विषयसूची:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf

शीर्षक हिन्दी साहित्य का इतिहास
लेखक रामचंद्र शुक्ल
अनुवादक
संपादक
वर्ष १९४१
प्रकाशक काशी नागरी प्रचारिणी सभा
पता
स्रोत pdf
प्रगति शोधित
खंड
पृष्ठ
प्रकाशक विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची विषय-सूची १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ५० ५१ ४८ ४९ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ८२ ८३ ८० ८१ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९ ९० ९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९ १५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५९ १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७० १७१ १७२ १७३ १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १७९ १८० १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९४ १९५ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२९ २३० २३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५९ २६० २६१ २६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६९ २७० २७१ २७२ २७३ २७४ २७५ २७६ २७७ २७८ २७९ २८० २८१ २८२ २८३ २८४ २८५ २८६ २८७ २८८ २८९ २९० २९१ २९२ २९३ २९४ २९५ २९६ २९७ २९८ २९९ ३०० ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ ३०९ ३१० ३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ ३३२ ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३३८ ३३९ ३४० ३४१ ३४२ ३४३ ३४४ ३४५ ३४६ ३४७ ३४८ ३४९ ३५० ३५१ ३५२ ३५३ ३५४ ३५५ ३५६ ३५७ ३५८ ३५९ ३६० ३६१ ३६२ ३६३ ३६४ ३६५ ३६६ ३६७ ३६८ ३६९ ३७० ३७१ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७९ ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ ३८५ ३८६ ३८७ ३८८ ३८९ ३९० ३९१ ३९२ ३९३ ३९४ ३९५ ३९६ ३९७ ३९८ ३९९ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ ४०५ ४०६ ४०७ ४०८ ४०९ ४१० ४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६ ४१७ ४१८ ४१९ ४२० ४२१ ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२७ ४२८ ४२९ ४३० ४३१ ४३२ ४३३ ४३४ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९ ४४० ४४१ ४४२ ४४३ ४४४ ४४५ ४४६ ४४७ ४४८ ४४९ ४५० ४५१ ४५२ ४५३ ४५४ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८ ४५९ ४६० ४६१ ४६२ ४६३ ४६४ ४६५ ४६६ ४६७ ४६८ ४६९ ४७० ४७१ ४७२ ४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७९ ४८० ४८१ ४८२ ४८३ ४८४ ४८५ ४८६ ४८७ ४८८ ४८९ ४९० ४९१ ४९२ ४९३ ४९४ ४९५ ४९६ ४९७ ४९८ ४९९ ५०० ५०१ ५०२ ५०३ ५०४ ५०५ ५०६ ५०७ ५०८ ५०९ ५१० ५११ ५१२ ५१३ ५१४ ५१५ ५१६ ५१७ ५१८ ५१९ ५२० ५२१ ५२२ ५२३ ५२४ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२९ ५३० ५३१ ५३२ ५३३ ५३४ ५३५ ५३६ ५३७ ५३८ ५३९ ५४० ५४१ ५४२ ५४३ ५४४ ५४५ ५४६ ५४७ ५४८ ५४९ ५५० ५५१ ५५२ ५५३ ५५४ ५५५ ५५६ ५५७ ५५८ ५५९ ५६० ५६१ ५६२ ५६३ ५६४ ५६५ ५६६ ५६७ ५६८ ५६९ ५७० ५७१ ५७२ ५७३ ५७४ ५७५ ५७६ ५७७ ५७८ ५७९ ५८० ५८१ ५८२ ५८३ ५८४ ५८५ ५८६ ५८७ ५८८ ५८९ ५९० ५९१ ५९२ ५९३ ५९४ ५९५ ५९६ ५९७ ५९८ ५९९ ६०० ६०१ ६०२ ६०३ ६०४ ६०५ ६०६ ६०७ ६०८ ६०९ ६१० ६११ ६१२ ६१३ ६१४ ६१५ ६१६ ६१७ ६१८ ६१९ ६२० ६२१ ६२२ ६२३ ६२४ ६२५ ६२६ ६२७ ६२८ ६२९ ६३० ६३१ ६३२ ६३३ ६३४ ६३५ ६३६ ६३७ ६३८ ६३९ ६४० ६४१ ६४२ ६४३ ६४४ ६४५ ६४६ ६४७ ६४८ ६४९ ६५० ६५१ ६५२ ६५३ ६५४ ६५५ ६५६ ६५७ ६५८ ६५९ ६६० ६६१ ६६२ ६६३ ६६४ ६६५ ६६६ ६६७ ६६८ ६६९ ६७० ६७१ ६७२ ६७३ ६७४ ६७५ ६७६ ६७७ ६७८ ६७९ ६८० ६८१ ६८२ ६८३ ६८४ ६८५ ६८६ ६८७ ६८८ ६८९ ६९० ६९१ ६९२ ६९३ ६९४ ६९५ ६९६ ६९७ ६९८ ६९९ ७०० ७०१ ७०२ ७०३ ७०४ ७०५ ७०६ ७०७ ७०८ ७०९ ७१० ७११ ७१२ ७१३ ७१४ ७१५ ७१६ ७१७ ७१८ ७१९ ७२० ७२१ ७२२ ७२३ ७२४ ७२५ ७२६ ७२७ ७२८ ७२९ ७३० ७३१ ७३२ ७३३ ७३४ ७३५ ७३६ ७३७ ७३८ ७३९ ७४० ७४१ ७४२ ७४३ ७४४ ७४५ ७४६ ७४७ ७४८ ७४९ ७५० ७५१ ७५२ ७५३ ७५४ ७५५ ७५६ ७५७ ७५८ ७५९ ७६० ७६१ ७६२ ७६३ ७६४ ७६५ ७६६ ७६७ ७६८ ७६९ ७७० ७७१ ७७२ ७७३ ७७४ ७७५ ७७६ ७७७ ७७८ ७७९ ७८० ७८१

विषय-सूची

( दिए हुए अंक पृष्ठों के हैं )

जनता और साहित्य का संबंध, १; हिंदी साहित्य के इतिहास के चार काल १; इन कालों के नामकरण का तात्पर्य, १-२ ।

प्रकरण १

हिंदी-साहित्य का आविर्भाव-काल ३; प्राकृतभास हिंदी के सबसे पुराने पद्य ३ ; आदिकाल की अवधि ३ ; इस काल के आरंभ की अनिर्दिष्ट लोकप्रवृत्ति ३; 'रासो' की प्रबंध-परंपरा ३-४ ; इस काल की साहित्यिक सामग्री पर विचार ४ अपभ्रंश-परंपरा ५ ; देशी भाषा, ५


प्रकरण २

अपभ्रंश या लोक-प्रचलित काव्य-भाषा के साहित्य का आविर्भाव-काल, ६ ; इस काव्य-भाषा के विषय, ६ ; 'अपभ्रंश' शब्द की व्युत्पत्ति, ६ ; जैन ग्रंथकारों की अपभ्रंश रचनाएँ, ७ ; इनके छंद, ७; बौद्धों का वज्रयान संप्रदाय, ७ ; इसके सिद्धों की भाषा, ७, इन सिद्धों की रचना के कुछ नमूने, ९-११ ; बौद्ध धर्म का तात्रिक रूप, ११ ; संध्या भाषा, १२ ; वज्रयान संप्रदाय का प्रभाव, १२ ; इसकी महासुहं अवस्था, १३ : गोरखनाथ के नाथपंथ का मूल, १३ ; इसकी वज्रयानियों से भिन्नता, १३ ; गोरखनाथ का समय, १३-१४; नवनाथ, १५ ; मुसलमानो और भारतीय योगियों का संसर्ग, १५ ; गोरखनाथ की हठयोग-साधना, १६; नाथ संप्रदाय' के सिद्धांत, १६-१७; इनका वज्रयानियों से साम्य, १७ 'नाथपंथ' की भाषा, १८ ; इस पंथ का प्रभाव, १८ ; इसके ग्रंथ, १८ ; इन ग्रंथों के विषय १९ ; साहित्य के इतिहास में केवल भाषा के विकास की दृष्टि से इनका विचार, १९-२० ; ग्रंथकार-परिचय २१-२६ ; विद्यापति की अपभ्रंश रचनाएँ २६; अपभ्रंश कविताओं की भाषा २७ २८।

प्रकरण ३

वीरगाथा

देशभाषा-काव्यों की प्रामाणिकता मे संदेह २९ ; इन काव्यों की भाषा और छंद २९; तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति, २९-३० ; वीरगाथाओं का आविर्भाव, ३० ; इनके दो रूप, ३१ ; 'रासो' शब्द की व्युत्पत्ति, ३२ ; ग्रंथ-परिचय, ३२-३८, ग्रंथकार-परिचय, ३८-५२।

प्रकरण ४

लोकभाषा के पद्य, ५३ ; खुसरो, ५३-५६ ; विद्यापति ५७ ५६ ।

पूर्व मध्यकाल

प्रकरण १

सामान्य परिचय

इस काल की राजनीतिक और धार्मिक परिस्थिति, ६०-६२ ; भक्ति का प्रवाह, ६२ ; इसका प्रभाव ६२-६३ ; सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा, ६३ ; हिंदू-
मुसलमान दोनों के लिये एक सामान्य ‘भक्तिमार्ग' का विकास, ६३ ; इसके मूल स्रोत, ६४; नामदेव का भक्तिमार्ग, ६४; कबीर का ‘निर्गुन-पंथ', ६४;निर्गुनपथ और नाथपंथ की अंतस्साधना में भिन्नता, ६४ ; निगुणोपासना के मूल स्रोत, ६४ ; निर्गुन-पंथ का जनता पर प्रभाव ६४ ६५ ; भक्ति के विभिन्न मार्गों पर सापेक्षिक दृष्टि से विचार, ६५ ; कबीर के सामान्य भक्तिमार्ग का स्वरूप, ६५-६६ नामदेव, ६६ ; इनकी हिंदी-रचनाओ की विशेषता, ६६ ; 'इन पर नाथपंथ का प्रभाव, ६६ ; इनकी गुरु-दीक्षा, ६८; इनकी भक्ति के चमत्कार ६८; इनकी निर्गुन बानी, ६६'; इनकी भाषा, ७० ; निर्गुन ग्रंथ के मूल स्रोत, ७० ; इसके प्रवर्तक, ७० ; निर्गुण धारा की दो शाखाएँ, ७१: ज्ञानाश्रयी शाखा और उसका प्रभाव, ७१ ; प्रेममार्गी सूफी शाखा का स्वरूप, ७१-७२ ; सूफी कहानियों का आधार, ७२ ; कवि ईश्वरदास की ‘सत्यवती : कथा ७२-७४, सूफियों के प्रेम-प्रबंधों की विशेषताएँ, ७४ ; कबीर के रहस्यवाद की सूफी रहस्यवाद से भिन्नता, ७४; सूफी कवियों की काव्य भाषा, ७४; सूफी रहस्यवाद में भारतीय साधनात्मक रहस्यवाद का समावेश, ७४ ।

प्रकरण २

निर्गुण धारा

कवि-परिचय, ७५-६१; निर्गुणमार्गी संत कवियो पर समष्टि रूप से विचार, ६२-६३ ।

प्रकरण ३

कवि-परिचय, ६४-१६०; सूफी कवियों की कबीर से भिन्नता, १०१; प्रेम गाथा-परंपरा की समाप्ति, ११५; सूफी आख्यान-काव्य का हिंदू कवि, ११५ ।।

प्रकरण ४

सगुण धारा

अद्वैतवाद के विविध-स्वरूप, ११६; वैष्णव श्रीसंप्रदाय, ११६; रामानंद का समय ११६-११७; इनकी गुरु-परंपरा, ११७-११८, इनकी उपासना-पद्धति, ११; इनकी उदारता, १२-११६: इनके शिष्य, ११६; इनके ग्रंथ, ११६; इनके वृत्त के संबध से प्रवाद, १२०; इन प्रवादों-पर विचार, १२०-१२४; कवि-परिचय, १२४-९५०; हनुमान जी की उपासना के ग्रंथ, १५०-१५१; रामभत्ति काव्य-धारा की सबसे बड़ी विशेषता, १५ १; भक्ति के पूर्ण स्वरूप का विकास, १५१-५२; रामभक्ति की श्रृगारी भावना, १५२-५४ ।

प्रकरण ५

वैष्णवधर्म आंदोलन के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य, १५५; इनका दार्शनिक सिद्धांत, १५५; इनकी प्रेम-साधना, १५६; इनके अनुसार जीव के तीन भेद, ३६६; इनके समय की राजनीतिक और धार्मिक परिस्थिति, १५६-५७, इनके ग्रंथ, १५७; वल्लभ-संप्रदाय की उपासना-पद्धति का स्वरूप, १५७; कृष्णभक्ति काव्य का स्वरूप, १५८; वैष्णव धर्म का साप्रदायिक स्वरूप, १५८; देश की भक्ति-भावना पर सूफियों का प्रभाव, १५९, कवि-परिचय, १५९-१९५; 'अष्टछाप' की प्रतिष्ठा, ६६३-१६४; कृष्णभक्ति-परंपरा के श्रीकृष्ण, १६४; कृष्णचरित कविता का रूप, १६४-१६५ ।

प्रकरण ६

भक्तिकाव्य-प्रवाह उमड़ने का मूल कारण, १६६ ; पठान शासको का भारतीय साहित्य एव संस्कृति पर प्रभाव, १६६-१६७; कवि परिचय, १६८-२३०; सूफी रचनाओं के अतिरिक्त भक्तिकाल के अन्य आख्यान-काव्य, २३०-२३१ ।

उत्तर मध्यकाल

प्रकरण १

सामान्य परिचय

रीतिकाल के पूर्ववर्ती लक्षण-ग्रंथ, २३२; रीति परंपरा का आरंभ, २३२; रीति-ग्रंथों के आधार, २३३; इनकी अखंड परंपरा का प्रारंभ, २३३; संस्कृत रीति-ग्रंथों से इनकी भिन्नता, २३३; इस भिन्नता का परिणाम, २३३; लक्षण ग्रंथकारों के आचार्यत्व पर विचार, २३४; इन ग्रंथों के आधार, २३४; शास्त्रीय दृष्टि से इनकी विवेचना, २३४-२३६; रीति-ग्रंथकार कवि और उनका उद्देश्य, २३६-३७; इनकी कृतियों की विशेषताएँ, २३७; साहित्य-विकास पर रीति-परंपरा का प्रभाव, २३७; रीति ग्रंथों की भाषा, २३७-४०; रीति-कवियों के छंद और रस, २४१।

प्रकरण २

रीति ग्रंथकार कवि-परिचय, २-

प्रकरण ३

इनके काव्य के स्वरूप और विषय, ३२२; रीति ग्रंथकारों से इनकी भिन्नता ३२२; इनकी विशेषताएँ, ३२२; इनके ६ प्रधान वर्ग-१-१ ) श्रृंगारी कवि, ३२२; ( २ ) कथा-प्रबंधकार, ३२२-३२३; (३ ) वर्णनात्मक प्रबंधकार ३२३; (४) सूक्तिकार, ३२३-२४; (५) ज्ञानोपदेशक पद्यकार, ३३४; (६) भक्त कवि, ३२४, वीररस की फुटकल कविताएँ, ३२४-२५; इस काल का गद्य साहित्य, ३२५, कवि-परिचय, ५-

(संवत् १९००-१९८० )

गद्य खंड

'प्रकरण १

गद्य का विकास

आधुनिक काल के पूर्व गद्य की अवस्था

( ब्रजभाषा-गद्य)

गोरखपंथी ग्रथों की भाषा का स्वरूप ४०३-०४; कृष्ण-भक्ति शाखा के गद्यग्रंथों की भाषा का स्वरूप, ४०४-०५; नाभादास के गद्य का नमूना, ४०५; उन्नीसवीं शताब्दी मे और उसके पूर्व लिखे गए अन्य गद्य ग्रंथ, ४०५-०६; इन ग्रंथों की भाषा पर विचार, ४:६; काव्यों की टीकाओं के गद्य का स्वरूप, ४०६-०७ ।।

शिष्ट समुदाय में खड़ी बोली के व्यवहार का आरंभ, ४०७; फारसी-मिश्रित खड़ी बोली या रेखता में शायरी, ४०८; उर्दू-साहित्य का आरंभ, ४०८; खड़ीबोली के स्वाभाविक देशी रूप का प्रसार, ४०८; खड़ी बोली के अस्तित्व और उसकी उत्पत्ति के सबंध में भ्रम, ४०८; इस भ्रम का कारण, ४०८; अपभ्रंश काव्य-परपरा में खड़ी बोली के प्राचीन रूप की झलक, ४०६; संत कवियों की बानी की खड़ी बोली, ४०६; गंग कवि के गद्य-ग्रंथ में उसका रूप, ४०६-१०; इस बोली का पहला ग्रंथकार, ४१०-११; पंडित' दौलतराम के अनुवाद-ग्रंथ में इसका रूप, ४११-१२; ‘मडोवर का वर्णन' में इसका रूप,४१२; इसके प्राचीन कथित साहित्य का अनुमान,४१२; व्यवहार के शिष्ट-भाषा रूप में इसका ग्रहण, ४१३. इसने स्वभाविक रूप का मुसलमानी दरबारको रूप-उद्-से भिन्नता, १५३; गद्य साहित्य में इसके प्रादुर्भाव और व्यापकता का कारण, ४१३-१४; जान गिल क्राइस्ट द्वारा इस स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति, ४१४; गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले चार प्रमुख लेखक,-(१) मुंशी सदासुख लाल और उनकी भाषा, ४१४-१६; (२) ईशा अल्ला खां और उनकी भाषा, ४१६-१६; (३) लल्लूलाल और उनकी भाषा, ४१६-२१; सदासुख लाल की भाषा में इनकी भाषा की भिन्नता, ४२०; (४) सदल मिश्र और उनकी भाषा, ४२१• २२; लल्लूलाल की भाषा से इनकी भाषा की भिन्नता, ४२२; इन चारो लेखकों की भाषा का सापेक्षिक महत्व, ४२१; हिंदी में गद्य-साहित्य-परंपरा का प्रारंभ, ४२२; इस गद्य के प्रसार में ईसाइयों को योग, ४२३:-ईसाई धर्म प्रचारकों के भाषा का रूप, ४२३:२४; मिशन सोसाइटियों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की हिंदी, ४२४-२६; ब्रह्म-समाज की स्थापना, ४२६: राजा राममोहन राय के वेदांत-भाष्य अनुवाद की हिंदी, ४२७; उदंत मार्तंड' पत्र की भाषा, ४२७-२८; अँगरेजी शिक्षा-प्रसार, ४२८-२९; सं० १८६० के पूर्व की अदालती भाषा, ४२६-३०, अदालतों में हिंदी-प्रवेश और उसका निष्कासन, ४३०;, उर्दू-प्रसार के कारण, ४६०; काशी और आगरे के समाचार-पत्रों की भाषा, ४३१-३२; शिक्षा-क्रम में हिदी-प्रवेश का विरोध, ४३३; हिंन्दी-उर्दू के सम्बंध में गार्सा द तासी का मत,

प्रकरण २

हिंदी के प्रति मुसलमान अधिकारियों के भाव, ४३६; शिक्षोपयोगी हिंदी पुस्तकें, ४३७; राजा शिवप्रसाद की भाषा, ४३७-३६; राजा लक्ष्मण सिंह के अनुवाद की भाषा, ४४०: फ्रेडरिक पिंकाट का हिंदी प्रेम, ४४१; राजा शिवप्रसाद के गुटका की हिंदी, ४४२; लोकमित्र' और 'अवध-अखबार की भाषा, ४४२-४३; बाबू नवीनचद्र राय की हिंदी-सेवा, ४४३; गासो द तासी उर्दू-पक्षपात, ४४४; हिंदी गद्य-प्रसार में आर्य-समाज का योग, ४४५; ५० श्रद्धाराम की हिंदी-सेवा, ४४५-४७; हिंदी-गद्य-भाषा का स्वरूप:निर्माण, ४४७-४८},

आधुनिक गद्य साहित्य का प्रवर्तन
प्रथम उत्थान

(सं॰ १९२५-५०)

भारतेंदु का प्रभाव, ४९९; उनके पूर्ववर्ती और समकालीन लेखको से उनकी शैली की भिन्नता, ४४९; गद्य साहित्य पर उनका प्रभाव, ४४९; खड़ीबोली गद्य की प्रकृत-साहित्यिक-रूप-प्राप्ति, ४५०; भारतेंदु और उनके सहयोगियो की शैली, ४५०-५२; इनका दृष्टि-क्षेत्र और मानसिक अवस्थान, ४५२; हिंदी का आरंभिक नाट्य-साहित्य, ४५३-५४; भारतेंदु के लेख और निबंध, ४५४-५५; हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास, ४५५; इसका परवर्ती उपन्यास-साहित्य, ४५५-५६; भारतेंदु-जीवन-काल की पत्र-पत्रिकाएँ, ४५६-५९; भारतेंदु हरिश्चंद्र––४५९-६४; उनकी जगन्नाथ-यात्रा, ४५९; उनका पहला अनूदित नाटक,४५९; उनकी पत्र-पत्रिकाएँ, ४५९; उनकी 'हरिश्चंद-चंद्रिका' की भाषा, ४५९; इस 'चंद्रिका' के सहयोगी, ४६०; इसके मनोरंजक लेख, ४६०, भारतेंदु-के नाटक, ४६०-६१; इनकी विशेषताएँ, ४६१; उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा, ४६१-६२; उनके सहयोगी, ४३२; उनकी शैली के दो रूप, ४६२-६४। पं॰ प्रतापनारायण मिश्र––४६४-६८: भारतेंदु से उनकी शैली की भिन्नता, ४६५; उनका पत्र, ४६५; उनके विषय, ४६५; उनके नाटक, ४६६। पं॰ बाल कृष्ण भट्ट––४६६-६८; उनका 'हिंदी-प्रदीप', ४६६; उनकी शैली, ४६६; उनके गद्य-प्रबंध, ४६७; उनके नाटक, ४६८; पं॰ बदरीनारायण चौधरी––४६८-७२; उनकी शैली की विलक्षणता, ४६९; उनके नाटक ४६९-७०; उनकी पत्र-पत्रिकाएँ, ४७०-१; समालोचना का सूत्रपात, ४७१। लाला श्रीनिवासदास––४७२-७४; उनके नाटक, ४७२-७३; उनका उपन्यास, ४७३; ठाकुर जगमोहन सिंह––४७४-७६; उनका प्रकृति-प्रेम, ४७४; उनकी शैली की विशेषता, ४७४-७५; बाबू तोताराम––४७६-७७, उनका पत्र, ४७६; उनकी हिंदी-सेवा, ४७६; भारतेंदु के अन्य सहयोगी, ४७७-८२। हिन्दी का प्रचार कार्य––४८२-८७; इनमे बाधाएँ, ४८२; भारतेंदु और उनके सहयोगियों को उद्योग ४८२-८३; काशी-नागरी प्रचारिणी
सभा की स्थापना, ४८३; इसके सहायक और इसका उद्देश्य, ४८३; बलिया में भारतेंदु का व्याख्यान, ४८४; पं० गौरीदत्त का प्रचार-कार्य, ४८४; सभा द्वारा नागरी-उद्धार के लिये उद्योग, ४८५; सभा के साहित्यिक आयोजन, ४८५ ८७; सभा की स्थापना के बाद की चिंता और व्यग्रता, ४८७ ।

प्रकरण ३

द्वितीय उत्थान

( १९५०-७५ )

सामान्य परिचय

इस काल की चिंताएँ और आकाक्षाएँ, ४८८; इस काल के लेखकों की भाषा, ४८८-९०; इनके विषय और शैली, ४९०-९१; इस काल के नाटक, निबंध, समालोचना और जीवनचरित, ४९१-९२; नाटक-----४९३-९६; बंग भाषा से अनूदित, ४९३; अँगरेजी और संस्कृत से अनूदित, ४९३-९५; मौलिक, ४९५-९६; उपन्यास--४९६-५०१; अनूदित, ४९७-९८; मौलिक, ४९८-५०१; छोटी कहानियाँ--५०२-०५; आधुनिक कहानियों का स्वरूप-विकास, ५०२; पहली मौलिक कहानी, ५०३-०४; अन्य भावप्रधान कहानियों, ५०४; हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानी, ५०४--०५; प्रेमचंद का उदय, ५०५; निबंध-५०५-२५; इसके भेद, ५०५; इसका आधुनिक स्वरूप, ५०५; निबंध-लेखक की तत्त्वचितक या वैज्ञानिक से भिन्नती, ५०६-०७; निबंध-परंपरा का आरंभ, ५०७; दो अनूदित ग्रंथ, ५०७-०८; निबध-लेखक परिचय, ५०८-२५; समालोचना--५२५-३१; भारतीय समालोचना का उद्देश्य, ५२५-२६; योरोपीय समालोचना, ५२६-२७; हिंदी में समालोचना-साहित्य-विकास, ५२७-३१ ।

तृतीय उत्थान,

( सं० १९७१ से)

परिस्थिति-दिग्दर्शन, ५३२; लेखकों और ग्रंथकारों की बढ़ती संख्या का
परिणाम, ५३२; कुछ लोगो की अनधिकार चेष्टा, ५३२-३३; आधुनिक-भाषा का स्वरूप, ५३३; गद्य-साहित्य विविध अंगो का सक्षिप्त विवरण और उनकी प्रवृत्तियाँ, ५३३-३४---( १ ) उपन्यास-कहानी, ५३५-४२; ( २ ) छोटी कहानियाँ, ५४२-४८ ( ३ ) नाटक, ५४८-५८ ( ४ ) निबंध, ५५८-६१: ( ५ ) समालोचना और काव्य-मीमांसा, ५६२-७६ ।

आधुनिक काल

(सं० १९०० से )

प्रकरण १

पुरानी धारा

प्राचीन काव्य-परंपरा, ५७७; ब्रजभाषा काव्य परम्परा के देवियों का परिचय, ५७८-८० ; पुरानी परिपाटी से संबध रखने के साथ ही साहित्य की नैवीन गति के प्रदर्शन में योग देनेवाले कविः ५८०; भारतेंदु द्वारा भाषा-परिष्कार का कार्य, ५८०; उनके द्वारा स्थापित कवि-समाज, ५८१; उनके भक्ति-शृंगार के पद, ५८१: कवि परिचय, ५८१-८७ ।

प्रकरण २

प्रथम उत्थान

( सं० १९२९.९९०)

काव्य-धारा का क्षेत्र-विस्तार, ५८८ ; विषयों की अनेकरूपता और उनके विधानढंग में परिवर्त्तन, ५८९ : इस काल के प्रमुख कवि, ५८९.; भारतेंदु वाणी का उच्चतम स्वर, ५८९ ; उनके काव्य-विषय और विधान का ढंग, ५९०-९१ प्रतापनारायण मिश्र के पद्यात्मक निबंध, ५९१ ; बदरीनारायण चौधरी का कार्य, ५९२-९३ ; कविता में प्राकृतिक दृश्यों की संश्लिष्ट योजना, ५९४-९५; नए विषयों पर कविता, ५९६; खड़ी बोली कविता का विकास-क्रम, ५९६ ९९ ।

(.सं० १९५०-७५-)

पडित श्रीधर पाठक की कथा की सार्वभौम मार्मिकता ६००, ग्रामगीतों की मार्मिकता ६००-०१, प्रकृत स्वच्छंदतावाद का स्वरूप, ६०१-०३; हिंदी-काव्य में 'स्वच्छंदता' की प्रवृत्ति का सर्वप्रथम आभास, ६०३; इसमें अवरोध, ६०४, इस अवरोध की प्रतिक्रिया, ६०४; श्रीधर पाठक, ६०४-०७, हरिऔध, ६०७ ०९; महावीरप्रसाद द्विवेदी, ६१०-१२; द्विवेदी-मंडल के कवि, ६१२; इस मंडल के बाहर की काव्य-भूमि, ६२२ ३८।


तृतीय उत्थान

( स० १९७५ से )

सामान्य परिचय

खड़ी बोली पद्य के तीन रूप और उनका सापेक्षिक महत्त्व, ६३९; हिंदी के नए छंदों पर विचार, ६३९ ४१; काव्य के वस्तु-विधान और अभिव्यंजन-शैली में प्रकट होने वाली प्रवृत्तियाँ, ६४१-४४ खड़ी बोली में काव्यत्व का स्फुरण, ६४४-४५; वर्तमान काव्य पर काल का प्रभाव, ६४५-४६; चली आती हुई काव्य-परंपरा के अवरोध के लिये प्रतिक्रिया, ६४ ; नूतन परंपरा प्रवर्त्तक कवि, ६४७ ४९; इनकी विशेषताएँ, ६५०; इनका वास्तविक लक्ष्य, ६५०; रहस्यवाद, प्रतीकवाद और छायावाद, ६५०; हिंदी में छायावाद का स्वरूप और परिणाम, ६५०-५१; भारतीय काव्यधारा से इसका पार्थक्य, ६५१, इसकी उत्पत्ति का मूल स्रोत, ६५१-५२, ‘छायावाद' शब्द का अनेकार्थी प्रयोग ६२५-५३; 'छायावाद' के साथ ही योरप के अन्य वादों के प्रवर्त्तन की अनधिकार चेष्टा, ६५३; 'छायावाद’ की कविता का प्रभाव, ६५३ ५४, आधुनिक कविता की अन्य धाराएँ, ६५४ ६५३, स्वाभाविक स्वच्छंदता की ओर प्रवृत्त कवि, ६५६-५७, खड़ी बोली पद्य की तीन धाराएँ, ६५७ ५८, ब्रजभाषा काव्य-

२-द्विवेदीकाल में प्रवर्तित खड़ी बोली की काव्य-धारा, ६६०; छायावाद, ६६५;जयशंकर प्रसाद, ६७८; सुमित्रानंदन पंत, ६९४; सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, ७१४; महादेवी वर्मा, ७१९; अनुक्रमणिका (साहित्यकार), ७२३; अनुक्रमणिका (साहित्य), ७४३;