जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२१. राजा रत्नसेन सती खंड

[ ७६ ](२१) राजा रत्नसेन सती खंड क बसंत पदमावति गई । राजहि तव बसंत सुधि भई ॥ जो जागा न वसंत न वारी। ना वह खेल, न खेलनहारी ॥ ना वह मोहि कर रूस हाई। गें हेराइ, पुनि दिस्टि न आई । : फल । परी , सूखी फुलवारीदोटि उकठी सब बारी ! केइ यह बमत वसंत उजारा ?। गा सो चाँद, अथवा ले'इ तारा ॥ व तेहि विनु जग भा अंधकृपा। वह सुख छाँहजरों दुख धूपा ॥ विरह दव। को जरत सिरावां ?। को पोतम स करै गे रावा ? । हि से देख तव दन खे व रा, मिलि के लि खा विोव । हाथ मों िसिर मुनि के रोचे जो नित आ स सोव ॥ १ ॥ जस विछोह जल मीन जल त काद्रि अगिनि ॥ दुहेला। मह मला चंदन तक दाग हिय परे । वह न ते (खर परजरे । जन सर ग्रागि होइ हिय लागे। व तन दागि सिघ बन दागे । जह मिरिग वनखंड तेहि ज्वाला। नौ ते जरह बैठ तेहि छाला। कित ते क लिखे जो सवा । म कह ॥ तेई क रत छिोवा जस साऊं तला। नवनिति स कशमक दला ।। भा विछोह जस दमावति । मैना मदि पो पदमति ॥ नलईि प्राइ वसंत जो हो फू लन्ह छपि रहा के भस । केहि विधि पाव भौंर होइ, कौन ग रू उपदेस ॥ २ ॥ राव रतनमाल जन मू । ज, होइ ॥ कहाँ बसंत श्र कोकिल देना। कहीं कम प्रति वेधा ने ना ॥

होइ ठाढ़तहें करारा

कहाँ सो मरति परो जो डोटो । कढ़ि लिहेसि जिउ हिये पईठो। ॥ (१) कठो = कर ऐंठ हई। अथवा = स्टस ह ा। खेवरा = खौरा ढा, चित्रित किया या लगाया हुा। (२) दत = से । जलते रजरे = रहे। अगि = निबाण । सत्र’दगे = से सर मानों उन्हों ग्निबाणों भु ल कर के बन । ा fतह शरीर में दाग गए हैं और व त में भाग लगा करती है। । कनत थक सवा जव सोया था तब वे क्षक क्यों लिखे गए; दूसरे पक्ष में जव जोव अज्ञान दशा में गर्भ में रहता लेख क्यों जाता है। तब भाग्य का लिखा है । दमावति = दमयंती । [ ७७ ]राजा रत्नसेन सती खंड ७७ कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा ? । जो सुवसंत करीलहि काहा ? पात बिछोह रूख जो फूला। सो महुआ रोवं अस भूला ॥ टप* महु ग्राँसु तस परहीं । होड़ महुआा बसंत ज्यों झरहीं । मोर बसंत सो पदमिनि बारी । जेहि बिनु भए बसंत उजारी ॥ पावा नवल बसंत पुनि बहु प्रारति बहु चोप । ऐस न जाना अंत ही पात झरहहोइ कोप ॥ ३ ॥ अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आाइ कोन्ह तोरि सेवा ॥ नापनि नाव चढ़े जो देई । सो तौ पार उतारे खेई ॥ सुफल लागि पग टेकेगें तोरा। सुआ क सेंवर भा मोरा । पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा। सो ऐसे मझधारा पाहन सेवा कहाँ पसीजा ? । जनम न प्रोद होइ जो भीजा ॥ बाउर सोड़ जो पाहन पूजा। सकत को भार लेइ सिर दूजा ।॥ काहे नहि जिय सोइ निरासा। मुए जियत मन जाकर नासा ॥ सिंघ तरेंदा जेजेइ गहा पार भए तेहि साथ । ते पे व डे बाउरे भेड़ प 9ि जिन्ह हाथ। ४ । देव कहा सुनु, बउरे राजा। देहि अगुमन मारा गाजा ॥ जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धरहरि करई' ॥ पदमावति राजा के बारी। आाइ सखिन्ह सह बदन उघारी ॥ जैस चाँद गोहने सब तारा । परेगें लाइ देखि उजियारा ॥ चमकहि दसन बीजू नाई। नैन चक्र जमकात भवाँई ॥ हौं तेहि दीप पौंग होइ परा। जिउ जम कातुि सरग लेइ धरा। बहरि न जानों दहूं का भ । दहें कविलास कि कहें आपसई ॥ अब हीं मरॉ निसाँसी, हिये न श्रावै साँस । रोगिया की को चालैबै दहि जहाँ उपास ? ॥ ५ ॥ मानहि. दोस देहूँ का का । संगी कया, मया नहि ताह ॥ हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग घायु सोई ॥ का मैं कीन्ह जो काया पोषी। दूषन मोहि, श्राप निरदोषी॥ फागु, बसंत खेलि गइ गोरी । मोहि तन लाइ बिरह के होरी ॥ ३ (३) कहाँ सो देस"लाहा ? = बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है ? कल के वन में वसंत के जाने हो से क्या ? भारति दुःख चोप चाह । (४) औोद = गोला, श्रादू तरेंरा तेरनेवाला काठ, बेड़ा । (५) गाजा =गाजवन । धरहरि = धर पकड़बचाव । गोहने = साथ या सेवा में । अपसई = गायब हो गई। निसाँसो = बेदम । को चालै = कौन चलावे । १. कुछ प्रतियों में यह पाठ है--‘जबहि आागि अपने सिर लागो । आान बुझाने कहाँ सो आागी ।' [ ७८ ]

अब अस कहाँ छार सिर मेलौं? छार जो होहुँ फाग तब खेलों॥
कित तप कोन्ह छाँड़ि कै राजू। गएउ अहार न भा सिध काजू॥
पाएउ नहिं होइ जोगी जती। अब सर चढौं जरौं जस, सती॥

आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत।
अब तन होरी घालि कै, जारि करों भसमंत॥६॥

ककनू पंखि जैस सर साजा। तस सर साजि जरा चह राजा॥
सकल देवता आइ तुलाने। दहुँ का होइ देव असथाने॥
विरह अगिति बज़्रागि असूभा। जरै सूर न बुभाए वूभा॥
तेहि के जरत जो उठे बजागी। तीनउँ लोक जरै तेहि लागी॥
अवहि की घरी सो चिनगी छूटै। जरहि पहार पहन सब फूटै॥
देवता सबे भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं॥
धरती सरग होइ सब ताता। है कोई एहि राख बिधाता॥

मुहमद चिनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ।
धनि बिरही औ धनि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ॥७॥

हनुवँत बीर लंक जेइ जारी ।परवत उहै अहा रखवारी॥
बेठि तहाँ होइ लंका ताका। छठ मास देइ उठि हाँका॥
तेहि क॑ आगि उहोौ पुनि जरा। लंका छाड़ि पलंका परा॥
जाइ तहाँ वै कहा संदेस। पारती औ जहाँ महेसू॥
जोगी आहि बियोगी कोई। तुम्हरे मंडप आागि तेइ बोई॥
जरा लंगूर सु राता उहाँ। निकसि जो भागि भएउँ करमूहाँ॥
तेहि वज्रागि जरै हों लागा। बजरंग जरतहि उठि भागा॥

रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहै आव।
गए पहार सब औटि कै, को राख गहि पाव?॥८॥


 

(६) हता = था, आया था। सर-"चिता। (७) ककनू (फा० ककनुस) एक पक्षी जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि आय पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे आग लग जाती है और वह जल जाता है। पहन = पाषाणा, पत्थर। पलंका = पलंग, चारपाई अथवा लंका के भी आगे पलंका नामक कल्पित द्वीप॥