाओं द्वारा यह जानने का यत्न कर रहे हैं कि मनुष्येतर प्राणियों को किस प्रकार भावी आपत्तियों की सूचना हो जाती है। लोगों को आशा है कि किसी समय वे इस कार्य में अवश्य सफल काम होंगे, और निश्चित सिद्धांतों द्वारा मनुष्यों को नैसर्गिक अनर्थों से बचाने की कोई युक्ति निकालने में भी वे समर्थ होंगे। तथास्तु।

जुलाई, १९०३


  1. इन्होंने अपनी जाँच का फल एक ग्रंथ में अब पर्यटक किया है, जिसमें सिद्ध किया है कि बंदरों की भी निज बोली है