अंतर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश/ग
ग
गान्धी, महात्मा मोहनदास कर्मचन्द--२ अक्टूबर सन् १८६९
को पोरबन्दर मे जन्म हुआ। पिता पोरबन्दर-नरेश के २५ वर्षे तक दीवान
रहे। भावनगर तथा राजकोट मे मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद
लन्दन बैरिस्टरी पास करने गये। बैरिस्टरी पास करके बम्बई तथा दक्षिण-अफ्रीका में वकालत की। जब वह १८९३ ई० मे दक्षिण-अफ्रीका एक
मुकद्दमे के सिलसिले मे गये, तो उन्होंने वहाँ के प्रवासी भारतीयों की बहुत
बुरी स्थिति देखी। भारतीय होने के कारण उन पर अनेक प्रकार के अत्याचार किये जाते थे। २५ पौण्ड वार्षिक का कर उन पर लगा दिया गया था,
जिसे भारत सरकार ने पीछे ३ पौण्ड सालाना कर दिया। भारतीय विवाहों
को जायज़ नहीं माना जाता था। कुछ शहरों की ख़ात बस्तियों में वह
आबाद नहीं हो सकते थे, आदि। इन सबके विरोध मे, भारतीयो की स्थिति
में सुधार करने के लिए, आपने आन्दोलन शुरू किया, जो निष्क्रिय प्रतिरोध
(Passive Resistence) के नाम से प्रसिद्ध है। यह भी एक प्रकार का
अहिंसात्मक सत्याग्रह था। गान्धीजी के सत्याग्रह प्रयोग का यह प्रथम प्रयास
था। इसमें उन्हें सफलता मिली, और अपने ‘सत्य के प्रयोग के प्रति गांधीजी
की धारणा और भी दृढ होगई। इस आन्दोलन में भारत से भी स्वर्गीय
गोखले आदि ने काफी सहायता भेजी। गोखलेजी स्वय दक्षिण अफरीका गये।
स्वर्गीय दीनबन्धु ऐड्रज से भी गान्धीजी की भेट इसी आन्दोलन-काल में हुई
और ऐन्ड्रज साहब ने ही, दक्षिण-अफ्रीकी-सत्याग्रह के बाद गान्धीजी और
दक्षिण-अफ्रीका-सरकार के प्रधान मन्त्री जनरल स्मट्स मे समझौता कराया।
नेटाल के बोअर-युद्ध तथा जूलू-विद्रोह में गान्धीजी ने भारतीय एम्बुलेस दल का नेतृत्व किया और आहतो की सेवा की। सन् १९१४ मे भारत आगये।
सन् १९१४-१८ के युद्ध में उन्होंने, गुजरात की खेड़ा तहसील मे, सरकार की सहायता के लिए, रॅगरूट स्वय-सेवक-दल (Volunteers) का संगठन किया। दक्षिण-अफ्रीका के प्रवास-काल में ही उन्होंने अहिंसात्मक सत्याग्रह का प्रयोग और विकास किया और उसके सिद्धान्तो को स्थिर किया। सन् १९०८ में उन्होने “हिन्द स्वराज्य” नामक एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक मे अहिंसा तथा सत्याग्रह के सिद्धान्तो के आधार पर उनके अपने विचार हैं। आज भी गान्धीजी इस पुस्तक में प्रतिपादित सिद्धान्तो को मानते हैं। जब विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में नई शासन-सुधार-योजना प्रकाशित की गई और दूसरी ओर रौलट मसविदो (Bills) को स्थायी क़ानून का रूप देने का प्रयत्न किया गया, तो गान्धीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ने की घोषणा की।
सन् १९२० में, पंजाब के अत्याचारो के विरोध में तथा ख़िलाफत के
संबंध मे असहयोग-आन्दोलन शुरू किया। सन् १९२२ मे गान्धीजी को राजद्रोह
के अपराध में ६ साल की सज़ा दी गई, परन्तु सन् १९२४ में बीमारी के
कारण उन्हे मुक्त कर दिया गया। असहयोग-आन्दोलन का अवसान होते-न-होते देश में साम्प्रदायिक दंगों ने ज़ोर पकड़ लिया था, अतएव आपने
प्रायश्चित्तस्वरूप इक्कीस दिन का व्रत किया। देश दहल उठा और स्वर्गीय
पं० मोतीलाल नेहरू के सभापतित्व मे एकता-सम्मेलन हुआ। ३१ दिसम्बर
१९२९ की आधी रात को लाहौर में पूर्ण स्वाधीनता के ध्येय की घोषणा की
गई। इसी वर्ष गान्धीजी के प्रभाव से लार्ड इरविन के प्रति, उनकी स्पेशल
को उडाये जाने की घटना से उनके बच जाने के लिये, सहानुभूति का प्रस्ताव
स्वीकार किया गया।
साइमन कमीशन की विफलता के बाद सन् १९३० में गांधीजी ने नमक सत्याग्रह आरम्भ किया। इस आन्दोलन में उन्हे राजबन्दी बनाकर यरवदा जेल में रखा गया। जनवरी १९३१ मे उन्हे मुक्त कर दिया गया। ३१ मार्च १९३१ को गांधीजी तथा भारत के वाइसराय लार्ड इरविन (अब लार्ड हैलीफैक्स) में समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार गांधीजी ने लन्दन की गोल-मेज़ परिषद् में कांग्रेस की ओर से शामिल होना स्वीकार किया तथा समस्त राजनीतिक बन्दी रिहा कर दिये गये और व्यक्तिगत रूप से नमक बनाने का सबको अधिकार मिल गया।
सन् १९३१ मे वह लन्दन गये और गोल-मेज़ परिषद् में भाग लिया। जब सन् १९३२ के जनवरी मास मे भारत वापस आये तो उन्हें फिर गिरफ़्तार किया गया। सितम्बर १९३२ में उन्होने यरवदा जेल में, साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध, आमरण उपवास रखा और पूना-पैक्ट के स्वीकार होजाने पर अपना व्रत भंग किया। सन् १९३३ में उन्होने सत्याग्रह आश्रम अहमदाबाद को भंग कर दिया। वर्धा (मध्यप्रदेश) मे सेठ जमनालाल की बजाजवाडी मे अपना निवास-स्थान बनाया। इसके बाद वर्धा से पॉच मील दूर सेवाग्राम में अपना आश्रम स्थापित किया।
देश-नेताओं की प्रवृत्ति फिर धारा-सभाओ मे जाने की हुई और चुनाव
लड़ना तय हुआ, फलतः सत्याग्रह-आन्दोलन समाप्त कर दिया गया, और बम्बई
की विशेष कांग्रेस (अक्टूबर १९३५) के बाद गांधीजी ने कांग्रेस की सदस्यता
से त्यागपत्र देदिया। इसके बाद वे अछूतोद्धार, ग्राम-सुधार तथा ग्रामोद्योग
संघ के कार्य में पूर्णतया लग गये। सन् १९३७ में जब प्रान्तीय चुनावों में ११ में से ७ प्रान्तो में कांग्रेस की विजय हुई तब, मार्च १९३७ में, देहली
में पद-ग्रहण का प्रस्ताव काग्रेस ने स्वीकार किया। सन् १९३७ से १९३९ तक कांग्रेसी सरकारों को आदेश देते रहे और यह बतलाते रहे कि कौन-कौन से
राष्ट्रनिर्माणकारी कार्य मत्रियो को करने चाहिये। महात्मा गांधी के आदेशानुसार ही काग्रेसी मत्रियो ने अपने-अपने प्रान्तों में हरिजन को सुविधाये--नौकरियॉ आदि--दी, खादी को प्रोत्साहन दिया, ग्राम-सुधार पर अधिक ज़ोर दिया, मादक-द्रव्यों का निषेध करने के लिये प्रयत्न किया तथा बुनियादी (Basic) शिक्षा-पद्धति को पाठ्यक्रम में स्थान दिया।
१ सितम्बर १९३९ को यूरोप में जर्मनी ने वर्तमान महायुद्ध छेड़ दिया, तब वाइसराय ने गांधीजी को ५ सितम्बर १९३९ को परामर्श के लिये शिमला आमत्रित किया। इस भेट के बाद ही गांधीजी ने एक वक्तव्य में यह कहा कि मेरी सहानुभूति ब्रिटेन तथा फ्रान्स के साथ है।
वाइसराय से समझौते की बातचीत करने के लिए वह दो-तीन बार शिमला तथा नयी दिल्ली गये। परन्तु मुलाक़ातों का कोई परिणाम नहीं निकला। अन्त में अपनी अन्तिम मुलाकात में गान्धीजी ने वाइसराय से यह मॉग पेश की कि काग्रेस को, जो अपने अहिंसा के सिद्धान्त के कारण युद्ध में योग नही दे सकती, भाषण-स्वातन्त्र्य का अधिकार दिया जाय, जिससे काग्रेसजन युद्ध के संबंध मे अपने विचार प्रकट कर सके। वाइसराय ने यह माँग स्वीकार नहीं की। फलतः अक्तूबर १९४० में उन्होने युद्ध-विरोधी वैयक्तिक सत्याग्रह आरम्भ कर दिया। दिसम्बर १९४१ में काग्रेस कार्य-समिति ने गान्धीजी को सत्याग्रह के संचालक-पद से मुक्त कर दिया और इस प्रकार सत्याग्रह स्थगित होगया।
महात्मा गान्धी काग्रेस को एक विचारधारा की अनुयायी संस्था बना देना चाहते हैं। इसलिए वह, जब यह देखते हैं कि दूसरी संस्थाएँ या दल कांग्रेस में शामिल होकर गान्धीवाद-विरोधिनी विचारधारा का प्रचार करते हैं, तो वह इसे सहन नही कर सकते। गान्धीजी प्रजातत्र के समर्थक हैं; परन्तु कांग्रेस मे आन्दोलन के संचालन के लिये अधिनायक-तंत्र को ही ठीक मानते हैं।
महात्मा गान्धी काग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेता हैं और संसार के एक अद्वितीय महापुरुष। वह अपने अहिंसा-प्रेम के लिये विश्व-विख्यात
है। वह न केवल नेता ही हैं प्रत्युत् एक उच्चकोटि के विचारक, साधक, अँगरेज़ीऔर गुजराती के उत्कृष्ट लेखक-सम्पादक तथा प्रकृति-चिकित्सक भी हैं। उनकी 'आत्म-कथा' बहुत ही सुन्दर तथा उच्चकोटि की रचना है। उन्होने 'यंग इंडिया', 'हरिजन' तथा 'हरिजन-बन्धु' नामक पत्रो का संपादन भी किया है। दक्षिण अफ़्रीका में 'इंडियन ओपीनियन' पत्र निकला था। ८ अगस्त १९४२ को अ० भा० कांग्रेस कमिटी ने बम्बई में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के भारतीय स्वतन्त्रता-सम्बन्धी 'भारत छोडो'
(Quit India) प्रस्ताव को स्वीकृत किया और ९ अगस्त के प्रातःकाल कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों सहित गांधीजी बम्बई में पकडे जाकर नज़रबन्द कर दिये गये। प्रस्ताव स्वीकृत होने के बाद गान्धीजी ने घोषणा की थी कि वह अगला क़दम उठाने से पूर्व वाइसराय से भेट करके उनसे समस्त स्थिति पर बातचीत करेंगे, किन्तु ९ अगस्त के प्रातः ५ बजे ही उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।
गांधीजी की ग्यारह शर्ते--सन् १९३० में, नमक-सत्याग्रह आरम्भ करने से पूर्व, गांधीजी ने तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन के समक्ष निम्नलिखित ११ मॉगे, स्वीकृति के लिए, प्रस्तुत की थीः--
(१) पूर्ण मादक-द्रव्य-निषेध।
(२) रुपये की विनिमय-दर घटाकर १ शिलिंग ४ पैंस करदी जाय।
(३) किसानों की मालगुज़ारी में कम-से-कम ५० फ़ीसदी कमी कर दी जाय और उसका नियन्त्रण व्यवस्थापिका सभा द्वारा हो।
(४) नमक-कर उठा दिया जाय।
(५) भारत मे फौजी ख़र्चा आधा कर दिया जाय।
(६) उच्च सरकारी पदाधिकारियो के वेतन में ५० फ़ीसदी कमी की जाय।
(७) विदेशी वस्त्र के आयात पर संरक्षण-कर लगाया जाय।
(८) तटीय यातायात संरक्षण मसविदा(Coastal Traffic Reserv-
ation BILL) पास कर दिया जाय, ताकि हिन्दुस्तानी समुद्र तट देशी जहाजों के लिए सुरक्षित होजाए।
(९) समस्त राजनीतिक बन्दियो को रिहा कर दिया जाय। इनमें वे शामिल नहीं हैं , जिन्हे हत्या करने तथा हत्या का प्रयत्न करने के अपराध मे सज़ा मिली है। समस्त राजनीतिक मुकदमे वापस ले लिए जायॅ। भारतीय दण्डविधान धारा १२४ (अ) तथा सन १८१८ के तीसरे रेग्यूलेशन को रद कर दिया जाय, और भारतीय निर्वासितो को स्वदेश वापस आने की आज्ञा दी जाय।
(१०) गुप्तचर पुलिस विभाग उठा दिया जाय अथवा उसको जनता के नियन्त्र्ण मे दे दिया जाय।
(११) आत्मरक्षा के लिए शस्त्र प्रयोग के निमित्त लाइसेंस दिये जायॅ और उन पर जनता का नियन्त्र्ण रहे।
गान्धीवाद--महात्मा गान्धी के सिद्धान्तो के लिए आज गान्धीवाद शब्द प्रचलित है। गान्धीवाद आव्यत्मिक होते हुए भी आधुनिक भारत का एक राजनीतिक सिद्धान्त है। गान्धीजी का यह 'वाद' आहिंसा के आधार पर स्थिर है। आहिंसा उसका मेरुदण्ड है। सदैव शान्तिमय साधनो पर ही वह ज़ोर देता है। सघर्ष को वह पसंद नही करता। सम्सत समस्याओं--सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक--को वह सहयोग तथ सामंजस्य के सिद्धांत के आधार पर हल करना चाहता है। गान्धीवाद का साधन अहिंसा और लक्ष्य सर्वोदय है। वह मानव-मात्र का हिताकाक्षी है, और उसके लिए वह सामाज मे प्रचलित वर्गों तथा सम्प्रदायो मे परस्पर सहयोग चाहता है। गान्धीवाद प्रत्येक देश की स्वाधीनता का समर्थक है और साथ ही वह अन्तर्राष्ट्रीयता का समर्थन करता है। परन्तु वह कार्लमार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद का विरोधी है। गान्धीवाद आर्थिक सम्स्या के हल के लिए, सामूहिक उद्योगवाद के स्थान पर वैयक्तिक उद्योग चरखा, खादी, ग्रामोद्योग तथा घरेलू-धन्धो के सगठन तथा प्रोत्साहन पर अधिक ज़ोर देता है। वह ज़मीनदारी प्राथा का नाश नहीं चाहता, और न देशी राज्यो तथा नरेशो का निष्कासन ही उसे पसंद है, किन्तु वह इन सत्ताधारयों को जनता के संरक्षक
(trustee) के रूप में और इनकी सम्पत्ति को जनता की धरोहर की भॉति
व्यवहृत देखना चाहता है। गान्धीवाद त्याग, तपस्या, कष्ट-सहन तथा ब्रह्मचर्य आदि के पालन पर विशेष ज़ोर देता है। इसलिए उसकी प्रवृत्ति भोगवादी
नहीं है। समाज-सुधार का वह समर्थक है। परन्तु वह उसका समर्थन वहीं
तक करता है जहाँ तक उसका सदाचार तथा नैतिकता से संघर्ष नहीं होता।
इसी आधार पर गान्धीवाद सन्तान-निग्रह के कृत्रिम साधनों का विरोधी हैं। संक्षेप में गान्धीवाद शुद्ध हिन्दुत्व का प्रतिरूप है।
गान्धी-सेवा-संघ--सन् १९२४ मे सेठ जमनालाल बजाज (अब स्वर्गीय), श्री राजगोपालाचारी, सरदार वल्लभभाई पटेल, डा राजेन्द्रप्रसाद आदि नेताओं ने इस संघ की स्थापना की। शुरू में इसका कार्य गान्धीजी के विचारों का प्रचार करना था। इस संघ के सदस्यों को राजनीति में भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। बारह वर्ष तक इस संघ का कार्य जनता में लोकप्रिय न बन सका और न इसने आन्दोलन का रूप ही धारण किया। पहले इसके सालाना अधिवेशन भी नहीं होते थे। सन् १९३४ में इसका पहला सम्मेलन हुआ। श्री किशोर-लाल घ० मश्रुवाला के अनुसार इन सालाना सम्मेलनों में गान्धीजी का पूरा-पूरा भाग रहा। उन्होंने संघ को नया रूप देकर बड़ा बनाया तथा उनको वह अपने विचार और नीति बतलाते रहे। वैसे इस संघ का उद्देश्य "महात्मा गान्धी के सिखाये हुए सत्याग्रह के सिद्धांतो के अनुसार जनता की सेवा करना है," परन्तु वास्तव में यह संघ गान्धीवादियों का संगठन बनाने के लिए खोला गया। संघ के वृन्दावन (बिहार) अधिवेशन में एक प्रस्ताव में यह स्पष्ट रूप से आदेश किया गया है कि--"समस्त राजनीतिक चुनावों में संघ के एक सदस्य को दूसरे सदस्य का विरोध न करना चाहिए और न मुक़ाबले में ही राग रोना चाहिए।" मे है। 'सर्वोदय' नामक एक हिन्दी-मासिक भी वहाँ से प्रकाशित होता है।
गिल्ड समाजवाद--संघवादी समाजवाद का ब्रिटिश भेद है। यह आन्दोलन सन् १९०९ में पेटी और हाब्सन के नेतृत्व में शुरू हुआ। इनका मन्तव्य यह है कि उद्योगो के राष्ट्रीयकरण के बाद मजदूर-मचो को उद्योगों का सचालन करना चाहिए। यह वाद राजकीय-समाजवाद के विरुद्ध है,क्योकि उसका ध्येय यह है कि राज्य को उद्योगो का नियंत्रण करना चाहिए। इस आन्दोलन का पतन होचुका है। ब्रिटेन में सन् १९१५ में राष्ट्रीय गिल्ड लीग बनाकर इसका परीक्षण किया गया। सन् १९२० मे राष्ट्रीय गिल्ड कोसिल वनाई गई। शुरू मे कुछ सफलता मिली। परन्तु बाद में परीक्षण विफल रहा।
अमरीका के उत्तर में द्वीप-समूह है। सामरिक दृष्टि से इसका बड़ा महत्व है। आज-कल संयुक्त राज्य अमरीका ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया है।
ग्रीनवुड, आर्थर, एम० पी०--मज़दूर-दल के उपनेता हैं। सन् १९२२ मे सबसे प्रथम ब्रिटिश पार्लमेट के सदस्य चुने गये। लीड्स यूनिवर्सिटी मे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे। मज़दूर-दल अन्वेषण-सस्था के प्रधान मत्री हैं। सन् १९२३-३१ तक स्वास्थ्य-मत्री रहे। ग्रीनवुड मजदूर-दल के प्रमुख प्रभावशाली नेता हैं। नवम्बर १९३९ में आपसे यह आग्रह किया गया कि विरोधी-दल के नेता के चुनाव में उम्मीदवार बने, परन्तु अपने अपने मित्र एटली के विरुद्ध खड़ा होना ठीक न समझा। पुनः आप उपनेता चुने गये। मई, ४० में चर्चिल-सरकार बनते समय, जब मजदूर दल ने उसमे शामिल होना स्वीकार किया, तब मि० ग्रीनवुड युद्ध-मन्त्रिमण्डल के सदस्य बनाये गये।
गेस्टापो--यह जर्मनी की गुप्त राजनीतिक पुलिस का नाम है। सन् १३३९
में, जब हिटलर ने जर्मनी की शासन-सत्ता अपने हाथ में ली, तब ही इसका
संगठन, नाज़ीवाद के विरोधियो के दमन के लिये, किया गया था। यह बहुत
शीघ्र जर्मन-जनता के लिये आतंककारी सिद्ध हुई। गेस्टापो के कर्मचारी गुन रूप
से प्रत्येक व्यक्ति तथा संस्था के कार्यों की जॉच करते हैं, और जहाँ कही ज़रा
भी विरोध की आवाज़ सुनाई पड़ी कि फौरन् गिरफ्तारी की। गेस्टापो का
प्रधान संचालक हैनरिच हिमलर है।
ग्रेट ब्रिटेन और उत्तरी आयरलैण्ड--क्षेत्रफल ९४,२७७ वर्गमील; जनसंख्या ४,७५,००,००० है। ब्रिटिश राजसमूह में इँगलैण्ड, स्काटलैण्ड, वेल्स तथा उत्तरी आयरलैण्ड शामिल हैं। केवल उत्तरी आयरलैण्ड में स्वायत्त-शासन है। शेष तीन प्रदेश एक शासन के अन्तर्गत हैं। ब्रिटिश शासन-विधान अलिखित और परम्परागत है। ब्रिटेन का राज्य-सिंहासन पैतृक है। एकच्छत्र शासन मर्यादित है। बहुमत की सरकार होती है। राजा को मसविदो (Bills) पर स्वीकृति देने का अधिकार है। वह मंत्रियों द्वारा कार्य करता है और मंत्री पार्लमेट के प्रति ज़िम्मेदार होते हैं। कुछ प्रमुख मंत्री मंत्रि-मण्डल (Cabinet) के सदस्य होते हैं। वे उसकी बैठको में शामिल होते हैं। शेष मंत्री उसके सदस्य नही होते। आजकल ९ सदस्यो की एक युद्ध-समिति (War-Cabinet) है। वर्तमान कामन-सभा का चुनाव सन् १९३५ में हुआ था। इसमे ३७५ अनुदार, ३३ नरम-राष्ट्रवादी, ७ राष्ट्रीय मज़दूर, ५ सरकारी राष्ट्रवादी, १६८ मज़दूर, १९ उदार, ७ स्वतत्र, और १ साम्यवादी सदस्य हैं।
गोवेल्स, डा० जोसफ--नात्सी जर्मनी के प्रचार-विभाग का मत्री हैं।
नात्सी-दल में हिटलर तथा गोरिंग् के बाद डा० गोबेल्स का ही स्थान है।
राइनलैण्ड में एक निर्धन किसान-कुल मे, २९ अक्टूवर १८९७ को, गोवेल्स
का जन्म हुआ। गोवेल्स यद्यपि ग़रीब था परन्तु वह अनन्य विद्यानुरागी
था। अच्छी से अच्छी यूनिवर्सिटी में जाकर उसने शिक्षा प्राप्त की। सन्
१९२२ से पूर्व गोवेल्स, पत्रकार की हैसियत से, जीवन-निर्वाह करता था।
सन् १९२२ में वह नात्सी-दल में प्रचार-कार्य करने लगा और सन् १९२६ में
उसने उत्तरी जर्मनी मे नात्सी-दल का संगठन किया। इस समय हिटलर दक्षिणी
जर्मनी में कार्य कर रहा था। उसी वर्ष वह नात्सी दल का वर्लिन में स्थानीय
नेता बन गया। सन् १९२७ में डा० गोवेल्स ने बर्लिन से "दिर एग्रिफ'
(आक्रमण) नामक एक दैनिक पत्र निकाला। सन् १९२८ में वह राइख़ताग
(Reichstag--जर्मन पार्लमेट) का सदस्य चुना गया। सन् १९२६ में
वह नात्सी-दल का प्रचार-मंत्री नियुक्त किया गया। जब सन् १९३३ में हिटलर
ने जर्मनी का शासन अपने हाथ में लिया, तब वह जर्मन-सरकार का प्रचार-मंत्री नियुक्त किया गया। उसने बहुत शीघ्र जर्मनी के समाचार-पत्रों, साहित्य,
कला, रेडियो, संगीत, नाटक, चित्रपट तथा अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों परनात्सीवाद
का पूरा नियंत्रण स्थापित कर दिया। ऐसा प्रचार आज तक किसी देश में नहीं
हुआ। डा० गोवेल्स जर्मनी में प्रचार की व्यवस्था करता है। वह नात्सीवाद
के सिद्धान्तों को जनता में प्रचारित करता है तथा नात्सी-शासन की विशेषताएँ
बतलाता है। इसके अतिरिक्त विदेशो में भी वह ऐसा प्रचार करता है जिससे
लोगो में जर्मनी के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो। इस कार्य में रेडियो तथा
समाचार-पत्रों से विशेषतः काम लिया जाता है। वक्तृता में डा० गोवेल्स का स्थान बहुत ऊँचा है। उसके शब्दो में गूढ रहस्य तथा व्यंग्य रहता है। यदि
जर्मनी में गोरिंग शक्ति का प्रतीक है तो गोवेल्स नात्सी-दल के मस्तिष्क का।
गोरिग्, हरमैन विलहैल्म-–गोरिंग का स्थान जर्मनी में हिटलर के बाद
है। १२ जनवरी १८९३ मे जन्म हुआ। विगत युद्ध में जर्मन हवाई सेना में
भाग लिया। गोरिंग् को स्कूल का वातावरण अच्छा नहीं लगता था और
न पढ़ने मे ही उसकी रुचि थी। उसके पिता ने उसे, इसलिए, एक सैनिक स्कूल
मे भर्ती करा दिया। सन् १९१३ मे बर्लिन की मिलिटरी ऐकेडेमी से उसे
लेफ्टिनेट की पदवी मिली। विगत विश्वयुद्ध मे वह बड़ी वीरता से लड़ा।
जुलाई १९२८ में वह अपने शौर्य के बल पर जर्मन हवाई सेना का सेनापति
नियुक्त किया गया। इसके बाद वह स्वीडन गया और वहॉ वायुयान-सचालन
की शिक्षा दी। परन्तु इससे उसे सन्तोष न हुआ। वहाँ उसने एक धनी स्वीडिश
कन्या से विवाह किया। अपनी स्त्री के परामर्श से वह जर्मनी वापस आया।
सन् १९२२ में वह म्युनिख में सबसे पहली बार हिटलर से मिला। वह हिटलर
के असाधारण व्यक्तित्व से अत्यन्त प्रभावित हुआ। एक सभा में हिटलर को
भाषण देते हुए सुनकर गोरिंग् ने अपने मन मे कहा--“यह है वह व्यक्ति
जो जर्मनी को पुनः वैभव के शिखर पर पहुँचा सकता है।" तब से ही गोरिंग्
हिटलर का दाहिना हाथ बना हुआ है। म्युनिख़ मे, सन् १९२३ मे, पुलिस-घेरे
के विरुद्ध हिटलर ने क़दम बढ़ाया। पुलिस ने गोली चलाई। एक गोली
गोरिग् के भी लगी। हिटलर को सरकार ने जेल में भेज दिया। गोरिग् को
आस्ट्रेलिया भेज दिया गया।
उसने थोड़े ही समय मे शक्तिशाली हवाई सेना का संगठन कर दिखाया। इसके बाद वह चातुर्वर्षीय योजना का कमिश्नर नियुक्त किया गया। यह योजना बनाई गई कि चार वर्षों में जर्मनी के उद्योग-धन्धे इतने उन्नत होजायॅ कि वह स्वाश्रयी बन जाय। इससे डा० शाख्त का प्रभाव घट गया। डा० शाख्त अर्थमंत्री थे। फरवरी १९३८ मे गोरिग् को फ़ील्ड मार्शल का पद मिला। १९३८ मे जर्मनी से यहूदियो का निष्कासन कराने में गोरिग् का बहुत हाथ था।
जनवरी १९३९ में आर्थिक कमिटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। सन् १९३९ के अगस्त में वह युद्व-मंत्रि-मण्डल का सदस्य नियुक्त किया गया और १ सितम्बर १९३९ को हिटलर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नामज़्द किया। 'मक्खन नही बन्दूक़' का नारा
इसने बुलन्द किया और इस प्रकार जर्मन जाति को जीवनोपयोगी वस्तुओं की मितव्ययिता का पाठ पढ़ाकर बचत को हथियारो में लगवा दिया। गोरिंग् शान-शौकत और विलासिता-पूर्ण जीवन के लिए मशहूर है।
ओर से केन्द्रीय असेम्बली के सदस्य चुने गये। 'लोकमत' हिन्दी दैनिक की सन् १९२९ में स्थापना की। पीछे पत्र बन्द होगया। सन् १९३० के और
१९४० के सत्याग्रह मे भाग लिया तथा जेल गये। १९२४-३० मे स्वराज्य-दल की ओर से कौसिल आफ् स्टेट के सदस्य चुने गये। सन् १९३९ में त्रिपुरी मे काग्रेस-अधिवेशन की स्वागत-समिति के अध्यक्ष थे। हिन्दी मे कई नाटक लिखे हैं। एकाकी नाटकों के लिखने में प्रसिद्धि पा चुके हैं। आप गान्धीवादी नेता हैं।
गौल, जनरल डी--यह फ्रान्स के सैनिक अधिकारी थे। इस समय आप अधिकृत तथा
पराजित फ्रान्स को छोड़कर लन्दन मे हैं। आपने यह घोषणा की है कि फ्रान्स
का जर्मनी से युद्ध अभी जारी है, मार्शल पेतॉ द्वारा फ्रान्स के साथ जो अविराम
संधि हुई है उसे फ्रान्सीसी जनता ने स्वीकार नहीं किया है। आप 'स्वतंत्र' फ्रान्स
के प्रतिनिधि हैं। कुछ सेना भी फ्रान्स के पतन के बाद आपके साथ इँगलैण्ड
चली आई थी जो अब अँगरेज़ो के साथ धुरी-सेना से वीरतापूर्वक लड़ रही है।
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