अंतर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश/तिलक, लोकमान्य बाल (बलवन्तराव) गङ्गाधर

अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश  (1943) 
द्वारा रामनारायण यादवेंदु

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तिलक, लोकमान्य बाल (बलवन्तराव) गङ्गाधरकोकण (महाराष्ट्र) के रत्नगिरि ज़िले के एक ग्राम में चित्पावन ब्राह्मण-कुल में २३ जुलाई सन् १८५६ को जन्म हुआ। १८७६ ई॰ में प्रथम श्रेणी में बी॰ ए॰ (आनर्स) पास हुए और १८७९ में बंबई से उन्होने क़ानून की परीक्षा पास की। १८८० में तिलक तथा श्री चिपलूणकर शास्त्री ने न्यू इगलिश स्कूल की स्थापना की। और १८८४ में उन्हीं के प्रयत्न से दक्षिण-शिक्षा-समिति की प्रस्थापना हुई। इसी समिति की ओर से जब फर्गुसन कालेज की स्थापना की गई तो लोकमान्य ने उसे अपनी अध्यापकीय सेवाये अर्पित की। पर कुछ दिन बाद अपने इस संस्था से सम्बन्ध तोड़ लिया। सन् १८८१ में, लोकमान्य तिलक तथा उनके सहयोगी श्री आगरकर ने मराठी में 'केसरी' तथा अँगरेज़ी में 'मराठा' पत्रों को जन्म दिया और स्वयं उनके संपादक बने। तिलक की ओजस्विनी विचारधारा जनता में जीवन और जागरण उत्पन्न करने लगी। इसी उद्देश्य से तिलक ने गणपति-उत्सव और शिवाजी-उत्सव प्रारम्भ किए। १८९५ में
[ १४८ ]यह बंबई-धारासभा के सदस्य चुने गए। दो वर्ष बाद पूने में प्लेग महामारी फूट पड़ी। प्लेग से रक्षा के लिए सरकार ने बड़ी कड़ाई के साथ स्वास्थ्य-संबंधी नियमों के पालन पर जोर दिया और इसकी व्यवस्था का भार गोरे सैनिकों के हाथों में सौंप दिया। सैनिक जनता को हर प्रकार से तंग करने लगे। इन्हीं दिनों दामोदर हरि चापेकर नामक एक व्यक्ति ने प्लेग-समिति के अध्यक्ष मि॰ रैण्ड की हत्या कर दी और लेफ़्टिनेन्ट आयरेट नामक एक अफसर भी मार दिया गया। ऐग्लो-इडियन समुदाय और उनके पत्रों ने गुहार मचानी आरम्भ की और शासकों द्वारा आतंक की वृद्धि हुई। लोकमान्य तिलक ने अपने किसी लेख में शिवाजी द्वारा अफजलखाँ के वध को नीतिविहित सिद्ध किया था। आवाज उठने लगी कि तिलक राजनीतिक हत्याओं को उत्तेजना देते हैं। इनसे समस्त देश में बड़ी सनसनी फैल गई। तब 'केसरी' में प्रकाशित कुछ लेखों के कारण लोकमान्य पर राजद्रोह का मुकद्दमा चला और उन्हें १८ मास क़ैद की सज़ा दी गई। इस जेल-जीवन में लोकमान्य ने वेदो में खोज करके 'ओरायन' नामक संसार-प्रसिद्ध ग्रन्थ की अँगरेंजी मे रचना की। प्रसिद्ध योरपीय विद्वान् प्रो॰ मैक्समूलर इससे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने महारानी विक्टोरिया को लिखा और लोकमान्य ६ मास पूर्व जेल से छोड़ दिये गये। लोकमान्य प्रथम बार १८९० में कांग्रेस में शामिल हुए थे। फिर जब १८९५ में पूना में अधिवेशन हुआ तो आपको स्वागत-समिति का मन्त्री बनाया गया। कांग्रेस में तब माडरेट लोगो का ही बोलबाला था। पर लोकमान्य कांग्रेस को तीन दिन के तमाशे के बजाय निरन्तर कार्यशील और जागरूक संस्था बनाना चाहते थे। १९०५ में जब लार्ड कर्जन ने बंगाल के दो टुकड़े कर दिए और फलत: उसके विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन उठा तो तिलक ने पैसा-फंड खोला और आन्दोलन के संचालनार्थ लाखो रुपये इकट्ठा हो गये। सन् १९०७ में सूरत में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में तिलक के गरम दल और रासबिहारी घोष तथा सुरेन्द्रनाथ आदि के नरम दल के बीच जोरो का संघर्ष हुआ और फलत: कांग्रेस पर कुछ वर्षों के लिए माडरेटो का आधिपत्य और भी प्रबल हो गया। 'केसरी' के कुछ लेखों के कारण लोकमान्य को २४ [ १४९ ]जून सन् १९०८ को दफा १२४ ए॰ (राजद्रोह) और १५३ ए॰ (जातिगतविद्वेष) के अभियोग में गिरफ़्तार किया गया और उनकी ५३वी वर्षगाँठ से एक दिन पूर्व, ६ वर्ष के लिए निर्वासन और १०००) जुर्माना का दण्ड दिया गया। मुक़दमे के दौरान में उन्होने जो बयान दिया वह बहुत मार्मिक था। लोकमान्य ने कहाः—मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि यद्यपि जूरी ने मुझे अपराधी ठहराया है, किन्तु मैं बलपूर्वक कहता हूँ कि मैं निर्दोष हूँ। विश्व में एक महती शक्ति भी है जो भौतिक जगत् का सूत्र-संचालन करती है, और सम्भवतः विधाता का ऐसा ही विधान हो कि वह उद्देश, जिसका मैं प्रतिनिधित्व करता हूँ, मेरे स्वतन्त्र रहने की अपेक्षा मेरे कष्ट-सहन द्वारा अधिकाधिक फलीभूत होगा।' लोकमान्य माडले (ब्रह्मा) के क़िले में एक लकड़ी के बने कटघरे में बन्दी बनाकर रखे गये। इस बन्दीगृह में उन्होने कठिन यातनाएँ भोगी। परन्तु कर्मयोगी तिलक ने इन यातनाओं की तनिक भी चिन्ता न कर अपना समय स्वाध्याय और चिन्तन में बिताया। अपना सबसे लोकप्रिय तथा सुप्रसिद्ध ग्रन्थ "गीतारहस्य" उन्होने इसी बन्दीगृह में लिखा। जून १९१४ में वह रिहा हुए।

२३ अप्रैल १९१६ को उन्होने पूना में होमरूल-लीग की स्थापना की। सूरत के बाद सन् '१६ के लखनऊ अधिवेशन में लोकमान्य पुनः कांग्रेस में सम्मिलित हुए। १९०७ से बिछुडे हुए कांग्रेस के दोनों दल एक हुए, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के लिए कांग्रेस-लीग योजना स्वीकृत हुई; स्वराज्य की योजना बनी। इन सबमे, विशेषकर, साम्प्रदायिक-योजना के निपटारे मे लोकमान्य का बहुत हाथ था। वास्तव में भारत में राष्ट्रीयता का क्षेत्र तैयार करके बीज वपन करने का समस्त श्रेय लोकमान्य को है। "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और हम इसे लेकर रहेंगे"—यह मूलमन्त्र करोड़ों भारतीयो को उन्होने ही पढ़ाया। राष्ट्रीय-भावना को वह सबल अकुरित रूप में छोड़ गये।

लोकमान्य राजनीतिक अग्रणी ही नही, समाज-सुधारक और ज्योतिष तथा आयुर्वेद के विद्वान् भी थे। वर्णव्यवस्था के वर्तमान रूप को उन्होने वेद-विरुद्ध ठहराया था। वह जात-पाँत के विरोधी थे

सर वेलेंटैन शिरोल ने अपनी 'भारत में अशान्ति' (Unrest in [ १५० ]ने लन्दन जाकर शिरोल के विरुद्ध मानहानि का मुकद्दमा चलाया। पर इस मुक़द्दमे में तिलक की विजय न हो सकी।

पहली अगस्त १९२० को असहयोग आन्दोलन का आरम्भ होनेवाला था। लोकमान्य तिलक ने मुसलमानों को आश्वासन दिया था कि वह ख़िलाफत आंदोलन में सहयोग देंगे। परन्तु आन्दोलन के आरम्भ होने से पूर्व ही ३१ जुलाई १९२० को रात्रि में उनका स्वर्गवास हो गया।