जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२२. पार्वती महेस खंड

[ ७९ ](२२) पार्वती महेश खंड । ततखन पहुँचे आाइ महेसू । बाहन वैल, कुस्टि कर भेस । काथरि का हड़ावरि बाँधे। मुंड माल गौ हत्या काँधे सेसनाग जाके कंठमाला। तनु भभूति, हस्ती कर छाला । पहुँची रु द्रकरौल के गटा। ससि माथे नौ सुरसरि जटा ।॥ चूँवर घंट ऑौ कुंवरू हाथा। गौरा पारबती धनि साथा । श्री हनुवंत वीर सँग आावा । धरे भेस बौंदर जस छावा ॥ अवतहि कहेन्हि न लावह मागी। तेहि के सपथ जरहु जेहि लागी । की तप करै न पारेह, की रे नसाएहु जोग है । जियत जीउ कस काढ़ह ? कहह स। मोहि बियोग कहेसि मोहि बातन्ह बिलमावा। हत्या केरि न डर तोहि आावा ॥ जरें देहदुख जरी अपारा। निस्तर एक ॥ , पाई जानें बारा जस भरथरी लागि पिंगला । मो कहें पदमावति सिंघला ॥ मैं पुनि तजाराज औ भोगू । सुनि स नावें लीन्ह तप जोगू । एहि मढ़ सेएॐ आइ निरासा। न आसा गइ सो पूजि, मन पूजि ॥ मैं यह जिउ डाहे पर दाधा । आाधा निकसि रहा, घट आाधा जा अधजर बिलब न लावा सो 1 करत बिलंब बहुत दुख पावा । एतना बोल कहत मुखउठी बिरह के अगि। जो महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि ॥ २ । पारबती मन उपना चाऊ । देखाँ कुंवर केर सत भाऊ । ओोहि एहि बीच कि पेमहि पूजा। तन मन एक कि मारग दूजा ॥ भइ सुरूप जानफ्रे अपछरा। बिहंसि कुंवर कर अचर धरा ॥ सुनह कुंवर मोसों ” एक बाता। जस मोहि रंग न औौरहि राता ॥ श्र विध दीन्ह रूप है तोकाँ । उठा सो सबद जाइ सिवलोका ॥ तब तोपह” , पाई हों इंद्र पठाई । गइ पदमिनिमैं मरी ॥ अब तजुजरन, मरन, तप जोगू । मोसों मान जनम भरि भोगू । (१) कुस्टि = कुष्टी, कोढ़ी । हड़ावरि= अस्थि की माला । हत्या = मत्य , काल ? रुद्रवल = रुद्राक्ष । गटा = गट्टा, गोल दाना। (२) निस्तर निस्तार, छुटकारा। (३) मोहि एहि बीच .नजा = उसमें (पा वती ) और रह गया है वह और मेंइसमें कुछ अंतर कि अंतर प्रेम से भर गया है दोनों अभिन्न हो गए हैं।(४) राता = ललित, सुंदर। तोकाँ = तुमको ( = तोकतं। १६ [ ८० ]८ o हीं छरी कविलास के जेहि सरि पूज न कोइ । मोहि तजि संवरि जो श्रोहि मरसि, कौन लाभ तेहि होइ ? ॥ ३ ॥ भलेहि रंग अछरी तोर राता । मोहि दूसरे सर्दी भाव न बाता ॥ मोहि मोहि मुंवरि मुए तस लाहा । नैन जो देखसि पूछ िकाहा । मुबह ताहि जिउ देइ न पावा । तोहि आस ग्री टाहि मनावा ॥ जों जिउ देइहों ओोहि के आासा । न जानौं काह होइ कविलासा ॥ हौं कबिलास काह ले करऊँ। सोइ कबिलास लागि जेहि मर॥ श्रोहि के बार जीउ नहि बातें । सिर उतारि नेवछावरि सार्जे ॥ ताकर चाह कहै जो आाई। दोउ जगत तेहि देहूँ बड़ाई ॥ मोहि न मोरि किशु आासा, हीं मोहि आास करेगें । तेहि निरास पीतम कहूँजिउ न देऊँ का देहँ ? ॥ ४ ॥ गौरइ हेंसि महस स कहा । निहवें एहि बिरहानल दहा। निहत्र यह मोहि कारन तपा। परिमल पेम न छाछ पा। निही पेम पीर यह जागा। कसे कसौटी कंचन लागा ॥ बदन पियर जल डभकहि नैना। परगट दुवौ पेम के बैना । यह एहि जनम लागि श्रोहि सीझा। चहै न अरहि, मोही रीझा ॥ देवन्ह के पोता। तुम्हारी सरन राम रन जीता ॥ एहू कहें तस मया. करे । पुरवहु आास कि हत्या लेहू ॥ हत्या दुइ के चढ़ाए काँधे बह अपराध । तीसर यह लेउ माथेजौ लेने के साध ॥ ५ ॥ सुनि के महादेव के भाखा। सिद्धि पुरुष राजे मन लाखा ॥ सिंद्धहि भंग न बैठे माखी सिद्ध पलक नहि लावे प्रखी । सिद्धह संग होइ नहि छाया । सिद्धह होइ भूख नहिं माया । जेहि जग सिद्ध गोसाई कीन्हा। परगट गुपुत रहै को चोन्हा ? ॥ बैल चढ़ा कुटी । गिरजापति महेस् कर भसू सत ग्राह । चीन्है सोढ़ रहै जो खोजा। जस विक्रम श्री राजा भोजा ॥ जो श्रोहि तंत सत्त स हेरा। गएड हेराड़ जो श्रोहि भा मेरा ॥ बिनू गुरु पंथ न पाइय, भूलें सो जो मेट ॥ जोगी सिद्ध होइ तबजब गोरख सकें भेंट ॥ ६ ॥ (४) तस = ऐसा (इस अर्थ में प्रायः प्रयोग मिलता है) । कविलास = स्वर्ग । बाॐ = बचाऊँ। सारी = कहें। चाह खबर । निरास = जिसे किसी की आाशा न हो, जो किसी के ग्रासरे का न हो।(५) नाले = रहता है कसे = । कसने पर लागा = प्रतीत हुआा। भकहिडबडबाते हैं, नाईं। बैना = दोनों (पीले मुख औौर गीले नेत्र) प्रेम के व बत प्रकट करते हैं । हत्या हुई दोनों कंधों पर एक एक (कवि ने शिव के कंधे पर हत्या की कल्पना क्यों की है, यह नहीं स्पष्ट होता)। (६) लाख लखा, पहचाना । मेरा = मेल, मैट । जो मेट = जो इस सिद्धांत को नहीं मानता। [ ८१ ]पार्वती महेश खंड ८१ रतनसेन गहबरा । रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा मातं पिसे जनम कित पाला। जो अस फाँद पेम गिउ घाला ? धरती सरग मिले हुत दोऊ केइ निनार के दीन्ह बिछोऊ पदिक पदारथ कर हत खोवा। हि रतनरतन तस रोवा गगन मेघ जस बरस भला। पुहमी पूरि सलिल बहि चला सायर टूट, सिखर ग पाटा। सूझ न बार पार कर्ह घाटा पौन पान होई होड़ सब गिरई। पैम के फंद कोइ जानि परई तस रोवं जस जिउ ज, गिरे रक्त नौ माँस रोथू रोवे सब रोवह सूत सूत भरि ग्राँस ॥ ७ वडि उठा संसारू। महादेव तब भएछ भयारू कहेन्हि ‘न "रोव, बहुत हैं रोवा। अब ईसर भा, दारिद खोवा जो दुख सहै होइ दुख श्रोकाँ । दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका अब मैं सिद्ध भएसि सिधि पाई। दरपन क्या छूट गइ काई कहीं बात अब हों उपदेसी। लागू थ, ज लगि चोर सेंधि नहि देई। राज केरि न मू से पेई चढ़े न जाइ बार नोहि ‘दी। परं त सेंधि सीस बल दी कहीं सो तेहि सिंहलगढ़, खंड सात चढ़ाव फिरा न कोई जियत जिउ सरग पथ देइ पाव गढ़ तस बाँक जैसि तोरि काया। पुरुष देवू औोही है छाया पाइय नाहि जूझ हटि कोन्हे । जैइ पावा तेइ चापुहि चीन्हे नौ पौरी तेहि" गढ़ मझियारा। ऑी तहें फिरहि पाँच कोटवारा दसवें दुमार गुपुत एक ताका । अगम चढ़ावबाट सुष्ठि बाँका भेदे जाई सौ वह घाटी। जो लहि भेदचहे होड़ चाँटी। गढ़ तर कुंड, सुरंग तेह माहाँ । तहें वह पंथ कहीं तौहि पा। चोर बैठ जस संधि संवारी। जमा पैत जस लाब जुटागे जस मरजिया समुद बैंसहाथ नाव तब सीप ढ़ि लेइ जो सरग दुारी, चड़े सो सिंघलदीप दसवें दुधार ताल के लेखा। उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा जाइ स तहाँ साँस मन बंधो। जस चैंसि लीन्ह कान्ह कालिंदी (७) गहबरा बबराया पदिक = ताबीज, जंतर पाटा = (पानी से) पट गया। (८) मयारू =मया करनेवालादयाई ईसर ऐश्वर्या आकाँ उसको (ोकाँ नोकझं। मूर्स पेई = मूसने पाता चढ़े न दी = कूदकर चढ़ने से उस द्वार तक नहीं जा सकता। () ताका उसका। जो लहि ‘चाँटी = जो गुरु से भेद पाकर चींटी के समान धीरे धीरे (योगियों के पिपीलिका मार्ग से ) चढ़ता है । पैंत = दाँव । (१०) ताल के लेखा ताड़ के समान (चा) [ ८२ ]

तू मन नाथु मारि के साँसा। जो पै मरहि अबहिं करु नासा॥
परगट लोकचार कहु॒ बाता। गुपुत लाउ मन जासों राता॥
'हौं हौं' कहत सबै मति खोई। जौं तू नाहिं आहि सब कोई॥
जियतहि जुरै मरै एक वारा। पुनि का मीचु, को मारै पारा॥
आपुहि गुरु सो आपुहि चेला। आपुहि सब औ आपु अकेला॥
आपुहि मीच जियन पुनि, आपुहि तन मन सोइ!
आपुहि आपु करै जो चाहै, कहाँ सो दूसर कोइ?॥१०॥


 

लोकचार = लोकाचार की। जुरै = जुट जाय।