अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश
रामनारायण यादवेंदु

पृष्ठ २३३ से – २४६ तक

 





भारत––बरतानवी राष्ट्र-समूह का सदस्य-देश––नहीं एक 'साम्राज्य'––ब्रिटिश-साम्राज्य का मुकुट-मणि। किन्तु ब्रिटिश कामनवैल्थ में, लगभग दो सौ साल के बरतानवी-शासन के बाद भी, जिसका स्वतन्त्र कोई स्थान नहीं, राष्ट्रीय अस्तित्व नहीं। संसार को जिसने मानवता के आदिम-युग में ज्ञान-ज्योति दी, सभ्यता का ज्ञान-दान दिया। मानव-संस्कृति का जो आदि-गुरु रहा, किन्तु इस दो-सौ साल में पाश्चात्य सभ्यता ने जिसकी सांस्कृतिक प्राणधारा का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी दृष्टियों से, भीषण शोषण कर डाला है। एशिया के दक्षिण में स्थित। क्षेत्रफल १८,०८,६८० वर्गमील; जनसंख्या ३७,५०,००,०००। ब्रिटेन का राजा भारत का सम्राट् कहलाता है। भारत ब्रिटिश-शासित और देशी राज्य दो प्रमुख भागों में बँटा हुआ है।

सन् १९०५ के बङ्ग-भङ्ग के बाद उठे हुए आन्दोलन के फलस्वरूप १९०९ में मिन्टो-मार्ले-सुधार भारत को ब्रिटिश-शासन की पहली, राजनीतिक सुधारों की, नाम-मात्र की देन थी। उपरान्त सन् १९१७ में स्वर्गीया श्रीमती ऐनीबेसेन्ट और लोकमान्य तिलक के होम-रूल आन्दोलन के प्रतिफल में, २० अगस्त सन् १९१७ को तत्कालीन भारत-मन्त्री मि॰ मान्टेग्यू ने ब्रिटिश पार्लमेन्ट में घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार की नीति का अन्तिम लक्ष्य "ब्रिटिश-साम्राज्य के अन्तर्गत उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है।" उपरान्त मान्टेग्यू साहब स्वयं भी भारत पधारे और तत्कालीन नेताओं से उन्होंने भेंट की। इसके बाद, सन् १९१९ में, भारतीय-शासन-विधान बना, जिसके अनुसार प्रातों में नई धारासभाएँ स्थापित की गईं, मर्यादित मताधिकार दिया गया, साथ ही प्रान्तों में वैध-शासन-प्रणाली (Diarchy) की स्थापना की गई। इसके अनुसार प्रान्तीय सरकार को दो भागों में बाँट दिया गया। शासन विभागों को 'हस्तान्तरित' (Transferred subjects) और सुरक्षित (Reserved subjects) नाम दिये गये। हस्तान्तरित विषयों में शिक्षा, उद्योग, कृषि तथा स्वायत्त-शासन आदि रखे गये। सुरक्षित में पुलिस, मालगुज़ारी, अर्थ-विभाग, आदि। सुरक्षित विभाग गवर्नर की एक कौंसिल के अधीन रखे गये, जिसमें २ से ३ तक सदस्य नियुक्त किये गये। हस्तान्तरित विषयों को प्रान्तीय धारासभा के निर्वाचित सदस्यों के प्रतिनिधियों को सौंपा गया। यह प्रतिनिधि गवर्नर की कौंसिल के अधिवेशनों में शामिल नहीं होते थे। सन् १९१८ में राष्ट्रीय महासभा ने, इस विधान के प्रकाशित होने के अवसर पर, इसे अपर्याप्त, असन्तोषजनक और अनुपयोगी बताया।

एक ओर शासन-विधान बनकर तैयार हुआ, दूसरी ओर सन् १९१९ के आरम्भ में ही सरकार ने रौलट कानून बनाने की तैयारी कर दी। महात्मा गांधी ने इसके विरोध में सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ने की घोषणा की। पंजाब में फौजी शासन जारी हुआ और अनेक अत्याचार हुए। इसके साथ ही, गत महायुद्ध के बाद, वरसाई की सन्धि में तुर्की के साथ हुए अन्याय से भारतीय मुसलमान बहुत क्षुब्ध थे। फलतः गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन और ख़िलाफत आन्दोलन साथ-साथ चले। कांग्रेस की कायापलट हुई, माडरेटों के हाथ से वह, देशोद्धार के लिए चिन्तित और राष्ट्रोन्नति के लिये उद्यत, राष्ट्रवादियों के हाथ में आई और, महात्मा गांधी के नेतृत्व में, कांग्रेस ने स्वराज्य-प्राप्ति के लिये आन्दोलन शुरू किया। आन्दोलन ठंडा भी न हो पाया था कि देश में हिन्दू-मुसलिम-विग्रह की बाढ़-सी आ गई। यह आश्चर्य की बात है कि राजनीतिक आन्दोलनों के बाद ही यह दंगे अधिकतर हुए। किन्तु राष्ट्रीय आन्दोलन, किसी-न-किसी रूप में, बराबर जारी रहा। हिन्सात्मक आन्दोलन ने भी इस बीच ज़ोर पकड़ा।

१९२८ में ब्रिटिश सरकार ने एक शाही कमीशन, सर जान साइमन के नेतृत्व में, भारतीय समस्या की जाँच के उद्देश्य से, यहाँ भेजा। कांग्रेस ने इस कमीशन का देशव्यापी बहिष्कार किया और इसकी सिफ़ारशी रिपोर्ट को ठुकरा दिया। यद्यपि इस कमीशन का लक्ष्य भारतीय शासन-सुधारों के सबंध मे जाँच और सिफ़ारशें करना था, किन्तु इसमें एक भी भारतीय सदस्य नियुक्त नहीं किया गया : सातों सदस्य विलायत से भेजे गये। कांग्रेस ने अपनी राष्ट्रीय माँग को उपस्थित करने के लिये पं॰ मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक कमिटी नियुक्त की। इस कमिटी की रिपोर्ट की सिफ़ारशें 'राष्ट्रीय माँग' के नाम से मशहूर हैं। इस नेहरू रिपोर्ट में भारत का तत्कालीन लक्ष्य औपनिवेशिक शासन-पद स्वीकार कर लिया गया था। पुराने नेता महात्मा गांधी, पं॰ मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय, आदि औपनिवेशिक स्वराज्य से सन्तुष्ट थे। एक दूसरा दल पं॰ जवाहरलाल नेहरू तथा बाबू सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में पूर्ण स्वाधीनता के पक्ष में था। वह ब्रिटेन से सम्बन्ध-विच्छेद चाहता था। नेहरू-रिपोर्ट की सरकार द्वारा स्वीकृति के लिये अन्तिम तिथि ३१ दिसम्बर १९२९ रखी गई। सरकार ने रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया। अतः कांग्रेस ने अपने लाहौर-अधिवेशन में उसी वर्ष पूर्ण स्वाधीनता को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया।

सन् १९३० में सविनय-अवज्ञा अथवा नमक-सत्याग्रह-आन्दोलन गांधीजी ने छेड़ा, जो बड़ी तीव्र गति से चला। हज़ारो देशवासी स्त्री, पुरुष, बालक जेल गये तथा अनेक लाठियों और गोलियों से मारे गये। तत्कालीन वाइसराय, लार्ड इरविन अब लार्ड हैलीफैक्स, जब दमन से हार गये, तब उन्होंने १९३१ में कांग्रेस से समझौता किया, जो गांधी-इरविन समझौते के नाम से प्रसिद्ध है। फलतः गांधीजी ने गोलमेज सभा में शामिल होना स्वीकार किया। गोलमेज़ की दूसरी बैठक सन् १९३२ में भी लन्दन में हुई, किन्तु गांधीजी पहली बैठक से ही निराश लौटे थे। हिन्दू-मुसलिम प्रश्न खड़ा कर दिया गया और कोई विशेष प्रतिफल इस सम्मेलन का नहीं निकला और देश की राष्ट्रीय माँग के प्रतिकूल नया शासन-विधान भारत पर लादा गया।

१९३५ में यही भारतीय शासन-विधान लागू हुआ। इसमें भारत को केन्द्र में उत्तरदायी शासन देने की व्यवस्था नहीं की गई। प्रान्तों में भी नियंत्रित तथा मर्यादित उत्तरदायी शासन की स्थापना करने की योजना शामिल की गई। इस शासन-विधान में ४७८ धाराएँ और १६ परिशिष्ट हैं। यह जितना ही बड़ा है, उतना ही अधिक अनुत्तरदायी भी। इस विधान की रूप-रेखा इस प्रकार है:––

(१) केन्द्रिय सरकार––भारत में गवर्नर-जनरल ब्रिटिश राजा का प्रतिनिधि है और वास्तव में भारत का एकमात्र शासक। १८ अप्रैल १९३६ से लार्ड लिनलिथगो वाइसराय और गवर्नर-जनरल के पद पर हैं। (यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि पार्लमेन्टरी संयुक्त कमिटी, जिसने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया बिल पर अपनी रिपोर्ट दी थी, के अध्यक्ष भी लार्ड लिनलिथगो ही थे।) गवर्नर-जनरल की सामान्य अवधि पाँच वर्ष नियत है। किन्तु ब्रिटेन का राजा इसमें वृद्धि भी कर सकता है। गवर्नर-जनरल की सहायता के लिये एक कार्यकारिणी कौंसिल है, जिसमें सामान्यतः तीन देशी, तीन अँगरेज़, ६ सदस्य रहते थे, किन्तु अब बढ़ते-बढते १५ हो गये हैं। इनकी नियुक्ति राजा द्वारा होती है। प्रत्येक सदस्य भारत-सरकार के एक या अधिक विभागों का अध्यक्ष होता है। भारत का प्रधान सेनाध्यक्ष भी इस कौंसिल का सदस्य होता है। गवर्नर-जनरल इसका अध्यक्ष रहता है। परराष्ट्र विभाग गवर्नर-जनरल के अधीन रहता है।

भारतीय व्यवस्थापक मण्डल में दो सभाएँ हैं––लैजिस्लेटिव असेम्बली और कौंसिल ऑफ् स्टेट। असेम्बली में, जिसकी स्थापना १९२१ में हुई थी, १४१ सदस्य हैं, जिनमें १०५ निर्वाचित और शेष मनोनीत हैं। कौंसिल ऑफ् स्टेट् में ५८ सदस्य हैं, जिनमें ३२ चुनाव द्वारा होते है। दोनों के मताधिकार में बड़ी भिन्नता है। असेम्बली का कार्य-काल तीन वर्ष है। (परन्तु सन् १९३४ के बाद से अभी तक इसका चुनाव ही नहीं हुआ है, वाइसराय द्वारा इसका कार्यकाल बढ़ाया जाता रहा है।) कौंसिल आफ् स्टेट् का चुनाव पाँच साल के लिये होता है। वाइसराय इसकी अवधि भी घटा-बढ़ा सकता है। वाइसराय की कौंसिल भारतीय धारासभा के प्रति उत्तरदायी नहीं है। सुपठित और सम्पन्न समुदाय ही असेम्बली के चुनाव में मत दे सकता है, और भारत जैसे सुविशाल देश में केवल ५ फीसदी के लगभग असेम्बली के मतदाता हैं। गर्वनर-जनरल, सम्राट् की सहमति से, असेम्बली की इच्छा के प्रतिकूल, ब्रिटिश भारत के हित के नाम पर, कानून बना सकता और असेम्बली द्वारा स्वीकृत मसविदे या प्रस्ताव को, अपने विशेषाधिकार (power of veto) द्वारा, रद कर सकता है।

(२) प्रान्तीय शासन––ब्रिटिश भारत में, सन् १९३५ के विधान के अनुसार, ११ गवर्नरों के प्रान्त हैं : मदरास, बम्बई, बंगाल, पंजाब, संयुक्त-प्रांत, मध्य-प्रांत, बिहार, उड़ीसा, सिंध, सीमाप्रांत तथा आसाम। प्रत्येक गवर्नर के प्रान्त में निर्वाचित प्रान्तीय व्यवस्थापक सभा या प्रान्तीय असेम्बली है। सिर्फ बंगाल, बम्बई, मदरास, संयुक्त-प्रान्त, बिहार तथा मध्य-प्रान्त में द्वितीय धारासभा या प्रान्तीय कौंसिल भी हैं। प्रान्तीय लेजिस्लेटिव असेम्बली का कार्यकाल ५ वर्ष है। प्रान्तीय कौंसिलें स्थायी हैं। इनमें से प्रत्येक एक-तिहाई सदस्यों का तीन वर्ष बाद, दूसरे एक-तिहाई का ६ साल बाद, तीसरे एक तिहाई का नौ-साल बाद चुनाव होता है। कौंसिलों में मनोनीत सदस्य भी होते हैं। प्रान्तीय असेम्बली के मतदाताओं की संख्या जनसंख्या का १२ प्रतिशत है, यानी भारत की कुल जनसंख्या में से केवल ३३ करोड़ को मताधिकार प्राप्त है।

प्रान्तों को शासन-संचालन गवर्नरों के हाथ में है। अपनी सहायता के लिये उन्हें मन्त्रि-मण्डल बनाने का अधिकार है। प्रत्येक प्रान्तीय धारासभा के बहुमत-दल के नेता को आमंत्रित कर गवर्नर उसके परामर्श से मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। मन्त्रियों के कार्यों में सहायता देने के लिये पार्लमेन्टरी सेक्रेटरी नियुक्त किये जाते हैं। मंत्रियों तथा सेक्रेटरियों की संख्या निर्धारित नहीं है। मन्त्रिमण्डल प्रान्तीय धारासभा के प्रति उत्तरदायी होता है। 'विशेष उत्तरदायित्व' तथा विशेषाधिकार के मामलों को छोड़कर गवर्नर मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करता है। परन्तु उपर्युक्त विशेष उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में उसे वाइसराय के आदेशानुसार कार्य करना पड़ता है। वह वाइसराय के द्वारा, भारत मन्त्री के प्रति इस उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिये, जिम्मेदार है। धारासभा द्वारा स्वीकृत मसविदों को स्वीकार करने अथवा न करने का अधिकार भी गवर्नर को है, या वह मसविदे (बिल) को विचारार्थ वाइसराय को भेज सकता है। यदि गवर्नर की सम्मति से प्रान्त में अशान्ति की आशंका है, तो वह विशेष क़ानून बना सकता है। वह विधान को भी स्थगित कर अपने सलाहकार नियुक्त कर सकता और प्रान्त का शासन कर सकता है। मंत्रियों को वह बरख़ास्त भी कर सकता है।

(३) देशी राज्य––पृथक् लेख देखिए।

(४) संघ-शासन––१९३५ के भारतीय-शासन-विधान में संघ-शासन की व्यवस्था की गई है। इसमें ब्रिटिश प्रान्तों तथा देशी रियासतों को मिला कर संघ-राज्य बनाने की योजना है। इस योजना के अनुसार वाइसराय का एक मंत्रि-मण्डल होता और यह मंत्रि-मण्डल संघीय धारासभा के प्रति उत्तरदायी होता। इसमें भी वाइसराय को, मंत्रि-मण्डल के निर्णय के विपरीत, कार्य करने का पूर्ण अधिकार होता। यह संघ-प्रणाली अभी तक कार्यान्वित नहीं की जा सकी है। भारतीय राष्ट्रीय महासभा इसके विरुद्ध है। मुसलिम लीग को भी यह संघ-शासन स्वीकार नहीं था। उसके विरोध के कारण कांग्रेस से भिन्न है। उसके मतानुसार संघीय धारासभा में हिन्दू बहुमत होगा, जिसे वह स्वीकार नहीं करती। तीसरे, सभी देशी राज्यों के शासक भी इसमें शामिल होने को तैयार नही हैं, क्योंकि उन्हें अपनी रियासतों में शासन की एक निश्चित व्यवस्था करनी पड़ती। वाइसराय देशी नरेशों को संघ में शामिल होने के लिये उत्साहित कर ही रहा था कि १ सितम्बर १९३९ को महायुद्ध शुरू हो गया और वाइसराय ने इस योजना के संबंध में होनेवाले प्रारम्भिक कार्य को स्थगित करदिया। इस प्रकार संघ-विधान (फेडरेशन) का गर्भपात होगया।

(५) वैधानिक संकट––सितम्बर १९३९ में जब ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध-घोषणा की तो भारत के गवर्नर-जनरल ने, भारतीय असेम्बली या देश के नेताओं की अनुमति लिये बिना, यहाँ भी यह घोषणा कर दी कि इस युद्ध में भारत ब्रिटेन के साथ लड़ाई में शामिल है। गांधीजी, थोड़े दिन बाद ही, वाइसराय से मिले। उन्होंने नात्सीवाद की पराजय तथा ब्रिटेन और फ्रान्स की विजय की कामना 'हरिजन' में लिखकर प्रकट की। इसके बाद वर्धा से कांग्रेस कार्यसमिति ने एक सप्ताह बाद एक वक्तव्य प्रकाशित किया जिसमें ब्रिटिश सरकार से उसके युद्ध तथा शान्ति के उद्देश्य पूछे तथा यह आग्रह किया कि भारत को स्वाधीन राष्ट्र घोषित कर दिया जाय। परन्तु सरकार ने कांग्रेस की इस माँग को स्वीकार नहीं किया।

अतः जिन आठ प्रान्तों में कांग्रेस-मन्त्रि-मण्डल शासन-संचालन कर रहे थे, उन्हें पद-त्याग का आदेश दिया गया। इस प्रकार नवम्बर १९३९ में भारत में वैधानिक संकट पैदा हो गया। नवम्बर १९३९ से ८ प्रान्तों में गवर्नर ने शासन-विधान को स्थगित कर दिया। प्रान्तीय धारासभाएँ स्थगित कर दी गईं तथा स्वयं गवर्नर आई॰ सी॰ एस॰ सलाहकारों की मदद से शासनकार्य चलाने लगे। (पीछे सन् १९४० में आसाम तथा उड़ीसा में प्रतिक्रियावादियों द्वारा मंत्रि-मण्डल कायम हो गए।)

ब्रिटिश वाइसराय ने सरकार की ओर से ८ अगस्त १९४० को यह घोषणा की कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य दिया जायगा तथा भारतीय एक परिषद् का संगठन कर उसमें भारत के भावी शासन-विधान की रूपरेखा तैयार कर सकेंगे।

घोषणा निस्सार सिद्ध हुई। गान्धीजी ने युद्ध के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करने के लिये भाषण-स्वातन्त्र्य की माँग की, जैसी कि ब्रिटेन में युद्ध के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करने की, वहाँ के नागरिकों को प्राप्त है। इस सम्बन्ध में भी उनका प्रयास जब विफल हुआ, तो उन्होंने १९४० के अक्टूबर में युद्धविरोधी व्यक्तिगत सत्याह छेड़ दिया, किन्तु उसका प्रयोग बहुत सीमित रखा। अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिस्थिति के सम्बन्ध में इस बीच महात्माजी ने अनेक बयान निकाले। एक बयान में उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि यह सत्याग्रह-आन्दोलन अंगरेजों, मुसलमानों अथवा किसी दल के भी विपरीत नहीं किया जा रहा है। यह तो भारतीय जनता को स्वतन्त्र बता कर उसे ज़बरदस्ती लड़ाई मे शामिल करने के व्यवहार के विरुद्ध एक प्रबल नैतिक प्रतिरोध है। उन्होंने इसी वक्तव्य में यह भी कहा कि भारत को स्वतन्त्र करने के मार्ग में अधिकारियो द्वारा भारतीय मतैक्य का बहाना लेने का मार्ग गलत और काल्पनिक है। सत्याग्रह में २५००० व्यक्ति जेल गये और वह चौदह महीने जारी रहा।

अप्रैल १९४१ में बम्बई में, सर तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व में निर्दल सम्मेलन हुआ। सर तेज ने अपने भाषण में कहा कि, "जनमत की अवहेलना जैसी वर्तमान भारत-सरकार ने की है वैसी किसी अन्य भारतीय सरकार ने नहीं की थी। सम्मेलन ने, ब्रिटिश कामनवैल्थ के देशों की भाँति ही भारतीय जनता को, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में पूर्ण अधिकार की माँग की। लड़ाई के बाद, एक निश्चित अवधि के भीतर, भारत को बरतानिया और उसके उपनिवेशो जैसे अधिकार दिये जाने की स्पष्ट घोषणा किये जाने का भी मतालबा किया गया। सर तेज इन प्रस्तावों को ले जाकर वाइसराय से भी मिले। कुछ दिन बाद भारत-मन्त्री ने कामन-सभा में बोलते हुए जवाब दे दिया कि भारत की समस्या को भारत की जनता ही, आपस में समझौता करके, सुलझा सकती हैं।

इसी महीने में मदरास के लीग के जलसे में, सभापति पद से बोलते हुए, मि॰ जिन्ना ने कहा––"मैं इस मंच से बलपूर्वक कह देना चाहता हूँ कि भारत में ब्रिटिश सरकार की निकम्मी, कमजोर और अनिश्चित नीति योरप की उसकी वर्तमान नीति से भी अधिक विनाशकारी सिद्ध होने को है। इन लोगों को क्यों नही सूझता कि घटनायें कैसी तेज़ी से घट रही हैं और नकशे कितनी जल्द-जल्द बदल रहे हैं?"

मई में मि॰ जिन्ना ने एक गश्ती पत्र निकाल कर कहा कि हम लड़ाई और भारत-रक्षा के आयोजन में सहयोग देने को तैयार हैं बशर्ते कि केन्द्रिय और प्रान्तीय सरकारो में लीग के प्रतिनिधियों को सच्चा और सारपूर्ण भाग दिया जाय।

भारत के माडरेटों के अतिरिक्त ब्रिटेन में भी भारत की समस्या के सम्बन्ध में जोरों की चर्चा चल पड़ी थी। पार्लमेन्ट के दोनों हाउसों में भारत-सम्बन्धी सरकारी नीति की निन्दा की गई। तब जुलाई १९४१ में एक श्वेत-पत्र प्रकाशित हुया, जिसमें कहा गया कि युद्ध-काल में समस्त भारत के सहयोग के लिये एक केन्द्रिय युद्ध-सलाहकारी बोर्ड बनाया जायगा और वाइसराय की कार्यकारिणी कौंसिल में हिन्दुस्तानी सदस्य बढ़ा दिये जायँगे। कांग्रेस ने सरकार के इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया। मुसलिम लीग भी इनसे सन्तुष्ट नहीं हुई। वह वाइसराय की कौंसिल में अपना बहुमत माँगती थी। पाँच सदस्य वाइसराय की कार्यकारिणी में इस अवसर पर बढ़ा दिये गये।

मि॰ जिन्ना ने इस पर कहा कि, "यह तो कोरा दिखावा है। इसके द्वारा तो सरकार के अधिकार और शक्ति में वास्तविक भाग नहीं मिला।" निर्दल सम्मेलन के नेता डा॰ जयकर ने कहा कि, "एक भी असली विभाग तो योरपियन के हाथ से भारतीय के हाथ में नहीं आया। मि॰ एमरी अब भी पुरानी ब्रिटिश नीति, अविश्वास और सन्देह, को ग्रहण किये जा रहे हैं।" फरवरी १९४२ में फिर निर्दल सम्मेलन की बैठक हुई। डा॰ जयकर ने इसमें बलपूर्वक कहा कि, "बिना जनता को साथ लिये सरकार इतने बड़े युद्ध को कदापि नहीं चला सकती। हम भारत में मलय की स्थिति को नहीं देखना चाहते। हटो, और हमें अपनी रक्षा का काम सँभालने दो।" उनसे अगले महीने सर तेज तथा अन्य निर्दल नेताओं ने फरवरी के सम्मेलन के प्रस्ताव आधार पर मि॰ चर्चिल से अपील की।

अगस्त १९४१ की अटलांटिक योजना भी अपने साथ कुछ नहीं लाई। कांग्रेस तो उस पर मौन रही, किन्तु लिबरल नेता पं॰ हृदयनाथ कुँजरू ने इस पर कहा कि, "इस प्रकार की योजनाएँ और समझोते भारत के लिये तो क्रूर हास्य जैसे हैं। अटलांटिक योजना पर भारत के हस्ताक्षर हैं इसलिये कि राष्ट्रों को अपने भविष्य में आशा और विश्वास उत्पन्न हो, किन्तु भारत को वह स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती, जिसका वचन वह दूसरे देशों को देता है। क्या इससे बढ़कर भी कोई विरोधाभास हो सकता है?"

दिसम्बर '४१ में सरकार ने कुछ उदारता दिखाई। सत्याग्रह के कैदियों को छोड़ दिया गया, किन्तु अन्य राजनीतिक क़ैदी नहीं छोड़े गये। इसी मास में ७ दिसम्बर को जापान ने प्रशान्त महासागर में हमला कर दिया और सुदूरपूर्व में युद्ध छिड़ गया। ३१ दिसम्बर की बारदोली की कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक में सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। महात्मा गांधी भी इसी बैठक में देश के नेतृत्व-भार से मुक्त कर दिये गये।

फरवरी '४२ में मार्शल च्याग् काई-शेक भारत आये और उन्होंने अपनी विदाई के वक्तव्य में प्रबल आशापूर्ण अपील की कि ब्रिटिश सरकार भारत को स्वतन्त्र घोषित कर देगी।

मार्च '४२ में सर स्टेफर्ड क्रिप्स अपने प्रस्ताव लेकर भारत आये। इस प्रयास का भी, क्रिप्स-योजना में वास्तविक अधिकार न मिलने के अभाव के कारण, कोई सुफल नहीं निकला।

१ मई १९४२ को प्रयाग के अ॰-भा॰ कांग्रेस कमिटी के अधिवेशन में राजनीतिक स्थिति पर एक प्रस्ताव स्वीकार किया गया। इस प्रस्ताव में क्रिप्स-योजना की आलोचना तथा भारत के युद्ध में सहयोग देने के संबंध में, अपना मत प्रकाशित करने के बाद स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की कि––कमिटी इससे इनकार करती है कि भारत को किसी बाहरी राष्ट्र के हस्तक्षेप अथवा उसके द्वारा आक्रमण से स्वाधीनता मिल जायगी। यदि भारत पर आक्रमण हुआ तो उसका प्रतिरोध किया जायगा। यह प्रतिरोध केवल अहिंसात्मक असहयोग का ही रूप धारण कर सकता है। इसी बैठक में श्री जगतनारायण लाल का प्रस्ताव भी कमिटी ने स्वीकार किया जिसके अनुसार कांग्रेस भारत की अखण्डता के लिये प्रतिज्ञाबद्ध है। इस बैठक में श्री राजगोपालाचारी ने इस आशय का एक प्रस्ताव पेश किया कि कांग्रेस को मुसलिम लीग की पाकिस्तान की माँग को स्वीकार कर लेना चाहिए, किन्तु यह स्वीकृत न होसका। इसके बाद राजाजी ने कांग्रेस कार्य-समिति, मदरास प्रान्तीय कांग्रेस समिति तथा अ॰-भा॰ कांग्रेस समिति की सदस्यता से त्यागपत्र देदिया।

इसके बाद १४ जुलाई १९४२ को वर्धा में कांग्रेस कार्यकारिणी कमिटी का अधिवेशन हुआ। क्रिप्स-योजना की विफलता के बाद से ही गांधीजी ने 'हरिजन' में 'भारत छोड़ो' (Quit India) आन्दोलन की चर्चा शुरू करदी थी। इस अधिवेशन में 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव स्वीकार किया गया। इस प्रस्ताव में काग्रेस ने ब्रिटिश सरकार से यह अपील की कि वह भारत से अपनी शासनसत्ता को हटाले। इसका यह तात्पर्य नहीं कि भारत से अँगरेज मात्र वापस चले जायँ। और न इसका यह मतलब है कि भारत में जो गोरी सेनाएँ हैं, वे वापस अपने देश को चली जायँ, प्रत्युत इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि भारत को स्वाधीन राष्ट्र घोषित कर दिया जाय और भारत में भारतीय जनता का प्रतिनिधि शासन स्थापित हो। इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि यदि सरकार ने इस अपील पर ध्यान नहीं दिया, तो कांग्रेस अपने राजनीतिक स्वत्वों तथा स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए, सन् १९२० से अब तक संचित अहिंसा-शक्ति का उपयोग करेगी। यह व्यापक संघर्ष महात्मा गांधी के नेतृत्व में होगा। इस प्रस्ताव की अन्तिम स्वीकृति के लिए ७ अगस्त १९४२ को अ॰-भा॰ कांग्रेस कमिटी का अधिवेशन बुलाने के लिए भी आदेश किया गया।

उपर्युक्त निश्चयानुसार, ७ अगस्त १९४२ को, बंबई में कमिटी का अधिवेशन, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के सभापतित्व में, हुआ। ८ अगस्त की बैठक में यह प्रस्ताव, संशोधित तथा कार्य-समिति द्वारा परिवर्द्धित रूप में, कांग्रेस कमिटी द्वारा स्वीकार किया गया।

इस अधिवेशन की समाप्ति पर गांधीजी वाइसराय को पत्र लिखनेवाले थे और वह चाहते थे कि वाइसराय से मिलकर वर्तमान संकट के अन्त करने के उपाय सोचे जायँ। इसी प्रकार वह अमरीकी राष्ट्रपति रूज़वैल्ट, सोवियत रूस के ब्रिटेन-स्थित राजदूत, तथा जनरलिस्सिमो च्यांग् काई-शेक को पत्र भेजनेवाले थे, जिससे कि संयुक्त-राष्ट्रों को भी भारतीय वस्तु स्थिति का ज्ञान होजाय। परन्तु ता॰ ९ अगस्त १९४२ के प्रातःकाल ही महात्मा गांधी तथा अन्य सभी प्रमुख कांग्रेस-नेताओं को बंबई में गिरफ़्तार कर लिया गया।

उसी दिन से भारत के समस्त प्रान्तों में नगरों, क़स्बो एवं ग्रामों में कांग्रेस कार्य-कर्त्ताओं और नेताओं को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया गया। कांग्रेस कमिटियों तथा खादी भंडारों तक को ग़ैर-क़ानूनी संस्थाएँ घोषित कर दया गया। देश भर में दमन का दावालन बड़े भयंकर रूप में प्रज्वलित होने लगा। उसकी लपटों से कोई भी देशभक्त अछूता न बच सका। 

इस देश-व्यापी घोर दमन से जनता में रोष पैदा होगया और पंजाब और सीमाप्रान्त को छोड़कर शेष सभी प्रान्तों में जनता ने सरकार के विरुद्ध विद्रोह करना शुरू कर दिया। रेल की पटरियाँ उखाड़ी गईं। टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट डाले गये। डाकख़ाने तथा पुलिस की चौकियाँ और थाने जला दिये गये अथवा लूट लिये गये। पुलिस तथा फौज के अफसरों की हत्यायें की गईं। डिपुटी मजिस्ट्रेटों तथा पुलिस कप्तानों आदि पर भी आक्रमण किए गए। सरकारी आफिसों में आग लगाई गई। रेलवे स्टेशनों में आग लगा दीगई। मदरास, बंबई, बिहार और संयुक्त-प्रदेश के पूर्वी भागों में इस विद्रोह ने भयंकर रूप धारण कर लिया। मदरास और बिहार प्रान्त के कई स्थानों पर १००० या इससे भी अधिक सशस्त्र भीड़ ने भयंकर उपद्रव किए।

सरकार ने भी इन उपद्रवों के दमन के लिये प्रान्तीय सरकारों को पूरे अधिकार देदिये और भारत में अर्डिनेंस-राज और पुलिस-राज का जैसा भयानक दौरदौरा इन दिनों देखने में आया, वैसा ब्रिटिश शासन-काल में शायद ही कभी देखने में आया हो। २४ सितम्बर १९४२ को इस सम्बन्ध में वाइसराय की शासन-परिषद् के कानून-सदस्य माननीय सर सुलतान अहमद ने भारतीय केन्द्रिय असेम्बली के समक्ष अपने भाषण में बतलाया कि:––

२५० रेलवे स्टेशनों को नष्ट किया गया अथवा उन्हें हानि पहुँचाई गई। ५५० डाकख़ानों पर हमले किए गए, ५० डाकख़ाने बिलकुल जला दिये गए और २०० को भारी नुकसान पहुँचाया गया। ३५०० से भी अधिक तार काटने की घटनाएँ हुई। ७० थाने और पुलिस चौकियों और ८५ सरकारी इमारतों पर हमले किए गए। ३१ पुलिस के लोग मार डाले गए और घायलों की संख्या इससे कई गुनी है। १८ फौज के अफसर मारे गये या घायल किए गए। ६० स्थानों पर फौज ने गोली चलाई। ६५८ जनता के व्यक्ति मारे गए। १००० जनता के लोग घायल हुए। सर सुलतान अहमद ने अपने भाषण में कहा कि कुछ हताहत व्यक्तियों को उपद्रवकारी उठाकर लेगए। इसलिए हताहतों की कुल संख्या २००० के लगभग होगी।

२२ सितम्बर को कौंसिल आफ् स्टेट् के समक्ष माननीय सर मुहम्मद उसमान (डाक तथा हवाई विभाग के सदस्य) ने अपने भाषण में इन उपद्रवों से जो हानि हुई, उसका ब्यौरा इस प्रकार बताया:––

२५८ रेलवे स्टेशनों को नष्ट किया गया। ४० रेलगाड़ियों की पटरियाँ उखाड़कर गिराया गया। ५५० डाकख़ानो पर हमले किए गए। ३,५०० तार काटने की दुर्घटनाएँ हुईं। एक लाख रुपये के डाक टिकट तथा नक़द रुपये डाकखानों से लूट लिए गए और असंख्य लैटर-बक्स जला दिये गए। ७० थानों पर हमले किए गए। १४० सरकारी इमारतों पर हमले किए गए; उन्हें जला दिया गया अथवा नष्ट कर दिया गया। रेलवे, डाक तथा तार-विभाग को कुल नुक़सान एक करोड़ रुपये का हुआ है। नागपुर ज़िले में कुल नुकसान सवा लाख का हुआ है। मध्य-प्रान्त के एक दूसरे स्थान में एक सरकारी ख़ज़ाने में से लाख रुपये लूट लिए गए, जिसमें १ लाख का पता लग गया है। संयुक्त-प्रान्त में एक निजी दवाख़ाने को नष्ट कर दिया, जिससे १०,०००) की हानि हुई। दिल्ली में सरकारी इमारतों को जो हानि पहुँची है उसका अनुमान ८,८६,६०१) कूता गया है।

इन उपद्रवों के दमन के लिये क्या-क्या उपाय और साधन प्रयोग में लाये गए, उन्हें सर मुहम्मद उसमान ने इस प्रकार बताया:––

(१) कांग्रेस-समितियों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया और महत्वपूर्ण कार्यकर्त्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। (२) भारत-रक्षाविधान के अन्तर्गत कारवाइयाँ कीगई। (३) नये-नये आर्डिनेंस प्रयोग में लाये गए, जैसे अधिक दण्ड-व्यवस्था आर्डिनेंस (Penalties Enhancement Ordinance); विशेष फौजदारी अदालत आर्डिनेस (Special Criminal Court Ordinance) और सामूहिक अर्थ-दण्ड-आर्डिनेंस (Collective Fines Ordinance) आदि। (४) "देश के हित की दृष्टि से" समाचारों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाये गए। (५) उपद्रवों के दमन के लिये पुलिस का पूरा उपयोग किया गया। उपद्रवकारियों पर गोलियाँ चलाई गईं, जिनसे ३९० व्यक्ति मरे और १०६० घायल हुए। ३२ पुलिसवाले हताहत हुए। (६) ६० स्थानों पर ब्रिटिश तथा भारतीय फौजों ने उपद्रवों का दमन किया। कितने ही अवसरों पर गोलियाँ चलाई गईं, जिनसे ३३१ व्यक्ति मरे और १५९ घायल हुए। फौज के ११ व्यक्ति मरे, ७ घायल हुए। (७) हवाई सेना को भी दमन में प्रयोग किया गया। भीड़ पर बम बरसाये गये। गाँवों, क़स्बों और नगरों पर कितना जुर्माना किया गया, इसकी कोई सूचना सरकारी तौर पर प्रकाशित नहीं हुई है। जुर्माने की अदायगी से मुसलमानों और सरकारी मुलाजिमों को मुस्तसना कर दिया गया।

भारत-सरकार के गृह-सदस्य सर रेजीनाल्ड मैक्सवैल के केन्द्रिय असेम्बली में, १२ फरवरी १९४३ को दिये गए वक्तव्य के अनुसार, ३१ दिसम्बर १९४२ तक भारत में ५३८ बार गोलियाँ चलाई गईं। पुलिस और फौज की गोलियों से ९४० व्यक्ति मारे गए और १६३० व्यक्ति घायल हुए। ६०,२२९ व्यक्ति इन उपद्रवों में गिरफ्तार किए गए। सन् १९४२ के अन्त तक २६,००० व्यक्तियों को दण्ड दिया जा चुका था। भारत-रक्षा-विधान की धारा २६ और १२९ के अधीन १८,००० व्यक्तियों को नज़रबन्द किया गया।

भारत-सरकार ने गृह-विभाग की ओर से मार्च '४३ में, जबकि गाँधीजी ने २१ दिन का उपवास रखा था, "१९४२-४३ के उपद्रवों के लिये कांग्रेस का दायित्व" (Congress Responsibility for Disturbanecs of 1942-43) नामक एक पुस्तक प्रकाशित कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि महात्मा गाँधी और कांग्रेस इन उपद्रवों के लिये उत्तरदायी हैं। परन्तु महात्मा गांधी ने, जैसा कि उनके और वाइसराय लार्ड लिनलिथगो के बीच हुए पत्र-व्यवहार से स्पष्ट है, इन उपद्रवों के लिये कांग्रेस को नहीं सरकार को दायी ठहराया है।

इस प्रकार भारत के राजनीतिक सङ्कट की समस्या बिना सुलझी पड़ी है। अप्रैल १९४३ में प्रेसिडेन्ट रूज़वैल्ट के विशेष प्रतिनिधि, मि॰ विलियम फिलिप्स, को भी महात्मा गांधी से जेल में भेंट करने की अनुमति नहीं दी गई। कामन्स में, प्रश्नोत्तर के समय, ६ अप्रैल १९४३ को भारत-मन्त्री के एक उत्तर से, जो उन्होंने एक मजदूर[] सदस्य को दिया था, ज्ञात हुआ कि पं॰ जवाहरलाल नेहरू को भारत से बाहर नहीं भेजा गया है और उनसे ब्रिटिश पार्लमेंट का कोई सदस्य पत्र-व्यवहार नहीं कर सकता। [इसके सम्बन्ध की अन्य घटनाओं की जानकारी के लिए पुस्तक के अन्त में, परिशिष्ट के अन्तर्गत, गांधी-लिनलिथगो-पत्र-व्यवहार, गांधीजी का इक्कीस दिन का व्रत, सर्वदल-नेता-सम्मेलन आदि देखिये]

  1. 'लेबर पार्टी' के सदस्य से आशय