जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२३. राजा गढ़ छेका खंड

[ ८३ ](२३) राजा गढ़ बैठेका खंड सिधि गटि का राजै जब पावा। पुनि भइ सिद्धि गनेस मनावा ॥ । जब संकर सिधि दोन्ह 1 टेका। परी हल, जोगिन्ह गढ़ का ॥ स पदमिनी देहि चढ़ो। सिंघल छंकि उ होइ मढ़ी । जस घर भरे चोर मत कोन्हा। तेहि विधि संधि चाह गढ़ दीन्हा ॥ पाँ पुत चोर जो रहै सो साँचा। परगट होइ जोउ नहि बाँचा ॥ रि पौरि गढ़ लाग केवारा श्री राजा सौं भई पुकारा ॥ जोगो नाइ । छकि गढ़ मेला। न जनों कौन देस में खेला ॥ भएछ रजायस देखौको भिखारि प्रस ढीठ । बेगि बरज तेहि प्रावटु जन दुइ पठं बसीठ ॥ १ ॥ उतरि बसोठन्ह घाड़ जोहरे। ‘को तुम जोगी, की बनिजारे ॥ भएड रजाय आगे खेलहि। गढ़ तर छड़ि अनत होइ मेलहि ॥ आत लागेह केहि के सिख दोन्हे । ग्राएहु मरे हाथ जिज लोन्हें ॥ इहाँ इंद्र प्रस राजा तपा। जबहि रिसाइ सूर डरि छपा ॥ ही बनिजार तौ बनिज साहौ। भरि बैपार लेह जो चाहौ ॥ हो जोगो तो ज ाति सों माँगों। भगति लेह, लै मारग लागो ।। इहां देवता अस” गए हारी है पतिको अहो भिखारी ॥ तुम्ह जोगो बैरागी, कहत न मानह कोहु । लेह मांगि किट भिच्छा, खेलि अनत कहूँ होढ' । २ ॥ ‘श्रा , जो भोखि हीं आाए लेई। कस न लेगें जो राजा देई ॥ पदमावति राजा के बारो । हौं जोगो ओोहि लागि भिखारी ॥ खपर लेइ बार भा माँगों । भु गुति देइ, लेइ मारग लागों ॥ सोई गुति परापति भूजा। कहाँ जाएँ अस बार न दूजा ॥ व धर इहाँ जोउ औोहि ठा। भसम होऊँ बरु तजों न नाऊँ। जस वि प्रान पिंड है छ छा। धरम लाइ कहिहीं जो पूछा ॥ तुम्ह वसोठ राजा के ऑोरा। साखो होउ एहि भोब निहोरा ॥ (१) परो हू ल = को जगह न हु प्रा। जस त पर भरे - कोन्हा = जैसे भरे घर में चोरी करने का वि वार चोर ने फिा हो लाग लगे, भिड़ गए ला वे चरता हु ा माया । रज।ढ = राजाज्ञा । (२) वे तदि = विच, जायें । स लागह = ऐसे काम में लगे । कोहु = क्रोध। (३) पाए ले ई = लेने या। हूँ। (३) भू जा = मेरे लिये भोश है। धरम लाइट धधर्म लिए हुए, सत्य थ । भोडिा : भो व के संबंध में, अथा इस तो भो ख़ को मैं माँगता हूँ। [ ८४ ]८४ जोगी बार आाव सो, जेहि भिच्छा के आास । जो निरास दिढ़ शासनकित गौने केहु पास ?” ॥ ३ ॥ सुनि बसीट मन उपनी रीसा । जौ पीसत न जाइहि पीसा । जोगी अस कॉं कहै न कोई । सो कह होई । बात जोग जो । वह बड़ राज इंद्र कर पाटा। धरती परा सरग को चाटा ? ॥ जो यह बात जाइ तहूँ चली। छूटहि अबहि हस्ति सिंघली ॥ औौ ज खुटह बच कर गोटा। विसरिहि भु ति, होइ सव रोटा। जह कह दिस्टि न जाइ पसारी। तहाँ पसारसि हाथ भिखारी ॥ आगे देखि पाँव ध, नाथा। तहाँ न हेरु ट जहें माथा । वह रानी तेहि जोग है, जाहि राज औ पार्ट्स । सुंदर जाइहि राजघर, जोगिहि बाँदर काटु ।। ४ ॥ जीं जोगी सत बाँदर काटा। ए जोग, न दूसरि बाटा ॥ औौर साधना श्रावें साधे। जोग साधना श्रापुहि दाधे सरि पहुँचाव जोगि कर सायूं। दिस्टि चाहि अगमन होई हाथ ॥ तुम्हरे जोर सिंघल के हाथी। हमरे हस्ति गुरू हैं साथी । स्ति नास्ति घोहि करत न बारा। परबत करे पाँव के छारा ॥ जोर गिरे गढ़ जावत भए। जे गढ़ गरब कर्राहि ते नए ॥ अंत क चलना कोइ न चीन्हा। जो आावा सो आापन कीन्हा ॥ जोगिहि कोइ न चाहिय, तस न मोहि रिसि लागि । जोग तंत ज्यों पानी, काह करे तेहि आगि ? ॥ ५ ॥ बसिठन्ह जाइ कही अस बाताराता ॥ । राजा सुनत कोह भा ठावह ठाँव कुंवर सब भाखे । केइ अब लीन्ह जोगकेइ राखे ? ॥ निरासा = आाशा या कामना से रहित । (४) धरती परा ’ - ‘चाटा =धरती पर पड़ा हुआा कौन स्वर्ग या नाकाश चाटता है ? कहावत है --‘रहे भूई, नौ चा बादर'। गोटा = गोला । रोटा = दबकर गधे ग्राँटे को बेली रोटी के समान । बॉदर काट = बंदर काटे, मुहाविराअर्थात् जोगी का बुरा हो, जोगी चूल्हे में जाय।(५सत = सौ । सु िपहुँचाव = बराबर या ठिकाने पहुँचा देता है। दिस्टि चाहि- हाथ = दृष्टि पहुँचने के पहले ही योगी का हाथ पहुँच जाता है। दूती यह के उस बात के उत्तर में है । "जद केह दिस्टि न जाड़ पसारी । तहाँ पसारसि हाथ भिखारी ।" चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत । नए = नम्र हुए। । १. एक हस्तलिखित प्रति में इसके ग्रागे ये चाइयाँ हैं राजा तोर हरित कर साईं । मोर जीव यह एक गोसाई ॥ करकर है जो पाँव तर बारू। तेहि उठाइ के क रै पहारू ॥ राज करत तेहि भीख मंगालैं। भीख माँग तेहि राज दिखाव l मंदिर ढfiह उठाव नए । गढ़ करि गरव खेह मिलि गए ! [ ८५ ]राजा गढ़ ठेका खंड ८५ ऑो वहीं बेगहि करो सँजोऊ। तस मारह हत्या नहिं होऊ ॥ मंत्निन्ह कहा रहौ मन बू। पति न होइ जोगिन्ह सौ जू श्रोहि मारै तो काह भिखारी। लाज हो जौं माना हारी ॥ ना भल मुएन मारै मोडू । दुवौ बात ला सम दोनू रहै देह जौ गढ़ तर मेले। जोगी कित आा बिनु खेले ? ॥ श्रा देतु जो गढ़ तरेजनि चालह यह बात । तहें जो पाहन भख करहि, नस केहिके मुख दाँत ॥ ६ ॥ गए बसोठ पुनि बहुरि न आाए। राजे कहा बहुत दिन लाए ॥ न जनों सरग बात दहें काहा। काहु न आइ कही फिरि चाहा ॥ पंख न काया, पौन न पाया। केहि बिधि मिलौं होड़ के छाया ? ॥ मुंवरि रकत नैनहि भरि चुआ। रोइ हंकारेसि माझी सूआ ॥ परी जो प्राँस रकत टो। चलीं जस बीरबहटी । के रेंग ओोहि रकत लिखि दोन्ही पाती। सुजा जो लीन्ह चोंच भइ रोती । बाँधी कंठ परा जरि काँठा। विरह क जरा जाइ कित नाठा ? मसि नैना, लिखनी बरनि, राह रोइ लिखा अकत्थ । भाखर दहैन कोइ छुट्ट, दीन्ह परेवा हत्थ : ७ औ मुख बचन जो कहा परेवा। पहिले मोरि बहुत कहि सेवा ॥ पुनि सँवार कहे अस दूजी। जो बलि दीन्ह देवतन्ह पूज ॥ सो अबहीं तुम्ह सेव न लागा। बलि जिउ रहा, न तन सो जागा ॥ भलेहि ईस हूं तुम्ह बलि दीन्हा। जहें तुम्ह तहाँ भाव बलि कीन्हा ॥ जो मयी तुम्ह कीन्ह पशु धारा। दिस्टि देखाइ बान बिष मारा । जो जाकर अस आासामुखी दुख महें ऐस न मारे दुखी ॥ नैन भिखारि न मानह सीखा। दौर लेहि मै भीखा। गमन नैनह नैन जो बेधि गए, नहि निकटें वे बान । हिये जो माखर तुम्ह लिखेते सुठि लीन्ह परान 1 ८ । ते विषबान लिखी ताई। रकत चुन भी िदुनियाई कहूँ जो श्रा । जान जो गारै रकत पसेऊ। सखी न जन दखी ।। जेहि न पीर तेहि काकरि चिंता । पौतम निवुर होटू अस निता ॥ () = समान ६ सँजोऊ । पति ८ बडाई, प्रतिष्ठा। जोगी”"खेले = योगी। (और जगह) मध्यस्थ । नाठा जाइ = नष्ट या मिटाया जाता है किया । मसि = स्याही। लिखनी , कलम = लेखनी। अकथ = अकथ्य बात । (८) सेवा कहि = विनय कहकर । सँवार = संवादहाल । बलि जिउ रहा‘जागा = जीव तो पहिले । ही बलि चढ़ गया था, (इसी से तुम्हारे थाने पर) वह शरीर न जगा । ईस = महादेव । भाव = भाता है । आासामुखी = मुख का आासरा देखनेवाला (९) जान = जानता है । [ ८६ ]८६ कासों कहीं विरह के भाषा ? । जासो कहीं होइ जरि राखा ॥ बिरह आागि तन बन बन जरे । नैन नीर सब सायर भरे ॥ पाती लिखी मुंवरि तुम्ह नावाँ। रकत लिखे नाखर भए सावाँ ॥ भाखर जरहि न काहू ङा । तब दुख देखि चला लेइ सुना अब सु2ि महँ, "छि गड़ (पाती) पेम पियारे हाथ भेंट होत दुख रोइ सूनावत जीउ जात जौ साथ ॥ & ॥ कंचन तार बाँधि गिउ पाती। लेइ गा सुआ जहाँ धनि राती ॥ जैसे कंबल सूर क नासा । नीर कंठ लहि मरत पियासा । बिसरा भोग सेज सुख बासा। जहाँ ार सब तहाँ हुलासा ॥ तौ लगि धीर सुना नहि पीऊ। सुना त घरी रहै नहि जीछ ॥ तौ लगि सुख हिय पेम न जाना। जहाँ पेम कत सुख बिसरामा ? ॥ अगर चंदन सुटि द: सरीरू। श्र भा अगिनि का कर चीरू ॥ कथा कहानी सुनि जिउ जरा। जानलें। घोउ बसंदर परा । बिरह न आायु सभा, मैल चीर, सिर रूख । पिउ पिउ करत राति दिन, जस पपिहा मुख सूख I१०। ततखन गा हीरामन आाई। मरत पियास छाँह जनु पाई भल तुम्ह, सुना ? कोन्ह है फेरा। कह कुसल अब पीतम केरा । बाट न अगम पहारा हिदय मिलान होड़ निनारा जानौ, । मरम पानि कर जान पियासा। जो जल महें ता कहूँ का नासा : । का रानी यह पूछह बाता । जिनि कोइ होइ पेम कर राता ॥ तुम्हरे लागि बियोगी। (महादेव दरसन अहा स मठ जोगी तुम्ह वसंत लेइ तहाँ सिधाई । देव पू िपुर्नि औोहि पहूँ श्राई दिस्टि बान तस मारेह, घायल तेहि । भा व दूसरि बात न बोलेंलेइ पद नाव ११ रोवं रोवं फूटे । सूतहि सूत रुहिर छूट। वे वान जो मुख नैनहि के चली रकत धारा। कंथा भीजि भए रतनारा । सूरुज वृद्धि उठा होझ ताता । श्री मजीठ टेसू बन राता बसंत बनसपतीऔौ राते सब जोगी जती ॥ रातीं । पुमि जो भीजि, भयेउ सव गेरू। औौ राते पंखि । तहें पखेरू ॥ राती सतो अगिनि सब काया। गगन मेष राते तेहि छाया । ईगुर , । मैं तुम्हार नहि रोनें पसीजा। भा पहार जौं भीजा तहाँ चकोर कोकिला, तिन्ह हिय मया पठि नैन रकत भरि आाए, तुम्ह फिरि कीन्ह न दीटिं 1 १२ ॥ सावाँ = श्याम ।() नीर कंठ लहि“पियासा = कंठ तक छछि खाली। १० पानी में रहता है फिर भी प्यासों मरता है। बसंदर वैश्वानरअग्नि बिरह = विरह से । रूख = बिना तेल का। (१२) रतनारा = लाल । नैन रकत भरि नाए = चकोर और पहाड़ी कोकिल की आंखें लाल होती हैं। [ ८७ ]राजा गढ़ ठेका खड ८७ ऐस बसंत तुमह मै खेलढ़। रकत कम पराए सेंदुर मेले। तुम्हू तो खेलि मंदिर महें ग्राईं । मोहि मरम पे जान गोसाईं कहेसि ज’ को बारह बारा। एकहि बार होह जरि छारा ॥ सर रचि चहा आागि जो लाई। महादेव गौरी सुधि पाई। प्राइ बुझाइ दीन्ह पथ तहाँ । मरन खेल कर मागम जहाँ । उलटा पथ पम के बारा। चढ़ सरग, जौ पड़े पतारा । अब चेंसि लीन्ह चहै तेहि आासा। पावै साँस, कि मरे निरासा ॥ पाती लिखि सो पठाईइहै सब दुख रोड़ । दहें जिउ रहै कि निस, काह रजायसु होइ । १३ कहि के सुना जो छोड़ेसि पाती । जानहु ताती दीप धवत तस । गीउ जो बाँधा कंचन तागा। राता साँव कट जरि लागा। अगिनि साँस सेंग निसरें ताती। तरुवर जरहि ताहि के पाती। रोइ रोइ सुश्रा कहै सो बाता :। रकत के ग्राँसू भएड मुख राता ॥ देख लाग सो गेरासो जर बिरह घेरा कंट जरि । कस प्रस । जरि जरि हाड़ भयड सब चुना। तहाँ मासु का रकत बिना ॥ वह तोहि लागि कया सब जारी। तपत मीन, जल देहि पवारी ॥ तोहि कारन वह जोगी, भसम कीन्ह तन दाहिए । तू प्रसि निडर निछोही, बात न पूछे ताहि 1१४। कसि ‘सुआ ! मोस * सुनु बाता। चहौं तौ आाज मिल जस राता ॥ पै सो मरम न जाना भोरा। जानै प्रीति जो मरि के जोरा ॥ हीं जानति हीं अबहीं कचा। ना वह प्रोति रंग थिर रॉचा ॥ ना वह भएउ मलयगिरि बासा। ना वह रवि होइ चढ़ा अकासा । ना वह भय भौंर कर रंगू । ना वह दीपक भएउ पतंगू । । ॥ ना वह प्रेम औौटिं एक भयऊ। ना ओोहि हिये माँग डर गयज ॥ तेहि का कहि रहब जिदरहै जो पीतम लागि । जह वह सुन लेइ चैंसि, का पानी, का अगि 1१५। पुनि धनि कनकपानि मति माँगी। उतर लिखत भीजी तन आंगी । तस कंचन कहें चहि सोहागा। जो निरमल नग होइ तौ लागा ॥ हाँ जो गइ शिव मंडप में र। तहंव कस ने गाँठ हैं जोरी I (१३) दीन्ह पथ तहाँ = वहाँ का रास्ता बताया। मरन खेल:"जहाँ = जहाँ प्राण निछावर करने का आागम है। पंथ = योगियों का अतर्मख , उलटा मार्ग विषयों की हुए ओोर स्वभावतः जाते मन का उलटा पोछे की ओर फेरकर ले जानेवाला मार्ग । () ताहि पाती हैं उस चिट्ठी से। देख कंठ जरगेरा = १४के उसकी देख, कंधु जलने लगा (तब) उसे गिरा दिया। देहि पवारी = फेंक दे । (१५) कचा कच्चा । = रेंगा गया । औौटि = पगकर। (१६) धनि = स्त्री। = । Tचा [ ८८ ]८८ भा बिसँभार देखि के नैना । सखिन्ह लाज का बोलॉ बैना ? खेलहि मिस में चंदन घाला। मऊ जागति ताँ देखें जयमाला तब, न जागा, गा तू सोई। जागे भेंट, न सोए होई अब ज सूर होइ चढ़े अकासा। जौं जिउ देइ त आाव पासा तौ लगि भुति न लेइ सबरावन सिय जब साथ कौन भरोसे अब कहीं ? जीड हाथ I१ अब जौ सूर गगन चढ़ि जावे । राहु होझ तौ ससि कहूँ पार्वे ॥ बहुतन्ह ऐस जीउ पर खेला। तू जोगी कित प्राहि अकेला बिक्रम वैसा पेम के बारा । सपनावति कm गएडं पतारा मधू पाछ धावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी राजकुंवर कंचनपुर गयऊ। मिरिगावति करें जोगी भएऊ जोग। मध मालति कर कीन्ह वियोग प्रेमावति कहें सुरपुर साधा। उ लागि अनिरुध बर बांधा - साध १२ ही रानी पदमावति, सात सरग पर बास हाथ चढ़ों में तेहिके, प्रथम अपनास II१७ हों पुति इहाँ ऐस तोहि राती। आधी भेंट पिरीतम पाती तहें जौ प्रीति निबाहै अटा। भौंर न देख केत कर काँटा होइ पतंग प्रधरन्तु गह दीया । लेखि समूद धृति होइ मरजीया रातु रंग जिमि दीपक बाती। नैन लाउ होइ सीप सेवाती पुकारु पियासा। पीठ न पानि सेवाति के नासा सारस कर जस विद्युरा जोरा। नैन होहि जस चंद चकोरा होहि चकोर दिस्टि ससि पाँहा । श्री रबि होइ कंवल दल महा। महें ऐसे होऊँ तोहि कहें, कहि तो ओोर निबाहु रोहु बेधि अरजुन होइ, जीतु दुरपदी व्ाह I१८ राजा इहां एस झा। भा जरि बिरह छार कर रा नैन लाइ सो गएंड बिमोही। भा बिन जिउ ,दीन्हेसि औोही। कहाँ बंगला सुखमन नारी । सुनि समाधि लागि गई तारी द समुद्र जैस होइ मेरा । गा हेराइ प्रस मिले न हेरा रंगति पान मिला जस होई । भापतेिं खोई रहा होइ सोई सुऐ जाइ जब देखा तासू। नैन रकत भरि झाए ग्राँसू कनक पानि - सोने का पानी!क्सिंभार = सुध ला मकु = कदाचित् । जागे में होई जागने से भेंट होता है, सोने से नहीं । (१७) अपनास = अपना नाश : (१८) निबाहै याँटा = निबाह सकता केत = केतकी । म्हूँ। ओोर निबाहू ने प्रीति को अंत तक निबाह। (१९) कूरा = र। पिंगला = दक्षिण नाड़ी। सुखमन = सुषुम्नामध्य नाड़ी हैं। मुनि समाधि = शून्य समाधि तारी = नाटक, टकटकी मह, में भर्ती [ ८९ ]राजा गढ़ का खंड ८ थे. सदा पिरीतम गाढ़ करेई । श्रोहि न भू लाइ, भूलि जिउ देई ॥ रि सजीवन आानि , श्र श्री मुख मैला नोर । गरुड़ पंख जस झा, अमृत बरसा कीर (१६ । मुना जिया अस बास जो पावा 1 लोन्हस साँस, पेट जिज आवा॥ देखेसि जागि, सुधा सिर नावा। पाती देइ मुख वचन सुनावा । गुरू क बचन नवन दुइ मेला। को न्हि सुदिस्टि, बेगु चलु चेला ।। तोहि मलि कीन्ह आप भइ केवा। हीं पठवा गुरु बीच परेवा ॥ पौन साँस तोसॉ मन लाई। जोवै मारग दिस्टि बिछाई ॥ जस तुम्ह कया कीन्ह अगिदालें। सो सब गुरु कहें भएउ आगाहू ॥ तब उदंत छाला लिखि दीन्हो। बेगि ग्राउज, चाहै सिध कीन्हा ॥ श्रावहु सामि सुलच्छना, जीउ बसे तुम्ह नाँव । नैनहि भीतर पंथ है, हिरदय भीतर ठावें ।२०॥ सुनि पदमावति के असि मया। भा बसंत उपनी नइ कया ॥ सुश्रा क बोल पौन होई लागा। उठा सोड, हनुबृत अस जागा । चाँद मिलै के दिन्हेसि आासा । सहसौ कला सूर परगासा ॥ पाति लीन्हि, लेइ सीस चढ़ावा । दीठि चकोर चंद जस पावा ॥ आास पियासा जो जेहि केरा। ज झिझकार, ओोहि सहें हेरा ॥ अब यह कौन पानि मैं पीया। भा तन पखपतंग मरि जीया ॥ उठा फलि हिरदय न समाना। कंथा टक टक बेहराना ॥ जहाँ पिरीतम ने बसहैि, यह जिउ बलि तेहि बाट ॥ वह जो बोलावे पार्टी स , हों तलें चलीं लिलाट ॥२१॥ जो पथ मिला महेसहि सेई। गएच समुंद औो हि धेसि लेई ॥ जहें वह कुंड विषम भौगाहा। जाइ परा तहें पाब न थाहा ॥ बाउर अंध पेम कर लागू । सौंहें धंसा, किछ सूझ न प्रागू ॥ लीन्हे सिधि साँसा मन मारा। गुरू मदरनाथ सारा । चेला परे न छड़हि पायू। चेला मच्छगुरू जस का ॥ जस चैंसि लीन्ह समुद मरजीया। उघरे नैनबैं। जस दीया खोजि लीन्ह सो सरगदुधाराबच जो दे जाइ उघारा । बाँक चढ़ाव सरग गढ़, चढ़ गए होइ भोर । भइ पुकार गढ़ ऊपर, चड़े सेंधि देइ चोर ।२२ गाढ़ = कठिन अवस्था । (२०) केवा = केतको । अगाहू भएउ = विदित हुमा । उदंत = (सं०) संवाद, वृतांत । छाला = पत्र से सामि = स्वामी। (२१) हनुवंत = हनुमान् के ऐसा बली। झिझकार = झिड़के। सह = सामने। बेहराना फटा । (२२) चैंसि लेई = धंसकर लेने के लिये । लागू = लाग लगन । परे = दूर । बाँक = टढा, चक्करदार । सरगदुआर = दूसरे अर्थ में । दशम द्वार ।