अद्भुत आलाप/एक योगी की साप्ताहिक समाधि

अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ ७ से – १६ तक

 

अद्भुत आलाप
१--एक योगी की साप्ताहिक समाधि

आश्चर्य की बात है कि इस देश में अनेक अद्भुत अद्भुत घटनाएँ होती हैं; पर यहाँ के पढ़े-लिखे आदमियों में उत्साह और प्रबंध-रचना में रुचि न होने के कारण वे यहाँ के किसी पत्र या पुस्तक में नहीं प्रकाशित होती। वे हज़ारों कोस दूर, सात समुद्र पार, योरप और अमेरिका पहुँचती हैं। वहाँ के अखबारों द्वारा वे फिर इस देश में आती हैं। तब हम लोग उनकी नक़ल करके अपने को कृतार्थ मानते हैं।

योग इस देश की विद्या है। यद्यपि उसका प्रायः सर्वथा नाश हो गया है, तथापि अब भी ढूँढ़ने से कहीं-कहीं सच्चे योगी देख पड़ते हैं। अभी, बहुत समय नहीं हुआ, एक योगी हरद्वार में सात दिन की समाधि धारण करके पृथ्वी के पेट में गड़ा रहा था। उस समय हरद्वार में एक अमेरिका-निवासी विज्ञान-विशारद भी मौजूद थे। आपका नाम है डॉक्टर ब्राउन। प्राकृतिक विज्ञान के आप आचार्य हैं। कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक सभाओं के मेंबर हैं। आपने इस समाधि का हाल ४ मार्च, १९०६ को 'संडे-मैगज़ीन' नामक अमेरिका की एक सामयिक
पुस्तक में छपाया है। अमृत-बाजार-पत्रिका के पहले संपादक बाबू शिशिरकुमार घोष ने इसी वृत्तांत को अपनी अध्यात्म विद्या-संबंधिनी मासिक पुस्तक में नक़ल किया है। ब्राउन साहब ने लिखा है कि यह घटना उन्होंने अपनी आँखों देखी है। आपके लेख का मतलब अब आप ही के मुँह से सुनिए—

"हिंदोस्तान अनेक गूढ़, अज्ञात और अद्भुत बातों की जन्मभूमि है। मैं वहाँ तीस वर्ष तक रहा। जितनी अद्भुत-अद्भुत बातें मैंने वहाँ देखीं, उनमें सबसे अधिक विस्मय पैदा करनेवाली बात एक योगी की समाधि थी। यह योगी मृत्यु को प्राप्त हो गया; सात दिन तक ज़मीन में गड़ा रहा, और आठवें दिन फिर खोदकर निकाला गया, तो जी उठा। यह अलौकिक घटना हरद्वार में हुई। हरद्वार हिंदुओं का पवित्र तीर्थ है। वह हिमालय के नीचे गंगा के तट पर है।

"हरद्वार में हर बारहवें वर्ष प्रचंड मेला लगता है। लोग दूर-दूर से वहाँ जाते हैं। असंख्य यात्री वहाँ इकठ्ठे होते हैं। जैसी घटना का वर्णन मैं करने जाता हूँ, वैसी घटना कितने योरप-निवासियों ने देखी है, पर मैं नहीं कह सकता। पर इसमें संदेह नहीं कि बहुत कम ने देखी होगी। उसे देखने के लिये मुझे रूप बदलना पड़ा। साहबी पोशाक में मैं वहाँ न जाने पाता। इससे मैंने ब्राह्मण का रूप बनाया, और एक सभ्य हिंदोस्तानी बन गया। इस काम में मुझे एक हिंदोस्तानी मित्र ने बड़ी मदद दी। वह भी ब्राह्मण था और योग-विद्या में प्रवीण भी था।

"सुबह होने के बहुत पहले ही से हरद्वार के आस-पास का प्रांत कोसों तक कोलाहल और धूम-धड़ाके से भर गया। हर सड़क से हज़ारों यात्री शहर में घुसने लगे। जैसे-जैसे मंदिर की तरफ़ यात्रियों के झुंड-के-झुंड चलने लगे, वैसे-ही-वैसे शंख, भेरी और नगाड़ों के नाद से आसमान फटने लगा। प्रत्येक गली-कूचा आदमियों से ठसाठस भर गया। नीचे यह हाल, ऊपर निरभ्र आकाश में लाल-लाल सूर्य अपनी तेज़ किरणों की वर्षा करने लगा।

"हम लोगों ने शक्कर के साथ थोड़ी-सी गेहूँ की रोटी और फल खाकर मंदिर की तरफ प्रस्थान किया। इसी मंदिर के हाते में योगिराज समाधिस्थ होने को थे। हम ज़रा जल्दी गए, जिसमें बैठने को अच्छी जगह मिल जाय। मंदिर के फाटक पर हमें कुछ पुजारी मिले। उन्होंने हमारी अगवानी की। हमारे मित्र के वे मित्र थे। वे लोग हमें मंदिर के हाते में एक बहुत विस्तृत चौकोन जगह में ले गए। वह एक बड़ी वेदी-सी थी। वहीं पर योगिराज समाधिस्थ होनेवाले थे। हज़ारों पंडित, पुजारी और पुरोहित दुग्धफेन-निभ वस्त्र पहने हुए वहाँ पहले ही से बैठे थे। हम वहाँ पहुँचे ही थे कि उपस्थित आदमियों में उत्तेजना फैल गई। इस आकस्मिक गड़बड़ से सूचित हुआ कि कोई विशेष बात होनेवाली है।

"हमारे मित्र ने कहा—परमहंस महात्मा पर्वत के नीचे आ गए। अब वह यहाँ आ रहे हैं। आप शायद जानते होंगे कि
योगियों के आठ दर्जे होते हैं। हर योगी को क्रम-क्रम से योग के आठ अंगों की सिद्धि प्राप्त करनी होती है। एक की साधना करके दूसरी में प्रवेश करना पड़ता है। इन योगांगों के नाम हैं--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। जो महात्मा पा रहे हैं, उन्होंने आठो अंग सिद्ध कर लिए हैं। मनुष्यों के सामने यह इनकी अंतिम उपस्थिति है। अपना शेष जीवन अब यह एकांत में व्यतीत करेंगे।

"बीस मिनट तक बेहद धूम-धाम और कोलाहल होता रहा। शंख, नरसिंहे और भेरी आदि के शब्दों ने ज़मीन-आसमान एक कर दिया। सहसा सैकड़ों तुरहियों से एक साथ महाकर्ण-भेदी नाद होकर कोलाहल एकाएक बंद हो गया। उस चतुष्कोणाकृति चबूतरे के किनारे आगंतुक साधुओं की भीड़ आने पर सारा गड़बड़ एकदम बंद हो गया। सर्वत्र सन्नाटा छा गया। उस आगत जन-समूह में सब दर्जे के योगी थे। सिर्फ़ पहले दो दर्जे के न थे। वे सब गुलाबी रंग के काषाय वस्त्र धारण किए हुए थे। सबके चेहरों से गंभीरता टपक रही थी। चबूतरे का एक किनारा उनके लिये खाली रख छोड़ा गया था। उसी तरफ़ वे लोग चुपचाप चले गए, और अपनी-अपनी जगह पर जा बैठे। सबसे पीछे तीन योगी एक साथ आए। वे बहुत वृद्ध थे। उनका चेहरा बहुत ही प्रभावोत्पादक था। वे चबूतरे के बीच में आकर उपस्थित हुए।

"सबसे पीछे परमहंस महात्मा दिखलाई दिए। ज्यों ही

चबूतरे के नीचे सीढ़ियों के पास पहुँचे, सारे पुजारी और पंडित उठकर कुछ दूर आगे बढ़े, और दोनो हाथ ऊपर उठाकर उन्होंने अभिवादन किया। परमहंसजी चबूतरे पर चढ़ आए। चबूतरे पर उनके चढ़ आने पर उपस्थित पुजारियों और पंडितों ने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। परमहंसजी के पास एक डंडा था। उसके ऊपर त्रिशूल बना हुआ था। उसी के सहारे वह धीरे-धीरे चबूतरे के मध्य भाग की तरफ़ चले। उनकी चाल से मालूम होता था कि चलने में उन्हें तकलीफ़ हो रही है। चबूतरे के बीच में पहुँचकर परमहंसजी खड़े हो गए, और अपने झुके हुए शरीर को सीधा कर दिया। वह बिलकुल दिगंबर थे। सिर्फ़ कमर में एक छोटा-सा काषाय वस्त्र था। उनके सिर के बाल और दाढ़ी खूब लंबी थी। बाल बर्फ़ के सदृश सफेद थे। एक भी बाल काला न था; सिर छोटा था। आँखें आग की तरह जल रही थीं। वे भीतर घुस-सी गई थीं। जान पड़ता था, आँखों के गढ़ों के भीतर जलते हुए दो कोयले रक्खे हैं। ऐसा कृशांग आदमी मैंने तब तक न देखा था। योगिराज की देह की एक-एक हड्डी देख पड़ती थी। हाथ, पैर, छाती और पसलियों की हड्डियाँ मानो ऊपर ही रक्खी थीं। देखने से यही जान पड़ता था कि हड्डियों के ढेर के ऊपर काली त्वचा कसकर लपेट दी गई है। परमहंसजी का रूप महाभयानक था, पर चेहरा ख़ूब तेजःपुंज था। हाथ में त्रिशूल था; गले में बड़ी-बड़ी गुरियों की रुद्राक्ष-माला थी। वक्षःस्थल पर भस्म की तीन-तीन रेखाएँ थीं। "कुछ देर तक वह चुपचाप खड़े पुजारियों और पंडितों की तरफ़ देखते रहे। फिर त्रिशूल को धीरे-धीरे दो-एक दफ़े ऊपर नीचे करके मानो उन लोगों को उन्होंने आशीर्वाद दिया। फिर उस त्रिशूल को कुछ देर हाथ से नोचे लटकाकर इस जोर से ज़मीन के भीतर गाड़ दिया कि देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ। किसी को आशा न थी कि परमहंसजी में इतनी शक्ति है। तब अपने दहिने हाथ से उसके सिरे को ख़ूब मजबूती से उन्होंने पकड़ लिया। मालूम होता था कि उन्होंने सहारे के लिये ऐसा किया। कुछ देर तक वह ऐसे ही निश्चल भाव से खड़े रहे। दर्शकों में सन्नाटा छा गया। धीरे-धीरे उनका शरीर कड़ा होने लगा। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। क्रम-क्रम से उनकी चेतना जाने लगी। परंतु जैसे वह खड़े थे, वैसे ही खड़े रहे। कुछ मिनटों के बाद वह विलकुल ही निश्चेष्ट हो गए। देखने से यह मालूम होने लगा कि वह मिट्टी की निर्जीव मूर्ति हैं।

"तब ओंकार का गान आरंभ हुआ। वह अनेक प्रकार से ऊँचे-नीचे स्वर में गाया गया। योगिराज की मूर्ति वैसी ही अचल और निश्चेष्ट खड़ी रही । इतने में जो योगी परमहंसजी के साथ आए थे, वे उठे; उन्होंने वेदी की तीन बार प्रदक्षिणा की। ओंकार का गान तब तक बराबर होता रहा। उनमें से तीन बुड्ढे योगी परम-हंसजी के पास पहुँचे। धीरे-धीरे उनका हाथ

रहे। तीसरे ने जमीन पर एक सफ़ेद चादर बिछाई। उस पर वह शरीर बड़ी सावधानी से रख दिया गया। देखने से शरीर निर्जीव जान पड़ता था, पर निर्जीव नहीं था। योगीश्वर समाधि-अवस्था को प्राप्त हो गए थे।

"सबसे ऊँचे दर्जे के योगियों की एक टोली तब आगे बढ़ी। वे मिट्टी की एक बड़ी-सी नाँद को थामे हुए थे। यह नाँद पहले ही से आग पर चढ़ा दी गई थी। इसमें गला हुआ मोम भरा था। हरएक योगी के हाथ में एक-एक पैकेट था। उसमें सफेद रंग की कोई चीज़ थी। उसे उन्होंने उस गले हुए मोम में डाल दिया। तब योग के प्रथम पाँच अंगों में पारंगत कुछ योगी योगिराज के शरीर को, जमीन में गाड़ने के लिये, तैयार करने लगे। उन्होंने शरीर को सफ़ेद मलमल से कई दफ़े लपेटा, और कपड़े के दोनो छोर सफ़ेद डोरी से कसकर बाँध दिए।

परंतु इसके पहले उन्होंने समाधिस्थ योगिराज की नाक, मुँह और आँखों को एक विशेष प्रकार से तैयार किए गए मोम से खूब बंद कर दिया था। उन्होंने डोरियाँ पकड़कर धीरे से शरीर को उठाया, और मोम से भरी हुई नाँद में डुबो दिया! फिर उसे निकाला, और कुछ देर अधर में वैसे ही टाँग रक्खा। जब ठंडा होने पर मोम सफ़ेद हो गया, तब फिर शरीर को पहले की तरह उन्होंने नाँद में डुबोया। आठ बार इस प्रकार मज्जन और उन्मज्जन हुआ। इधर यह काम हो रहा था, उधर कुछ योगी शरीर को भूमिस्थ करने के लिये एक गर्त खोदने में लगे थे। कोई

बीस आदमी कुदारें और फावड़े लिए हुए यह काम कर रहे थे। कुछ देर में कोई ८ फ़ीट गहरा गढ़ा खुद गया।

"तब धार्मिक गीत-वाद्य आरंभ हुआ। फिर वेदी की प्रदक्षिणा हुई।यह हो चुकने पर उन तीन वयोवृद्ध योगियों ने परमहंसजी के शरीर को लकड़ी के एक बॉक्स में रखकर गर्त के भीतर उतार दिया। ऊपर से मिट्टी डाल दी गई, और स्तूप-सा बना दिया गया। स्तूप के ऊपर समाधिस्थ योगिराज का त्रिशूल गाड़ दिया गया।

"यहाँ पर समाधि-विधि समाप्त हुई। सब पुजारी और पंडित अपने-अपने घर गए। मैं उठकर समाधि-स्तूप के पास गया। उसे मैंने खूब ध्यान से देखा। आठ दिन तक मैं रोज़ वहाँ जाता रहा, और स्तूप को खूब सावधानी से देखता रहा। मुझे विश्वास है कि इन आठ दिनों में किसी ने उस पर हाथ तक नहीं लगाया। मेरे पास ऐसे अखंडनीय प्रमाण हैं कि वह स्तूप जैसा पहले दिन था, वैसा ही अंत तक बना रहा। किसी से छुए जाने के कोई चिह्न उस पर मैंने नहीं पाए ।

"आठवें दिन योगीश्वर का पुनरुत्थान हुआ--उनकी समाधि छूटी। फिर पूर्ववत् दर्शकों और पुजारियों की भीड़ हुई। फ़िर पूर्ववत् प्रदक्षिणा और गाना-बजाना हुआ। उन्हीं योगियों ने स्तूप को खोदकर मिट्टी हटाई, और बॉक्स को बाहर निकाला। वह लकड़ी के एक तख्त पर रक्खा गया। बॉक्स के ऊपर का तख्ता बिरंजियों से खूब बंद कर दिया गया था। वह वैसा ही

मिला। कीलें निकालकर बाँक्स खोला गया। शरीर से लिपटी हुई मलमल की चादर धीरे-धीरे खोलकर अलग की गई। आँख, नाक, कान और मुँह का मोम निकाला गया। मुँह खूब अच्छी तरह धोया गया। इतना हो चुकन पर योगिवर्ग वहाँ से हट आया, और वेदी की प्रदक्षिणा करके उसने ओंकार का गान आरंभ किया। बाजे भी बजने लगे। तीसरी प्रदक्षिणा के समय समाधि-मग्न योगिराज का शरीर कुछ हिला, और कुछ ही देर में वह उठकर बैठ गए। उन्होंने अपने चारो तरफ़ इस तरह देखा, जैसे कोई सोते से जगा हो।

"यहाँ तक तो सब लोग पूर्ववत् बैठे रहे। परंतु जहाँ योगिराज उठे, और जमीन पर उन्होंने अपना पैर रक्खा, तहाँ दर्शकों ने कोलाहल आरंभ कर दिया। शंख, भेरी, नगाड़ों और नरसिंहों के नाद ने पृथ्वी और आकाश एक कर डाला। सबके मुँह से एक साथ आदरार्थक शब्दों के घोष से कानों के परदे फटने लगे। बराबर दस मिनट तक तुमुल-नाद होता रहा। किसी तरह धीरे-धीरे वह शांत हुआ। जिस क्रम से योगिराज ने वेदी पर पदार्पण किया था, उसी क्रम से उन्होंने प्रस्थान भी किया। सबके पीछे आप, उनके पागे वे तीन जरा-जीर्ण योगी, उनके आगे और सब लोग। इस तरह परमहंसजी पास के एक पर्वत की एक गुफा की तरफ़ गए। सुनते हैं, अब वह अंत समय तक वहीं, उसी गुफा में, रहेंगे और फिर कभी बस्ती में न आवेंगे।"

इसके बाद साहब बहादुर ने अपने हिंदोस्तानी मित्र से इस विषय में बहुत कुछ वार्तालाप किया, और इस बात को साफ़-साफ़ स्वीकार किया कि आध्यात्मिक बातों में इस देश ने जितनी उन्नति की है, उतनी और किसी देश ने नहीं की।

अक्टूबर, १९०६