अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश  (1943) 
द्वारा रामनारायण यादवेंदु

[ ६९ ] औकिनलैक--आपका पूरा नाम है जनरल सर क्लौड जॉन इरे औकिनलक। आपका जन्म सन् १८८४ में हुआ। दक्षिण-पश्चिमी समुद्रतटीय प्रदेश-इँगलैंड--में औकिनलैक ने जर्मन-आक्रमण से रक्षा के लिए सेना का संगठन किया। मई १९४० मे उत्तरी नार्वे में मित्रराष्ट्रो की सेना का संचालन किया। इसके बाद इँगलैंड में पोर्ट् समाउथ से ब्रिस्टल तक ५०० मील लम्बे समुद्री-तट की रक्षा के लिए ६ मास तक आपने बड़े साहस से योजना-कार्य किया।

आपने वैलिगटन कालिज में शिक्षा प्राप्त की है। सबसे प्रथम वह भार-
[ ७० ]
तीय सेना मे साधारण अफसर नियुक्त किए गए। बिगत महायुद्ध में आपने स्वेज नहर पर मिस्र मे कार्य किया था। सन १९१३ मे मेसोपोटामिया में सैनिक-कार्य किया। युद्ध की समाप्ति तक वही पर रहे।

सन १९२७ में इम्पीरियल डिफसे काॅलेज से परिक्षा पास की और सन् १९२९-३० मे आपको प्रथम पंजाब रेजिमेंट की प्रथम बटालियन का सचालन कार्य सौपा गया। सन् १९३० मे आप स्टाफ कालिज क्वेटा में शिक्षक हो गए। सन् १९३३ से १९३६ तक पेशावर ब्रिगेड का संचालन किया। सन् १९३६ में जनरल औकिनलैक के जनरल स्टाफ का डिपुटी चीफ नियुक्त किया गया। बाद में जनरल स्टाफ के चीफ के पद पर भी कार्य किया। भारतीय सेना के प्रतिनिधि के रूप मे आपको चैटफील्ड कमिशन का सदस्य नियुक्त किया गया था। सन् १९३६ मे कुछ समय के लिये आपको मेरी डिवीजन में जनरल आफीसर कमाडिंग् का कार्य सौपा गया। यही से आपको इँगलैण्ड में सेना के संगठन के लिए आमंत्रित किया गया।

सन १९४१ मे आपको भारत का प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया।

जून १९४२ में लीबिया में तुबरुक का मोर्चा जनरल रिची के हाथ से निकाल जाने और अँगरेज़ी सेनाओं द्वारा सोलम, कपुज्ज़े, हलफाया और

सिद्दीबरानी ख़ाली करके पीछे हट जाने के बाद इस रण-क्षेत्र का सैन्य-संचालन जनरल औकिनलैक ने अपने हाथ मे ले लिया। आपने अपना नया मोर्चा पीछे हटकर सिकन्दरिया से सत्तर मील पश्चिम मे लगाया है, जहाँ शुरू में जर्मनो ने बड़ी तेज़ी दिखाई थी, और ऐसा दिखाई देने लगा था कि वह मिस्र को शीघ्र ले लेंगे। किन्तु आप बड़ी रण-चातुरी औल वीरता से अपनी सेना को वहाँ लड़ा रहे हैं। लड़ाई इस रणक्षेत्र पर आजकल घमासान की हो रही हे।