"भारत के प्राचीन राजवंश/२. हैहय-वंश": अवतरणों में अंतर

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[ ७८ ]२ हैहयवंश।

हैहयवंशी, जिनका दूसरा नाम कलचुरी मिलता है, चन्द्रवंशी क्षत्रिय उनके लेखों और ताजपत्रों में, उनकी उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है'मगवान विष्णु नाभिकमलसे ब्रह्मा पैदा हुआ । उससे अरिं, और भानके मेनसे 'चन्द उत्पन्न हुआ । चन्द्रके पुन पुपने सूर्यको पुनी बला) से विवाह किया, जिससे पुरूरवाने जन्म लिया । पुरूरवाके शिमें १०० से अधिक अश्वमेध यज्ञ करनेवाला, भरत हुआ, जिसका शिज कार्तवीर्य, माहिष्मती नगरी ( नर्मदा तटपर) का राजा था। पह, अपने समयमें सबसे प्रतापी राजा हुआ । इसी कार्तवीर्यसे सहय लिचुरी) वंश चलो। _ पिछले समयमें, हेहयोका राज्य, प्वेदी देश, गुजरातके कुछ माग और दक्षिण मी रहा था। कलचुरी राजा कर्णदेवने, चन्देल राजा कीर्तिवमा जेजाती (युदेलखण्ड) का राज्य और उसका प्रतिद्ध कलिंजरका किला छीन लिया था तबसे इनका सिताच 'कलिजराधिपति'हुआ । इनका दुसरा खिताब निकलिंगाधिपति' भी मिलता है । जनरल कनिंगहामका अनुमान है कि पनक या अमरावती, अन्ध या वरशोर और कलिम या राजमहेन्द्री, ये तीनों राज्य मिले निकलिम कहाता था। उन्होंने यह भी लिखा है कि विलिंग, सिलंगानाका पर्याय शब्द है। यपि हेहयाँका राज्य, पहुत प्राचीन समय से चला आता मा; परन्त अन उसका पूरा पूरा पता नहीं लगता । उन्होंने अपने नाममा स्वतन्त्र TOEp Ind, Var,II, P. (EARRIA [ ७९ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंश रावत् चलाया था, जो कैचरी संवत्झे नाम से प्रसिद्ध य । परन्तु उसके पलानेवालें राग मामा, कुछ पता नहीं गया । उक्त संतु बि० ॥ ३०६ आश्विन शुक्ल १ से प्रारम्भ हुआ और १५ वीं शताब्दी अन्त तक यह चलता रहा । इल्युरियोंके सिवाय, गुजरात ( लाट ) है। चोदुम्य, गुर्जर, सैन्ट्रक और कूटक यं राजाओंके ताम्रपत्र में भी यह सम्बत् लिबा मिठता है। । हैहयका शृलाबन्द्ध इतिहास वि० सं० १३० ३ असपासचे पिता है, और इसके पूर्वका असंभवशात् कहीं कहीं निकल जाता है । ॐ है--वि० सं० ५५० के निकट दक्षिण ( गट ) में चक्पनि अपना राज्य स्थापन किया था, इसके लिये येवूरके लेखेमें लिखी हैं कि, मुक्याने नल, मार्य, कम्त्र, राष्ट्रकूट और कलयुरियासे राज्म छना था । अहिलेके लेखमें चौंक्य राजा मंगल ( श० स० ५१३-५३२=विः कः ६४८-६६६) ॐ वृत्तान्त लिया है कि उसने अपनतलवार वलसे युद्धम क.चुरियोंकी भी छीन ली । यद्यपि इस छपमें कलचुरि निका नाम नहीं है, पान्तु महाके स्तम्भ पर लै बरका नाम बुद्ध और नरके ताब उसके पिता का नाम शकगण लिखी है। सखेड़ा ( गुजरात ) ॐ शासनपर्नमें नो, पल्लपति ( भङ) निरहुड्के रौनापति शालिका दिया हुअा है, शङ्करमणके पिता का नाम कृष्णराज मिर्ज़ा है । बुद्धराज और शगया के राजा थे, इन्की राजधानी जबलपुरकी तेवर (त्रिपु), और गुजरातका पूर्वी हि मी इनके हैं। अधीन था । अतएत्र सबैङ्का ताम्रपत्रका शहाण, वैदीका ज्ञा शङ्का ही या। । (1) lol, Ant VoI, VIII, 1, () EP, lud VI, P 204. ( ) Lid Aot vol XIXP 16(x) Ind Ant vol VII, P 161 १५) Er Ind Pt. T F . [ ८० ]________________

हैहयदेश। चालुक्य विनयादित्यने दूसरे ई राजवंशियोंके साथ साथ हैयकों भी अपने अधीन किंया था । और चौलुक्य विक्रमादित्यने ( वि० सं० ५६५३ ० ७९०) हैंयशी इञिाकी दो वाहनोंसे विवाह किया भा, जिनमें बडीका नगि लोकमहादेध और टीका त्रैलोक्य महादेवी था जिससे कीर्तिवम १ दूसरे ) ने जन्म लिया । उपर्युक्त प्रमास सिद्ध होता हैं ।६ वि० सं० ५५० से ७९० के यीच, या ज्य, चौंक्य राज्य उत्तर में, अर्थात् चेदी और गुजरात ( झट} में था; परन्तु, उस समयका शृखलाबई इतिहास नहीं मिलता। केवल तीन नाम कृप्याराज, शङ्करगी और बुद्धराज मिलते हैं, जिनमें से अधिम राना, चौक्ष मगठीशका समकालीन था । इस लिये उसका वि० सं० ६४८ से ६६६ के बीच विमान होना स्थिर होता है । यद्यपि हैहयोंढे राज्यका वि० सं० ५५० के पूर्व का छ पता नहीं चदन्ता, परन्तु, ३०६ में उनका युवतन्न शम्बत् पाया | सिद्ध करता है कि, उस समय उनका राज्य अवश्य विशेष उन्नति | पर था। १-कोकल्लदेव । | इयों के जॉर्म कोकवदंबसे बंशावली मिलती है । बनारसके दोनपमें उसको स्रवेशा, धर्मामी, परोपकारी, दान, योगाभ्यास, तथा भोग, बल्लभराज, चिनकूट मा श्रीहर्ष और शङ्करगण निर्भय करनेवाला लिसा है। और चिल्हारीके शिलालेखमें लिखा है कि, उसने सारी को जीत, दो कीर्तिस्तम्भ खड़े किये थे-दक्षिणमें कुणाराज और उत्तरमें मौजदेव । इस डेससे प्रतीत होना है कि उपरोक्त दोनों राजा, कोकलदेव समकान ये, जिनकी, शायद उसने La Ant vol yi P 12 (?) Et, Iud i TI, T. (1) Er Ind rol ] 1.905 ( 2 ) ET Ld To Z P 320. [ ८१ ]________________

मरतकें प्राचीन राजवंश सहायता की हो । इन दोनोंसे मश, कन्नौजका भाव १ तीसरा ) होना चाहिये, जिसके समयके लेख वि० सं० ११९, ९२२, १३३, और १ हर्ष ) सं० २७६= वि० सं० ९३९) के मिल चुके हैं । वल्लमराज, दक्षिणके राष्ट्रकुट ( राठौड ) गुजा कृष्णराज ( दूसरे ) का उपनाम था । बिहाके लेखमें, कोकच्चदेवके समय दणि प्याराना होना साफ साफ लिखा है, इसलिये इमरज, यह भाम राठोड कृष्णराज दूसरेके वास्ते होना चाहिये जिसके समके लेल श० हैं ० १८९७ १ वि० स० १३३ }, २५ ( वि० १५७), २४ (विं० १५६) और ८३३( चि ९६८) के मिले हैं। राठोडे।के लेसोंसे पाया जश्ता है कि, इसका विवाह, चेदीके जि। कोकड़की पुत्रींसे हुगा था, जो सकुक्ककी छोबहिन थीं। चिड, जोजाहुति ( बुन्देलखण्ड़ ) में प्रसिद्ध स्पान है, इसलिये श्रीहर्ष, महोवाका चन्देल राजा, हर्ष होना चाहिये जिसके पौत्र धगदेव समयके, वि० सं० १९११ और १०५५६ लेस मिले हैं। शङ्करगण कहाँको राजा था, इसका कुछ पता नहीं गलत । कोहके एक उनका नाम इरिगा था, परन्तु उसका संबध इस थानपर ठीक नहीं 'प्रतीत होता । । उपर्युक्त प्रमाणके आधार पर कछवा राज्यरामप वि.सं. १३० से ९६० के बीच अनुमान किया जा सकता है। इसके १८ पुन ३, जिनमेसे बड़ा ( मुग्धतुग ) त्रिपुरा राना भी, और दूसरों को अग अग महल (जार) निले' । फोकसकी स्वीका नाम नरदेवी या, जो चन्देलवश धी । इसे धन ( मुग्यहैं ) का जन्म । नट्टादेयी, अन्दै हुर्षी मदिंन या बेटी हो, तो आर्य नहीं । | कोई पीछे उरका पुन मुग्धतुंग उसका उराधिकारी दुगा । { {१} EP Iad Fol J, ", ५५ । ३॥ [ ८२ ]________________

हैयचंश। | २-मुग्धतुंग । बिल्हारीके लेख में लिखा है कि, कोकङ्घके पीछे उसका पुत्र मुग्घतुग और उसके बाद उसका पुत्र केयूरवर्ष राज्य पर बैठा, जिसका दूसरा नाम गुवन थी । परन्तु बनारसके दानपसे पाया जाता है कि फोद्धदेवका चराधिकारी उसका पुन प्रसिद्ध धवल हुए, जिसके बालहG और युवराज नामक दो पुत्र हुए; जो इसके बाव क्रमशः गद्दी पर बैठे ।। | इन दोन लेखोंसें पाया जाता है कि प्रसिदभवल, मुग्घर्तुगको उपनाम था। | पूर्वोक्त बिल्हारीकै लेखमें लिखा है कि मुग्धगने पूवार्थ समुद्रतटके देश विनय किये, और कौसल राजासे पाली छीन लियो । इस फसलका आभप्राय, दक्षिण कसलसे होना चाहिये । और पाली, या तो किसी देशविमगम अथवा दिनका नाम हो, जो पाली बज कहलाना था, और बहुधा राजाओंके साथ रहता था । : प्राचीन लेसमें पाया जाता है । , इसका उत्तराधिकारी इसफा पुर बालहप हुआ । ३-४ाहर्प ।। यदि इसका नाम बिहारी लेखमें नहीं दिया है। परन्तु बनारसके नामपनसे इसका राज्मपर बेठमा पिष्ट प्रतीत होता है । चाम | उन्नराधिकारी उसका छोटा भाई युवरागत हुआ ।। ४-केयूरवर्प। युवराजदेव ।। इसको दूसरा नाम युवराजदैव पा । बिहटाके लेपमें, इसका गौड़, (१) Fip Ind vol 1, 2, 257 (३) Ep Ind vol Ir, 307, (३) E; Ind vs 1. F 25 [ ८३ ]________________

भारतकै मात्रीन राजवंश फर्णाट, लाट, फार्मर र लिंगकी स्त्रियांचे विलास करनेवाला, तया” बने देश विनय करनेवाला, लिखा है । परन्तु विजित देश या राजा का नाम नहीं डिपा है । अतएव इसकी विजयवार्ताक्षर पूरा पचान नहीं हो सकंचा। केयूरवर्य र चन्देलराजा यशोवर्मा, समकान थे । खजुराहो के लेखसे पाया जाता है कि, यशोपर्माने असंख्य सैनाबाले देके राजाको युद्ध परास्त किया था। अतएव केयुरयर्षका यशोदम से हारना संभव है। | इसकी रानीका नाम नहला या । उसने चिल्हारी नहलेवर नामक विका मंदिर बनवाया, और घटपाटक, पोप( बिहारीमै ४ मछ) नागवल, खेलपाट (सैलवार, विहारीसे ६ मील) वौद्दा, कज्जाहालें और गानुपाड़ी गाँव के ऊर्पण क्ष्येि । तया पधनावि प्राध्य और दशि शिंप्स, ईववि नामक तपस्व निपानिय र दिपटक, दो गाँव दिने । यह शैवमतका सानु चा; शायद इसको नौलेयरकी मठाधिपते किया हो । योहला चौलुक्य अवर्नतश्नईः पुत्री, सपन्बी पोनी और सिंहकी परपोती थी । इसकी पुत्री कंडक देवीका विवाह दुझिग राष्ट्रकूट (पटो) राजा अमोघवर्षे तीसरे (वहिंग ) चे हुआ या, जिसने . वि० सं० १९६ र ५९ के बीच कुछ समय से राज्य किया था। और जिससे दामका जन्म हुमा । केपूरर्पके नौहट्टाको लक्ष्मण मामक पुत्र हुआ, जो सफा नराधिकारी मा ।।। ५-लक्ष्म ण । इसने बिनाप मड़ पर दयविको जर नोयरकै मई पर इसके दिव्य अपराशर को निपतु किपा । इन साकी शिष्यपरंपरा वि [ ८४ ]________________

यचेश। के लेसमें इस तरह दी है-इममुह यममें, रुद्रशभु नामक तपरती रहता था। उसका शिष्य मत्तमयुनाय, अञ्चन्ती राजाके नगर में जा रहा । उसके पीछे क्रमश: धर्मशशु, सदाशिव मामय, यूशिव, हृदयशिव और अघोरशिव हुए। | पहारीकै छेसमें लिखा है कि, वह अपनी और अपने सार्मतोकी सेना सहित, पश्चिमी विजयधीनामें, शत्रुको जीतता हुआ समुद्र तट पर पहुँची । वहाँ पर उसने समुद्रमें स्नान सुवर्णकै कमलों सोश्वर ( मनाय सौराष्ट्र दक्षिणी समुद्र तटपर) का पूजन किया, और कोलके राजाको जीत, ओड़के राजा से ही हुई, नत सुय की बनी कालिय (नाम) की मुति, हाथी, घोडे, अच् पोशाक, माला गार चन्दन आदि सगेवर { सोमनाथ ) के अर्पण थे । | इसकी रानी का नाम राहा था। तया इसकी पुनीं मेंथा देवीका विवाह, दक्षिणके चालुक्य ( पाश्चम ) राजा विक्मादित्य चोथैसे हु था, निराके पुन तेलपने, राठोड राजा अक्कल ( क दुसरे ) से राज्य छन, वि स ६ १०३० से १८५४ तक राज्य किया था, और मालवीके राजा मज ( चापानराज़ ) ( भनके पिता सिके बड़े | माई ) ने मारा था। इमाने बिल्ड्रामें मसागर नाक चा - तालाब बनवाया। सच भी वहाँकै एक सहरको लोग रोजा लक्ष्मणके महुल बताते हैं । इमके दो पुत्र शकरगण और युवराजदेव हुए, जो कमरा गईं। पर है। | ६-कगण ।। यह अपने पिता लक्ष्मणका ज्वा पुत्र और उत्तराधिकारी था । इसका ऐतिहासिक वृत्तान्त अग तक नहीं मिली । इसके छे इसका छोटा भाई सबरजिवेब ( दूसरा ) गद्दी पर बड़ा । ()) Ep Ind Vol. 1 1 29773) Ep Tad, Vol II-60 | (१)] A B F०] 1 1 115 ४३ [ ८५ ]________________

मारत प्राचीन राजधश ७ युवराजदेव ( दूसरा)। येऊ ( जबलपुरके निकट ) मैं मिले हुए हैंउने तिी है केि इसने अन्य राजाओंङ्गो जीत, उनसे छीनी हुई रुम समिधर ( सोमनाय} के अर्पण का वी था। इयपुर ( नालियर राज्यम) के क्षेत्रमें लिखा है कि, परमार पना यापासैरान (मुज़ ) ने, युबराजको जीत, उसके सेम्पतिको मारा, और त्रिपुरी पर अपनी तलवार गई । इससे प्रतीत होती है कि, बापतिंरान ( मुन्न }३ युवरानदंबसें त्रिपुरा अन ली हो, अपवा उसे कुर झिया हो । परन्तु यह तो निश्चित है कि बिंदु पर बहुत समय पी सेक कलचुरियाका राज्य रहा या । इस लिये, ३ वह नगरी यारों हायमें गई गी, तो झांधिक समय तक उनके पास न रहने पाई होगी। वाक्पतिराज ( मुन) के लेख वि स १०३१ और १०३६ के मिले हैं, और वि. स. १०५१ र १०५४ के चीच किस वर्ष इसका मारा जाना निश्चित है, इस छिये उपर्युक्त पटना वि० १०५४ के पूर्व हुई हो । ८-कोमल १ दूसरा }! | यह युवराजदेव ( दुखरा ) को पुत्र और उदाधिकारी या । इसका विशेष कुछ मी गृत्तान्त नहीं मिला है। इसका पुन नागेयदेव घडा प्रतापी हुमा ।। १-गांगेय दृश् । | यह कोक्काल ( दूसरे ) का पुत्र और उत्तराधिकारी या 1 इसके (1) Ind Ant Val XYILD 910 ) Ep Tad Vol I, 235 ) भन्न [ ८६ ]________________

हैहय-चैन । सोने चौथीं और ताँबेके सिंॐ मिलते हैं, निनकी एक तरफ़, बेठा हुई चतुर्भुनी मी मूर्ति बना है और दूसरी तरफ, 'श्रीमागेयदेवः' लिखा है। इस राजा पीछे, कन्नौजकै राठौड़ने, मचाई चैदेने, शहउद्दीनगोराने और कुमारपाल अजयदेब आदि जाने जो सिके अलाए, वे बहुधा इस शैलीके हैं। गागेयाने विमादित्य नाम धारण किया था ) कलचरियोकै लेखों में इसकी वीरताकी जो, बहुत कुछ प्रशंसा की है वह, हमारे व्याल में यथार्थ ही होगी, क्यमहोवासे मिले हुए, चंदेके देसमें इसको, समस्त जगतका जीतनेवाला लिया है, ता उसी लेमें चंदेल राजा विजयपालकी, गायदेवका गर्व मिटानेपा लिंखा है। इससे प्रकट होता है कि विजयपाल और गागेपदेयके वीच युद्ध हुआ था । इराने प्रयाग, प्रसिद्ध यटके नीचे, रहना पसन्द किया था, वहीं पर इसका देहान्त हुआ। एक सौ रानियों इसके पीछे सजी हुई। अवेरूनी, ई. सु. १०३० (वि० सं० १९८७) में गमको, हाल ( चैदी ) का राजा सिरार है । उसके समर्थका एक लेख कुलदुरी सं०७८६ (वि० सं० १०९४) को मिला है। और उसके पुत्र कवका एक तपन छलेची सं० ७९३ ( वि० सं० १ ०९९) का मिला है, जिसमें लिखा है कि कर्णदेवने, बेशी ( देनगया } नदीमें स्नान कुर, फाल्गुनकृष्ण ३ के दिन अपने पिता श्रीमद्गगेयदेवळे बदसश्राद्धपः, पण्डित विश्वरूपी सुप्त व दियः । अतएव गायब देहान्त दि० सं० १०९४ र १०९९ के बीच किस पर्प फागुनकम्य ६झा होना चाहिये और १०९९ फाल्गुनकुष्य ३ ३ दिन, उस देहान्त हुए, कम से कम एक वर्ष हो चुका था। (१) p Ind Fol I " 5 ( ३) Ep Ind vol 1 [ ८७ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंश शायद गेयदेदके समय होयका राज्य, अधिक बढ़ गया है, और प्रयाग मी उनके राज्यमें आगया है । प्रभन्धचितामणिमें गायदेवके पुत्र कर्ण काशीका राजा लिया है। १६-कर्णदेव ।। यह म[गेयदेवका उत्तराधिकारी हुआ । वीर होने के कारण इसने अनेक लड़ाइयाँ सडाँ। इसने अपने सम पर कर्णावती नगरी बसर । जनरल कनिङ्गहमके मतानुसार इस नगरी मनाथशेप मध्यप्रदेशा कातलाईके पास है। काशका कमेरु नामक मन्दिर भी इसन बनवाया था । भेडाघाटके लेख बारहवें श्लोमें उसकी वीरताको इस प्रकार वर्णन है.--- पाण्यदहमताम्मच मुरलस्तत्यानगर्ने ग्रह, { } इ सतिन्दराजगाम घ' बघ्नः परिई सद् ! कर खदासपनर हूण | प्रप नही, पमित्राननि शौर्सयमभर निघ्यपूर्वप्रभे ॥ अर्थात् र्णदेवके प्रताप और विक्रम सामने पाण्ड्य देके राजाने उता छोड़ दी, मुरलीन गर्न ई दिया, कुइँने स छाछ प्रह ६, बड़े और कलिङ्ग देशबाटे कप गये, कारवालें पिके तोते की तर चुपचाप बैठ रहे और हूने हर्ष मनाना शह दिया। विक दंपर्ने तिचा है कि, चॉइ, फुग, ण, गड, गुर्जर, अर करके राना उसी सेवामें रहा करते थे । () Ep Yad Ya II, II, ( 3 ) Real TKI (1) Kal गम् । (५) FRead इण : पे ।(५) fnt, Aut, Pl, viri, 21i. १६ [ ८८ ]________________

यद्यपि हिंसित इन अतिशयोकेमू अघश्य हे; तथापि यह तो निविद् ही है कि कर्ण बड़ा वीर था और उसने अनेक युद्ध में विजय प्राप्त थी श्री ।। | प्रबन्धचिन्ममि सदा वृत्तान्तु इस तरह लिखा है:| शुभ लग्नमें ल देशके शार्की दुमत नाम्प मनसे फर्णका जन्म हुआ । वह बढ़ा वीर और नीतिनिपुण था । १३६ राजा उसी | सेवामें रहते थे। तथा विद्यापति आई महावयासे उसर्फ सभा विभूfपित था । एक दिन दुत बार उसने जसे कहलाया--"अप नगरीमें १८१४ महल पके बनवाये हुए हैं, तथा इतने ही आपके fiत प्रचन्ध अछि ६ । और इतने में आपके खिताब भी । इलिये या । अदमें, शाखामें, अया दानमें, आप मुझको जीत कर एक सौ चित्र चिंताब धारा काजेये, नहीं तो उपको जीतकर मैं १३७ राजाओंको मालिक होऊँ ।” बलवान् फाशिराज का यह सन्देश सुन, भीनका मुसा मान हो गया । अन्तमें भेजके बहुत कहने सुनने से न के नीच यह बात ठहरी है, दोनों राजा अपने धरमें एक ही समयमें एक ही सुरके महल बनवाना प्रारम्भ करे । तथा जिसका महल पहले बन जाय वह दूसरे पर चिंकार कर ले। कने वाराणसी ( बनारसका ) में पर भेजने उर्जनमें महङ बनवाना प्रारम्भ किया । कृर्णका महल पहले तैयार हु । परन्तु भोजने पहले की हुई प्रतिज्ञा भंग कर दी । इसपर अपने सामन्तों सात करों में भोजपर चढ़ाई की । तथा भोजका आधा राज्य देने की शर्त पर गुजरतके राजाको भी साथ कर लिया। उन दोनों ने मिल कर मालवेंकी राजधानको घेर दियो । उ अबसर पर वर भोगका देहान्त हो गया। यह सच १ ते ६ फनि कि तौढ़ कर जका सारा दिनाना रूट लिया । यह वैस्य भीमने अपने संधविंयहिक मंत्री (3linister of gace nnd sre ) डारको 9 [ ८९ ]________________

भारतके प्राचीन रावश झज्ञा दी कि, या तो भीमका जाधा राज्य या दो सिर ३ ।। यह सुन कर दुइपरके समय डामर बत्तीस पैदल सिंगायों सहित कर्णक ममें पहुँचा और सोते हुए उसझे घेर लिया । तर ने एक तरफ हुवर्णमापका, नीलकण्ठ, चिन्तामणि, गणपति आदि देवता और दूसरी तरफ भोज राज्यको सुर्मा समुन्द्ध रख दी । फिर हागरसे कह * इमेसें चाहे जॉनसा एक मार्ग ले लो। यह सुन सोलह पर हाई भीमकी आज्ञासे मरने देवमूर्तिदाछा भाग के जिथः । । प्रदत्त वृत्तान्त भजपर का हमला करना, उस समय जंजर मोरकी मृत्युका होमा, तथा उसने राजधानीका कर्णद्वारा छुट्टा जान प्रकट होता हैं। | नागपुरते निकै हुए परमार राना इमई लैश भी उपरोक्त वातर्फ सत्यती मालूम होता है। उसमें हिंसा है कि मोनके मरने पर उनके राज्य पर विपत्ति छा गई थी 1 उस विपत्तिको मोजके सूटम्वी उदया दिव्यने दूर किया, तया कृणवानों से मिलें हुए राजा कर्णसे अपना अन्य पृने छीना । । उदयपुर ( ग्वारियर ) के उससे मी यही बात मकट होती है । हेमचन्द्र ने अपने बनाए साथ्य काव्य १ व समं लिखा है कि -* संधके राजाको त कुरके भने दिन कप्त पर पढ़ाई की । प्रथम भाभदैयनै अपने दादर नामक दूरी की ग़भामं भैज्ञा । इराने वहाँ पहुँच करके कई बीरताकी प्रशंसा की । और निवेदन किया कि गन्ना म यह जानना चाहता है के आर हमारे TH या शY यह सुन कर्णने उच्चर छिया-त्पुम्पाकी मैत्री हो त्रामाविक केतः ही है। इसपर भी भमके य आने वात सुनकर (!)Er Ind tol II, P, 185 () EP Icd vol I, P, 215 ३८ [ ९० ]________________

इय-यं । मै यहुत ही प्रसन्न हुआ । सुन मेरी तरफ ये हाथी, घोड़े और मोगका सुच-मण्डफिया के ज्ञाझर भीम भेट झरना साथ ही यह भी कहना कि वे मुझे अपना मित्र समझें।" परन्तु ऐमयन्द्रका लिसा उपर्युक्त वृत्तान्त सत्य मालूम नहीं होता। पर्पोकिं चैदिपरक भीमकी चंद्राईके सिवाय इा नहीं है। और प्रपन्धचिन्तामणिझी पूर्वक कृथा पफ जाहिर होता और कहीं भी जिफर है कि, जिस समय कृपने माल पर चढ़ाई की इरा उमय भीम हायतार्य युलाया था । और वहों पर हिस्सा करते समय उन दोनों यच झगडा पैदा हुआ था, परन्तु सुवर्णमण्डपका और गणपात आदि देवमूर्तियां देकर कर्णने चुलह कर डी । इसके सिवाय हेमचन्द्रने जो कुछ भी ममकी चेपिरक चदाईका तर्णन क्रिया है वह कृल्पिते ही हैं। हेमचन्द्रने गुजरातके सोलं राजाओं का महत्त्व प्रकट करनेको ऐसी ऐसी अनेक कृयाएँ लि दी हैं, जिनका अन्य प्रमाण कल्पित होना सिद्ध हो चुका है। फश्मिीरकै बिल्हण कविने अपने रचे विक्रमादेवचरित कायमै शाहलके राजा कर्णका करिके राना डिये फलिप होना रिग है। | प्रबोधचन्द्रोदय नाटकों पाया जाता है कि, चेदिके राजा झर्णन, झलिक्षरके राजा कीर्तिवर्माका राज्य न लिया था। परन्तु कीर्तिवमके | सिमेनपान गाने के अन्यको परास्त कर पीछे से कुढिंझरका सजा बना दिया। विरहणविके लेसे पाया जाता है कि पशि चालुक्य राजा सोनेश्वर ५थमने कर्णको हराया। डास्थित प्रमाणोंसे कर्णना अनेक पड़ोसी राजापर विजय प्राप्त करना सिद्ध होता है। उसकी रानी देवी पनातिकी थी। उससे यश कर्णदेनका जन्म हुआ। (१) विक्रमांकरित, स्वर्ग 1८, १३ । १६ [ ९१ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश | चेदि संवत् ७९३ ( वि० सं० १०९९ ) का एक दानपने फर्णका मिळा है ! और चे० सं० ८७४ १ वि० सं० १११९) का उसके पुत्र यशःकर्णदेयकें ।। इन दोनई बीच ७० वर्षको अन्तर होनेसे संम्भर है कि कर्णने बहुत समयलक राज्य किया होगा । उसके मरने के बाद उसके राज्यों झगड़ा पैदा हुआ । उस समय कन्नौज पर चन्द्रदेवने अधिकार कर लिंया। तसे प्रतिदिन राठौड, कलचुरियाका राज्य दबाने लगे। चन्द्रदेव वि. सं. ११५४ में विद्यमान या । अतःकर्ण का देहान्त उक्त सबके पर्व हुआ होगा। ११-यशःकर्णदेव । एसकें तान्नपत्र लिखा है कि, गोदावरी नईके समीप उसने अन्धदेशकै राजाको हराया 1 तथा बहुत से बाभूषण भीमेश्वर महादेवके अर्पण किये । इस नामके महादेवको मन्दिर गोदावरी निलेके दाम स्थानमें है। भेडापाट लेंसमें पशःकर्णका चम्पारण्पको नए करना ज़सा हैं । शायद इस घटनासे और पुत्र गोदावरी परके युद्ध एक हीतात्पर्प । | वि० सं० ११६१ के परमार राजा लश्मयने त्रिपुरी पर चढ़ाई ऊरके उसके नष्ट कर दिए । यद्यपि इस लेपमें मिपुरीके राजा का नाम नहीं दिया है; तथापि वह चड़ाई यशःपदबके ही समय हुई हो तो गाव नहीं, पौकि विध सं० ११५४ के पूर्व ही कर्णदेयका देहान्त हो चुका या और यशःफर्गदेव वि० हैं ० १ १०९, * पीड़े मक विद्यमान था। (१) Ep Ind. vol 11, 205. १) Ep Ind vol , 5. (3jED. Ind. Tol, it, f, ६. (४] Ep frid. Tul, 1.1, 11, (५) Er. Ind. pl. II. 116d, • ५८ [ ९२ ]________________

देहय-चश ! यश.के समय चैवियफ कुछ हिस्सा कन्नोजकै होहोंने दया ‘लिया था। वि० सं० ११७७ के राठोई गैबिन्द्रचन्द्र के दामपत्र लेरा हैं कि यक्षःकर्णने ज य इद्रीशबको दिया था यह व उसमें विन्दचन्दकी अनुमतिले एक पुरुषको दे दिया। चे० सं० ८७g ( वि० सं० ११७९) का एक ताम्रपत्र यशकदेयका मिला है। उसका उत्तराधिकारी उसका पुन मपकर्णधेघ हुआ । | १२पकर्णदेव ।। यह अपने पिताके पीछे गद्दे पर बैंठी । इसका विवाह मेघाहके मुहल राजी विजयसिक फुन्या आव्हसे हुआ था। यह विजयसिंह बारासंहका पुत्र और हंसपालका पौन था । आ धी माताका नाम यस्मादेषी था । यह मालवैके परमार राज उगादित्यकी पुत्र था । आहादेवाचे दो पुत्र हुए-नरसिदैव और उदयासहदेव । ये दोनों अपने पिता गयकदेबके पीछे क्रमशः गद्दी पर बैठे। | चै० हैं ० १०७ ( वि० सं० १२१२) में मरसिंहदेवके राज्य समय उसकी माता आम्हप्पदैवाने एक शिवमन्दिर बनवाया । इसमें गि, मठ और व्याख्यानशा भी थे। वह मान्दर उसने सावंशॐ ॐ सतु सदशिवको ३ विया । तथा उसके निर्वयार्थं दो गांव भी दिये। ३० ० ९.०२ ( वि० सं० १२०८ } का एक शिलाले गयकदेमका त्रिपुरीसे मिला है । मह त्रिपुरी या तेवर, जबलपुरसे ९ हल मअम है। उसके उर्वरापिकारी नरसिंहका अपम ॐख ३० सं० १०६ ( वि० ({}3 B, A, B प्रA 31. P 24, 6, 4, 6, i 19. Ind, pl. IT P 3, (३) Eg• Il, 41.P H == १४ } ind Ant Yel; *YTIT P, 18y । र , [ ९३ ]________________

भारतकै प्राचीन रवा स० १२११) का मिला है । अत यदुवा देहान्त वि० सद १२०० और १२१' के चार जना होगा । १३-नरसिंहदेव । चे० स० १,०३ (वि० सं० १२०८) के पूर्व ही यह अपने पिता युवज घनाया गया था। पुथ्वीरशिवमयं महाकाव्यमें सा है कि प्रधान द्वारा गइपर लिए जाने के पूर्व अजमेरके चोहान राजा पृथ्वीरगञ्जका पिता मोमे था विदेशमें रहता या । सोमेश्वरको उसके नाना जयसिंह ( गुजरात निद्राज जयसिंह ) ने शिक्षा दी थी । इह एक बार चाँईयन निधानी निपुरी गया, जहाँपर इसका विवाह वहाँके राजा फन्पा फर• देवीकै साथ हुआ । उसमें सोमेश्वरके दो पुत्र उत्पन्न हुए। पृथ्वीराज और हरिराज । 'अयपि उक्त महाकाव्य चैदिके राजाका नाम नहीं है, तभप सोमेश्वरके राज्याभिषेक स० १२२६ ओर देहान्त स० १२३६ को बैंकर अनुमान होता है कि शायद पूर्वोक कर्पूरी नरसिंहब पुत्री होगी 1 जनश्न ति ऐ भनिद्धि है कि, दिके आँवर वा अनङ्गःमाझी पत्नी सोमेश्वरका विवाह हुगा था । इसी कन्या पास मुथ्वीराज जन्म हुआ । तथा वह अपने नानाके यहाँ दिल्ली गई गया । परन्तु यह कथा राईथा निर्मुल हैं । क्या दिल्लीका राज्य हो सोमेश्वरसे भी पूर्व अजमेर के अधीन हो चुका था। तब एक सामन्त* याँ राजा गोद माना सुम्मद नहीं हो सकृता । | ग्वालियर संग राको वीरगॐ दरवारमें जयग्रन्दरि नामक छवि रता माराने ० स० १५०० के करीब हम्मीर में फिल्म बनाया। इस कापमं भी पृथराजके दिल्ली गोद जानेका कोई उल्लेख नहीं है । अनुमान होता है कि शायद पृथ्वीराजशोके रचयिताने इस कृया कल्पना कर ली होगी। (३) Ep Ind vat11, 1' In [ ९४ ]________________

हैहय-अंश । । नरसिंहूदेवके समयके तीन शिलालेख मिले हैं। उनमें से प्रथम दो, ३० से ० ९९७' और ९०५' (विसं० १२१२ र १२१५) ६ हैं। | तथा तीसरा वि० सं० १२१६ झा ।। १४-जयसिंहदेव ।। यह अपने बड़े भाई नरसिंहदेवका उत्तराधिकारी हुआ; उसकी रानीका नाम गोसलादेवी था । उससे विजयसिंहदेवका जन्म हुआ । जयसिंह देवकै समयके तन लेख मिले हैं । पहला चैम् सं० १२६ ( वि० सं० १२३२ ) और दूसरों ने सं० ९२८ ( वि० सं० १२३४ ) हैं । तया तीस संवत् नहीं है। १५-विजयसिंहदेव ! यह परेका पुग्न था, तथउसके fळे गद्दी पर बैठा । उसका एफ तायमन चे० सं० १३३ (वि० ० १२३७) झा मिला है। इससे वि० सं० १२३४ और वि० सं० १२३ के बीच विनसिके राज्याभिषेकका होना सिद्ध होता है। उसके समयका दूसरा नामपन्न वि० सं० १३५३ का है ।। १६-अजयसिंहदेव ।। यह विजयव का पुत्र था। विजयसिदैव समयके चै० सं० १३२ (वि० सं० १२३७) के क्षेमें इसक्का नाम मिला है। इस राजा६ बस इस वंशका कुछ भी छाछ नहीं मिलता। | वै* करदीके राजा के चार वर्षय मिले हैं। उनके संवसादि इस प्रकार है-- (१) Ep. lnd. Fat II. 1. 10. (२) taa. Ant, val. xv, P, 1.३) led, Ash, pl Til, I. 214,(४) Ind. Ant, Pal. T, P. 6, ५ } Ip. Ind, Vol, E, P.]E१३) Ind, Aut, Fu, II, P, १६.१७), 13, A, E. V . 11, I', 181, (८) Ina, . .XY, F, , [ ९५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश पहला चै० स० ९५६ का पूर्वोक्त जयहिजेयके सामन्त महाराणा कीर्तिवर्मा , दूसरा वि० ० १२५३ दिनम (सिंह) देवळे सुमन्त महाराणर्क रालराणवम्बका, हीररी वि० स० १२५७ का चैलोम्पधर्मदेबके सामन्त महाराणक कुमारपालदेवकों और घोपा ० १० १९९८ का नेपयर्मदेयके मन्त्र महाराजक हरिराजयको। ऊपर उल्लिग्नित तापनि अपसिंहदेव विशय (सिंह) देव ! म्यवर्मदेव इन तीना स्त्रितरत्र इस प्रकार लिखा है- "

  • परमभरिक महाराजाधिराज परमेश्वर परममावर माम३३ पादानुष्यात परमभद्दारक महाराजाधिराज परीवार निकलिङ्गाधिपति निजनमाताश्वपत गजपतिं नरपति राजेनयाधिपति ।”

ऊपर वण ये हुए तीन रानामैसे नपसिंहदेव और (जय(सिंह } ३ को जनरल फानइएम था डाक्टर हार्ने, फलयशकै मानते हैं, और तीसरे राना लोक्यवर्मइँयका चदेठ होनी अनुमान करते हैं, परन्तु उसके नामके साथ जो खिताब झिसे गए हैं, में इन्वेलोंके नहीं, किंतु इयॉही हैं । अत जब तक उनका चन्देल ना दुसरे प्रमाणसे हिट्स न हो तब तक उक्त युरोपियन विहानकी चात पर विश्वास करना उचित नहीं हैं। | वि० स० १२५३ तर्क विजयासहदेब विद्यमान या । सम्भवत इसके बाद भी वह जीवित रा हो । उसके पीछे उसके पुत्र अजयसिंह तो लावद्ध इतिहास मिलता आता है । पर उसके दो वः सः १२९८ में लोक्यपर्म राजा हो। उसी समयके आसपास के बघेलनं विपरीके के रज्यिको नष्ट कर दिया। इन एपबशयोंकी मुद्रामें चतुर्मुग लक्ष्मीको मूर्ति मित्त है, ञिसमें दोनों तरफ हाथ होते हैं। ये पगा और चे। इनके में बेक्का निशान बनाया जाता था। (1) Ind HD, Val XVII P 331 () Ind Ant Vol XYIP 395. ५४ [ ९६ ]________________

डाहरूके हैहयों ( कलचुरियों ) का वैशावृक्ष । कृष्णराज शङ्करंगण बुज १ कोंकल्लेदेव ( यम) , !! ! ! ! ! ! ! ! ! ३ मुग्घनुङ्ग ३ मालह, ४ फैयूरवर्षे ( सुघराजव प्रथम ) ५ लक्ष्मणराज ६ शङ्करमण ७ गुवराजदेय ( द्वितीय ) ८ गोक्षदेव ( द्वितीय ) ९ गायन ३० सं 19८९ ( वि० सं० १०९४) १० कर्पपदे से सं० ७९३१ वि० सं० १०९९) ११ यशःकडेव ३० सं० ८७४ ( वि० सं० ११५७९) १३ गयकर्णदेव चै० सं० १०२ १ वि० सं० १२०८) १३ नरदेवचे० से ० १४ जयसिंहदेव चे० सं० १२६, ९२८१ वि० ८,०७, २०५(दि । सं० १२३२, १९३४ सं०१२१२,१३१५ १५ विजयसिंहदेय चे ६०९३२(वि० सं० हुया वि० सं० १२१६ ! १२३७ सुपर वि० ० १ २३ १६ अजयदेव देव ० १२९६ - - -- - । । [ ९७ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश वक्षिण कादशलके हैहय । पहले, छग के अचान्तमें ले गया है कि, कोंक १८ पुत्र थे । वनमंसे रामसे बड़ा पुत्र मुग्पतु अपने पिता कोवद्वदेवी उत्तराधिकारी हुआ और दूसरे पुत्र अलग अलग जागीरे मिलीं । उनसे एक दशन कलिहाजने दक्षिण काशज्ञ ( महोछ ) में अपना राज्य स्थापन किया । कालिंङ्गराज के यशज स्वतन्त्र राजा हुए । १–ळेङ्गराज | अह फोकलुजेवफा वनि था । रत्नपुरके एक लैखसे ज्ञात होता है। कि, इक्षिण-कोशल पर अधिकार करके तुम्माण नगरी बसने अपनी । राजधानी पनाया ।( दूसरे से स्वसे इलाकेका नाम भी नुम्माया होना पाया जाता है। इसके पुनका नाम कमलराज था । ३-कमलराज । यह एलिजका पुन और उत्तराधिकारी या । ३-रत्नराज ( रनचेच प्रथम )। यह हमलरमका पुन थी और उसके पीछे गद्दी पर बैठा । तुम्मणिर्ने इसने रत्नेशको मदिर बनवाया था, तथा अपने मामसे ररनपुर नामको नम्र भी बसाया था, वहीं ररनपुर कुछ समय बाद इसके दशकी राजधानी बना । रत्नजका विवाह कोमोमपहल राजा बजूककी पुनी नौनासे हुआ था । इस नोनद्वारे वादेन ( प्रवीश ) नै जन्म ग्रहण किया। ४-नृथ्वीदेव ( प्रथम )। थाई रत्नराजका पुत्र र बत्तराधिकारी था। इसने रत्नपुरमें एक तालाब और तुम्माणमें पृथ्वीश्वरेको मान्दर बनवाया था । पृथ्वीदेबने [ ९८ ]________________

हैहय-वंश । अनेक यश किये । इसकी रानी का नाम राना था; जिससे जानदेय नामका मुन हुआ । ५–जाजदेव ( प्रथम )। यह पृथ्वीच का पुत्र था, तो उसके पीछे इसका उत्तराधिकारी हुआ ! इसने अनेक राजाको अपने अधीन क्रिया 1 चेके जाने नैनी झी, कान्यकुब्ज ( फौज) और जैजाकमुक्ति ( महोबा ) के राशा इसकी वीरयाको देख करके स्वयं हैं। इसके मित्र बन गए । इसने सभेञ्चरफी जीता । अधिभिडी, वैरागर, जिका, भागा, तलहारी, दण्डकपुर, नंदावल्ली और कुक्कुटके मडाक्लक राजा इसकी विराज्ञ देते में 1 इसने अपने नाम जाजपुर नगरे यसाया। उसी नगरमें मद, बाम और जलाशयसहित एक शिवमन्दिर बनवा कर दो गाँव उस मन्दिरकै अर्पण किये । इराके मुरुका नाम छवि था, जो विडनाग आदि काचा सिद्धान्तवा ज्ञाता था । जानके सादिमझा माम विग्रहराज था । इस जाके समय शायद चैदीका राजा यशःण, कोजका राठोई गॉपिन्द्रचन्द्र और महोगेका राजा चंदेल नाम होगा। रत्नपुरके हैहपर्यंशी राजाओंमें जाल्लदेव बड़ा प्रताप हुआ; आश्चर्य नहीं कि इस शापामें प्रथम इसने स्वतन्त्रता प्राप्त की । इसकी रानीका नाम मलदंपी' या । इस रागा तबके सिक्के मिले हैं। इनमें एक तरफ * गाजदेगः' लिखा है और दूसरी तरफ एनुमानकी मूचि घन है। चे० सं० ८६६ ( वि० सं० ११७१० सं० १११४ } का रनपुरमें एक लेवं जद्धदेवके समयका मिला है। इसके पुत्रका नाम रत्नदेय मा । (3) 1, ३१ 2. Ant Vol. 551, P 23 (३) EP. Tad, Fol ५७ [ ९९ ]________________

मारतर्फे प्राचीन राजवंश ६-रत्नदेव द्वितीय )। पए जानहुदैबका पुब था और उसके बाद राज्य पर बैठा। इसने कलिङ्देशकै राजा चड गङ्गको जीत । इस राजाके हौवे हि भिले हैं। उनकी एक तरफ ‘भीमद्रनदेवः' लिप्त है और दूसरी तरफ हनुमानी मूर्ति बनी है । परन्तु इस शाखामें रत्नदेव नामके दो राजा हुए हैं । इसलिए ये सिक्के रत्नदेव प्रयमके हैं या रत्नदेव द्वितीयके, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । इसके पुत्रका नाम पृथ्वीच या ।। ' 5-पृश्वदेव ( द्वितीय }। पह रत्नदेवका पुन और उत्तराधेियरी या । इसके सोने और य’ सिक्के मिले हैं। इन भिक्कों पर ए तरफ श्रीमत्पादेव' सुदा है और दूसरी तरफ हनुमानकी मूर्ति बनी है। यह मूर्चि दो प्रकारको पाई जाती है, किसी पर द्विमुन और किसी पर चतुर्गुन । | इस शास्त्राने तीन पृथ्वीदेव हुए हैं । इस सि किस वादे समयके है यह निश्चय नहीं हैं। सर्कता । पृथ्वीवके समयके दो शिलाडेंस मिले हैं। प्रथम चै सं० १९६१ वि० मुं० ११०=३० स० ११४५) झा और दूसरा चैः सं० ९१० (वि० सं० १२१६६० ० ११५९ } की है। उसके पुरका नाम जीनदेव था। ८-जानदेय ( हितथि )। यह अपने पिता पृथ्वीदेब बुसका उत्तराधिकारी हुआ । २० सं० ६१ वि० स० १२३४-३५ सय ११६५७ } का एक शिलालेख ज्ञान* स्वदेघा मिला है। इसके एनका नाम रनदेव झा । १रनवेव ( तृतीय )। यह जाजदेनका पुत्र था और उस फी गई पर पैदा । यह घे (१) Bp In Vol 1 P 40, (२) 0 A.. B , 17, 76nd.. * , ** [ १०० ]________________

हैहय घंश । | सं० ९३३ ( वि० सं० १२३८=६० सं० ११८१ ) में विद्यमान था । इसके पुत्रका नाम पृथ्वदेव था। १०-पृथ्वीदेव ( तृतीय )। यह अपने पिता रमदैया उत्तराधिकारी हु । पहू वि० सं० १२४७ | (६० १० ११९० } में विद्यमान थे । | पुदैव तीसरेके पीछे वि० सं० १२५७ में इन स्यवंशिया कुछ भी पता नहीं चलता है । दक्षिण कोशल्के हैहयोंका वंशवृक्ष । कोकञ्चदेव यंशमें१-कलिङ्गराज ३-कमलराज ३-रत्नरान ( रत्नदेव प्रथम } ४-पृथ्वीदेव ( प्रथम ) ५-जानवई ( प्रथम ) चे० सं० ८६६ ( वि० सं० ११०१ ) ६-रत्नदेव (द्वितीय) ७-पृथ्वीदेव(द्वितीय)चै० सं०८९६, ९१० (वि०सं० १२०२,१२१६). ८-जाजलदेव ( द्वितीय) चे से० ९१९ (वि० सं० १२२४) १-नदेव (तृतीय) चे ६० ९३३ (वि० सं० १२३८) | १०-वीदेव ( तृतीय ) वि० सं० १२५७ (१) 6. A. 2,You 72.43. (३) =p. ina. Fon. 1. 1, ५७. [ १०१ ]________________

भारतकै प्राचीन रजर्वश कल्याणकै हैहयवंशी । दक्षिणके प्रतापी पश्चिमी चालुक्म राजा तैलप तीसरे राज्य छीन•कर कुछ समय तक च हॉपर कलचुरियोंने स्वतन्त्र राज्य किया । उस समर्म इन्होंने अपनी किताब 'कलिमपुरबराघइयर' रक्सा यो । इनके लेखनै प्रस्ट होता है कि ये हाल ( चेदी } से उधर गए थे । इस लिए में भी दक्षिण कोशलके कुछयुरियोंकी तरह चैदी के चुरिपकि ही बंशज होंगे। तैलपसे राज्य छीनने के बाद इन राजघान कल्याण नगरमें हुई । यह नगर निजामकै राज्यमें कल्याण नामसे प्रसिद्ध है । इनका झण्डा * सुवर्षावृषध्वज ' नामसे प्रत्तिद्ध था । | इनका ठीक ठीक वृत्तान्त जोमम नामके गानो मिलता है। इससे पूर्व वृत्ताम्समें बड़ी गड़बड़ है; क्योंकि हरिहर (माइसोर ) से मिले हुए विज्ञ समयके छेस्रो शत होता है कि, हाल फलचुरि राजा कृश वैशज्ञ कन्नम ( कृष्ण ) के दो पुत्र थे-विजल और सिंदाज। इनमें बड़ा पुत्र अपने पिताका उत्तराधिकारी हुआ । सिंदके चार पुत्र थे—मुगि, शंवर्मा, कन्नर और जोगम। इनसे मैं और जोगम क्रमशः राजा हुए । | जोगमका पुत्र मद्धे ( परमई } हुआ । इस पेमके पुअर नाम विमल यौ । मलके मेष्ठ पुन्नका नाम बदब ( फोमय } या । इसके श० एन० १०९५ ( वि० सं० १२३० }के लेखमें हिंसा है:| चन्द्रवंशी संतम ५ संतसम ) का पुत्र साररस हु । उसका पुत्र कम हुाा । कममकै, नाग और विजन दो पुत्र हुए । विन्नलका ••पुत्र कर्ण और जसा जगम हुआ। परन्तु सं १०९६ ( गते ) और ११०५ ( गत ) ( वि० सं० १२३१ र ११४० ) है तोमपत्र( १ ) मन्दसौर इन्स्यु रन्स पृ॰ ६। [ १०२ ]________________

वैदय-चंश । में जोगमको कृष्णका पुत्र लिखा है । तथा उसके पूर्वके नाम नहीं लिस् हैं। इसी तरह श० सं० ११०० १ वि० सं० १२३५) के तामपन | फन्नमसे बिजल और राजलका, तथा जलसे जगमका उत्पन्न होना | लिखा है। इस प्रकार करीब करीब ऐक ही समयके लेख और तालपत्राने दिये हुए जोगमके पूर्वजके नाम परस्पर नहीं मिलते हैं। १-जोगमे । | इसके पूर्ण नामोंमें गड़बड़ होनसे इसके पिताका फ्या नाम था यह ठीक ठीक नहीं कह सकते 1 वसके पुत्रका नाम पैभडि( परमदि) था। २ पैमोडे ( परमादि)।। | यह नगमका पुत्र और उत्तराधिका था । श० संवत १०५१ ( धर्तमान ) १ वि० सं० ११८५-३० सं० ११२८ ) में यह विद्यमान था। यह पाम सोलंकी राजा सोमेश्वर तीसरेका सामन्त था। तुईदाडी जिला ( बीजापुरके निकट ) उसके अधीन था । इसके पुत्रको नाम मिडदेव था । ३-विज्जलदेव । । | यह पूर्वक सोलंकी राजा सोमेश्वर तीसरेके उत्तराधिकारी जमदेकमल्ल परेका सामन्त था ! तथा जगदेकी मुझे वाम उसके। छोटे भाई और उत्तराधिकारी तैल १ तैलप ) तीसरेको सामन्त हुआ। तेल ( शैलप ) करने उसको अपना सेनापति बनाया । इससे विजलका अफर चहा माया 1 अन्समें उसने तैलपके दूसरे सामन्तको अपनी तरफ मिलाकर उसके कल्याण राज्य पर ही अधिकार कर लिया । ० सं० ११५९ (वि० सं० १२१४) के पहले टेसमें विज्ञको महामण्डलेश्वर लिया है। यद्यपि ० सं० १९४९ से उसने अपना राज्य-- | (1) spin. A, B, , Yal STI, F, 3gp, Ied. A. . ? T, [ १०३ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंश वर्ष ( रान जलस ) लिना मारम्भ किया, और निमुनमल्ल, भुजबलचक्रवती और कलचुर्यपक्वता विरुद्ध ( सिंहाथ ) धारण किये, तथापि कुछ समयज्ञक महामहलेश्वर ही होती रही । किन्तु इ० स० १८८५ (वि०स० १२१९) के लैपर्ने उसके साय समस्त भुवनाश्य, महाराजाधिरान, परमेश्वर परममट्टार, आदि स्वतन्त्र रानाके निशान लगे हैं। इससे गनुमान होता है । वि० स० १११९ के करीव वह पूर्ण रूपसे स्वातन्त्र्यलाभ कर दुका था । विज्ञल द्वारा हराए जाने वाइ फल्या को छोडकर तेल अरोगिरि ( धारवाड जिले } में जा रहा । परन्तु वापर भी विज्जलने उसका पीछा किया, जिससे उसको यनवासी तरफ जाना पहा । विजलने कल्याण रामसिहासन पर अधिकार कर लियों, तथा पश्चिम चौलुक्य राज्यके सामन्तोंने म उसको अपना अधिपति मान लिया । विजलके राज्यों जैनधर्मका अधिः प्रचार था। इस मतको नष्ट कर इस स्थानमें मत चलाने की इच्छासे नसत्र नामी ब्राह्मणाने ' बरव'( लिंगायत ) नामक नया पय चलाया । इस मतङ्के अनुयायीं वीरशैव ( लिंगायत) और इसके उपदेशक जगम कहूढ़ाने लगे। इस मत प्रचारार्थ अनेक स्थानों में यसपने उपदेशक भेनें ।इससे उसका नाम ईन वेॉमें प्रारीद हो गया । इस मतके अनुयाथी एक दीकी डिबिया गर्ने लटकाए रहते हैं । इसमें शिवलिंग रहता है। किंगायतके 'बसवे-पुराण' और जैनके । विजठराप-चरित्र' माम मन्थों में अनेक करामातसूचक अन्य बातोंके साथ राय और विजदेवका वृत्तान्त लिया है। ये पुस्तके मर्म आमसे ली गई हैं। इसलिए इन दोनों पुस्तकका वृत्तान्त परस्पर नहीं मिलता। * वसूत्र पुरण' में लिखा है-* बिज्जलदेबके प्रधान बलदेवकी पुत्री गगादेष यसबका गया हुआ था । चलदेके देहान्तके बाद अब इसकी ६६ [ १०४ ]________________

होय-दंश। 'प्रसिद्धि और सद्गुणों के कारण किज्जलने अपना प्रधान, सेनापति और | केपाघ्यक्ष नियत किया, तथा अपनी पुत्री नीललोचनाका निबाह , उसके ‘साथ फेर दिया। उससमय अपने मतके प्रचारार्थ उपदेश के लिये चसक्ने झ्या हुतस्य द्रव्य खर्च करना मरम्भ किंग्र{ यह समद सत्र शत्रुके दूसरे प्रधानने विज्ञलको दी, जिससे बसवसे विंग्ज अपरान्न हो गया । • तथा इनके अपराका मनोमालिन्य प्रतिदिन बसा ही गया । यह . इफ नयत पदी कि एक दिन विज्जलदेवने, हल्लेज और मधुय्य नाम दो धर्मेने जगमों में निकलवा डाली । यह हाल देखें वसव कमाणसे भाग गया । परन्तु उसके भेजे हुए नगदेव नामक पुरुपर्ने, अपने दो मिञ सहित राजमान्दरमें घुसकर सभा के बीच में बैठे हुए दिगपा मार झाला । यह सयर सुनका नसव पडलसंगमेश्वर नाम स्थानमें गया। वहीं पर वह शिवमें य हो गया । वसवी अविधाहिती वहिन नामांत्रिकासे चन्नबसवैका जन्म हुआ । इसने लिंगायत मतर्क उन्नति की 1 ( लिंगायत लोग इसके। शिवका अवतार मानते है।) पसव के देहान्न घोड़ वह उत्तरी कनाडा देश इल्य स्थान में जा रहा ।" *दवस-पुराण' में लिखा है: “वर्तमान इक से ०७१७(वि० सं० ८४१ ) में वसव, शिय लय हो गया । ( पढ़ संतु सर्वथा कपोलकति है । इसके बाद उसके स्थान पर बिजलने चराको नियत किया। एक समय एन र म बेस्य नामक जामको रस्सरी ६घार विज्ञहने गृथ्वीपर घसीटवाए, जिससे उनके प्रण निकल गये । यह पर्छ चैत्र जाईच और चोमण मामके दो मालवियोंने राजाको मार डाली । उसमय इनपसर पर जितने ही संचार और द य इल्याचे भागकर उल्बी नमः स्थानमं ी आपा । विग्नल दामाइने उसका पीछा किया, परन्तु ए र भषा ! उस घाद् विग्गल पुग्ननै चट्टाई की। किंतु [ १०५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश यह कैद कर लिया गया । तदनन्तर नागर्विकाकी सलाह से मरी हुई सेनाको अन्नरसव पीछे जीवित कर दिया, तया नये रजाको faजछी तरह जहमको न सताने और घर्गमार्ग पर चलनेका उपदेश' देकर कल्याणको मैन ईिया । । * विज्ञराय-यति में लिखा है

  • बसवही बन चट्टी ही झपयनी थी ।उसको विज्नड़ने अपनी परेपमान ( अत्रिंवार्हिता री ) बनाई । इसी कारण इसव विमलके राज्यमें इन पदको पहुंचा था । " असी पुस्तक में वय और गिलके देहान्तके विषयमें लिखा है कि “राजा बिज्जल शोर ववके बीच पन्नेि मुडकृनेके वाद, राजाने कोल्हापुर ( सिहारा ) के महामण्डलेश्वर पर चढ़ाई की । घाँसे लौटते समय मार्गमें एक दिन राजा अपने में बैठा था, इस समय एक जङ्गम जैन साधुझा वेष घोरणकर पांथन हुआ, एक फल उसने राजाको नगर किंया । उ घुसे वह फल लेकर राजाने हो, जिससे उस पर चिपका प्रमाव पई गया और उससे इसका देहात हो गया । परन्तु मरते समय राजाने अपने पुत्र इम्माधिन ( दूसरा ज्जिल ) से कह दिया कि, यह कार्य घसचा है, अतः तू ईराको मार डालना । इस पर इम्मडवचलने वसव पकडने जोर जङ्गमको मार हानेकी अशि दी । यह सदर पाने ही कुऍमें गिर कर बसउने मात्रइत्या कर ली, तथा उराकी छी नींझावाने विष औक्षण कर लिया । इस तरह नवीन राजा कौघ शान्त होने पर घन्नबसबने अपने मामा यसवका इप्य राजाके नजर कर दिया । इससे प्रसन्न होकर उसने चैनवसवको अपना प्रधान बना लिया । । । यद्यपि पूर्येक पुस्तके वृत्तान्तोंमें राज्यसत्यका निय काना कठिन है तयापि सम्माः धरान और विनोदचका द्वेष है। उन दोनों नाशा कारण हुआ हो । बिजलदेव पांच पुत्रं ये—मैर ( सोविय ),

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हैहयवंश। संकम, आवमल्ल, विंधण र वन्नदेव । इसके एक कन्या भी थी । का नाम सिरिया देव या । इसका विवाह सिंहवंशी महामण्डलेश्वर चावंड दुसरे के साथ हुआ था । वड़ येळवनं प्रदेशको स्वामी था । स्विरियादेवी और चनदैवफी मातफा नाम एचदेवी था। विजदेवके समयके कई लेख मिले हैं। उनमे अन्तिम व वर्तमान श० सं० १०९१ १ वि० सं० १२२५) अघाड़ बी अमावास्या ( दक्षिणी ) का है। उसका पुत्र सोमेश्वर उसी वर्षसे अपना राज्यवर्य ( सुन-जुलूस ) लिखता है । अतएव विजलदैवफा देहान्त र सोमेश्वरढ़ा राज्याभिषेक वि० सं० १५२५ में होना चाहिए । यह सोमेश्वर अपने पिताके समयमें ही युवराज़ हो चुका था । | ४-सोमेश्वर ( सोविदेध )। यह अपने पिताका उत्तराधिकारी हुआ । इसका दूसरा नाम सोयिदेव या । इसके सिताव, ये थे-भुजवलगड, रायमुरारी, समस्तभुवनाश्रय, पूष्यीयम, महाराजाधिराज परमेश्वर और फलनुर्य-चक्रवर्ती ।। | इसकी रानी सालदेव संगीताचामें वही निपुण थी । एक दिन उसने अनेक देशों प्रतिष्ठित पुष्पोंसे भरी हुई राजसभाको अपने उत्तम गानसे प्रसन्न फर दिया । इस पर प्रसन्न होकर सोमेश्वरने उसे भूमिदान करने। आशा दी। यह बात उसके ताम्रपत्रसे प्रकट होती है। इस देशमें मुसलमानोंका आधिपत्य होने बादसे ही घानी सियों में संगीतविशा देत होगई है । इतना ही नहीं, यह छीन और राज्य1वद्या अन उनके लिये भूपणके बदले दृश्ण समझी जाने लगी है। परन्तु प्राचीन समय में खियाको संगीत दिवा दी जाती थीं । तथा यह शिक्षा स्त्रियांके लिये भूपया भी समझी जाती थी । इसका प्रमाण रामायण, फाईवरी, माङयिकानमैप और महाभारत आदि संत साहित्यके गर्ने प्राचीन ग्रन्यो मिड़ता है। तः । कहीं प्राचीन शिडॉमें ५ [ १०७ ]मारतके प्राचीन राजधश- भी इसका उस पाया जाता है । जैसे-झोयशले ( यादव ) रामा बाल प्रपाकी तीन रानिमाँ गाने और नाचनेमें भी कुशल था । इनके नाम पदमलदेवी, मावालदेवी और घोप्पदेय थे। बहाल्का पुन विष्णुवर्धन और उसकी रानी शान्तदेवी, दौनों, गाने, खाने र नाचने में चट्टै निपुण में'। । सोमेश्वरके समयका सबसे पहला लेख (वर्तमान ) ० ० १०९६ (वि० सं० १२३३) का मिला है। यह लेप उसके राज्यके दसवें चर्प लिंफो गया था। इसी थर्पमें उसकी देहान्त होना सम्भव है। ५ संकम (निशंकमछ) यह सोमेश्वर डौटा माई यो, ती उसके पीछे उसको उत्तरा- चिफारी हुभा । इप्तको नशम् भी कहते थे । मनके नाम साथ भी में ही खिताब लिखें मिलते हैं, जो खिलाप्त होगेश्वरके नाम- के साथ हैं। ( वर्तमान) श० स० ११.०३ (वि० सं० १२३५७) के लैसमें कम- के अन्य पाँच वर्ष लिंग्सा हैं। ६-आझमछ। | यह समझा छोटा भाई था और उसके नव गद्दी पर बैठा । इसके नामके साथ मी ३ । पूर्वेक सोमेश्वरवाले जिताने लगे हैं r( वर्तमान ) झa स० ११८३ से ११०६ (दि० स० १२३७ से १२५०) तङ्के आवमल्लके सभयके केंस मिले हैं। ७-सिंघण ।। यह आवमल्लका छोटा भाई और उच्चराधेअरी था। श० स० ११५ ( वि० सं० १२४० ) का प्याक समयका एक ताम्रपत्र मिला है। (१) Ehthan Jalgols inacript as a ३६ [ १०८ ]ह्य-चंठा । उसमें इसके केवल महाराजाधिराज लिखा है। वि० सं० १२४० (१० स० ११८३) के आसपास सोलंकी जा तैल ( तेलुप ) तीसरे के पुत्र सोमेश्वरने अपने सैनपात बोम्म ( ब्रह्म ) की सहायता से कलचुरियॉसे। अपने पूर्वज का राज्य पछे छान लिया । फल्याण फिर सोया राज्य स्थापन हुआ । वहाँपरसे सिंचणके ठेके केसी कलचुरी गजाको लेस्व अब तक नहीं मिला है। कल्याणके हैहयोंका वंशवृक्ष । ३- जोगम महिपरमाई ) ३–वितळ ४-मैपर, ५-६, ६-सायम, ७-प्तिपण, ८ सय 1 - [ १०९ ]३ परमार-वंश।

आबूके परमार | परमार अपनी उत्पत्ति आबू पहाड़ पर मानते हैं। पहले समय आबू और उसके आसपास दूर दूर तकके देश उनके अधीन थे। वर्तमान सिरोही, पालनपुर, मारया और दाँता राज्योंका बहुत अंश उनके राज्यमें था। उनकी राजधानीका नाम चन्द्रावती था । यह एक समृद्धिशालिनी नगरी थी। विक्रम-संवतकी ग्यारहवीं शताब्दिके पूर्वार्ध माडोलमें चौहानीका और अणहिटबाठों चौलुक्मोका राज्य स्थापित हुआ। उस समय परमारोंका राज्य जम बंशोंके राजाओंने दयाना प्रारम्भ किया । विक्रमसंवत १३६८ के निकट चौहान राब छुम्भाने उनके सारे राज्यको छीन कर भावूके परमारराज्यकी समाप्ति कर दी। आबू परमारोंके लेखों और ताम्रपनोंमें उनके मूल-पुरुषका नाम पीमराज या घुमराज लिसा मिलता है । पाटनारायण मन्दिरवाले चिश्म-सदत् १३४४ के शिलालेखमें लिखा है अनीतधेन्ये परनिर्गन मुन्न स्वापोन परमारजातिम् । तस्मै ददासुद्धतभूरिभाम्प त धौमग्रम च चकार नाम्ना ॥ ४ ॥ नपा--विक्रम सवत् १२८७ में खोदी गई वस्तुपाक-तेजपार के मन्दिरकी प्रशस्तिमें लिखा है मराज प्रथम बभूव भूवासबस्तान नरेन्द्रवदो। परन्तु इस राना समयका कुछ भी पता नहीं चलता। विनम-सबत् १२१८ (ईसवी सन १९६१) के रािह के लेगमें दनकी क्शावली सिन्धुराजसे प्रारम्म की गई है । परन्तु दूसरे लेखोंमें [ ११० ]________________

परमार-चंश । रिन्युज नाम नहीं मिलता । इनमें उत्पलसे ही परमारोंकी वंश| परम्परा लिखी गई हैं । १-सिन्धुराज । पूक किराफ लेखानुसार यह राजा मारवाड़में बड़ा प्रतापी हुआ । कैव$ चाय लेने किंवा -- निघुराजे महाराजः राम-ममण्डलें ॥ ४ ॥ यह राज्ञा माळवेके सिन्धुराज नामक राजासे भिन्न या ! यह कथन इस चातसे और भी पुष्ट होता है कि विक्रम संवत् १९८८ के निकट आचूके सिन्धुजका सात बंशज घन्धुः सलिङ्क भीम द्वारा चन्द्रावतसे निक्का दिया गया था और यहाँसे माकै सिन्घुइनके पुत्र भोजकी शरण में चला गया था। सुश्मव है कि जालोरका सिन्युराजे रफा मन्दिर इसन (साबूके सिन्घुराजने ) बनवाया हो । मन्दिरपर विक्रम संवत् ११७५ ( ईसवी इन् ि१९१७) में बलदेवकी रानी मैलरदेवीने सुवर्णकलश चढ़याया था । इससे यह भी प्रकट होता है कि उस समय जादौर पर मी परमाको अधिकार था। ३-उपलजि | यद्यपि पिक-संवत् १९९९ १ सय सन् १०४२ } } यसन्सग हे' इसी राजाने पैशावली.प्रारम्भ की गई है तथापि फिराहू कृषसे मालूम होता है कि यह सिन्धुराना पुन्न था । मूता नैणसीनें भी अपनी पातमें घूमरज़िके बाद उपलराजसे ही पैशाची प्रारम्भ की है । उसने लिखा है

  • कपलाई किराडू द ओलियाँ बसियो, दिसाय प्रसन्न हुई, मारु अतायौ, ओसियनें देरी करायौ।" ५ )En, in,Yal.17, P.i, [ १११ ]________________

मारतके प्राचीन रामचंश अर्यात उत्पलराज किराडू छोड़ कर ओमियाँ नामक सिने भा' वसा । सचियाय नामक देव इस पर प्रसन्न हुई, उसे धन बेतलाया। इसके बदले उसने ओसियमें एक मन्दिर वनवा दिया। | ३–आरण्यराज । यह अपने पिता उत्पलराजको उत्तराधिकारी था। | ४-कृष्णराज प्रथम ।। यह आरोग्यराजा पुन और उत्तराधिकारी था। सिरोही-राज्य बसन्तगढ़ नामक इिलेकै होहहरमें एक बाबीं है । उसमें विक्रम संवत् १६६९ का, पृपालकै समयका, एफ लेस है । से देखा है: धरानचे सत्पलाञनाम: झम्मच ती प्रभूव । तस्माद्दाकृणरा दियातूझते किले वासुदेव ॥ अर्थात्---इस ( घुमरान) के वशमें उत्पन्न हुन्न । उत्तम पुत्र आरण्यरान और आरण्यराजको पृच गद्भुत गुपवाड़ा कृष्णराज गा । ऑफिसर कलाहर्नने इस रानाका माम अद्भुत कृष्णन झिस है, पर मह उनका भ्रम है। इसका नाम कृष्णाराज़ ही या । अद्भुत हद तो ६र इसका बिशेपम है । सके प्रमाण विक्राम-सीतु १३७८' की आनके बिमारा ? ' नामक मन्दिरकी प्रशासका अरु के हम नॉर्न देवे हैं--- दिन्यान्डदेयर पुरारिराखीझवझताप | अन्—उसके घशम थर कान्हड़देव हुभा । कान्हदेश कृष्णदेवका है। अपभर है, अद्भुत कृष्णदेवा नहीं । इससे यह माटूम इझी कि उसे कान्हव मी ते थे। {१}En. Ind ,1el, x,P 14R, [ ११२ ]________________

पुरमारबंश.. ५-धीवराह । यह् फुयाराजका पुत्र या । उसके पीछे यहीं गद्दी पर बैठा । मोफे| रार कलहार्नने इसका नाम छोड़ दिया है और अद्भुत-ष्णराजके पुत्रको नाम महेपाल लिख दिया है । पर उनको इस जगह कुछ सन्चेहहुआ था । क्योंकि वहाँ पर उन्होंने प्रकृमें इस तरह लिखा है:-- "Or, if a name should have been lost at the comme ncement of line 4, his son's son.)" अत्-शायद् यहाँ पर कृष्णहजिकै पुत्रकै नाम अक्षर पण्डित हो गये हैं। इसको गुजरातके सोलही मूलराजने हा फर भी दिया था । उस समय राष्ट्रवाट पचलने इसकी मदद की थी । इस बात पता विक्रम-रिवत १०५३ ( ईसवी' अन् १९६) के राष्ट्रल पवळ देवसे लगता है:

  • यै भुकाइदमूलदस्यतः श्रमिला नृप दपन्य धरणीवराट्नुपर्ने यद्वद्विषः पादपम् । आयतं मुवि कांदिशीकमभिझो यस्तै रम्पेर दशौ।

दंष्ट्राभार्मिर मुइमाईमा कौलौ भन्दछन् ॥ १२ ॥ सम्मतिः इसी समयसै आयूके परमार गुजरातवालोंके सामन्त बने । मूलराजने विक्रम-संवत् १०१७ से १०५२ (ईसवी सन ९६१ से ९९६) राक राज्यको किया या । अतएव यह घटना इस रामपके चाचर्की हो । | शिलालेखमें घेरणावराहका नाम साफ साफ नहीं मिलता । पर किरा के लेके आठवें श्लोक पूर्वाधैं और वसन्तग पाँचवें श्लोक उत्तराईले उसके तलका ठीक अनुमान किया जा सकता है । उक्त पदको इम फमशः मीच उद्धृत करते हैं:अपम- सिन्ग्रजपएघारौपदघामवान्, ••• ••• ••• • ॥ ८ ॥ ७१ [ ११३ ]________________

मारतकै प्राचीन राजवंश हिताय ।। ५, ६.. ... ... ...मान्य बृतान्चराइ ॥ ५ ॥ । घरणीवरह नामका एक चापर्वंशी राजा वर्षमान भी हुआ है । पर उसका समय -संवत् ८३६ (विक्रम-ौंदते ९७१=ईसवी सन् ११४} है। हथूहीके राष्ट्रकूट घरके क्षेत्रका घरीवराह यही परमार धरणवह था । गुजरातके मूलराज द्वारा अपने भगाये जानेपर वह गोचाईके राष्ट्रकूट राजा मालकी शरण गया था। यह घटनी भी यही सिंह ती है ।। राजपूतानेमें धरणीवके नामसे एक छप्पय मी प्रसिद्ध है मंवरग्रर्मठ दुव मतमेर दिनुव । गन्न पूगल गनङ हुन ३ भाप्पभुव । दाद पन्हू अरवद् Tोज राजा ज्ञाघर ॥ गरी घरघाई हु इसू पारकर । गौद किं चनुमा पिर पंवार हा पप्पमा । घरपवाद घर भई झाट घांट , झ्यिा । उम्पयमें लिखा है कि घरवराहने पृथ्वी अपने नो मापने यौट' दी थी । पर यह उपाय पीछेको कल्पना प्रतीत होता है। इसमें प्रसिद्ध नभिङ भाईको अजमेर देना लिखी है। अजमेर अजयब समय असा या । अजयथा समय ११७६ के आसपास है। जुराई पुग्न अगोंराजका एक हेन, विक्रम संवत् ११९६ का लिखा हुआ, जयपुर दौलानाठी प्रान्त जीबग-माताले मान्दै मा हुआ है। अत' घरणीवाके मेयमें अजमेरका होना जरसम्मत्र है।। | ६-महिपछि । | यह घरणींवरहका पुत्र था । उसके पर राज्यभिकार इसे ही मिला । इसकी दूसः नाम देवराज था । वम संयत् १०५९ (इसवी सन् १८९) को इसका एक हो। मिला है। [ ११४ ]________________

- परमार-वंश । ७-धन्धुक । माहेपालका पुत्र और उत्तराधिका था। यह वहा पराक्रमी राजा या। इसकी रानी का नाम अमृतदेवी था। अमृतदेवी से पूर्णपाल नामका पुन र लाहिनी नामक कन्या हुई । कन्याका बिंया दिशातिय संज चच पुत्र विग्रहानसे हुआ । विग्रीजके दावाका नाम दुर्लभराज और परदादाको सङ्गमराज था । बाहिनी विघा से जाने पर अपने भाई [पाल गहाँ घसिष्ठपुर ( वसन्तगढ़ ) चली आई । नि० सं०. १९९९ में उसने वहाँकि सूर्यमन्दिर और सरस्वती-बावल्लीका जीर्णोद्धार कराया । इसीसे याबद्दी नाम कोणबावड़ी हुआ । | गुजरात चालुक्यराजा भीमदेव साथ विरोध हो जाने पर बन्धु मासे भाकर धाराके राजा भोज प्रथम शरणमें गया । ज्ञ जस समय चिोरके कमें था | मझेंपर पोरवाल जातिके विमलशाहू नामक महाजनको भीमने अपनी दण्डनयिक नियत किया, उसने घन्र्युकको चित्तोरसे बुलवा भैज्ञी र रमदैनसे उसका मेल करवा दिया। वि० सं० १९८८ में ही विमलशाहने देलवाडै आदिनाथको मन्ि मन्दिर बनवाया । मान्दर बहुत ही गुन्द्र हैं; वह भारतके प्राचीन शिल्पक अच्छी नमूना है। उसके बनवाने में कोई रूपये में हमें । वि० सं० १९१७ ॐ भीनमालॐ शिलालेखमैं धन्धुके पुत्र का नाम प्याराज लिखा है। अतः अनुमान है कि इसके दो पुत्र थपूर्णपाल और कृपारान ।' ८-पूर्णपाल । मह घन्धुको ज्यैष्ठ पुत्र और उत्तराधिका भी । इसके सन शिलालेख मिले हैं । पर्ला विक्रम-संवत् १८९९ (ईसवी सन १०४२) का • वाग्लच, दूसरा ही संवत्को सिहायके एक स्थानमें और । ७३ [ ११५ ]________________

भारत के पाचीन राजवंश तीसरा विम-सय ११ १२ ( ईसवी सन १८५५) का गोडवाह दर-- गने माइँद गाँव में ।

            ९-कृप्पाराज दूसरी । 
यह पूर्णपाल का छोटा भाई था । उसके पीछे उसकए राज्यका यहि उत्तराधिकारी हुआ । इसके दो शिलालेख भीनमालमें मिले हैं। पहला बिक्रम-संव्त् १११७ ( ईसवी सन १७६१)मावसुदी ६ का और दूसरा विकर्म्-सम्वत् ११२३ ( ईसवी सन १०६६ ) ज्येष्ठ यी १२ का । इनमें यह महीराजाधिराज लिखा गया है। विक्रम-सवत् १३१ (ईसी सन १९६२) के चाहमान चा घामानाबाले देस' यह भूमिपति कहा गया है। इससे  मालूम् होता है कि पूर्णपालके बाद उसका छोटा भाई कृष्णाज वसन्तगट, भीनमाल और किराडूका स्वामी हुआ । इसे शायद मीमने कैद कर लिया था । चाचिंगदेव पूर्वोक्त लेखका अठारवाँ के प६ ३ --
   भूतनु तनयस्तरीय चलप्रसाद मौनइनामचरयुगमईनग्यौ । 
   झुन्पीमतिचल्नुमा मोचयामा क

| गारम्प तिमपि राधा कृष्णद्वैवाभिधानम् ॥

अर्यात्-वीळप्रसादने भुमिदेव्के छरन् पकद्ने के बाहाने उस के पाइर् इतने जोर से दबाये के उसे वडी तक्लीफ् होने लगि । उसने अपने पैर तब् छुदा पाये जब् बदले में राजा कृष्शनि राज्को दखें चौदना स्वीकार किया !

द्विरा शिलाज़में पूरा नाम नहीं है। उसकी जगह उस्के छोटे भाई क्रीश्नराज का हि नाम है । अत अनुमान होता है कि - रीनसे किंकी दूसरी आता इन होगी । (1) EP Irl vul, RC, P, TE, va [ ११६ ]________________

परमार-चंश । |१०-चैवभट । अह किसका पुत्र था, इस यातका अबतक निश्चय नहीं हुआ। वस्तुपालनपालके मन्दिरकी बिम-संवत् १९८७ फी प्रशस्तिके चौंतीसवें श्लोक पूर्वार्द्धमें लिखा है: | घन्घुम्नुभटादयस्ततस्तेद्यपदाजितोऽमनन् । अर्यात-घूमराजके अंशमै थन्धुछ और भुवभट आदि वीर उत्पन्न हुए । अही बात एक दूरे पड़-शिलालेखसे भी प्रकट होती हैं । यह दण्ड-लेख आबूके अचलेश्वर मन्दिरमें अष्टोत्तरशतड्केि नीचे लगा हुआ है। इसमें वस्तुपाल-तेजपाल घंशा वृत्तान्त होनेसे अनुमान होता है कि यह उन्ध्रा सुवाया हुआ है। इसके तेरहवें लोकमैं लिखा है | अपरेऽपि ग सन्दिग्धा मधुन्धुभद्राय ! यौंपर इनकी पदिय निश्चित रूपसे पता नहीं लगता। ११-रामदेव ।। यह भटफा देशज या । यह बात स्तुपाल-गपालकी प्रशस्तिके चैंतीसवें श्लोक उत्तराईसे प्रकट होती है, ययुलेऽञ्जन पुमान्मनौरमा रामदेव विं फानदेवात् ।। ३४ ॥ अर्थात् घुषमटके वशमें अत्यन्त सुन्दर रामबै नमिक राजा हुआ । सही यात अचलेश्वरके लेख भी प्रकट होती है.-- धरामदेवनामा घामादपि सुन्दर भूत् । १२-विक्रमसिंह । ययचे इस का नाम धस्तुपाल लैजपाल और चलेम्परर्फी प्रश| स्तियोंमें नहीं है तथापि यायकाय लिया है कि जिस समय चोळुझ्य राजा कुमारपाटनै चौहान अर्णोराज (अना) पर चढ़ा की उस समय अर्यात विक्रम-संयत् १३२७ (ईवी सन् १९५०) में, आबू पर [ ११७ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश कुमारपालका सामन्त परमार विक्रमसिंह राज्य करता या । यह भी अपने मालिक कुमारपाली सेनाके साधं था। जिनमण्हन अपने कुमार पालप्रवन्घमें लिंसता है कि विक्रमसिंह हाईकै समय अर्णोराज्ञसे मिल गया या । इसलिए उसको कुमारपालने कैद कर लिया और का राज्य उसके भतीजें यशोघलो दे दिया । अतः अचू पर विक्रमसिंहका राज्य करना सिद्ध है । उसका नाम पूर्वक्त दोनों से भी प्राचीन माञपङ्कायमें मौजूद है। | १३-यशोधवछ । यह विक्रमसिहका भतीजा था। उसके कुछ किये जाने के बाद यह गद्दी पर बैठा । कुमारपाड़ॐ शनु मालवे के राजा चल्लाल्को इसने मारा । य; बात पूर्वोक वस्तुपाल-लैजपके हैराने और चलेश्वरकै लेरासे भी प्रकट होता है। इसी रानी का नाम समाग्प३ था । यह चौक्यबाकी थी । इसके दो पुत्र थे—पायर्ष और प्राइवेव । विश्म-सवत् १२०३ (ईसवी सन ११५६) का, इसके न्य-समयका, एक शिलाळेस अनार वसे मिला है । उस रा है | प्रमार पचमहानदीपयोपयन्सने इससे उस समयमें इसका राज्य होना सिद्ध है। (1) वान्मही विदितान्यनयात्र स्पन यशैघवल ईस्त्र पसे ।। यो गुर्भपतषतिपक्षमा । बइम्मतिमन मस्मेिदिनीन्दम् ।। १५ । (ममा मदिरा ) पश्यनुप्रिय मित गः गृवर या पध्मएप'न् ॥ १५॥ -गरपः - र, रिम- ११५ , मान) १६ [ ११८ ]________________

परमारचंश । । विक्रम संवत् १२२० का घारावर्पका एक शिलालेख वाया गर (सिरोही इलाके) के शहर, फाशी-विश्वेश्वर मन्दिरमें, मिला है। अतः यशोधवलका देहान्त उर्फ संवत्के पूर्व ही हुआ होगा। , १४-धारावर्प । | गहू यशोधवलका ज्येष्ठ पुत्र या । यह उसका उत्तरार्धा हुआ । गह राना बड़ा ही वीर या । इसकी वीरता स्मारक अबतके मी आबूके आसपास के गाँवमें मौजूद हैं । यहाँ यह घर-परमार नामसे प्रसिद्ध है। पूर्वोक्त यस्तुपर-तेजपाली प्रशस्तिकै छत्तीसवें श्लोकमें इसकी वीरताका इस तरह वर्णन किया गया है: श्रेणीगलविदरुनौनिइनिशिया भवः समननि मुद्दास्तस्म विसप्रशस्य । चैषाफान्थनबधा निश्च यने जावा चितपठालण: फणाधीपन्यः ॥ ६ ॥ पत्--यपपलके घट्ट ही धार और प्रतापी धाराय नामक पुन | हुआ । उसके भयले कोकण देशके राजा रानियक असू गिरे । | कोण दिशेलारवंशी झिा मदिन पर कुमारपालने फौज भे थी । परन्तु पहली बार उसको हार र लौटना पड़ा। परन्तु दूसरी बारही पट्टा मर्थिार्जुन मारा गया | सम्मर, इस चदाईमें घायर्ष भ मुगतिकी छैना सायं रहा । | अपने स्वामी गुजरात के राजा के सापनार्थं पारार्प मुसलमान से भी टट्टा था । पप इसका वर्णन में नहीं हैं, तथापि फारस हवाले इरफा पता लगता है। तोगुल-मजासिर में दिया हैः-- जरी इन् ५९ दिगद १५४३•सन् १९७३ ८ मी में है ( प } राम पर गुसरो (युन है)। । । गि एमच मह पा र म के 5 " नारा काम हे [ ११९ ]________________

भारतकै यार्चन राजवंश कले उसे बिलकुल ही साली मिले । माचू भी चेक एह में रामहरी सौर दायिर्स ( पार्ष) पड़ी सेना और नेने तैयार थे। उनका मौरदा म दूत होनेसे वनपर हमला करने की हिम्मत सम्मान न प । पहले इंध स्थान पर सुलतान शहाबुद्दीन गौरी घायल हो चुका था । अतः इनको मर्म हुमा कि कई सैनापत (तयुद्दीन ) की भी घी ९ा न हो । मुसम्मानको पूर्व प्रकार झागापाच्चा करने दैख दिइ योद्धाने अनुमान किंया कि मैं इरे गर्ने हैं। अतः घाटी छौड़कर वे मैदानमें निश्छ भागे । इस पर दोनों तरफ युबकी तैयार हुई। वारी १३ राउअवॐ प्राज्ञःकालने मयाह तक भाप लड़ाई हुई । लड़ाई में हिन्दुनै पाठ खिलाई। उनकै ५०,10 आदमी मारे भये और ३०,००० कैद हुए। | तारीख़ फ़रिश्ता पाळी स्थान पर बाली लिखा है । ऊपर हम आबू नकी पार्टी सुल्तान शहाबुद्दीन गेरीका पायल होना लिया चुके हैं । यह युद्ध हिजरी सन् १७४ ( ईसवी सन् ११७८-विक्मसंवत् १२३५) में हुआ था । सयकृते नासिने लिखा है कि जिस समय झुलतान मुटतानके मार्ग नहरबाळे ( अनलाई) पर म्या उस समय वहाँका राजा भीमदेव बाळू या । पर उसके पास घईभारी सेना और बहुत हाथी थे । इसलिए उससे हारकर सुतनिक लौटना पड़ा। यह पढ़ना हेनरी ग्रन ५७४ में हुई थी। | इस अजमें भी धारावर्षका विद्यमान होना प्रिय है। यह सुन मी आबूके नीचे ही हुमा म । उस समय में धाराघर्ष चूमा रजिी और नयतका सामन्त्र या । । भारावर्षकै समयके पच लेस मिले हैं। पहला विन्म-जत् ११३८ ( ईसची सन ११६३ ) का लेख कायदा (सि ही राज्य ) के का? विश्वेअरके मन्दि । दुसरा रिकमबत् १२३७ को ताम्रपत्र हापक में । इस ताम्रपत्रमें घाराबर्ष मन्त्रीका नाग,फोविदास रिग है।- यह ताम्रपत्र इंडियन ऐटिं । इसई ...१४ ६ अगस्त ६८ ({ " [ १२० ]________________

भूके परमारोंकी घशाली । सरा [ ३० १५ का पुत्र ।। | दो देश, १३६ - - - | १६ | फूण १५ | प्रतापसिंह ।* *

  • | वि० सं० १३१६

| जैकणे ( असिंहू-Ng8) [ १२१ ]________________

आबके परमारोंका वंशवृक्ष । घूमरीश वंश 1 रिज ३ समान ३ अपरान

  • Pvणराज ( पा ) ५ रणवद्ध ६ नहीं पाए ( देवरात्र) । धनुः [ १२२ ]________________

परमार-ये । संख्यामें छप चुका है। तीसरा ३१ विक्रम संवत् ११४६ की मधुसूदनके । मन्दिरमें भिला है । चौथा विक्रम संवत् १९६५ का कनखल तीर्थमें मझा है । और पांचवाँ १२७६ ईसव सुन १२१९) का है। यह | मकाबले बिके पासवाले एक वालाव पर मिला है । इस राजाका एक लैस रोहिहा गॉवमें और भी है। पर इसमें रिचत टूटा हुआ है। | इसके वो रानियाँ थी—ग और शृङ्गारवे । ये मण्डलेश्वर चौहाने की लड़कियाँ थीं। इसकी राजधानी चन्द्रायवर थी। इसके अधीन १८०० गाँव थे 1 शृङ्गादेवीने पाइर्वनायकै मन्दिरके लिए कुछ शूमिदान किया था । इरा राजाने एक बाणसे बयर परामर सड़े हुए तीन भैको मारा था। यह बात विक्रम-संवद १३४४ ॐ पदनार यणके लेसे प्रकट होती है। उसमें लिखा है: एकप्रागनिवार्य में निरीश्य कुरुयौघसइतम् ।। इक श्लोक प्रमाणस्वरूप आबूके अचलेश्वर मन्दिरके बाहर मन्दाकिनी नाम कुण्ड पर घनुषधारी धावपक्की पूरे दक्की पापाप्मभूचि आज तक विद्यमान है । उसके सामने पूरे के पत्थरके तीन भैसे बराबर थरार अहे हैं। उनके प्रेग्नमें एक छिद्र बना हुआ है। | धारावर्षके छोटे भाई का नाम प्रल्हादन था । वह पहा बिदा था । सफा बनाया हुआ पार्थपराक्रम-व्यायोग नामक नाटक मिला है । कार्तिकीमुद्दाम और पूर्वोक चम्पल-तेजपालक प्रशस्तिमें गुजरेश्वर पुरोइत सोमेने इसकी विचाकी प्रशंसा की है। उसने अपने नाम अहदनभुर नामक नगर बसाया, जो आज कल पानपुर नामसे प्रसिद्ध है। यह राजा विद्वान होने के साथ ही पराजर्षी मी था । रस्तुपालजपाली पति से ज्ञात होता है ॐि यह सामन्तसिंहसे लड़ा था । (5} सामन्जस्व इमितिकृतिविति, धग्रनि११णइक्षिणा: । प्रद्मादनस्वदनु दनुजैसमरिचयपुनश्चमवार ॥ १८ ॥ [ १२३ ]________________

भारतके प्राचीन राज्य इसकी तलवार गुजरात रामाङ्ग बुझा किया फरही थी । सामन्तसिढ़ मुवक्किा राजा होनी चाहिए । शा करनेमे तात्पर्य शहाबुद्दीन गोरी सायी राईसे होगा, जिसमें मुल्तानको हानि पहा था। पूरा-सोनं लिखा है:-- सबूकै परमार राजा सुखहीं पुर्न इच्छनीने गुजरात राजा भीमदेवने ६ करना ना । परन्तु यह मान सहने और उसके पुन जेरावने ,म न की । इनका सम्बन्घ दें इन राजा पृर्वग्रसे हुआ । इय पर मन हुनु कुन्द झा और इन अचू पर च करके उसे नै धार्ने या । इस युद्धमें इतन्त्र नर मचा । इपके चा मृ ञ्चने मौको परास ॐ वूिका राज्य बैदराव दिला है और अपना विवाहू ( ६ ३ दिया । | यह सारी या अन्य प्राप्त होती है, पछि विक्रम-संवत् ११३६ से १९४९ तक पृथ्वी राज्य क्रिया यो । विद्गम-संबेद १२७४ के पीछे तक शायू पर घारावघा न्यि रहा । उसके पछि उHझ पुत्र सोमवह गीपर वैटा । अतएव पूरनिके समय आबूर सटस बोर अंतरावका हॉनर सईया समज है। इसी प्रकार अनूपर भीनदेय चट्टाको हाल मी कपोलकल्पित जान पड़ता है, क्यों द्वाराबर्ष और उसका छोटा माई हाइनदेब दोनों ही गुजरातवाला समन्छ थे । वे गुजरातदालोंके लिए मुसलमान से लड़े थे। वि० सं० १२६५ के नात्र मन्दिर में भी घरावर्षका भीमद्देवी सामन्स होना अट होता है । १५ सोमसिंह । यह घादर्प शुर और इत्तराधिकारी यां, ख और दावा दोनों का ज्ञाता या । इसने शवविद्या भने पिनाने और शासविदा ने बचा निवेदसे क्षारी ई ! इसके सम्म १०६० ११(६३ [ १२४ ]________________

आयूके परमार । स० १२३० ) में आनु पर तेजपालकै मन्दिर प्रतय हुई । यह मन्दिर हिन्दुस्तान की उत्तमोत्तम कारीगरका नमूना समझा जाता है। इस मन्दिके लिए इस राजाने इचाकी गाँव दिया या । विक्रम संवत् १२८७ के सोमसिके रायके वो लेख इसी मन्दिरमें लगे हैं। विक्रम-चैवद् १२९० का एक शिलालेख गोड़वाड़ परगनेके नाम गॉब(जोधपुर-राज्य) में मिला है। उससे प्रकट होता है कि सौमसिंहनें अपने जीलैनी अपने पुन कृष्णराज युवराज बना दिया था। उसके इर्चॐ लिये नाणा गॉव । जहाँ यह लेख मिला है ) दिया गया था । |१६-कृष्णराज तीसरा ! यह सोमसिहका पुर था और उसके म हुआ 1 इसको कानड़ गी कहते थे। पाटनारायणके लेख में इसका नाम उसका उत्तराधिकारी कृष्णदेव र वस्तुपाल तेजपाल मन्दिरके दूसरे लेखमें कान्हड़देवलिया है । अपने पुत्र-राजपनमें प्राप्त नाया गवमै लफुल, महादेवकी पूजाके निर्मित इराने कुछ बृत्ति लगा दी थी। अतः अनुमान होता है कि यह क्षेत्र था । इसके पुनका नाम शतापसिह था । | १७–प्रतापसिंह। यह कृष्णराज । पुर 1 उसके बाद यह गई पर बा । को ज्ञात कर मरे बाके राजाओंके हाथमें गई हुई अपने पूर्वज राजधानी चन्द्रवि को इसने फिर प्राप्त किया। यह अति लेसे प्रष्ट है। : । यथा:-- नारायण का प्रय 4-रे जगदेकचौर# इन्द्रावती ११नादभिरममाभुक नाइ ये कर्णदिई कमिवैद्रन । | अ६ जैकर्ण पद मेबाई जैत्री सत् हो, जिसकी समय विक्रम सौधार ।। १८ ।।। (१) सौर में दिन (लादेश) की मूर्ति पधारान में भी हम समान तो है । ६ एक इयों की शो है। इसमें इत; 3 विड़ भी रहा है । में भिका एल [ १२५ ]________________

भारतके प्राचीन राजपैश संवत् १९७० से १३०३ तक है ।समय होनेझै झारण | मेवाड़ा मी आबू पर अधिर करने चेष्टा इरते रहे हो तो आश्चर्य नहीं । इसी लिए धाराचपके भाई प्रहाइनको भी इग्रपर चढ़ाई करनी पड़ी थी । सिरोही राज्यकै काागरा नामक एक प्राचीन गाँबसे विनमसंयत् १३०० ( ईसवी सन १२४३) को एक शिलालेख मिला है। इसमें चन्द्रावती महाराजारान आल्हणसिंहका नाम है । पर, उसके संशा कुछ भी पता नहीं चला। चम्भव है, वह परमार कृष्णराज तीसरेका ज्येष्ठ पुब हो और उसके पीछे प्रतापसिंहने राज्य अप्ति (फया हो । इस ददामें यह हो सकता है कि उसके दशजने ज्येष्ठ पत। आल्हा नाम ॐ हरे कृष्णपजको सीधा ही हासे मिग द्विपा हो । अथची यह झाल्हणसिंह और हैं। किसी चंका हैं।ग्ग और प्य देव तीसरे से चन्द्रावती छीन दर राजा बन गया होगा। में पि। विक्रम-सनत् १६२० का एक और शिटाळे आजार है। उसमें महाराजाधिराज अर्जुनदेवका नाम है । अनः या तो यह पैठ हैराना होगा यी उछ आन्दहका उत्तरार्धा होगा । इन्से राज्य पुनः प्रानि का प्रतापसिंहने चन्द्रावतीचे शासै टीम! रोगा । यह बात प संत के उत्तर प्रकट होता है । पर जब तक इस दसे इनका पूरा पूरा इचान्त न मिले तर म इम विपमें निश्यक कुछ नहीं कहा जा सकता। | मताहिके मन्त्री का नाम देण थी । यर् माह्मणानातिका ची। उपने विक्रम- इद् १३५४ gी सुन ११८७ ) में प्रताप के समय [Bही-राज्यने गिरवर पाटनागरगड़े मन्दिरका उद्धार गरी । शा पापा 28 प्रतापसिंह तक ही वाटी मिन: है । लगा इसी पना समय जाटो चाहानन पाए हुन्पी पत्रिम अदा दुधा दिया था। इसे अपना इम इटारी, है [ १२६ ]________________

अचूके परमार। विग्म-संवत् १३६८१ ईसवी सन १३११ ) के आसपास, चन्द्रावतीो छीन कर राध लुभाने इनके राज्य समाप्त कर दी। विक्रम-बत् ११६ ( ईसवी व १२९,९ } फा एक लेख वर्माग गोंडके रा-मन्दिरमें मिला है। उसमें * महाराजकुल-विमसि कल्याणगंगयराज्य में शद खुढे हैं। इस विमासिके वंशका इसमें छ भी वर्णन नहीं है। यह पवी विक्रम-भवतुर्की चौदहवीं शताब्दके युहितों और चाके लेयामें मिलता है । सम्भवतः निफट रहने कारण परमार ने भी यदि इसे घरण किया हो तो यह विक्रमसिंह प्रतापसिंहका उत्तराधिकार हो सकता है। पर विना अन्य प्रमाण निश्चय रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता । भाटकी ख्यालमें लिखा है कि अनूका अन्तिम परमार राजर (रूण नामका था । उसको मार कर चौहान ने आबूको राज्य छीन लिया । यही बात जन-से भी पाई जाती है । इसी राजाके विषय में एक कथा और भी प्रचलित है ! वह इस प्रकार है:| राजी हुण) की रानका नरम पड़ा था । एक रोज राजा अपनी पनी पतित्प प६ लेनका निश्चय क्रिया । शिक्षाका चहाना करके वह कहीं दूर जा रहा । कुछ दिन घाई एक सहन-सवाई साथ उसने अपनी पगड़ी रानीके पास भिजाकर कहला वियो %ि राजा अनुगके हायर मारा गया। यह सुन कर पिझाने पातकी उस पछीको गोदमें रख कर रोते रोते प्राप्य छोड़ दिये । अर्थात् पतिके पीछे र हो गई । जब यह समाचार राजाको मिला त• वह उसके शकि ल हो गया और उनकी चिंता इई गई ‘हाय पिङ्गला ! यि पिला |'चिल्लाता हुआ घरगान !! अन्तर्ने गरिन्थ इपास उसे वैराग्य हुया । अतएव न राजपाट छोड़कर गुरुके साथ ही भह भी चनमें चला गया। इस अवसर पर चीनने आज आय द लिया। | इस जनति पर विश्वम नहीं किया जा सकता । मृत भेजने लिएर १ (क परमारोंफो छलप्ते भार फर चहानाने आपूका राय लिया । [ १२७ ]________________

मारतर्फे माचीन जयंदा किराके परमार। विक्रम संवत् १२१८ के राष्ट्र में प्रकट होता है । कूगरज द्वितीयसे परम कि एक दूसरी शाखा चली । उक्त में इस आमाके राजाके नाम इस प्रकार मिलते हैं: १सछिराज ।। ग्रह कृष्णनिका पुत्र प्रा और बड़ा दाता या। | २-उदयराज ।। यह सोइरानका पुगे । । यही उसका उत्तराधिका हुआ । यह बड़ा वीर यी । इसने चील ( Coromandal Cost }, गॉड ( उक्त बङ्गाल ), फगट ( दर्नाटक और माइसर राज्य असिएसका देश ) और मालको उत्तर-पजिमीं प्रदेश विजय किया । यह खोली सिंहराज़ जयसिंहका सामन्त था । | ३--सोमेश्वर ।। यद् उदयराजका पुन या । उसका उत्तरापिंकारी भी यही हुआ । यह भी बढ्य घर या । इसने नयाई कृपासे हिंदुराजपुळे राज्यको फिरसे प्राप्त *या । दुगारपालकी कृपा उसे इसने दृइ बना धिर । इसने कराहमें बहुत सायं नङ राप किंया । विक्रम-संवत् १२१८ में आश्विन मास के शुक्ल प्रतिपदा, मुम्बाको, इंदु हर दिन इ इसने राजा जनसे सन र बीई दे दिये । उससे दो किंवा fi तनुफेट (तोर-सहरमें } र नववर ( नासर-जोधपुरेमें) इसने छान ले । अन्त जनों घालुक्य कुमारपाटके अर्धन काके में सूर्यान उसे टोड़ा ॐि । ॐ चाने इतके समय पूर्वोक्त लेसने प्रष्ट होती है। 47 - ११३६ (ईसवी व ११ १५) मा मात्र ११ का एक है। टि-राज्य माग्टी गॉवमें मिला है । यह रा (सोन) के पुत्र इमरानकै मपाई। पर, इसमें इस राजाकी जाति का उस नहीं । अत' यई राज नन धा, इन विपद पर काम करना ह सकते। | (१)मह स यता हुआ है। पढ़ः राम्भ ३i दस 4 ५1 ॐ 1 गई दो बाम । [ १२८ ]________________

चौतफ परमार दाँतके परमार 1 | इस समय के परभ वंशमें ( आबू पर्वतके नीचे, अम्बा भवानीक पास ) दाताके राजा हैं । परन्तु थे अपना इतिहास व ही विचित्र इँगसे बताते हैं में अपने यूके परमारोंके वंशज मानते हैं। पर साय ही यह म ते हैं कि हमें मालवेंकै परमार राजा उद्यात्य पुश जुगदेवके वंशज हैं। अन्धचिंतामायके गुजराती अनुक्रमें लिये हुए मालवेंकै परंगाई इतिहासको इन्होंने अपनी इतिहास मान क्या है । पर साथ ही वे यह न मानते कि मुके थे भाई सिंधुग' पुन भेजकै पीई कमशः | राजे हुए उदयकरण ( उदयात्य), देवकरण, सैमकरण, सन्ताश, समाज और शालिवाहन | इनको इन्होंने छोड़ दिया है। इसी शालिवाहनने अपने नामसे श०सं० चलाया था। इस प्रकारकी अनेक निर्मूल कल्पित बातें इन्होंने अपने इतिहासमें भर ली हैं।ऐसा नाम होता है कि जब इन्हें अपना प्राचीन इतिहास ठीक ठीक न मिला तर इघर उघरसे जो कुछ अण्द्ध दण्ड मिला उसे ही इन्हेने अपना इतिहास मान लिया । हिडदेव पहेको जितना इतिहास हिन्दू-राजस्थान नामक गुजरातीपुस्तफमें दिया गया है उतना प्रयिः सर्भ कल्पित है। जो थोडासा इतिहास प्रबन्धचिन्तामणिसे मी दिगा गया है उससे पता- ' थाका कुछ भी सम्न्ध नहीं । परन्तु इनके लिये कान्हदेवके पीछेके इतिहासगं कुछ फुछ सत्यता मालूम होती है । समय हिंसा भी यह ठीक मिलता है । यह कान्हव अचूके राजा धारावर्षका पत्र और सोमसिंहको पुत्र गाइसको दूसरा नाम रणरान था ! यः दिम संच १३०३ घाद तक रिभान था । वातावाले अपनेको कान्हुदै पुन फल्पणवा पेंशज मानते हैं । अतः यह कल्पणदेव कन्दैिवका छोटा पुत्र और यूके रामा प्रतापसिंहकी छोटा भाई होना चाहिए। [ १२९ ]________________

भारतकै प्राचीन राजबंश जालौरके परमार । विक्रम संवत् ११७४ (ईसवी सन् १११७ ) आगाड़ सुदि ५ की अक लेह मिला है । यह लेख जालोर किंलके सोपानेके पालकी दीवारमें लगा है । इसमें परमारोंकी पदि इस प्रकार लि गई हैं:-- १-यापतिराज ! पूर्वोक्त में लिखा है कि परमार-वंश बापतेरा नामक राना हुआ । यद्यपि माल्में भं राजा वाक्पतिराज ( भुज ) हुमा है यावि जसके कोई पुग्न न था । इस दिए अपने भाई के भोजको उसने गोव लिया था । पर लेमें वाइपतिज्ञके पुत्रका नाम चन्दन लिया है। होम प्रतीत हो कि यह वाक्पतिर इन माळवेके परस्पतिजसे भिन था। -चन्दन । यह यातिरानका पुत्र था और इसके पीछे गद्दी पर बैठा । ३-देवराज । यह चन्दनका पुत्र और उत्तरारी था। ४ अपराजित । इसने अपने पिता देवराजळे वाद् राज्य पाया। ५–विज्ञछ । पर बापने पिता अपराजिता उत्तराधिकारी हुआ। ६-धारावपे । यह विज्ञलेका पुत्र .या तथा उसके बाद राज्सको अधिकारी हुआ । ७–बीसः। धावर्षका पुत्र वीरुल ही अपने पिताका उच्चाधिका हुआ । इन राना भैलरने सिवाके मन्दिर पर सुइ-कदा चाया, [ १३० ]________________

जालोर परमार! जिसका उल्लेख तुम सिन्धुराजफे वर्णनमें कर चुके हैं। पूर्वोक्त विनासंवत् ११७४ का लेस इसके समयका है ।। फुटकर | जालौर सिर २१ मारवाडमें परमार; लेख पाये जाते है । रोल नामक गाँव कृत्रं पर भी इनके चार शिलालेख मिले हैं । वही इनकी सबसे पुराना लेख विक्रम-सवत् ११५२ (ईसवी सन १८९५) का है । यह बँधार इसीरावका है । इसके पिताका नाम पाया था । यह इसीराव' | मकनपुरमें मारा गया भा ! दूसरा लेख निकम-सवत् ११६३ को, इ राघकै पुनका, है । उसमें राजाका नाम टूट गया है। तीसरा विक्रमसर्बत् ११६६ ( ईसवी सन् ११०९ } को, इसीरचके पुत्र चाच्यपालका, है । चौथा विक-सवत् १२४५ छा पेंदारसहजा (१) का है। इससे अनुमान होता है कि यहां पर भी कुछ समय परमाको ज्यो अबश्य रहा। [ १३१ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश मलचेके परमार । यद्यपि, इस समय, इस शाखाके परमार अपनेक विक्रम संवत् चलानेवाले विक्रमादित्य वंशज बताते हैं, परन्तु पुराने शिललें, सागपन और ऐतिहासिक पुस्तक में इस विषयका कुछ भी मन नहीं मिलता । चई मु, मेज़ आदि राजाओंके समयमें भी सुई ही खयाल किया जाता होता, तो मैं अपनी प्रतियोंमें विक्रम वाग का गौरव प्रगट किये विना कभी न रहते । परन्तु पुस समयीं प्रशस्तियों दिमें इस विषयका वर्णन न होनेसे केवलं आग झल कपिल दन्तकथापर थिम्घास नहीं किया जा सकता । | परमाई खो' तथा पद्मगुप्त (परिमल) चैत नवसाहस दरित नामक कवियों लिसा है कि इनके मूल पुरुपकी उत्पत्ति, ( १) भग्ल्यू / हिमगिरिता सिदद दी धन्यवैिः इन प्रानभाजामभितफलोत सुंदरू । विभामिन वनितन [ छ वो यत्र गा भाषाजने चारोमिङ्मापुत्रीधन काक एय [५] मायचा परन्नुमारिन्यै स तत मुनि । इवाचे परमार [ कुमपा ] भिन्द्र भविष्य [६] दवासिलय इमपामरीदारासीत् । चपेन्द्र किंवान्न धौ ( } यति नृपत[मा ] [५] {-उपुर–बाहिर–प्रति , एर्गिमाफिया इचिवा, जिल्द), भाग १ (२) मंशः प्रवक्ते अस्मादिराजन्म:२९ ।। नांत गुतैर्गुदा नृमुकाफीव ॥ ५५ ॥ रास्मिन् 'गुग्नतापो निधिमईत ।। उद इन पने जा दुग्नभि , 7 ५६ ।। (-नयसाईरापरित, इ १) [ १३२ ]________________

मालवे परमार । आनू पर्वापर, मसिएकै अग्निकुंण्डसे हुई थी । इसलिए मालवॐ परमारीका म, आबूके परमारों शावमेिं ही होना निश्चित है। मालबेमें परमारोंका प्रयग राजधानी धारा नगरी थी, जिसको में अपनी फुल राजधानी मानते थे । उनको उन्होंने पीछसे अपनी राजधानी बनाया। | इस वंशके राजाका झोई प्राचीन हस्तलिखित इनिहास नहीं मिलता । परन्तु प्राचीन शिलालेख, ताम्रपन्न, नवसासाङ्क चरित, तिलकमञ्जरी आदि ग्रन्थोसे मका जो कुछ वृत्तान्त मालूम हुआ है उसका संक्षिप्त वर्णन इस गन्यमें किया जायगा। १-उपेन्द्र । इस शास्त्रार्फ पहले राजाका नामि कृष्णराज मिलता है। उसका दूसरा नाम इन्द्र था । यह भी लिखा मिलता है कि इसने अनेक ज्ञ फिरों तथा अपने ही पराक्रम बहुत बड़े राजा होने का सामान पाया । इससे अनुमान होता है कि मायाफे परमार में प्रथम राज ही स्वतन्त्र और प्रतापी राजा हुआ । नबसे1साडूचरितमें लिखा है कि उसकी यश, सताके आनन्दका कारण या, हनूमानकी तरह समुहको संघ गया। इसका शायद यही मतलब होगा कि शीना नामका प्रसिद्ध विदुषीने इस प्रतापी राजाका कुछ यशवर्णन किया है। ( ५ ) उन्ना इधर एयरवनुम् ।। अफार मभना भैन मयूपङ्किता मी || ५८ ॥ (नवमात्र , गर्ग ११) (३) भाडेंनी पुस्तकों में इसकी रानीको नाम भीदेवी और बड़े पुत्र का नाम अरार शिरा मिलता है। परन्तु इमपानसे इस पर विधारा २ किया जा सवती । की कि पार्ने इराक पुग्नफा नाम शिवराज भी हिरा मिलता है। (३) सदागतिप्रकृतेन सोयातिदेवाना। इनूमतैय कर स्नाऽभ्यतगागर ॥ ७ ॥ (-न- सा• *, सर्ग ११ ] [ १३३ ]________________

मारतकै प्राचीन राजवंश अनन्धचिन्तामणि और भौगन्धर्म इस दिदुर्घीका होना ना भोज समयमें लिया है। परन्तु, सम्भव है कि वह कृष्णराज समयमें ही हुई हो, क्य% मोजप्रवन्ध आदिमें काबिस, यम, मयुर, माघ आदि भीजसे बहुत पहले के कवियोंङ्का वर्णन इस तरह किया गया है जैसे वे भौजके ही समयमें विद्यमान रहे हैं। अत एव सीताका भी उसी समये होना लिख दिया गया हो तो क्या याश्चर्य है। कृष्णराजके समय कोई शिलाख अबतक नई मिला, जिससे इसका अराली समय मालूम हो सकता । परन्तु उसके अनन्तर उठे राजा मुझका देहान्त विक्रम-संवत् १०५०और १०५४ (ईसवी सन् १९३ और ९९०)* बीचमें होना प्रसिद्ध इतिहासचा पडित गौरीशङ्कन चन्द' झार्ने निश्चित किया है। अतएव यदि हम हर एक राजाका ज्य-रामय २० बर्ष मानें तो कृष्णाजका समय है ९१० १,३० (८५३ र ८७३६० ) के बीच जाप 1 परन्तु कप्तान स्व० ६० लूआई, एम० ए० और पण्डित कानाथ कृण्ण लेने डाऊर यूळरके मातानुसार हर एक राजाकी राजत्यकाळ २५वर्ष मानकर कृष्णराजका समय, ८००-२५ ई निश्चित किया है। ३-दरासह यह राजा अपने पिता कृष्णराजके पीछे गद्दी पर बैठ्य' । (1)ौरक्कमका प्रान इतिहास, माग १, पृ० ७७।११)जैन-दरिदुराग में, जिगी समाप्त कसंवत् ५५१ वि० ० ८४+ = ६• सं= ७८१ ). गि ३ कि इस समय स्त्रन्तीय राजा कमात्र है ।इयर उसः सैनके अ६ परेमाका अधिकार माथे पर हुअा होगा। {}} परमग्र या घर ऐ! भाला, पृष्ट ४६ । { } सनरीरित्रामस्ट्रीय पाप वा ।। 11: प्रजातघाईतम्भवप्रध:[८] ( ए•ि इ•ि , •ि 1, • ५) १० [ १३४ ]________________

मालचेके परमार । ३-सीयक । यह सिंहका पुत्र और उत्तराधिकारी था' ! इन देंन राजाओंका। अयं तक कोई विशेष हाल नहीं मालूम हुआ । ४-वाक्पतिराज । यह सायकका पुत्र था और उसके पॐ गद्दी पर बैठा । इसके विपसमें उपुर १ गवालेयर ) फी प्रशस्तिने लिखा है । यह अवन्तीकी तरुणयोंके नेमपी नामलों के लिए सूर्य-समान था । इसकी सेनाके घोडे गा और समुद्का जल पाते थे' । इसका आशय हुम यही समझते हैं। कि उसके समयमै अवता राजधानी हो चुकी थी और इसकी विजययात्रा गङ्गा और समुद्र तक छुई थ' । ' ५–वैरिसिंह ( दूसरा )। यह अपने वताका उत्तराधिकार हुआ। इसके छोटे भाई वस(१) तर अधि,मौलिमारनप्रभाकरभिवपादपीठः ।। श्रीधयक ककृपाशज लोमिमग्नय ग सुनको विजबिन बुरे भूमिपाल. [६] । | ( एपि० इम्डि", जि !, भा• ५} ( ३ ) तस्माद्वान्तवनमानारविन्दभस्वामभूत्रकृपापानाची । भवाझ्पति तमखानुकृञ्जरहागा-समुद्र-सलिलानि पिबन्ति यस्य [१०] ( एपि• इडि•, जि० १, भा० ५} , (३) भाटकी याद लिखा है कि इस ३७ निनी दाईके बाद कामरूप ( भासाम ) पर विजय प्राप्त की थी । यद् वाक्म भी पूर्वक उदयपुर प्रशस्तके लेनको पुष्ट करता है। इन्ही पुस्तक में इरफ खीफा नाम फलादे नि ३ । १६ वर्ष राज्य करने बाद रानीसहित कुकनमें आकर इसका नाम प्रस्थ डे भी इस बात है।( परमार आ घार छ मालवा, १० ३-३} | Y) भाटी रुप्या किया है कि वारसद चौथैमा लिए गया पा। घ उन गी; के राजाक, घगवत करनेवाली उसकी मौद प्रश्नाके, ११ [ १३५ ]________________

मारतके प्राचीन जिग्ग हुचे बागको हुलाका जागीरमें मिल्ला । उसमें बसाहा, भय आदि मगर, थे । इस द्वंसिंदके वशका हाल आगे लिखा जायगा ।। चसिएका दूसरा नाम बञ्चस्वामी या। उदयपुर ( गवालियर) की प्रशस्ति लिखा है कि उसने अपनी तलवारका बारसे शत्रुओं को मार र भारा नामक नगरी पर दुल कर लिया और उसका नाम सार्थक कर दिया। ६-सीयक { दूसरा )। यह वारसा पुत्र और उत्तराधिकारी थी । इसका दूसरा नाम हर्ष प्रा । नवसाह साहूचतिर्क हस्तलिवित प्रतियॉमें इसके माम श्रीहर्ष पा सीपक, तिल्कमक्ष में हर्ष और सीय दौना,ौर प्रबचन्तामॉर्गको मिञ मिन्न इम्तालावेत मांयाम श्रीहर्ष, सिंहभट और तदन्तमट पाठ मिलते हैं । तथा पूर्व र उदयपुरकी प्रशस्त एस। नाम श्री पंद्रेच उर अाझे लेरामें ग्रंपच लिए । विद्ध, सद्दापता हैं । इसके बदले दानें अपनी निता आप भग्मक फन्दा इसे प६ दा । गफ थे २७ ॥ नित किम का है और यह भी कर जाता है कि नई इगेन, ५५ वर्षको अवग्याने, मृत्यु प्राप्त हुने । (परयार• माट*, पृ: '} (1) जनस्तरमन्पाम्रा ली | पट्ट ] वामन गम्। शीर्न भाराभव मद्धारा चैना न ६ [१] | ( पि• •, * 1, + ५ (*) स्पष्मू-(५)! पप ना ) गज़न्द्रवरदान । थपिदै १२ ग या मिर् को दुध मइगमगाष [१३] १-० -, •ि }, भाग ५} {५) F नपा मारे गृली ३६ । १५ [ १३६ ]________________

मालकै परमार । ऊपर कहे हुए श्रीहर्प दे ना मिलने से पाय जाया है कि. इस राजा नाम भी था, न कि है; जैसा कि गृह मूलरा अनुमान था और जिस पर उन्होंने यह कल्पना की थी कि इस नामके दो टुकड़े होकर प्रत्येक टुकड़ा अलग अलग नाम बन गया होगा। श्रीहर्ष| झा तो श्रर्य ही रक्षा होगा और सिंहका अपभ्रंश यम बन गया होगः ।। परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं मालूम होता । इसकी रानफा नाम बना था । । इस राजाने रुद्रपाठी देशके राजा तथा हूझो जीता। | उदयपुर| प्रशस्ति बारहवें श्लोकमें लिप्त है । इसने शुद्ध tढुंग राजाकी लयम छीन ली । धनमाल कविं अपने पायलच्छी नामक कौशॐ अन्तमें, श्लोक २६ में दिखती है कि विक्रम संवत्. १०२९ में जब मालवावालों के द्वारा मान्यवेट छा गया तन 1।नगरी-निवा| धनपाल कविने अपनी वहिन सुन्दराके लिए यह पुस्तके बनाई । धनमाला यह लिखनी श्रीहर्षकै उक्त विजयका दूसरा प्रमाण । होने के सिवा उस घटनाका ठीक ठीक समय भी बतलाता है। इसी लड़ाई हर्षका चरा माई, चागड़कर राजा कैदेच, नर्मदा तट पर, मटाल { राव) से छूता हुभा मारा गया। (१) श्र धैक्षज्ञस्येव अशमलेरियाम्विका ।। | चडजेत्यमव कलने यस्य भूरेवे !८६ ti | न० ० ६०, स० ११ ) परन्तु इसका मःम माझ पाते में पाग्देवी और भोजप्रबन्ध रावी* लिया है । १३) हिंगदेव दक्षुिण्ण्का राष्ट्रकूळ { टोह ) राजा मा । उसको राजधानी मान्यसैट ( मलइ-निजाम अन्य पौ।। {1} भ पुस्तक में अई भी रहा है कि इसने में ४५ था, २१.. इथ, ३७५ है, १०० मत र न जाण दीर ( एक तरका सिना )। माइ झिमें । [ १३७ ]________________

मारत प्राचीन शिवश सोमदेयके समयका एक शिलालेख कस० ८९३ (वि० स० १०२८=ईसवी सन १६१ ) अश्विन कृष्ण अमावास्याका मिला है। र, उसके अनुयायी करानका एक तान्नपत्र, शक संवत् ८९४ (वि० सं० १०२९ ६० सन् ९२ } आश्विन शुक्ल पूरि मिला है। इसमें वोगमा देहान्त वि० सं० १०२९, के आखिन इ# १५ के पहले। होना निश्चित है। $--वाक्पनि, दृस मुञ्ज । यह मायक, दूसरे ( घ) का ज्येष्ठ पुन था । विद्वान होने कारण पडतोंमें यह वाक्पतिराजकै नामसे प्रसिद्ध या । पुस्तक में इस वायतिराज और मुझ दोन नाम मिलते हैं। इसके चट्टान अनबर्मा में अमरुशतक पर सिंकीन नामक टीका लिया है। इस तिक थाईसवें श्लोक का करते समय अर्जुनम्मिने मुजका एक लाप उद्धृत किंथा है। वहाँ पर उसने हिना है -4 या अस्मत्पूर्वजस्य चक्पिर्तिरजापरनाम्नो मुनदेवस्य । दास वैतागामे इत्यादि।" अर्यात्-- जैसे हमारे पूर्वज बारपनि उपनाम्वाले ऋग्वका ६ नोक, ‘दासे कृतानि' ३'यादि हैं। इस तरह तिल-भञरीम भी उसके मुन्न । याबपतिराज दोनों ना मिलते हैं । दशरूपावलो कती धनिकन " मणयकुपिता हा देवी ने इस को एक स्यउपर ता मुक्का बनाया हुआ। लिहा है और दूसरे पलपर बाग्पतिगमका । विठ्ठल-मून युनिके कक्ष दाधने मुजी प्रभाके तीन श्लोक।जसे में मुझ और तसमें बायपविनि म दिया है। इससे स्पष्ट है ॐि मैं दोनों नाम इके ही अन्य थे । । उदयपुर ( गवालियर ) में सर्च इम रामाका नम देव बाप हिंपन्न ही मिलता है, जैसा कि उक्त सृषकै तरचे श्लोक हा ? - १) Ep Ind FIT, P 235 । [ १३८ ]________________

मालये परमार। शुनस्वस्म विभूषिताखिलधराभाग गुफास्पदं यीकान्तसनस्तबिमवाधिन्याप्यार्थहोदयः । यक्तृत्यो+विश्वकैकलनप्रज्ञातानमः। श्रीमद्वाश्पतिराञ्चदेव इति यः पुभिः सदा कौंते ॥ १३ ॥ अर्थात्-हर्षका पुत्र बड़ा तेज हुआ, जो बिहान और कवि होने से वाक्पतिराज नामसे प्रसिद्ध हुआ। परन्तु नागपुरकै लेखमें इसी राजाका नाम मुन्न लिखा हुआ है । | निम्नलिखित श्लोक दोवैएः समारघर्थिनीवहुपिंधमारपसुद्धाभ्यरप्रवकृमिनाङपागजनि मुजराशो नृपः। प्रायः प्रतिदाधिपाययया यस्य प्रतापानली लोगोषमागनयध्यानान्महीम लम् ॥ ३३॥ इसके सापर याद में इसके उत्पलराज, अमेपर्य, पृथ्वीवल्लभ आई और माँ उपनाम मिलते हैं। उदयपुरकै पूर्वोक्त खसे पाया जाता है कि मैंने फणर्ट, लाई, रहें, और चौल देशको अपने अधीन किया; गुज) जीत कर उसके सेनापतियों को मारी और निंपुर पर तयार उठाई। ये बातें अफ लेखके चौदवे और पन्द्वें श्लोकोंसे प्रकट होती हैं । देखिएः फटलाउकेरुचारुशिरेरिएरागिपकमलः ।। ६५ प्रशिगणार्थितवाती कल्पबुमयः ॥ १४ ॥ अर्थात—जिसने कर्णाट, लाट, केरल और चोल देशको जीता और | ॐ कल्पवृक्षके समान दासा हुआ । सुपॐ विञ्जिमा हुत्वा जनवर्तन् ।। | स्नानू क्वचीती येन लिए मिया ॥ १६ ॥ (१) Ep, fa, Vol It, P. 184, । (२) मारके पाठको देश । (३] नर्मदा पबिपने मात्रै पाच ३।(४) मलदार---पश्मिीय घाटकै फम्माकुमारी का देहा। [ १३९ ]________________

भारतके प्राचीन राजवा | अर्थान--(जसने युवराजको जीत फर उसके सेनापतिपको माया और त्रिपुरी पर तल्दार दाई । | मुझे समयमें युवराज, दुसरा, चैदीका राजा था । उसकी राजधानी निपुरी ( तेंवर, जिला जबलपुर ) थीं। चेदीका राज्य पडोसने होने से, सम्मव हैं, मुन्नने हमला करके उस जयानको ग हो । पर चदीय समय राज्य मुझके अधीन कभी नहीं हुआ। उस समय कृपन ३ दरम्य राजा ने लपके अन था, जिसकी मुने मूई बार तो । प्रचन्धचिन्तामणि अन्य कञ्चने भी यह बात हिंत्री हैं 1। | इसी तरह ही इश पर भी मुझने चडाई की हों तो सम्भव है। बीजापुरके विक्म-मवत् १०५३ १९७ ६ सव) के हस्ति (इयू) के राष्ट्रकून राजी भैॐ पसे' पाया जाता है कि मुने मैवाई पर भी चदाई की थी। उसी उमेय, शायद, मेवाइसे गागे बढ़ कर वह गुजराती तरफ गया हो । उस समय गुगत का उत्तरी मा चालुक्य मूलराजने अपने अधीन ररिया या, और झाटदै चाक्य राजा वायॐ अन या । ये दोनों पिसमें लडे । ३ । परन्तु फट और चल ये दोनों देश, माळवेस बहुत दूर हैं । इसाए वहाँगाहोंने मुन्नी दटाई वास्ता , दा केवल प्रशसाके लिए ही बने यह वीव हि दो-इसका पूर्ग निश्चय नै हो सकता 1 | पन्चन्ताम िक मैन्नुहने मुन्ना सरित विस्तार टिया है। इतका दिन आप नीचे दिया जाता है। वह खिता? - मारवाके परमार राजा को एक दिन पूमने ! पर नाम घाम बन ! समय जमा १६ बहुत ही सुन्दर बाहषा । (१)Jagr, 4, 5 , than 1 sl I II, Pari, T ati [ १४० ]________________

भालचेके परमार। उसे उसने अपनी रानीको सौंप दिया और उसका नाम मु रक्सी। इसके बाद उसके सिन्धुल (सिँधुरान ) नामक पुत्र हुआ। | राजाने मुझको योग्य देख कर उसे अपने राज्यका मालिक बना दिया और उसके जन्म का सारा हाल सुना कर उससे कहा कि तेरी भासे प्रसन्न होकर ही मैंने तुझको राज्य विधा है । इसलिए अपने ग्रेट भाई सिन्धुलके साथ प्रतिका वर्ताव रखना । परन्तु सुने राज्यासन पर उठ कर अपनी आज्ञाके विरुद्ध चलने झारण सिन्घुलको राज्यसे निकाल दिया । तब सिन्धुल गुजरात कासदस्थानमें जा रहा । जब कुछ समय बाद वह मालवैके लौटा तव मुमने उसकी आंखें निवा झर उसे काढ़ पीजडेमें कैद कर दिया। उन्हीं दिनों सिन्धुलके मोज़ नामक पुन पैदा हुआ । उसकी जन्मपत्रिका देख र उपतधने कहा | कि यह '५५ वर्ष, ५७ मत्तीने, ३ दिन राज्य करेगा । यह सुन कर मुझने सोचा कि यह झीता रहेमा तो मैरा पुत्र राज्य न र सौगा । आप उसने मोजको मार हानेकी सा दे दी । जब वधिक उसको चधस्थान पर ले गयै तब उसने कहा कि यह श्लोक मुअको ३ देनाः मान्याता स महीपति* कृतयुगाङ्करभूतो गरासेतुन मोदी विरचित कसि। शान्तिक । अन्ये चापि शुधिष्टिरप्रभृतयों थीता दिवं भूपते । नैकेनापि समझ सा चमती, मन्ये त्यया दास्यति । थति–हे राजा रत्ययुगी यह श्रेष्ठ मान्धाता भी चल्ला गया। समुद्र पर पुल पर्नेवाले चेतायुग वे रावप्न्ता भी कहाँ कहाँ गये, और द्वापर युधिष्ठिर आदि और मी अनेक नृपति स्वामी गयै । परन्तु पृथ्वी किसके साथ नहीं गई। तयापि, मुझे ऐसा मालूम होता है कि अब कलिंचुममें वह आपके पाय जरूर चली जाय। [ १४१ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंडा इस श्लोक पढ़ते ही मुझे यहुत पश्चात्ताप हुआ और भोनको पीछे बुला कर उसने उसे अपना युवराज बनाया। कुछ समय थाइ नै देशके राजा तेलाने' मुझे राज्य पर चढ़ाई $ । मुन्नने उसका सामना झ्यिा । इसके प्रधान मन्त्री रुद्रादित्यने, जो उस समय वीमार या, राजाको गौदी पार के आगे न बढ़नेकी कसम दिलाई । परन्तु मुन्नने पहले १६ दफे तड़प पर विजय प्राप्त किया था, इन कारण घट्ट आकार मुन्न गोदावरी से आगे बढ़ गया । वहाँ पर तैलमने छल से विजय प्राप्त करके मुझको कैद कर लिया और अपनी बांईन मृणल्बको उसकी सेवा नियत कर दिया। | कुछ दिनों चड़ मुन्न और ऋणल्ती आपमें प्रेम बन्धन गये । मुनके मायने वहाँ पहुँच कर उसके रहने के स्थान त सुर का मा बना दिया 1 के बन जाने पार, एक दिन मुले मृण्मचप्ती से कहा कि में इस सरड्के मासे निकलना चाहता हूँ। पांई तू मी मेरे साथ चले तो तुझमें अपनी पन्नी बना कर मुझ पर किं गये तेरे इष्ठ उपकारका पदा ६ । परन्तु मृणावतीने सोचा कि झी ऐसा न हो कि मै मैग्नमत्रिस्याके कारण यह अपनै नगरमें ले जाकर मेरा निरादर हैरभै रगे । अतएव उसने मुझसे कहा कि मैं अपने आफू पगका हि दा ले आऊँ, तबतक आप इहए । ऐसा हर इह सीधी अपने भाई के पास पहुँची और ने मव वृत्तन्त छह गुनाया। यह मुनर होरपने मुझो रस्सर बँाझर इसमें शहरम पर घर में मैंगवाई । फिर उघ। यधस्मान भेजा और कहा कि अच अपने इष्टदेवकी यात्र हो। यह सुनकर ने इतना ही उत्तर दिया किं २थास्त गत्रिदेवै वरन । गने 59 अश में निरIरा व ॥ (1) इस न ३ ३ ३ गइन । [ १४२ ]________________

मालचके परमार। । अर्थात्५ सौ विध्युके पास चली जाय और धीरता गहादुई | पास । परन्तु मुलाकै मरने पर बेचारी सरस्वती निराधार हो जायगी । उसे कहीं जाना ठिकाना न रहेगा । इसके बाद मुझको सिंर काट लिया गया। उस सिरको सुली पर, राजमहल में, खडी कर तैपने अपना क्रोध शान्त किया । जब यह समाचार मालवे पहुंचा तब मन्चियों ने उसके भतीजे भीनफी राहासन पर बिठा दिया। घ्यन्यन्तमणिकारके उसे हुए इस नृत्तान्त मुञ्जकी उत्पत्तिका, सिन्छु ऑखे निकलने और कई पंजइमें चन्द करनेका, तथा भेजकै मारनेका ज हाल लिखा है वह बिलकुल बनाबट्टी सा मालूम होता है। नवसासूसाइचरितका कृत्त पद्मगुप्त ( परिमल), जे भुअॐ दरवारका मुख्य कवि था और न सिन्धुराजके समय में भी जीवित था, अपने क्वायके ग्यारहवें पगमें लिता : पुर काफमात्तेन स्थितेनविकापते । मवबणकिप्यास्य पूर्व दोध्याि निवेशिता ॥ १८ ॥ अर्थात-वाक्पतिराज ( मुन्न ) जज शिवपुरक चला तच राज्पका मार अपने भाई सिन्धुरान पर छह ममा । इससे साफ पाया जाता है कि दोनों भाइपामें वैमनस्य न था, और न सिन्धुराज अन्धा ही था ।। इसी तरह धनपाल पण्डित भी, जो अपन ले । भैन हक्क चारों आऑके मसमें विनाम न था, अग्नी बनाई ४ ल Fuमें लिखता ( १ } fi'। । । हुरित पुन्नने लू ।। ।। लाकर पक्षी ६ बनेका उई। [ १४३ ]________________

मारतके मीचीन ज्ञईग्नहै । अपने भर्तत्र भोज पर मुअ यहुत पीति थी । इससे उसने उसको अपनी युवराज चनामा था । तैला और उसके सामन्तके लेखोंसे माँ' पाया जाता है कि जैनुपर्ने | मुन्नको मारी या, जैसा कि प्रवन्याचन्ताम[कारने लिखा है। परन्तु | मैरुजुड़ने वह वृत्तान्त बड़े ही उपसनीय हैंग है दिवा है । शायडू गुजरात और मालवाके रामाजोंमें वंशपरम्पराले सता रही हो । इससे शाय प्रबन्धचिन्तामणि लेखकनै मुञ्जकी मृत्यु आदिका वृक्षान्त उत्त तरह लि हो ।। माळवेके लेने, नवस्राक्षाचरितमें और क्राइम-निवासी विल्हण कवि बिकश्चिरितमें मुझक मृत्युका कुछ भी हाल नहीं है। सम्म है, उस दुर्घटनाका झङ्क पानेहीके इरादेसे वह वृत्तान्त न सिंह गया हो। संस्कृत-अन्यों और शिलालेखनं प्रायः अच्छी ही बातें प्रकट की जाती है । पराजय इत्याद्विका क्षेत्र छोड दिया जाता है । परन्तु पिछली | वातका पता विपक्ष और विजयी रानाके लेखोंसे न जाता है। सुका साथै दान था । विद्वानों का बहुत बड़ा माता था । जसके दरबारमें घनपाल, पद्मगुप्त, घनश्य, घनिक, इटाघ आदि अनेक दिदान दें। | मुजी यनाई एक भी पुस्तक अमी तक नहीं मिली । परन्त हर्ष के पुन–यास्पतिराज, मुश र उत्पङ–३ नामसे उधत किये गये अनेक लोक मुमााताव मामक प्रन्स और अलारशास्त्र सुतमें मिले हैं ।। ११} 7 4., Fl , p, 12,-1, 4, Fot. Ti, P11, E .:. Ya. I. P १tB. (६} Ey in, FeL 1, , , [ १४४ ]________________

गालदेके परमार। यशस्तिलफ नामक पुस्तकके अनुसार मुअन पगृहमें गडवह नाम काव्य रचना की । परन्तु वास्तव पद काव्य कन्नौज जा अशेवम सभासद् वाक्पतिराजको बनाया हुआ है, जो ईसाकी सातवीं सके उत्तरार्धमें विद्यमान था। पद्मगुप्त लिखता है किं घायपतिराज सरस्वतीरूपी कल्पलताकी जड र फावयका पक्का मिन था । विक्रमादित्य और सातवाहनके बाद | सरस्वतीने इसमें विश्राम लिया था। | धनपाल उसको सच विद्याका ज्ञाता पिता है' से 'यः सर्थविद्माधिना श्रीमुझेन' इत्यादि । | और भी अनेक ने मुनक्की विद्वचाकी प्रशंसा की है।' राषष पापडवीम' महाकाव्यका कर्ता, कविराज, अपने काब्यके पहले सीके अठावें श्लोकमें अपने आश्रयदाता कामदेव राजा लक्ष्मी और विद्याकी तुलना, प्रशसाके लिए, मुकी लक्ष्मी और विद्यासे करता है। मुनके राज्यका प्रारम्भ विक्रम संवत् ११३१ के लगभग हुआ था। क्योंकि उसके जो दो ताम्रपत्र मिले हैं उनमें पहली वि० सं० १०३१, मापद दि १४ (६७४ ईवी) का है। यह उनमें लिया गया। यो । दूसरा वि० सं० १०३६, कार्तिक पूर्णिमा ( ६ नबंबर, १९७९ ईसवी ) का है, जो चन्द्रग्रहण-पर्व पर गुणपुरा में लिखा और भगतपुरामें दिया गया थ । इन ताम्रपत्रों से मुका शव होना सिद्ध होता है । | समापतरनसन्दोह नामक अन्य कर्ता जैनपाटत अमितगतने जिस समय उक्त अन्य बनाया उस समय मुझ वैद्यमान था । यह उस (१) द्विलकमरी, ५० ६ । (५) भनिन्यायोभिनौ यस्य धीमुशादिमती भिदा । पिरसानारिदप तारापति ॥ १८ ॥ सर्ग १ ( Ind. Ant, Yol VI p 51 ()Iod Ant, Vol. XIV, P, 108, Ind Ixx Bp.. , १०१ [ १४५ ]________________

भरतके प्राचीन राजयंदा अन्यसे पाया जाता है । वह वि० सं० १०५०, पॉप-नुदि ५ ( १९९४ ईसी) को समाप्त हुआ था। विक्रम-संवत् १०१ ( १००० ईसी) के एक लेप यादर्द-राजा भिल्लम दूसरे द्वारा मुझङ्का पास्त होना प्रकट होता है। | लपका देहान्त वि० सं० १०५४ (९९० ईसची ) में हुआ था। इससे मुञ्जका देहान्त वि० सं० १०५१ १ ९९५ ईसी) और विं सं. १८५४ (९५५ इंग) के बीच किसी समय हुआ होगा । | प्रबन्धचिन्तामणिका करो छिता है * गुजरातका राजा दुभाग वि० सं० १०७७ जेठ सुदै १२ को, अपने मूर्तीजे भीमको राजगद्दी पर विय दर, शीर्थव।की इच्छा, वनारसके दिए मला । 'मालपेमें पहुँचने पर वहाँ के राजा मुमने उसे कहला भेजा कि या तो तुमको छत्र, चनर भाई राजाचं छोड़ कर भिशुमके वेशमें जाना होगा या मुझसे लड़ता. पड़ेगा । दुर्लभजने यह सुन कर घर्मकार्य विन्न होंती देरर (भट्टाफ नेश महपान किया आंर सौर हा भीमको लस भेजा ।। हुमायापफ द्वाफार दिसता है कि नारा हा विषयी या ।.इससे उसी बहिन चावणी ( ग्वाचिजी) देवाने बन्नको राज्यसै दूर करके उराके पुत्र मल्लमानो गईपर बिठा दिया। इससे बिरक होकर चामुण्डराज काशी जा रहा था । ऐसे समय मा उसने मारबाके लोगन लूट लिया । इसे पह बहुत कुद् हुजी और पंछे लाट कर उसने चङ्गजको मात्र निको दण्ड देने आज्ञा दी ।। | इन दोनों घटनाका अमिय एक ही घटनाते हैं, परन्तु न तो जामुण्ट नहीके रामयने मुग रियति होती है और न इर्दभरातही समयमै : पॅकि मुअा हैान्त वि० रा. १०५१ और १०५४ के धीच हुआ या । पर चामुण्डराने ३• मं० १०५३ मे १९६६ ६ र (१) Ep. Tad., vi. 1, : १०१ [ १४६ ]________________

मालपैके परमार । दुर्लभराने वि० स० १०६६ से १०७८ तक राज्य किया था । अतएव गुजरातका राजा चामुण्ट्रानका अपमान करनेवाला मायेफ। राना मुझ नहीं, किन्तु उराको उत्तराधिकारी होना चाहिए । मुका प्रधान मन्त्री रुद्रादित्य था । यह उसफ़े लेखेने पाया जाता हैं। जान पड़ता है कि मुझको पनि दालान आदि बनाने का भी कि या । घार पासको मुखसागर और मॉड्के जहाज-महलके पासका मुझ तालावे आदि इके बनाये हुए खयाल किये जाते है । अब हम मुनक्की समाकें प्रसिद्व प्रसिद्ध गन्य का उल्लेख करते है । इससे उनकी आपसी समनताको म निश्चय हो जाय । । धनपाल । | गल्ल कविं काश्यपीय ब्राह्मण देवपिंकी पोन और सर्वदेवका पुत्र था । सचदेव विशाला ( जन ) में रहता था । पह अच्छा विद्वान् था आर जैनस जसका विशेप समागम् इहा । धनपालका छोटा भाई जैन हों गया था । परन्तु धनपालकों जैनॉझे घृणा थी । इसीप्त वह उजेन छोड़कर घारानगरीमें जा रहा । वह उसने वि० सं० १०२९ में उभरकोपकै ३गपर * पसलछीनाममाला (प्राकृत-रूक्ष्म) नाभा मत प अपनी छोटी हुन सुन्दरी (अवन्तसुन्दरी) के लिए बनाया । उसकी बहन भई विड थी, उसकी बनाई प्राकृत-कविता अलङ्कार-शाखके ययों और कॉपॉफी काम मिलती है। धनपालने आजा मोजकी आज्ञासे तिलकमंजरी नामका गद्यकाव्य रचा । मृञ्जने उसको सरस्वतीकी उपाधि दी थी । इन दो पुस्तक के सिवा एक समूहुत-घ मी उसने बनाया था। परन्तु चढ़ अब तक नहीं मिला। (1) Tad Ant, Vol XIV, P 180 १०३ [ १४७ ]________________

भारतके प्राचीन राजवैश प्रवन्च न्तामणकार मेरुतुङ्ग लिखा है कि वह अपने भाई शोभन उपदेशचे झवृर जैन हो गया था । उसने जीव-हिंसा रोकने के लिए मोनको उपदेश विप था तया जैन हो जाने पर तिलकमञ्जरीकी रचना की थः । परन्तु तिम्नमें बहू अपनो माझप लिंबना है। इससे अनु' मान होता है कि उक्त पुस्तक ले जाने तक यह जैन न हुआ था। | तिकमञ्जरी यनः १०७० के ममग हुई हो । उस समय | पश्यी -नाममाला लिखे जसे ४० वर्ष है। सुके होंगे। यदि पाइप लु नाममा पनाने समय इसी म ३० वर्ष लगभग मानी जाय तो तिलकमरीकी रचनाके समय वह कोई ७० वर्षकी रही होगी। उसके बाद यदि वह जैन हुआ हो तो आश्चर्ये नहीं । डाक्टर गुलर और दानी साद मौनके समय तक पनपालका वित रहना नहीं मानते 1 परन्तु यदै ३ उक कवि बनाई तिलकमलरी देखते तो ऐसा कभी न कहते । अपमपाईको भी इस कृत्रिी बनाई पद्मसुन्न । इसका दूसरा नाम परिमळ था । मुजके दरबारमें इसे कविराज उपाधिं यी । तोरी एक इस्तलिमित नवसाच्चान्यरिती पुस्तकमें परेमलका नाम कालेदार भी लेता है । इसने मुझे मरने पर कविता घरना छोड़ दिया था। पर फिर सिन्धुरान कहने से नवसासाइत नामका काय यनाया । यह मात्र कविने अपनी रचित पुस्तके प्रधने सुके माथे में यक्त किया है दिन विदामुपम घामुदामन या पापरान । । सानुबन्ा बघिबय भिनाते ना सप्रति छिराइ ॥ ६ ॥ त्यापतिराजने वर्ग जाते समय मेरे मुर पर सामोशी मुहर दगा दी । पुको उम्रकों द्वारा भाई न्युराप्त अत्र तोड़ रहा है। १० [ १४८ ]________________

मायेके परमार। | इसके बनाये हुए बहुत से लोक काश्मीरके कवि क्षेमेन्द्रने अपनी • औचित्ययेचारप' नामक पुस्तफ उद्धृत किये हैं। पर चेक नवसाहसाचारेतमें नहीं हैं। इन श्लोकांनं माळयेके राजाका प्रताप-वर्णन है। इनमें से एक में मालवैके राजाके मारे जानेका वृत्तान्त भिसे यह पाया जाता है कि वे श्लोक राजा मुझसे ही सम्बन्ध ख़ते हैं। इससे अनुमान होता है कि उसने मुझकी प्रशंसा में भी किसी कान्यकी रचना की होगी । | म कविके गनेक श्लोक सुभाषितालि, शाइँघरपद्धति, सुचतिलक आदि गन्यमें उद्धृत हैं। | इसकी कविता चहुत ही सरल और मनोहर है । यह कवि नवसाहसाहूचरितके प्रत्येक सगैकी समाप्ति पर अपने विताका नाम मृगाइगुप्त लिखता है ! धनञ्जय ।। इसके पिताका नाम विष्णु या 1 यह भी मुञ्चकी सभाका कवि था। इसने ' दशरूपक' नामका मन्य बनाया। | धनक। यह धनञ्जयका भाई था । इसने अपने भाई रचे हुए दशरूपक पर * दशरूपावलोक' नामकी टीम लिपी और * काव्यनिर्णय ' नाममा अलङ्कारमन्य बनाया। इसका पुन वसन्ताचार्य म विद्वान था । उसको राजा मुन्नने तयार नाभा वि, वि० सं० १०३१ में, दिया था। इस ताम्रपत्रका हम । पहले ही जिफ कर चुके हैं । इसरो पाया जाता है कि ये लोग ( घनिक और धनञ्जय ) अहिच्छत्रसे आकर उनमें रहे थे। ११) इस भौगगासून परापरनामः पपग्रतस्य तौ ननसाइयाइबरने म ध्ये ......... सः । १३) Ind, Ant., Yel. p. 51, १६५ - - -[ १४९ ]________________

मारसके प्राचीन राजवंश हलायुध। इसने मुझके समपर्म दिइ-इन्दन पर ‘मृतावनी' की खीं। इस नामके और दो कवि हुए है । डाक्टर मापारकर्के मतानुसार कवैिरहस्य और मेघान रत्नमाला कर्ता हलायुध दणके राइटोंक संगमें, वि० सः ८६७(१० ईस ) में विशमान मा ।। इस नामझा दुसरा कवि बालके आखिरी हिन्दू-राना लक्ष्मणसेन की सभमें, वि० सं० १२५६ ( ११९९ ईसी) में, बिंद्यमान था । मान्धाताके अमरेश्वर-मन्दिरकी विस्तृत शायद इसी वनाई हुई है। यह स्तुति वाँ दीवार पर खुदी हुई है। तीसरा हलाप डाक्टर बुलाके मतानुसार मुल समयका यह हापुघ ६ । कथासे ऎसा मी पापा उरला है कि इसने उसीव्रन् टीकाके सिवः ‘राजपवहरितव' नामक एक कानुनी पुस्तक भी बनाई थी। जिस समय यह मुन्नका न्यायाविका था इ समय इसने इसकी रचना फी थी। । कोई कहते हैं कि हलायुघ नाम १२ कवि हो गये हैं। अनितगाते। यह माथुरसयका दिगम्बर जैन साध शा । इसने, वि स १०५० (९९३ ईसवी ) में, राजा मुनके राज्य-काल सभापताइदा नानक पप बनाया, अर, वि० १० १६० ( १८१३ ईसी) में धर्मपरीक्षा नाग पन्य रचना । इस गुरुका नाम मापन था । ८-सिन्धुराज ( सिन्धुल }। मुशने अपने जीते जी मोनको युवपन बना लिया था। उसके यहे | ही दिन पाद नए मार गया 1 इस समय, मोजके पार होने कारण, उसके पिता सिन्धुराजने आशङ्कायॆ अपने हायमें ले टिया । इसी १०६ [ १५० ]________________

मायेके परमार। शिलालेखा, साप और नासासाङ्कचरितमें यह भी राजा र लिखा गया है। परन्तु तिलकृमन का इत, जो मुली • भोज दोनों के समयमै विद्यमान था, मुझे बाद भौजको ही राजा मानता है और सिन्धुराज कपल मनके पिता नामले लेता है 1 प्रबन्ध चिन्ताफारचा भी यही मत है । इस राजाका नाम शिरा, ताम्रपत्र, वारसान्चारत और तिल| प्रश्नमें विराज । मिलता है। परन्तु अन्धचेमाडार सचेत | र मोजममन्धका कलां चलाल पण्डित सिन्धुल हि पता है । शायद ये इसके कैक ( प्राकृत ) नाम हो । नवसासाङ्कचरितमें इराकै कुमारनारायण र नवसहमहु ये दो नाम और में मिलते हैं । याद् बडा ही घर पुरुप दी । इसके समयमें परमाका राज्य विशेष उन्नति पर थी। इन हूण, कोल, बागड, लाई र मुरल चालको जीता था । इस अफारके अनेक नवन साहस करनेके करण ही वह नवसासाह्न - लाया । उदुमपुरकी प्रशस्तिमें लिखा है - तत्यानुज्ञो निगरान श्रीसिन्धुन जियाजिंती । अर्थात् उस मुका छोटा भाई सिन्धुज फूण जीतने वाला हुआ 1 | मूण-क्षत्रियों का जिक्रे कई जगह राजपूतानेक ३६ जातियों किया गया हैं। | पद्मगुप्त ( परिमळ ) ने नवदृचरितमें, जिसे उसने वि० सुरु १०६० के लगभग बनाया था, सिन्धुजफा जीवनचरित इस तरह लिखी है: पहले नं–कविने शिवस्तुतके बाद मुझ और सिन्धुराजको, (३) Rajsthan, F 7 {p [ १५१ ]________________

मारतके प्राचीन राज्ञवश उनकी गुणमाकता झिंए धन्यवाद देकर, उज्जयिनी और घाराका बर्णन किया है। दूसरे में अपने मन्त्री रमाइझे साथ सिन्युराज विन्ध्याचल पर चिंकाके लिए जाना, वहाँ पर सनेही जंजीर गलेमें धारण किये हुए हाँरेणको देखकर आश्चर्य्यपूर्व राजाका वसो बाण मारना और वापसहित हरिणका माम जामा लिँखा है। तीसरे गर्भ बहुत हूँढने पर भी उस हरिणका न मिना उसकी स्वोज फिरते हुए राजा चोचमें हर हिंए हुए एक हँसको देवना, उर हंसका उस दौर जाके पेपर गिरा देना, राजाका उसपर नागरान कन्या शशिप्रमाण नाम लिखा हुआ देखना, उस पर अशक होना और उसे ढूँढनेका इरादा करना, है । | चौथे औ? पाँच सगर्भ–कारक। खोजमें शिप्रभाफी सहेली पद्धिलाका गाना, राजाचे मिलना, इमऊना समझकर हार लेकर हंसका जड़ जाना आदि राजा कहना, उसे नर्मषा तटपर जानेकी सलाह देना और, इसी समय, उधर नर्मदा तटपर बैठी हुई शशिपमा पसि उस पायल रिणका गाना, शशिमभाका विपके शरीर तर पचना, इसपर नवसायाहू नाग पद्धका राजापर आसक्त होना धपत है। छठे सर्गम-शशिप्रमाझा नवसाहसहूि मिलनेकी युकैि सोचना है। सात सर्भ-ग्वादरहित राजाका नर्मदापर पहुँचना, शशिप्रममें मिलना और दोनों पारम्परिक मेम-प्रकटण घर्जित है। गाठ रान- इन लोगों के आपसमें बातें करते राग तूफाम।। आना, पाटलसित शशिमा उड़ाकर पाना भगबती नगरी ले जाना, गाको भाकाबाका । किन र न्या पिता मणको पूरा करेग उरके शाप इशा निगा रोग } गुनाई देना। ८ कारिस गलसे मेनीघात निवि नर्मदा प्रसन्नी, वह एक १८ [ १५२ ]________________

मालदेके परमार। गुफा द्वारा एक महलमें पहुँचना और पिंजरे में लटकते हुए तत' द्वार रूपवती के वेश नर्मदाको पहचान कर उससे मिलमा वर्णित है । म सर्गम–राजाने नमैदासे यह सुनाई रत्नावती नगर यहाँसे १०० कोस दूर है। यज्ञांकुश वॉका स्वामी है । उसके महलके पास | तालाघसे सुवर्ण-कमल लाकर जो कोई शशिप्रा कान में पहनावेगा | उसी को नागराज अपनी कन्या देगा 1 इस पर राजाने वंकू मुनिके पास जाकर उनसे सहायता में । दसवें सर्ग--का राजाकों समझाना, राजाका रत्नचूड़ नामक नागकुमार द्वारा, जो शाप तौता हो गया था, शशिप्रमाको सन्देश मेजना और नागकुमारका शापसे छूटना लिखा है। ग्यारह सर्गराजाचा बंकु मुनके आश्रम जाना, रामाङ्गद द्वारा परमारोंकी उपत्तिका वर्णन और उनकी वंशावली हैं। नावे सम–स्य राजाको शशिप्रभासे मिलना वर्णित है। | तेरा सर्ग-राजाका बंकु मुनिलै यातचीत करना, विद्याधरराज लड़के शशिखण्डको शापसे छुद्धाना; वियाघरोंकी सेनाकी सहायता पाना र राजीका वैज्ञांक पर चढ़ाई करना लिया है ।। चौदहवें सर्गम —राजाका विद्याधर-सैन्यसहित आकाश मार्ग से रवान होता, राष्ट्रवादफा घन आदिकी शोभा वर्णन करना और पाताळ-मद्रा तीर पर पैनासहित निवास करना पति है। पन्द्रावें सम- पाताल-गामें जलक्रीड़ाका वर्णन हैं। शोलहवं शशिप्रभाका पत्र लेकर राजाकै पास पाटलाफा आना; राजाका उत्तर देना, रत्नचूड़ा मिना, माझ्दो दशके पास सुवर्ण-कम मॉगने भेजना, सफा इनकार करना, रमाइदा वापस आना और युद्धकी तैयारी करना है। [ १५३ ]________________

भारतके भाचीन राजवा सत्रहों में विद्याधर-सन्दराहत नमामाई का मज़ाके साथ युद्ध-वर्णन, जाके द्वारा वादाझा भर जाना, उसकी जगह। रावत का राज्य भागकुमार रत्न देना और सुवर्ण-कमल क्र मगवती नगरीमें जाना वास हैं। | अाए सर---राजाकी नागरागसे मिलना, एटकेश्वर महादेव दर्शन करना, मृगका शापसे मुंद होकर पुरुषरूप होना और अपनी परमार श्रीहर्षदेरका द्वारपाल बताना, जिकिा शशि प्रमाके साये विवाह, नागराजा राणाको एक फर्टिकशिवलिङ्ग देगा, रामका अपने नग१) टन, उन्नार्थी महाकालेश्वरके दर्शन करना, धारी नगमें जाफर नागराजकें दिये हुए शिवलिङ्घक! स्थापन झरना, श्टिाधर आदि कों का ज्ञान और राजाका राज्य भार अपने हाथमें लेना वर्जित है ।। इस कथा सत्य और असत्यका निर्णय करना बहुत ही नि है। परन्तु जहाँ तक अनुमान किंया जा सकता है यह मागकन्या नाग वशी क्षत्रियोंकी कन्या थी । चे क्षत्रिंय पूर्व समयमें राजपूताना शीर मध्यभारत में रहते थे । यह घटना भी हु थाइ निकटकी प्रतीत होती है। इससे सम्वन्ध ररनेवाले विद्याधर, नाम र राक्षस आदि विंध्यपर्वतनिवासी क्षत्रिय तथा अन्य पहाड़ी लोग अनुमान किये जा झते हैं । नागनगरसे नागपुरका भी योघ । राकला है। साक्टर कूलर मतानुसार नवशJहसाङ्कयरतका रचना-काल १००५ Hदी और मजझ गद्दी पर बनेका समय १८१० ईसा है ।। बाल पाGइतने अपने भोजप्रवधमें लिंग है कि रिज़हे मरने समय मैन पाँच वर्षका या । इरा सिरानै अपने छोटे भाई मुझको राज्य बैङ्कर, मोजो इसी गाव रस या । परन्तु यई लेव किसी पार विश्वासयोग्य नहीं। क्योंॐि सिन्धुर न मुञ्च का ग भ६ प । [ १५४ ]________________

मालचेके परमार | भोजके चालक ने कारण ही वह राज्यासन पर बैठा था । यह सिद्ध हो चुका है ।। इसके समर्म आणहिलवाइके चालुक्य चामुण्डराजन अपने पुन राज्य देकर तीर्थयात्राका इरादा किया था और मृाल में पहुँचने पर राज्यचिद् छनने की पटना हुई थी। उसके बाद बल्लभजने अपने पिताके आज्ञानुसार सिन्दुराज पर चढ़ाई की थी । परन्तु मार्गमें चेचककी बीमारी! वह मर गया । इस चडाईका जि पडनगरकी प्रशस्ति हैं। प्रपन्बकास भी इस मापस लडाई(९९७-१८१० ईसी) फा पता लगता है, जो सिन्धुराज हया चालुक्य चामुण्डराज और । बच्चभराज साथ हुई थी 1 । | इसके जीते हुए देशों में से कौशल और दक्षिण कोशल (मध्यप्रान्त और बुराइका कृ4 भाग ) होना चाहिए, क्योंकि वे माघेकै निकट थे। इरी तरह वागडदेश राजपूतानेका वागड होना चाहिए, न कि कच्छका। यह वागड़ अधिकतर इंगपुर के अन्तर्गत है, उसय कुछ भाग घॉसवाडेमें भी हैं । | पद्मपि मुरल अयति दक्षिणका केरल देश माङसे बहुत दूर हैं तथापि सम्भव है कि सिन्धुजने मुक्षका बदला लेने के लिए चाक्यज्य पर चाई की हो और देर तक अपना दखल कर लिया हों । इसके बाद भेजने भी तो उस पर चढ़ाई की थीं। यह राजा शैव मालूम होता है। इसके मन्त्री रमाद्वका दूसरा नाम यशोभट्ट या । १–भोज । इस में मोज सबसे प्रतापी राजा हुआ । भारतके प्राचीन इतिसमें सेवा विक्रमादित्यके इतनी प्रसिद्व वि राजानै न प्राप्त की। { { } Ep Ind 1, [ १५५ ]________________

भारतके प्राचीन राजचश यह इतना विद्यानुराग और विद्वान म्मान करनेवाला था कि इस विषयकी सैंकडों कयायें अबतक प्रसिद्ध है। | राज्यसन पर बैठने समय में कोई १५ वर्षका था । उसने उज्जेनको छोड़ घाराको अपनी राजधानी बनाया । बहुधा वह वही रहा करता या । इससे उसकी उपाधि धारेवर हुई ।। | भेगका समय हिन्दुस्तान विशेष महत्व था, श्यक १० ११ से १०३० सव तक गहमर गजनवीन मारत पर पिछले ६ हमले किये। मथुरा, रोमन्थ और कालिंजर भी उसके हस्तगत हो गये । भोजझे विषयमें उदयपुर १ ग्वालियर) की प्रशस्तिकै सहने कमें छिपा हैं: अछाम्रान्सलरतेवेदादिया। मुसा ची प्रश्नपतैदुल्यमै मैन । उ मूल्यवाभरगुः [ग] या लग्ना चापयन्। क्षिप्ता दिई चितिर्षि पतं नंदतिमापादित ६ ॥ अपांत् उसने कैलास ( हिमालय ) से लगाकर मलयपर्यंत (मलदार) सुकके देश पर राज्य के । यह केवल इविन्पना और अत्युक्ति मात्र है । इसमें सन्डेंस नहीं के मौज)। प्रताप बहुत बढा हुआ था। फिन्त उसका राज्य मुन्नकै राज्यसे अधिक विस्तृत था, इसका कोई प्रमाण नहीं भरता । नर्मदाके उत्तरमें, उसके राज्य पोडा बहुत बही माग था जो इस समय मुवेल एण्ट्स और बघेलाह। ड़ कर मय भारतमें शामिल है । दक्षिणमें इसका राज्य किसी सुपथ मौदायर किनारे तक पहुँच गयी जान पहता है। नर्मदा और गौदाकै बीच प्रदेशके लिए परमार्तं और यमैं बहुघा घि रहता था । इसी पशक्षिके इन्नीसवें श्लोकमें लिखा है - भैईश्वरेडरर [ ] छ ! ममम् ] ख्यान, अटलाप्रतिगुर्जेरालुछा। ११६ [ १५६ ]________________

मालचेकै परमार। यदुनृत्यमापजिनिबलों [य] मला दोच्या पद्धानि कथयन्ति न [य] ले [कार्] it अर्यवं भोजने चेदीश्वर, इन्द्ररय, भीम, तोयल, कणटि और छाटके राजा, गुजरात के राजा और तुको जीता। मोजक्का समकालीन चेदीका राजा, १०३८ से १०४२ ईसवीं तक, कलचुरी गाङ्गेयदेब थी। उसके बाद, १०४२ से ११२२ तक, उसका लड़का और उत्तराधिकारी कवन गा, जिसकी राजधानी दिपुरी थी 1 ईन्द्रय और तोला कुछ पता नहीं चलता कि वे कौन थेभीम अणहिलवाढेङ्गा चालुक्य मीमदेव (प्रथम) या, जिसका समय १०२२ से १०६३ ईसवी है। कर्णाटक राजा जयसिंह दूसरा था, जो १०१८ से ११४० तक विद्यमान था । उसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर ( प्रथम ) १०४० से १०६९ तक रहा । तुरुकोंसे मुसलमानोंका बोध होता है, क्योंकि बहुतसे दूसरे लेखॉमें भी यह शब्द उन्हींके लिए प्रयोग किया गया है। राजवल्लभने अपने मोजचरितमें लिखा है कि जब भने राज्यकार्य अहण कर लिया तष मुकी वी कुसुमयत (तैलपकी वाहन ) । शुन्यसे भोजके सामने एक नाटक खेला गया। उसने तैलप इवारी मुक:का चघ दिखलाया गया । उसे देखकर भोज बहुत ही कुद्ध हुआ और कुसुमवतीको मानी पोशाकमें अपने साथ लेकर तैल्प पर उसने चढाई की और उसे कैद करके मार मी डाला । इसके बाद कुसुमतीने अपनी शेष आयु सरस्वती नदी के तीर पर घौङ संन्यासिनकै धेशमें बिताई। यह या $वि-पिस जान पड़ती है, क्योंकि मुञ्जको मारने के बाद तैलप ९९७ ई० में ही मर गया या, जब मोज थत टोंटा था। यह तैलप छ। पत्र, विक्रमादित्य पञ्चम ( कल्याणका राजा) हो सकता है। उसका राज्ञवाल १९०९ से १०१८ तफ अ । सम्भव है, इस पर चदाई करके मजने उसे पड़ लिया है। और मुका बदला लेने के लिए उसे [ १५७ ]________________

भारतके मीचीन राजर्वेश मार डाला हो । विक्रमादित्य गाई और उत्तराधिकारी जयसिंह दूसरे शक सय ९४१ (वि० स० १८७६) , एक लैस से इसका प्रमाण मिलता है। उसमें लिखा है कि जयसिंहने भेज उच्च सहायकों सहित मगा दिया। यह भी लिखा है कि जयसिंह मौनरूपी मलके लिए चन्द्रमान था। | फाशमी पण्डित बिल्हणने अपने विक्रमाङ्कवचन'काव्यफ प्रथम सर्ग ९०-९५ लोकोंमें चालुक्य जयसिंह पुन सोमेश्वर ( आइनमल्ल ) हारा भौजको मुगाया जाना प्रावि लिंखा है। इससे अनुमान होता है कि भोजने जयसिंह पर शायद विजय पाई हो । उसी बवा लेनेके लिए सोमेश्वरने शायद भोज पर चढ़ाई की हो । परन्तु पई बात दक्षिणकें किसी केंसमें नहीं मिली। अप्यग्य दीक्षितनें अपने अलङ्कार-यन्य अवलयानन्द, अप्रस्तुतप्रशसके उदाहरणमें, निम्नलिखित लोक दिया है - कान्दिा , हे कुम्भोद्भव, जलधिरह, चाम गृछासे झा छो, नर्मदाह, त्वमपि चझिं में नामक स्मात्सपन्या । मालिन्य ताई फरमानुग्दासे, मित्घमबीन नेनामानि , विगार्सा समज्ञान, कुपित झन्तलागिपरन्छ । इस समुद्ने नर्मदा उसके जलके काले होनेका कारण पूछा है। इनमें नर्मदाने फवा है कि कुन्तलेञ्जरके हमले में हुए माळवैवाली नियों के कलाश्रित आँसुओं में मिलनेसे मेरा जल काढ़ा हो गया है। इससे भी सुचित होता है कि कुन्तठवे राजाने मारपेयर चढाई की यीं । परन्तु किंस नाम न होने से सब युद्ध किस समय हु इसका पता नहीं लगता । अयं नहीं जो यह सामेश्वरको ही यणेन हो । ११४ [ १५८ ]________________

मालयेके परमार। । अन्तमें भोजने म्यौलुक्प पर विजय पाई, यह बात उदयपुर (ग्वालि पर ) की मशस्तिने प्रकट होती है। प्रपन्धचिन्तामपिकारने लिखा है कि भोजन गुजरात-अनदेयाड़ाके राजा भीमकी राजधानी पर जय भीम सिन्धु देश जीतने में लगा था, अपने जैन सेनपाति कुलचन्द्रको सेनासाहत हुमा करने भेजा। इसकी चही जात ६ । वह लिसित विजयपन लेकर बाराको लीटर । भोज उससे सादर मिला। परन्तु गुजरातके प्रपन्ध-लेखकेने इसका चैन नहीं किया। कुमारपालक पड़नेगरवाली प्रशस्ति में लिखा है कि एक बार मालवेकी राजधानी मारी गुजरातके सवारों द्वारा छीन ली गई थी। रामेश्वरकी कीर्ति कौमुदीमें भी लिखा है कि चौलुमय भीमदेव ( प्रथम ) में मोज़ा परागय करके उसे पक लिया था। परन्तु उसके गुणका पास करके उसे छोड़ दिया ! सच है, इस अपमानका बदला लेने के लिए मोजने चुलचन्द्र समन्य भेगा हो । पीछेमें इन दोनॉमें में हो गया था । यहाँतक कि भीमने हार्मर १ दामोदर ) को राशदूत ( Armbassador } बनाकर भोजके दरबारमें भेजा था। प्रबन्यचिन्तामगिसे यह भी शत होता है कि जब भीम भेजने बदला लेने का कोई और उपाय न सूझा तत्र आधा बाप देनेका वादा करके छाने को मिला लिया । फिर दोनोंने मिलकर भजपर चाई की और धाराको बरबाद करके छह झी । परन्तु इस चढ़ाई अधिक लाभ कैप्पहीने इछाया । मदनी बनाई ‘पारिजातमञ्जरी' नामक नाटिकासे, जो धारकै राम अर्जुनजमके समयमें लिखी गई थी, प्रतीत होता है कि भोजने युवराज { दुसरे } के पौत्र गाई १३५, जो प्रतापी होनेके कारण विक्रमादित्य कहलाता था, हराया। [ १५९ ]________________

मारतके प्राचीन राजवा गाढ़े यदेवी ही उत्तराधिकारी और पुत्र कर्णदेव था, जो इस वशमें मद्धा प्रतापी राजा हुआ। इसने १०५५ ६० ॐ लगभग भीपर्चे मिलकर भीजपर चढ़ाई की । इसका हाल कार्तिकीमुदी, सुतसङ्कीर्तन और कई एक प्रशस्तियॉर्म मिलता है । परन्तु यायचाय कर्ता हेमचन्द्रने भीम पराजय आदिका मान नहीं लिखा । गुरुकके साथ मज लडाइँसे मतलव मुसलमानांके विरुद्ध लढा | कप्तान सी ई लुञई, एम० ए० र पण्डित मशिनार्थ कुम्भ लेने अपनी पुस्तकम तुरुकों की लड़ाई महमूद गजनके विरुद्ध लाहोरके इशा जयपालक मदत करने का तात्पर्य निकाला है। परन्तु हुम इससे सहमत नहीं । क्यों किं प्रम तो कीलहानके मतानुसार उत्तसमय भोजका होना ही मानिंत नहीं होता। दूसरे फरिवाने खिा है कि फेवळ विहीं, अजमेर, कालिंजर और कमानकै रामाहीने जयपालको मदद्द दी यी । आगे चलकर इसी अन्यकारने यह भी लिखा है कि महमूद गजनसे अपपीके लवके आनन्दपारूकी लड़ाई ३६९, हिजरी १ वि० सं० १०६४, ६० स० १९०९ ) में हुई थी । उसमें उनके रागाने नन्दपाली मदद की थी 1 सो यदि भोपका जित्चाङ १६०० ६० से माने, जैसा कि आगे चढ़कर हम (in, शो इनइस राजा भोजका मतलब निकल सकता है। तवा गकनमें लिखा है कि पाई महमूद ४१७ हेनरी १३० स० १२४ ) में सोमनायसे वापिस आता था तब उसने सुना कि परमत नामका राजा इससे छइनेको उद्यत है । परन्तु महमूने उससे देना उचित न समझा । अतएव देह सिन्ध$ मार्गस मुशानकी तरफ प्पड़ा ममा । इसपर मी पूर्वोक फलान और लेले महाशयन सा है। ( Tb1'A FIDATO of Dhar and Malta. १६ [ १६० ]________________

मालवैके परमार। कि * पह राजा मौन हीं था । बम्बई मैनेंटिपरमें जो यह लिखा है कि यह राजा आम्फा परमार या सो ठीक नहीं । क्योंकि उस समय आबू पर पन्तुको अधिकार था, जो अपहिलवाहे के भीमदेषफा एक छोटा सामन्स, था।” परन्तु हमीरा अनुमान है कि यह राजा भोज नहीं, किन्तु •पूर्वोक गम ही था । क्यॉकिं फरिश्तों आदि पारसी तवारीखोंमें इसके झहा परमदेव और रूही चमिदेवके नामसे किंवा है, जो भीमदेवका ही अपभ्रंश हो सकता है। उनमें यह भी लिखा है कि यह गुजरातभरवालेका राजा थी । इससे भी इसका बोध होता है 1 चम्बई गैजेटियरसे भी इसका बोध होता है। क्योंकि उस समय आबू और गुजरात दोनों पर इत्तफा अधिकार पी। | गोविन्दचन्द्र वि० सं० ११६१, पौष शुक्ल ५, रविवार, ॐ दानपत्र' यह झोक है: याते श्री भेज५ दिनु( इधरवधूनेत्रसमातेपर झ झ गया। घ मारपचे ज्ञापमाने । अ य । (व रिनी भिदिवबिभुनिर्भ प्रतियोपाद्धैत का विश्वासपूरै गमगनदिह ४ पतंवन्देन ॥ ३ ॥ अर्थात् मोज और कणके मरने के बाद जो पृथ्वी पर गढ़वड़ मची थी उसे कन्नौजके राजा चन्द्रदेव (गढ़वाल) ने मिटाई। इस चन्द्रदेवको सुमय परमार समवेयके राज्यकालमें निश्चित है। हमारी रानी र लोकसे यह सूचित होता है कि चन्द्रदेवका प्रताप मेज और यूके बाद समका, उनके समयमें नहीं। भोज बहा विद्वान्, हानी और विज्ञान भाभयदाना था । पर { ग्वालियर) की प्रशस्तिकै अठोर लोकसे य६ चत प्रकट होता है साधि विहितं दत्तं ज्ञातुं तघन छैनचिन्। किमन्यत्कविज्ञस्य भौजन्य प्रास्यते ॥ *(१) In, An, Vol. Iy, P, 103, 3. , A , , १९७ [ १६१ ]________________

भारतके मान राजबंश अर्थात् कविराज मौजक क तर्क प्रशंसा की जाय। इसके छान, ज्ञान और झार्यों को बरावरी नहीं दर सकता। फहण-कृत राजतराणमें मा, राजा फलशर्के वृत्तान्तमें, मोजके दान र विद्वत्ताकी प्रशंसा है। इसका वर्णन हम भोजका राजन्यकाल निश्चय करते समय में।। | काव्यप्रकाश मम्मटने मी, उदासालार उत्प , मोजके इनकी अल्लाका बोधक एके झोंक उद्घृत किया है। उरना चतुर्थपाद |गदिनेषु मौनृपसत्यागापितम्। अत् मोजके आश्रित विद्वानोंके घरों में जो ऐश्व देखा जाता हैं वह सब भोजहीके दानीं तीला है। विनारमें मिली हुईं मस्तुपालक प्रशस्ति म भौजी छानशीलता प्रशसका उल्लेख है । प्रबन्धकारोंने हो इसी बहुत ही पसा की है। | यह राजा शैव या, जैसा कि उद्यपुरकी प्रशस्तिके २१ ॐ लोकसे ज्ञात होता है। यथा, तनादित्यप्रापे भरवि सदर्न नयि भईभरें। व्याप्ता धारेव घान रिपुतिमिरभरैमललोकस्वातु ।। अर्यंत उस तेजस्वी शिबमके स्वर्ग जाने पर घारा मारीकी सरह समम पृथ्वी शप अन्घमासे व्याप्त होगई। भौज दूसरे घर्मके विद्वानोंका भी म्मान करता या। जन मौर हिन्दुभके शास्त्रार्थको नही अनुराग या। अबणजेलमुल नामक यामहे कनारी भाषा एक शिलालेख मिना मन-सबका मिला है। उसे डाक्टर राइस १११५ ईसवीका बताते हैं। उसमें लिया है कि भन्ने प्राचन्द्र जैनाचार्य पैर पूजे में। १८ [ १६२ ]________________

भालके परमार। | इनकुड़ नामक स्थान फउपपाष्टमंशसम्बन्धी एक लेख लिखी है कि भौजकै सामने सममें शान्तिसेन नामक ने सैक वानको पूरयिा था । पर उन्हेंने उसके पहले डम्बरसेन ६ जना सामना किया था। इन सातसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि भोज सम धर्मोंके बिंदुनाका सम्मान करता था। पारा अबदुल्लाशाह चाफी कब्र ८५९ हिारी ११४५६, ३०) के लेसमें लिखा है कि भोज मुशलमान होगयी या और उने सपना नाम अगदुल्ला रखा था। परन्तु यह असम्मवसा प्रतीत होता है । ऐसा विंदान, धार्मिक और प्रतापी राजी मुसलमान नहीं हो सकता ! इस | समय मुसलमानका आधिपत्य केवळ उत्तरी हिन्दुस्थान में था । मध्यभारतमें उनका दौरा न था। फिर भोज कैसे मुसलमान हो सकता था १ गुल्नुले अब नामक उर्दू एक छोटीसी पुरलकमें लिखा है कि अबढ्छाशाह फकीरकी करामाताको दैत्र कृ भेजने मुसलमानी धर्म ग्रहण कर लिया था। पर यह केवल मुलाकी कपोलकल्पना है । क्योंकि इस विषयका कोई प्रमापा फ़ारसी तवारीखोंमें नहीं मिलता। भोज विद्वानोंमें फविराजके नामसे प्रसिद्ध था। उसकी लिसी हुई न भिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें बताई जाती है। परन्तु उनमें कोन कोनसी वास्तवमै भौजी बनाई हुई है, इसका पता लगाना कान हैं। मोजके नामसे प्रसिद्ध पुस्तक सूची नीचे दी जाती हैज्योतिंप | रामगाड़, राजमार्तण्ड, विद्वज्जनबम, प्रश्नान और आदित्यप्रतापसिद्धान्त। अलद्वार । सरस्वतीकण्ठामरण । योगशास्त्र ! निमार्तण्ड १ पतलैयोगसूफी दीका )। धर्मशास्त्र ! पूर्तमार्तण्ड, घण्इर्नति, ब्यवहारसमुच्चय र चाम्य । शिल्प 1 समराङ्कसूत्रधार। [ १६३ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश काव्य । पम्पूरामायण या भोजचम्पू कुछ भाग, महाकालाविनय, युक्तिकल्पतरु, विद्याविनोद और शृङ्गारम (मझ }। माफ़तकाच्य । दो माकृत-काव्य, जो अभी फुछ ही समय हुआ घारामें मिले हैं। पीरा । प्राकृतथ्याङ्करपा । वैघ । विश्रान्तवेद्याविनोद और आयुर्वेद सर्वस्व । शैवमत 1 तत्वमका और शितदलङ्गलिंका। संस्कृतप । नाममा । शालिहोत्र, शानुशासन, सिद्धान्तसंग्रह और सुभापितमबन्ध । औफ रेक्टस ( Aufiefits ) की वङी सूची (Catalogsus Catcolo gurum) में भौजके बनाये हुए २३ ग्रन्थों के नाम हैं। | इन पुस्तकॉमंस किंतनी मौनकी बनाई हुई हैं, यह तो ठीक $ नहीं मालूम, परन्तु धर्मशास्त्र, ज्योतिष, वैपक, कप, रुपाकरण आदिके कई लंङ्गकॉने भोनके नामसे प्रसिद्ध अन्योंसे लोक उधत किये हैं। इससे प्रकट होता है कि भोजने जवश्य ही इन विषयों पर अन्य लिऐ थे । फरेसने लिया है कि बौद्ध लेखक दशचने अपने मनाये प्रायश्चित्तविकृमें और विज्ञानेश्वरने मिताक्षरामें भीजी घर्मशासका हेरा$ फहा है। मानप्राश र माधवकृत मवेनिश्चपर्ने भौज अयुवैदसम्बन्धी अन्यका रचयिता माना गया है । केशवाईने भोजको ज्योतिपय लेखक बताया है। कृष्णस्वामी, सायन और मद्दीपने भोजको एक म्याकगमन्यका कर्ता और झोपकार । है । तर, वगैर, विनायक, शङ्करमरपती र कुटुम्बईतूने इसे एक श्रेष्ठ कवि स्वीकार किया है। विद्वानोंमें यह भी प्रसिद्ध है कि इनुमनदिई प३ शिला पर ख़ा हुआ था और समुदमें फेंक दिया गया था । उसको मन्नने ही | समुद्रको निकलवाया था। १२४ [ १६४ ]________________

मालधेरै परमार । मनकी बनाई छपी हुई पुस्तके में सरस्वतींकण्ठामरण साहित्य असिद्ध पुस्तक है। इसमें पांच पन्छेिद हैं । उस पर पड़त रामेन्दा भने ढका छिली है । मोजकी उम्पू-रामायण पण्ईित अपचन्द्र गुन्द्रकी टीकाहस छपी है । पुस्तककी समाप्ति पर का नाम विदर्भ लिखा है । परन्तु रामचन्द्र बुधेन्द्र और लमणसूरि उसको भौजी बनाई हुई लिखते हैं। | भाजफी सभामें अनेक विद्वान थे ! भोजप्रबन्ध और मनन्धचिन्तामपि नादिमें कालिवास, घरुचि, सुबन्धु, वाणा, अमर, रामदेव, हरिवंश, शहूर, कलिङ्गः कपूर, विनायक, मद, वियाविनोद, कोकिल, तारेन्द, रागोर, भाप, धनपाल, सीता, पण्डिता, मयूर, मानङ्ग यदि विदानाँका माजहीकी समामें रहना लिखा है । परन्तु इनमसे बहुत से विद्वान मोजसे पहले हो गये थे। इस लिए इस नामावली पर हम विश्वास नहीं कर काश्ते ।। | मुज और सिन्धुजके समयके कुछ विद्वान् भोजफे समय तक विद्यमान है । इनमें से एक धनपाल थी। उसफा छोटा भाई शोमन जैन हो गया । यह सुन कर भोजने कुछ समय तक जैनफा धारा आना बन्द कर दिया । परन्तु शोभनने धनपालकी भी जैन कर लिया । धन्पाली रची तिकमझमें भोज अपने विषयकी कुछ बातें लिंखाना चाहता था । पर कविने इन्हें न लिंखा । अतएव भेजने उसे नष्ट कृा दिगई । किन्तु अन्तमें उसे इसका बहुत पश्चात्ताप हुआ । उस समय उसकी मागास धनपालकी फैन्याने, जिसको घर् पुस्तफ फण्ठाय थी, भोजको थहे पुस्तक सुनाई। इससे उसकी रक्षा हो गई । भौजके समय भी एक कालिवास था, जो मैघत अवि कृतसे भिन्न था । परन्तु इसका कोई अन्य न मिलनेने इसका विशेष वृत्तान्त विदित नहीं । प्रबन्धक्काने इसकी प्रतिमा और कुशाग्रबुद्धिका वर्णन १२१ [ १६५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश किया है। नोदय नामक ग्रन्थ उसकी चनाया हुआ बताया जाता है । जसकी जिंता म्प यहुत है । कई विद्वान् चम्पू रामायणको भी इसी कालिबासकी बनाई बताते हैं। उनका कहना है कि कालिंदासने चसमें भौजका नाम उसकी गुणग्राहकता कारण रख दिया है। | सूक्तिमुक्तावली और हाराबल्ल राजशेखरका बनाया हुआ एक लोक है। इसमें कालिदास नाम तीन कवियों मन है । वह श्लोक यह है एप ज्ञापते इन्त पछिौ न केनचिम् । ऋतरे ललिवद्वारे झालिदास्नभयं किमु नवसासद्भपात एक पुस्तक उसका कर्ता पमगुप्त भी कालिदासके नामसे लिया गया है । उसका वर्णन एम पहले कर चुके हैं। मानन्दपुर (गुजरात) के रहनेवाले बच्चटके पुत्र ऊबटने भोनके समग्रमें उनमें चाजसनेय-सहिंता ( यजुर्वेद ) पर ष्य लिखा था, और प्रद्धि ज्योतियों मारकाचार्य के पूर्वज्ञ मास्कर भट्टको मोजने बियापलिको उपाधेि दी थी ।। मोजके समय वैियाका बहा प्रचार था। उसने विद्यावृद्धिके लिए घारा-नगरी# भोजशा नामक एक संस्न पाठशाफी स्थापना झी थी । जस पाठशालामें न, उद्यादित्य, नरम और जानवर्मा आदिके समयमै भरिकी फरिका, इतिहास, नाट्फ आई अनेक अन्य साम पष्टयरकी बड़ी बड़ी शिला पर सुइया कर रहे गये थे। उन पर अन्दाजन ५००० लोका हुदा उहना अनुमान किया जाता है। वैदको विषय है कि घारा पर मुसलमानका दसल हो जाने के बाद उन्होंने जरा माशाला गिरा कर वहीं पर मसजिद अभषा ६ । वह मोलाना कमालुद्दकी कमर पारा होनसे कमाल मौल्लाकी माजिदके नाम] मखेद्ध है। इसकी शिकाऑके अक्षरों को टॉक तोड़ कर [ १६६ ]________________

मालवैके परमार । मुसलमानने उन शिलाको फर्श पर लगा दिया है। ऐसी ऐसी शिलायें | वहीं पर कोई ६० या ७० के है । परन्तु अव उनके लेख नहीं पड़े। जा सफ। । | नवमकी प्रशस्ति में इस पाठशाल्लाका नाम सरस्वतीसइन { भारतीमवन ) लिखा है । यह भी लिखा है कि वेदवेदाङ्ग इसमें बझै बड़े जाननेवाले चिनुन् व्याप्यं रहे थे । इस पाठशालाको, ८६१ हिजरी ( १५५७ ६० ) में, मालपके मुद्दम्मदशा लिंलजीने मसजिदमें पारित किया । यह भृक्षान्त दरवाजे परफे फारसी लेवसे प्रकट होती है। इस पाठशाला लम्त्राई २०० फुट और चौडाई ११७ फुट थी । इस गास एक के भा, जो सरस्वती-कूप केलाता था । वह अब अक्कलकुईने नापसे प्रसिद्ध है। मोजके समय विद्या बहुत प्रचार शोनेके कारण यह प्रसिद्धि भी #ि जो कोई उस कुवेका पानी पीत था उस पर सरस्वतीकी कृपा हो जाती थी । इसी मसजिद में, पूर्वोक्त शिलाऑर्के पास, वो स्तम्भों पर उदयादित्य समयकी व्याकरण-कीरिकायें सर्पके आकारमें सुदी हुई हैं। मोज घड़ा दानी यां) उसका एक दानपत्र वि० सं० १०७८, च सुदि १४ ( १०२२ ईसवी ) का मिला है। उसमें आश्वलायन शास्त्राणें भट्ट गोविन्दुके पुत्र घनपति भट्टको भोजके द्वारा राक नामक पामका दिया जाना लिज़ा है । यह दानपन घारामें दिया गया था । यह गोविन्द भनु शायद वहीं हो जो थाके अनुसार माँहूझे विद्यालयमें अध्यक्ष था। | मोनके राजत्वकालके तन संवत् मिलते हैं। पहला, १९१९ ईरावी ( वि० सं० १०\७६ ) नि चौवय जयरत्ने मालवेवालोंको भोन सहित हराया था। दूसरा, वि मुं० १९७८ (१०२५ ईसवी ) अह १३ [ १६७ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश पूर्वोक्त दानपनका समय है। तीसरा, वि० सं० १०९९ (१०४२ ६षी) जन राजमुगाङ्क नामक अन्य वन मा ।। | इससे प्रतीत होता है कि मॉन वि० सं० १ ०९९(१०४२ ईपी) तक विमान था । उसके उत्तराधिकारी नमसिहको दानपत्र वि० सं०१११२ ( १०५५ ईसवी) वा मिला है। जयसिंहने योद्धे ही समय तक राज्य किया था। इससे भौका देहान्त वि० स० ११ १६ या ११११(१०५३ यी १०५४ ईसी) के आसपास हुआ होगी । डाक्टर बुलाने भोज राज्य को प्रारम्भ १०१० सी १ वि० स० १०६७ ) से माना है । परन्तु यद इसका राज्यारम ( दि० स० १०५७ ) १००० ई० से माना जाय तो भोनक्का ज्य-काळ इसके विषयमें कहीं गई मविष्याणसे मिल जाता है। यह पाणी यह है : पथदिपञ्च िमसमास दिनत्रयम् । भोजभेने भौम सगो एक्षिणापथ ॥ अर्यात् भोज ५५ पाँ, ७ महीने र ३दिन राज्य करेगा । ऐसी मविप्याणियां बाइमें ही कही जाती हैं । तारीख़ फरिझ्लासे मा पूर्वोक्त आनन्दपाली मददसे १००६ में इसका होना शिवं होता है। रातकीरने उस पुस्तकके सातवें तरङ्गमें काश्मीरकै ना - शके वृत्तान्तमें निरित्रित म्लो वा है - स च भौध दाय विश्रुतौ । सूरी तरिम तुम द्वापार ऋत्रितापगी ॥ १५९॥ अपात् उस समय भोज और ब्लश दोनों बराबरीके दानी, विद्वान और यॉई आश्रयदाता थे। इसी प्रकार धमादेक्यरितमें भी एक श्लोक -- यस्य भासा f६तिपारिदिन्नौजधानम्। भलाभूरयामामा छोइरादोऽभूत् ॥ ५३॥ ११४ [ १६८ ]________________

मालवेकै परमार। अर्थात कलशका भाई लोहका स्वामी बङ्गा प्रताप और भोजको तरह कीर्तिमान था। | इन फसे प्रकट होता है कि कृश, किर्तिपात र वरुण, भौज समकालीन थे। डाकटर बुलरने भी जितकें पूर्वोक्त लोकके उत्तरार्धमें फहै हुएतस्मिन्क्षणे'--इन शब्दसे मोजो कलशके समय तक जीवित मान कर वनमाइवेबचरितकें निम्नलिखित श्लोक अर्थ गडबढ कर दी है:-- मौनमाभा ख न लैस्तस्य ग्राम्यं नरेई. सुप्रश्न किमिति भदता भागन्तुं द्वा जास्मि । यस्म रोमशिखरकोपाराबताना । मदिव्याजादिति सकणं व्याज्ञहरेद मारा ॥ १६ ॥ अर्यात--पारा नगरी दरवाजे पर आँटै हुए कबूतरो आवाज द्वारा मानो जिल्लणसे ( जिस समय वह मध्यमारतमें फिरता था) बोली कि मेरा यानी पोज है, उसी घराबरी कोई और राजा न कर सकता। उसके सम्मुख तुम क्यों न हाजिर हुए । अर्थात् तुमको उसके पास आना चाहिए । परन्तु वास्तबमैं उस सगस गोत्र वियमान न था। अतएव ही अर्थ इस कृका यह है कि-मारा नगरी नौली कि बड़े अफसी बात है कि तुम भोजके सामनै, अर्थात जब मह दिन था, न जाये । यदि जाले सो चह तुम्हारा अपय ही सम्मान करतः ।। राजा फला १८६३ ईसी (वि० सं०११२०) में गई। पर बड़ा और १०८५ ईसा ( वि० सं० ११४६ ) स विद्यमान रहा 1 अतएव यदि राजतरंगिठे टोके पर विचार किया जाय तो वि० सं० ११३८ (१९६३ईसी) कै पाद तक भोजको विद्यमान मानना पड़ेगा। इस ट्रोफद्धे आधार पर हाट घूझ और इटीनने छलके समय मौन जयित होना [ १६९ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंशमाना है । तु राजतरणिका फत्त मौनसे बहुत पड़े हुगा था । इससे उसने गड़बड़ कर दी है। ताम्रपत्रों और शिल्लालेखे सिवा है कि भोजका उत्तराधिकारी जयसिंह वि० सं० ११ १२३ में विद्यमान था और जसका उत्तराधिकारी उदयात्रुित्य वि० सं० १११६ में । अतएव कलशके समयमें मोजका होना स्वीकार नहीं किया जा सकता । फिर, भोज देहान्त-समय में भीमदेव विद्यमान या । यह यात डाक्टर बूलर भी मान हैं। सम्भव है, भेजकै याद भी वह जीवित रहा हो । यदि भीमका देहान्त वि० स० ११२० में हुआ ते भीमके पीछे मौजी होना उनके मतसे भी असमय सिद्ध नहीं। | उदयपुर (ग्वालियर ) की प्रशस्तिमें निम्नलित टोक है, जिससे भोजके वृनाये हुए मदका पता लगता है.--- केदार- रामनाथ [ रागगरा। मुरा ३ प ध य समन्तामाई | बगनी चार ॥ १० ॥ अपतु मोनने पृथ्वी पर केदारे, रामेश्वर, सोमनाथ, सुंडीर, काळे १ महाकाल), अनल और रुद्रके मन्दिर बनवायें । भीगी भन्दा हुई भारी भोजशाला, उनके भाट र मन्दिर, मोपाठक भोजपुरी झील और काश्मरका पापसूदन-कुरा अय तर्क प्रसिद्द हैं। राजतराणीका ६ लिखता है-*पद्मराज नमक पान बेचनेवालेमें, जे कारकै राजा अनन्तवको प्रतिपान शा, मालवे राजा भोजके में हुए मुगण-समूहसे यापसूदन भटेवर ( फोटैर-काश्मीर) का कुण्ड मनवायर । मज्ने प्रतिज्ञा की थी कि पपइनके इस कुण्ड न्य मुस्। ॐ।।। अतएव पद्मजने यहा। उस से भरे हुए फाचके फलश पलु-धाते रह कर माफी उस प्रतिष्ठाको पूर्ण किया। पापदभ६ ( कपटेश्वर महादेव ) कमरमें कोटेर पके पास, [ १७० ]________________

मालवेके परमार। | ३३–४१ उचर और ७५–११ पूर्वमें हैं। यह कुण्द्व उसके चारों तरफ खिंच हुई पत्थर दृढ़ दीवारमा अब तक बिद्यमान है। कुपका व्यास कोई ६० मन है । वह गहरा भी बहुत है । वहीं एक टूटा हुआ मन्दिर भी हैं, जिसके पियर्मे लोग कहते हैं कि पड़ मी भीका वनवाया हुआ है । बहुधा पहले राजा दूर दूर से तीर्थीका जल मँगवाया करते थे । आज फल भी इसके उदाहरण मिलते हैं। | सम्भव है, घाराकी लाट-मसाजेड मी मोजके समय सँडहले ही बनी हो । उसे वह वाले भोजका मठ बताते हैं। उसके छेसे प्रकट होता है कि उसे दिलावर गोरीने ८०७ ईसवी ( १४०५ ६० ) में वनवाया । इस मसजिदके पास ही लोहे एक लाट पट्टी है। उसीसे इसका यह नाम प्रसिद्ध हुआ है । तुजक जहाँग्रीने लिखा है कि यहू लाट दिलावर गौने ८० [जरीमें, पूर्वोक्त मसाजेद धनबाने समय, बस धी । परन्तु उक्त पुस्तक रचयिताने सन लिइनमें भूल का है 12 के यान पर उगने ८७० लिख दिया है। झन पता है कि यह हट मोना विजयस्तम्भ है । इसे मोजने 'दक्षिण चीझुक्यों और त्रिपुरी (वेवर ) के अद्वियोंपर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्यमें पड़ा किया होगा । इस लाटके दिपसमें एक कहावत प्रसिद्ध है। एक समय घारामें राक्षसके आकार की एक तेजिन रहती य 1 उसका नाम गगझी या गांगी थी के पास एक विशा तुला •भी । यह छाट उसी सुझाका उंदा थी और इसके पास पड़े हुए बड़े बड़े पत्थर उसके वजन–टचे । घडू नालछामें रहती थी । कहते हैं, -धारा और नछाकै बीचकी पहाड़ी, उसका ॐग झाने से मिरी हुई रेतसे यनी थी। इससे यह लिन-टेक होता है। इसमें यह कहाश्त चढ़ी है कि कहीं राजा भोज और कहाँ गॉगली वैलिन ” जिसका अर्थ आज काळ लोग पढ़ रहे हैं कि येयपि तेकिन इतनी चिशट शुरचाशी यी, तपाई मौन से रानी यह बराबरी ने कर सकती थी। १९७ [ १७१ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंश परन्तु इसे लाका सम्बन्ध चेकै गाङ्गेयदेव और दायरे चालुक्य जुपसिंह पर प्राप्त की हुई मोजकी जीतसे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। जयसिंह तिङ्गाने राजा था। उसी पर प्राप्त हुई जीतका चौघक होनेसे इस लोटा नाम “ गांगेय- तिगामी झाट' पढ़ा होगा जब जयसिंहने घाई पर चदाई की तर्न नालछा उसके मार्ग पहा होगा । सो दायद उसने इस यहाइके आस पास डेरे वाले होंगे । इस कारण इसका नाम विलिंगाना-ॐकरी पड़ गयी होगा । समयके प्रभावसे इस बिजया हाल और निति राजाका नाम आदि, सम्मत्र हैं, लोग भूल गये हाँ और इन नामक सम्बन्ध में कहावतें सुन कर नई था चना ली हो। इससे * कहाँ राजा मोज गौर ही गांगेय गौर नैढुंगरान" की कहाथत गंगगा लिन या गंगू तेलीको ढूंस दिया हो । गाड्या निदरसूचक या अपभष्ट्र नाम गाँगी, या गांली और तिलगानाका तैलन हो जाना असम्भब नहीं । कहावतें पहुवा किसी न किसी चातका भाषार जरूर रखती हैं। परन्तु हम यह पूर्ग निश्चयके साथ नहीं कह सकते किं तिलिंगानेॐ नमै नाका हुयी जाना इस लाटसे सुचित होता है। तयापि हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह बात १०४२ सर्व पूरी हुई हो । यो उस समय गाङ्गेयदेवका उत्तराधिकारी के निासन पर बैग पो । पारा चारों तरफका कोट मीं भेना बनाया है। शताया जाता है । ऐसी प्रसिद्धि हे कि महू (मपइपर्ग) में भी भोजने को बनाया था और कई ? विद्यार्थियोंके लिए, मोबिन्दभट्टी अध्यक्षतामें, fiसाळ्य स्थापित किया गा । वह अब तक कुवे पर भोजका नाम हुदा हुभा है। भोजर्फी चुदाई हुई भोजपुरी झीलको पन्द्रहवीं शताब्दीमें माल हुदांगशाहने नष्ट कर दिया । भूपाळुई। रियासतमें इस फिी जमीन इस समय सबसे अधिक उपभाऊ गिनी जाती है । १२८ [ १७२ ]________________

मायेके परमार । प्रघन्कार ने लिखा है के भोज अनेक स्त्रिया र पुत्र थे ! पर कोई चात निश्चयात्मक नहीं लिली । भोजका उत्तराधिकारी जयसिंह शायद मौजहीका पुत्र हो । पर भाजके सम्वन्ध वधम झ्वल उद्धदत्य ही कहा जाता है । सप्यादित्या वर्णन भी किया जायेगा । निटर विन्सेन्ट मिथ अपने भारतपय इतिहमें लगते हैं कि मोजने १० बर्षसे अधिक राज्य किया। मुन्न तरहे इसने भी अनेक यु और सन्धियों कीं । गपे इस युद्धादिको बातें लेग शूल गमें हैं, तयापि इसमें सन्देह नहीं कि भोज हिन्दुओंमें आदर्श जर समझा जाता है। वह कुछ कुछ समृद्ध समान ग र प्रती श्वः ।। | १०-जयसिंह ( प्रथम )। | भौजके पीछे उसका उत्तराधिकरी अयःह गद्दीपर बैठा । अपि उदयपुर (ग्वालियर), नागपुर विकी प्रशस्तियोंमें भगकै उत्तरचकरका नाम उद्यादित्य लिखा है, तथापि वि० सं० ११.१९ ( ई० स० १९५५) आपाद दि ११ का जो दानपत्रे मि है उससे स्पष्टतापुर्वक प्रकट होती हैं कि मोजका उत्तराधिकारी जयसिंह ही था। यह दान-पत्र लयं जयसिंहफा राया हुआ हैं और पारामें. ही दिया गया था । ' | भाज* मरनेपर, उसके ज्यघर उसके ऑन आम किया। इसफा वधन तुम इत्र ही कर के हैं। इस आक्रमणका फड़े हुन्न। ३ धारा नगरी चैदी के राजा के हाथमें चली गई थी। उस समय शायद् घारापति भगए विन्ध्याचलकी सरफ चला गया हो, और बादमें की और एम द्वारा धाग्री ईपर बिंझा (Rur गया है । यडू धरान फ से प्रकट होती है। यह भी सुम्मा है । इसके कुछ the Early story uł Ludin, 311. (2) Es Tad, YULITI, p. 80 [ १७३ ]________________

भारतके प्राचीन राजबंदी-'. समय बाइ, अपनी ही निर्बलताकै कारण, दह अपने कम् उदमादित्य द्वारा गासे उदार दिया गया है । इससे शायद उसका नाम पूक लेसमें नहीं पाया जाता है। जयसिंहने अपनी बहनका विवाह कर्णाटके राजा चालुक्य जयसिंहके साथ किया। इनमें उसने अपने राज्यका वह भाग, ओं नर्मदा दक्षिणमें था, जयसिंहको दे था। उसने अपना विवाह चैदई राजाझी कन्या किया । जयसिंहने धारामें एक महत्व यनत्रामा था, जो लास कहलाता था। उसमें साधु-सा ठरा करते थे। यह यात कथासे जानी जाती है । | जपने बहुत ही गड़े समय तक राज्य किया; चोक उदयाइरस य वि० सं० ११ १६ ( ई० सं० १०५६ ) का एक हे मैिला है, जिससे उस समय उदयादित्य राजा होना सिद्ध होता है । पूर्वेक्त लैंपसे यह मालूम होता है कि जयसिंहा देहान्त वि० सं० १११२१६ सय १०५५ ) और वि० सं० १११६ (६० स० १०५९) ॐ वच किंय समय हुआ । ११-उद्यारिय। यह राजा भोजका कुटुम्य सा । नामपुरकी प्रशासके वचन चवें टोंक में हिंसा है कि भोज’ स्यीं जाने पर उसके राज्य पर जो दियात आई भी उसको उसके कुटुम्वी उइयाने पूर कि पी और स्वयं राजा बम फर कटवालों से मिले हुए राजा कसे भोज राज्यको फिर छीन लिया । बिल्हण का विकमाईदेवचरिशके अन्तर्गत मोके वृत्तान्त लिया है कि झटक रानाः चौटुङ्ग्य सोमेश्वर ( आमई) ने भौने र चढ़ाई की थी। यह चढ़ाई भौनके शासनकालके अन्तर्ने हुई हो । (१) £7. Ind, Yel.31, P. 182, १३० [ १७४ ]________________

मालचेके परमार। पृथ्वीराजचरितमें लिया है किं भरके चौहान राजा दुर्लभ ( तीसरे ) रे घोड़े HFस फरके मालवे जिा उठ्यादित्यने मुजतके राजा कर्णको ती । इससे अनुगीन होता है कि भीजफा बदला लेनेहाके लिए उदयादित्यने यह चड़ाई की हौ । गुजरात इतिहास-लेखकोंने इस पट्टाईका वर्णन नहीं किया, परन्तु इसकी सत्यतार्ने कुछ मी सन्देह नहीं । हमार-महाकाव्यमें लिखा है कि शाकम्भरी ( सेभिर ) के राजा इस्रा ( दुर्लभ ) नै उड़ाई को मारा | इसरो अनुमान होता है कि यद्यपि भजन चौहान इलेम पिता वीर्यमको मार था; तथापि उद्यादित्यने गुजरातवालासे वेदला लेने के लिए चाहानसे मेल कर लिया होगा और उन दोनने मिलकर गुजरात पर चढ़ाई की होगी। चिंक्रमादेनचरितमें लिखा है ॐि विक्रमादित्याने जिस समय कि उसका पिता सौमैयर राज्य करता था, माल के राजाकी सहायता करके उसे धाराकी गद्दीपर बिठाया । इससे विदित होता है कि उस समय इन दोनों आपसी चुत दूर हो गई थी ।। | उदयादित्य विद्याका बड़ा अनुरागी था । उसने अपने पुत्रों को अकड़ी विद्वान बनाया । अनुमान है कि उमाके दुसरे पुत्र नर्मदेवने एकसे अधि% प्रशसियो उ कराई। उदयात्यकी भोजके साथ क्या राम्चग्य था, इसका पता नहीं लगता 1 इस रानाके दो पुत्र थे, कामदेव और नर्मदेच । वे ही एक बाद एक इराकै उत्तराधिकारी कुहुए ! इसके एक फन्या भी थीं. निसका नाम इयामलादेवी था । यह मेवाइके गुछि राना विजयसिंहासे ब्याई गई 1 इमामलादेवी आल्यादेवी नामकी कृपा उषम हुई, जिसका विवाह दी हैहयवंशी राजा गपकसे हुआ। (१) पृथ्वीराज चरित, ऋो ७१। [ १७५ ]________________

मारतके प्राचीन राजयश उनुयादित्यने अपने नाम उदयपुर नगर (ग्यालेयरमें } वाया। यहाँ मैली हुई प्रशस्तिको हम अनेक बार उल्लेख छर चुके हैं । इस प्रवास इक्कीसवें कमें लिखा है कि मोजके पॐ उत्पन्न हुई अराजताको युवाकर उदयादित्य राज्यासन पर गंवा । इस प्रशक्तिसे इस राजाकका हौं वर्णन ज्ञात होता है। क्पा तेईसवें के प्रारम्भमें ही प्रथम शिला समाप्त हो गई है। उसके बाद दूसरी फिली मिली ही नहीं 1 अतएव पूरी प्रशस्त देखने में नहीं आई। | इस राजाने अपने बसाये हुए उदयपुर नगरमें एक धिमन्दिर वन माया, वह अबतक विद्यमान है । इसमें अनेक परमार-रागा | प्रशास्तयाँ हैं। उनमें से मस्तियों का सम्बन्ध इस राना है। उनसे पता लगता है । यह मन्दिर वि० स० ११ १६ में बनने लग ग्रा और वि० स ११६५७ में बनकर तैयार हुआ था । इन प्रशस्तियों पह" ती वि० स० १११६ ( शक सः ९८१ ) की है और दुसरी वि० सं० ११३७ की। ये दोनों प्रशस्तियाँ प्रकाशित हो चुकी है। परन्तु उदमादित्य समयकी एक प्रशस्ति इशायद अबतक ही नहीं प्रकाfत हुई । अतएव उप्ती हम हॉपर उद्धत करते है । यह अगस्त झालरापाटनके दीवान साहयक कोपर राजी हुई है । प्रशस्तिकी नकल । ( १ ) ॐ नम शिवाय t सुबत् ११४३ येनस शु३ १०, अ(२) येह श्रमदैयादित्य कल्याणविनयराज्ये । - (3) टिकावर ( ये } पदूफिर्केपालसुनपाल-भन्न [३] ( १ ) = Trnd., Pal IF 35 (१) Jum Dung , ad, Tol II, P 19 () Icd Aot, Vol IIP 8 (v) WRIT अमन चंगाल एमाः मम जनरल बिन्द !", न । रान् । पर १ १ : ३।१५created by 'B B ho (६) Tead देर । (५) = Pal पट्टान्न 1{१) J4cud पट्टझिनु । १३ [ १७६ ]________________

मलिचेके परमार । ( ४ ) न शंभोः प्रासादामेदं पारितं' । तया चिरिहिछले चा (५) झाडौँपपिकानुबासकः अंतराले बाप च ।। (६) उत्कण्यं पतिहाकेनेति ॥ * ॥ जनसत्मा( 19 ) तो धाइणिः प्रणमते ॥ श्रोलिंगस्वामदेवसं कॅरि” (८) तेलान्चयपदूकंचाईलसुतपदुर्किल नकेन । श्रीसँघव देवपर-- (९) बनिमित्य द्वीपतेपेंचतुःपलं मैके मुकं क्रीत्व तथा वरिदै 'सि ( १ ) विशा(१०) ५६ हैं ॥ ॥ मंगलं महा ॥ ९ ॥ अर्थात्-सं० ११४३ बैशाशक्ल दशमीफे विन, जब कि उदित्य राज्य करतो था, तेल शके पेटेंट चाहिंल पुन पटेल जननें। महादेवकी यह मन्दिर बनवाया-इत्यादि । इससे वि० सं० ११४३ तक यात्मिका राज्य बना निश्चित होता है। भाटॉफी ख्यातमें उद्यादिश्य छोटे पुत्रका नाम जगदेव लिखा है और उसकी वीरताकी पढ़ीं मशंसा की गई है । उन्हीं स्यात* आधार पर फार्स सामने अपनी रासाय नामक ऐतिहासिक पुस्तफमें नगवा किस्सा बड़े विस्तार वर्णन किंया है । ३ लिंगते हैं:| 4 धारा नगर)के जि। उदयादित्यके वली और साना दो रानिय धीं। उनमें से वपेली रणधवल और लाँईंनी जगदेव नामक (१) Road प्रणाऽष फारित । (२) Fand पवित। ( १ ) Tra • 1 (४) Red • देय। (५} The bating a hot elect Tarha | | eAnt, () Fas9 - 1 (6) JRei पाहि । ८) 15ep4 पफम । (१) froad पत्रिमं । (१० } Tad तैमः । ( The ESDDS LI o elo pazbSph A r it la tout (1) Red [ १७७ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश पुत्र उत्पन्न हुए । अचेल पर उदयादित्यकी विशेष प्रति यी। उसका पुत्र रणधवल ज्येष्ठ मी या । इससे वहीं राज्यका उत्तराधिकारी ।। सापत्न्यकी ईके फारश सोलानी और उसके पुत्र जगदेव नर्वेली यद्यपि सदा दुःख देने के उद्येगमें रहती थी तथापि उदयात्म अपने छोटे पुत्र जगदेव कम प्यार में करता था । | उपादित्य माण्डवगढ़ ( मोदू) के राजाका सेवक था। इस कारण, एक समय, उसे कुछ काल तक मॉमें रहूना पड़ा । उन्हीं दिनों जगवेपका विवाह डॉक-टोहाके चावड़ा राना राजकी पुत्री रमताके साथ हो गया । इस] यहेलीका द्वेष और भी बह गया । यह इशा देर कर जगदेव धाराको छोड़ कर अपनी स्व-साहित पाटण ( अहिल-पाटनअहवाड़ा के राजा सिंद्धाज्ञ जयसिंदूके पास चला गया । द्धि जिने उसकी वीरता र कुलीनताके कारण, बड़े आद्रकै साय उराको, ६५००० रुपया मासिक पर, अपने पास रख लिया । जेब मी तन मनसे उसकी सेवा करने लगः । मह जमदेव के दो पुत्र हुए-जगघबढ़ कार बनधवल । इन पर मी सिद्वाज पूर्ण कृय थी । | एक बार माद्रपद मासी पनघोर अंधेरी रात एक तरफसे ४ स्त्रियों नेढ़ी और दूसरी तरफसे ४ स्त्रियोंके हँसने आवाज सिद्धराजके कानमें पह। इस पर सिंद्धराज जगदेव पाई अपने सामन्तक, ये उस समय वहाँ उपस्थित थे, आज्ञा दी कि इस रोने और हँसनेका वृत्तान्त पात काय मुझसे कहना। यह सुनकर वे लोग यहाँ वाने हो गये । उनके चले जाने पर सिद्धाजने सोचा कि वेखना चाहिं ये लोग इस मयनिक हमें इन घटनाका पन्ना गाने गात्स करते हैं पी नहीं । यह सोच कर वह भी गुप्त रजिसे घटनास्थलकी तरफ रवाना हुआ। इघर रोने और सबाली स्त्रियों का पता लगानेकी आज्ञा राजाने [ १७८ ]________________

मालयेके परमार। पाकर रवद्ध हायमें ले जगदेव पहले रोनेवाली स्त्रियके पार पहुंचा। यहीं उसने उनसे पूछा कि तुम कौन हो और पय अंध रातमें यहाँ वैठ कई वों व हो ! यह न कर उन्होंने उत्तर दिया कि हम इस पाटण नगरकी देविम है । कल इस नगरके राजा सिद्वराजको मृत्यु होनेवाली है। इससे हम रो रही हैं। उधर में छिपा हुआ सिद्धराज स्वयं यह सब सुन र या । यह सुन कर जगदव हैंसनेवाली स्त्रियाँके पास पहुंचा 1 उनसे भी उसने वहीं सवाल किये 1 बन्ने उत्तर दिया है हम दिल्लीकी इष्टदेवियां और सिद्धराजको मारनेके लिए यह आई हैं। कुछ सवा पहर दिन चढे सिन्छराजफा देहान्त हो जायगा । यह सुनकर जगदेवने कहा कि इस समय राज सा प्रताप दूसरा कोई नहीं। इस कारपा था। उसके नाचनेका कोई उपाय हो तो कृपा करके आप क । इस पर उन्होंने उत्तर वया कि इसका एक मात्र उपाय यही है कि यदि उसका कोई बढ़ा सामन्त अपना सिर अपने हाथ काटकर हमें दें तो राजाकी मृत्यु टल सकती है। नत्र जगदेवने निवेदन किया कि यदि मेरा सिर इस काम लिए उपयुक्त समझा जाय तो मैं देने तैयार हैं। देवियाने राजाके बदले उसका गिर लेना मझूर किया। तन जगदेवने कहा कि मुझे थी। वेरके ए आज्ञा हो तो अपने घर जाकर यह वृत्तान में अपनी स्त्रीसे कहकर उसकी आज्ञा ले आऊँ । इस पर उन्होंने इंसफर उत्तर दिया कि कौन ऐसी होमft जो अपने पतिको मरने अनुमति दे । परन्तु यदि तेरी यही इच्ा हो तो जा, जल्दी लौटना। यह न जगवेय रहीं तरफ रवाना हुआ । सिद्धराज मी, जो छिमें छिपे ये सारी बाते सुन रहा था, जगदेव छी पति-भचि नॉय फरनेकी इच्छासे उसके पीछे पीछे चला । जगदेवने पर पहुँच कर सारा वृतान्त अपनी स्वीस । उसे सुनफर इह योली कि नाके लिए प्राण देना अनुचित म। ऐसे ही समय १३५ [ १७९ ]________________

भारतकें प्राचीन राजबंशपर काम आने के लिए राजाने आपले रक्खा है । और क्षत्रियको धर्म भी यहीं है । परन्तु इतना अपको स्वीकार करना होगा के बाप के साथ ही में भी अपने प्राण हैं । यह सुनकर जगदेवने कहा #ि यदि हम दोन न जाये तो इन चालको) क्या दशा होगी । इसपर उसकी ॐ चावड़ने कहा कि यदि ऐसा है तो इनक्का भी थन्दिान कर छ । इस गतिको जमवेदने भी अङ्गीकार कर लिया, और सपने दोनों पुत्रों और स्त्रीकै साथ व उन देवियझे सामने उपाँथप्त हो गया ! सिद्ध अन मी पूर्ववत् उपचाप वहाँ पहुँचा और पिफर रहा हो गया। | जगपने पिग से पूछा कि मेरे सिरके बदले सिद्धराजकी उम्र कितनी य! जायगई है उन्होंने इत्तर दिया, १६ वर्षे । यह सुनकर जगदेवने कहा कि स्त्री-सात मैं अपने दोनों पुजके भी सिर आपको अर्पण करता हैं। इसके बदले सिद्धराज उम्र १८ वर्ष वदनीं चाहिए । ६नि यौने प्रसन्न होकर यह बात मान ली । तया चावडीने अपने बड़े पुनेको देवियाँ सामने पढ़ा किया । जगदेवने अपनी तलवारसे उसका सिर काट दिया। फिर दूसरे पुत्र पर उसने तलवार उठाई। इतनेमें देयान जाादेव। हाथ पकड़ लिया और कहा की हमने तैरी स्वामि-मासे प्रसन्न होकर राजाकी उम्र १८ वर्ष वृदः दी । इसके बाद वियोंने इसुकै मुझ पुत्र भी जीवित कर दिया । जय मादेन वैयाँको पाम फरके पुत्राः सहित घरो ले आया । सिद्धरान भी मन ही मन नगरेको दृढतो और स्वामि-भा अशा करता हुआ अपने महल गया । | प्रात काल, जय जगदेय दरबारमें या तर, सिद्धराज गद्दीसे इतर कर उससे मिला। फिर इन सामन्तॉसे, निनो उसने रोने और गानेलियोंकी छाल मालूम ने कहा था, पूछा कि कहो क्या पता गया । उनि उत्तर दिम $ किसका पुत्र मर गया था, इसने वे में रही थी। इसके यहाँ पुन उत्पन्न हुमा यी इस घड़ी नियों में १६६ [ १८० ]________________

मालवेके परमार। रहूँ। ६६ । तब गिद्वरानने जगदेवसे पूछा कि तुमने इस घटनाको क्या कारण ज्ञात किया है इस पर उसने कहा कि जै। इन मन्ने निवेदुन किया वैसा ही हुआ होगा।' यह सुनकर सिदराने उन सव सामन्तको चहत भार । इसके बाद उसमें यह सारा वृत्तान्त ज रात को हुआ यी, कह सुनाया । जन| वही उसने बहुत प्रशंसा की । फिर उसके साथ अपनी चट्टी राज मारीका विवाह कर दिया और २५८६ गाँत और जगारमें दे दिये ।। • पूर्वोत्तर नाके दो तीन वर्ष बाद सिराज कच्छके राजा फूल 'पुत्र लाना ( लाखा फलाणी ) की पुत्री से विवाह फनै भुज गया । उस समय देव भी उसके साथ था 1 जा फूलने जो जगचेवकी कुलीनता और इसे अच्छी तरह चर्चित या, अपने धुन काय? छोटी सही फूलमतसे जगदेवका विवाह गी उस समय कर दिया । लाया जी पुढी, सिद्धराजकी रानी, ॐ शरीर में कुलभैरवका आवेश हुआ। करता था। उस मैरवके साथ दुई करके भगवर्ने उसे अपने घश र लिंया । सेिदराज पर यह उसका दूसरा एहसान हुआ । एक दिन स्वयं चामुण्डा देवी, भावनीका रूप धारण करके, सिंदुराजकै दूरबारमें कुछ माँगने गई। वहाँ पर जगदेवने कोई बात पड़ने पर अपना सिर काट कर उसे दैवको अर्पण कर दिया। उसकी वीरता और मक्तिको प्रसन्न होकर देवीने उसे फिर निंदा दिया । परन्तु उसी दिनसे सिद्धान उससे अप्रसन्न रहने लगा । यह देल जगदेव पाइन छोड देनेका बिचार डेढ़ किया । एतदर्थ उसने सिद्धानकी आज्ञा माँग जौर अपने स्त्री-पुत्रों सहित बड़े धाराको लौट गया। वहांपुर उदयादित्पने उसका बहुत सम्मान किया। | कुछ समय बाद इदात्ये वहुरा बीमार हुआ । जथ ने यह न रही, सच उसने अपने सामन्तको एकन्न झरके अपना राज्य अपने १३७ [ १८१ ]________________

मारतकै प्राचीन राजपश छोटे पुत्र जगदेबफ ३ दिया और अपने बड़े पुत्र रवालको १० व देकर अपने छोटे भाई की शामें रहनेका उपदेश दिया । जनै उपादित्पका देहान्त होगया तत्र पिता शाशानुरारि जम्वेव मंई पर वैश्य ।। जगदेवने १५ नम्। अथामें बर्देश छोड़ा था । उसके बाद उसने १८ वर्ष सिद्धराजकीं ६ की और ५२ वर्ष राज्य करके, ८५ पट्टी उन्नमें, उसने शर हा । उसके पीछे उसको पुन जगवल राज्याई झी ऋों।" यहीं यह कथा समाप्त होती है। इस कथामें इतना सत्य य है। कि जगदेव नामक वीर और उदार प्रकृतिका क्षत्रिय सिद्धराज जयसिंह की सेवामें कुछ समय तक रहा था। शायद् वह उद्यादित्यको पुग्न हो ! परन्तु उद्यायिके देहान्तकें कई २०० वर्ष पछि रुतुझ्ने जगदेवका जो वृत्तान्त लिखा है उसमें वह उसको केबल क्षत्रिय ही लिता है । मह उदयादित्या पुत्र था या नहीं, इस विषयमें वह कुछ भी नहीं लिखता । माने जगदेवी कुलीनता, वीरता और उदारता प्रसिद्ध करने के लिए इस फयाकी कल्पना नृपः परी कर ली हो। इसमें ऐतिहासिक शक्यता नहीं पाई जाती। | उद्यादैत्य के राजाको सेवक न, किन्तु मालवेका स्वतन्त्र राना या, महु के अधीन शुद्ध किल्ला था । महासे दिया है। उसे वशन अर्शनका एक वामपन मिला है। उदयाबियके पीछे उसका पड़ा पुन समय और इसके पीछ दमादेवका छोटा माई नरब गई पर वैठा । परन्तु जगदेव और जगघयल नामके राजे माल्की म्पर की नही बेड़े । इतिहासमै जना पता नहीं । | करके राजा फूळ पुन लासा ( लास्वा फूलाणी ) की पुत्रियों साथ निंदरा और जगदेव सिंघाडी कथा मी अस+व भी इन १३६ [ १८२ ]________________

भालयेके परमार। होती है। क्योंकि फूली पुन्न छावा, सिराज पुर्वज नाका समकालीन यो । मूलराजने महार पर जो घाई की थी उसमें गहरेपुकी सहायताके लिए लाखा आया था और मूलराजके द्वारा यह मारा गया था। ई सिद्धराजके समय कच्छका राजा हा हो तो यह ज्ञाम जाड़ाय पुत्र ( लारवा जाहाणी ) होना चाहिए था। इसी तरह सिद्धराजकी १८ घर्पत सेवा के जगदेशके लौटने | तर्फ उदयादित्यको जीवित रहना भी कल्पित ही जान पड़ता है। | वैयक वि० सं० ११५०, पॉप ऋण ३( गुजरा अमान्त मास , सिद्धजि गद्दीपर बैं । इसके बाद १८ वर्षातक जगदेब जसकी सेवामें रहा । इस हिसावले उसके धारा काटने का समय वि० सं० ११६८ के नाद आता है । परन्तु इसके पूर्व ही उदयादित्य मर चुका था। इस प्रमाण उसके उत्तराचिंकारी लक्ष्मीदेबके छोटे भाई और उत्तराधिकारी नवमके ० ११६१ के शिलालेख मिलता है । उक्त संबत वहीं मालवेको राजा था । | प्रवन्म-चिन्तीमागमें उसका बृचान्त इस तरह लिया हैः– जगदेव नामक क्षत्रिय सिद्धराज जयसिंहकी समामें था । वह दानी, उदार और वीर था । जयसिंह उसका बहुत सत्कार करता था । फुन्तलदेशकै राजा परमन उसके गुपका प्रेशैसा सुन कर उसे अपने पास युवया । जिस समय द्वारपालने जगदेव पहुँचनेको विवर रीना दी, उस समय के दरबारमें एक वैश्या पुष्प-चलन नामका एक प्रकारका पत्र । पहने नग्न नाच रही थी। वह जमदेयका आना सुनते ही कपड़े पहन कर बंट गई । जगदेव वहाँ पहुंचने पर राजाने उसफो बहुत सम्मान किंया और एक छात्र की कीमत दो वच्च उसे मेंट दिने। इसके बाद रामाने इस वैपाये नाचनेही आज्ञा दीं । वेश्याने निवेइन किया कि अगचैव, जो कि जगतम एकही पुरुष मिना जाता है, इस जगहू उपस्थित [ १८३ ]________________

भारतके प्राचीन रोजचश है। कहते हैं कि उसकी छाती पर स्तन-चिन्न न दें।) उसके सामने न होनेम लता शर्त है । क्योंकि छिया स्त्रियोंहीके बीच अपेष्ट चेष्टा कर सती है । इस प्रकारे इस चैपाके मुझे अपनी प्रशंसा सुनकर जगद्रेशने राजा दी हुई यह बहुमूल्य भेट इसी वेश्माको ३ हाली । कुछ दिन नाद परमझी कृपसे जगदेव एक मान्तका अधिपत हो गया । उस समय अगदेव गुरुने इस प्रशंसा में एक स्ट्रोक सुनाया । इस पर जगदंघने ५०८२० मुद्रामें गुरुको उपहार दी। | परमदीं पटाभने जम्मवैवको अपना भाई मान लिंया भी । एई यार राजा परमदने श्रीमालझै रानाको परास्त झनै दिए जगदेवकों ससैन्य गैा । वहाँ पहुँचने पर, जिस समय जगदेव देवपूजनमें लगी हुआ पा, उसने सुना कि शवने उसके सैन्य पर हुम्ला करके उसे परास्त कर दिया है । परन्तु तब भी वह मुंव-पूजन अपूर्ण छोडकर न उठा । इतने में यह उन्नर दूतों द्वारा परमट्टी के पास पहुँची । इसने अपनी रानी कहा कि सुम्हारा भाई, जो वह वीर समझा जाता है, उसे घिर गया है और मागनेने में असमर्थ है । इस पर उसने उत्तर दिया कि मेरे भाईका पास्त होना भी सम्मय नी । इसी बीच दूसरी दर मि कि देषप्शन समाप्त करके जगदेवने ५०० योद्धा सहित उजु पर हमला किया और उसे क्षण ममें नष्ट कर दिया । _ इॐ कमल बाद इस पररर्दीका मुद् सपाक्षके ना गृवीरान चौहानके साच्च । 1 जसे भाग कर परम अपनी राजधानीका होना पड़ा। प्रदन्य-चिन्तामणि फहने कुन्सल-देश राजा परमको तय! चौहान पृथ्वीराशके , महोवाके बन्देल राजा परदको, एक ही कामझा है । यह इसका भ्रम है। [ १८४ ]________________

मायेके परमार । फन्तलदेशका परमी शायद कल्याणका पश्चिमी चाय राजा १६ ( पैमाढी-परम } हों । यह जगमल्ल भी लाता था। यईि जगदेवकों उद्यादित्यका पुत्र मान लें, जैसा कि भाटकी च्यात प्रकट होता है, तो पृथ्वीराज चौहान और चन्देरु परमदी लढाई तक उसका जीवित रहना अगम्भव हैं। क्योंकि यह लड़ाई उदयाविपके देहान्तके ८० वर्षसे भी समय बाद, वि० सं० १२३९ में, हुई श्री ।। पटत भवानहाल इन्द्रनीका अनुमान है कि जगदेव, राम जयसिंह की माता नियणदेवीके भतीजे, गोधाके कदम्बवंशी राजा अयके दूसरेका, सम्बन्धी था । सम्भव है, वहीं कुछ समय तक द्विराजके पास रहने के बाद, पेम (चौलुक्य राज्ञा पर्म) की सैनामें जा रहा है और पेमेडीकै सम्बन्धसे हैं। शायद परमार कहलाया है । । चालुक्य राजा पर्म (कादेमल्ल) के एझ सामन्तका नाम जगदेव था । वह चिमुचनमछ भी कहता था। वह गोवा कंदम्यवंशी बाजा जयकेशी दुसरे मौसका पुत्र था। माईसौर में उस जार थी। उसका मुथ निवासस्थान पट्टिप इच्पुर-बुध या हुँच-( अहमदनगर जिले } में था । उसका जन्म सन्तर चॅशमें हुआ था । यह वि० सं० १३.६ में विद्यमान था और पेर्मके उत्तराधिकारी ने तीसरेके समय तक शिविर था । प्रचन्य-चिन्तामणिका लैख भाट ख्यातोकी अपेक्षा १० मायानछाल इन्द्रजीके को अधिक पुष्ट करता है। | . ' १२-लक्ष्मव ।। | यह उदयादिश्य। श्येष्ठ पुत्र था । अय परमाके पिछले लै जर ताम्रपत्रों में इसका नाम ही है, तापि मरयम समपके नागपुर क्षेत्रमें इसका जिक्र है । यह ठेस श्मदे छोटे भाई १४ [ १८५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश लिया हुआ है । इसलिए इस लेसमें उसकी अनेक 'चाइयोंढा उल्लेख है; परन्तु विपु पर किये गये हमले और तुरॉके साथदाली छडाईके सिवा इसकी और सच बातें कल्पित ही प्रतीत होती हैं। उस समय शायद त्रिपुरीका रजा कलचुरी यश.कर्णदेव था। १३ नरधर्मदेव । यह सपने बड़े भाई लक्ष्मदेवका उत्तराधिकारी हुमा । त्रिदा और दानमें इसकी तुलना मनसे $ जाती थी। इसी रचित अनेक प्रास्तियाँ मिली हैं। उनसे इसकी थिइचाका प्रमाण मिलता है। नागपुरको प्रशस्ति इस रची हुई है। यह बात उसके दुइयनों योद्धचे प्रकट होती है । जिए: तेन त्वयं झलाने.यातनुचिदिसम् । भ्रॉमाघरवागारमार्च ॥ [ ५६ ] पत्न रवदिने अपनी बनाई हुई अनेक प्रशस्तियोंसे भिन पए देवमन्दिर श्रील्मघर द्वारा बनवाया । इस प्रकृतिका रचनाकाल चि० सं० १ १६१ ( ३० स० ११०४-५) है। इनमें महाकालके मन्दिरमें एन्छ ट्रेमका कुछ अंश मिला है । बहू मी इसका धनाया हुआ मालूम होता है । यह कैंपसण्ट अब तक नहीं, प्रकाशित हुआ । धारामें मनाळा स्तम्भ पर जो ले है वह, भीर इन्दौर-राज्य के सरगोन परगने 'उन' में एक दीवार पर ये टेस ३ वह भी, इसकी रचना है। (1) पुग्दर जग का म्यप्रापालने व्यापार र प्रयाय नमः । नी! मैन मनुग्थ न दा ने स्वत: धंगा से क्र्धन सभा ने मैर; 1 [३५] | -Ep Tad , To1 1.4, F 18 १ [ १८६ ]________________

मावेके परमार। भौजशाला स्तम्भ पर नागबन्धमें जो व्याकरण की फारिकायें तुदी हैं उनके नीचे श्लोक भी हैं। उनका आशय क्रमशः इस प्रकार है: (१) पपई रक्षके लिए शैव उद्यादित्य और नवमके से; सदा उद्यत रहते थे। ( यहीं पर ‘वर्णी' शब्दके दो अर्थ होते हैं। एक ब्राह्मण, क्षय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण; दूसरा क, से आदि अक्षर 1) (२) उदयादित्यको वर्णमय सर्पाकार पड़ विद्वानों और राजा$। छाती पर शोभत होता था।

  • उन ' गचके नागबन्चके नीचे मी उठेवित दुसरा श्लोक अदा हुआ है । परन्तु महाकालके मन्दिर में प्राप्त हुए उल्लेके टुकड़ेम पूर्वोक्ष दोनों श्लोकझोंके साथ साथ निम्नाकात तीसरा झोंक भी है।

उदयादित्यनामाईवर्षनागपारिका । - --- मी सुटी सुझबन्धुना ।।। इस श्लोकमें शागद सुकवि-बन्धुसे दीत्पर्य नवमीसे हैं । यूके तीनों स्थानॉकै नागपन्धको देख कर अनुमान होता है कि इनका फो न कोई मूद्ध आशय ही रहा होगा । मरयम तरारे भाई जगदेका जिक्र हम पहले कर चुके हैं । अमरुद्धशतककी टीमें अर्जुनवर्भाने भी जगदेगा नाम लिया है। कथाऔमें यह भी लिखा है कि नरवर्माकी गद्दी पर बैठाने के बाद जगदेव उससे मिलने धारामें आया, तया नरदर्गा की तरफ कल्याण चायाँ पर उसने चदाई की । उस युद्ध में चीनृश्यराजको मस्तक काट कर जगवेयने नरेवमके पास भेजा। जगदेयके वर्णनमें लिखा है कि उसने अपना मस्तक अपने ही सुयिते काट कर कालीको दे दिंया या । इस बात के प्रमाण यह कविता - त की जाती है । ११), IT BE A, E; Yad, 7, P. $5. [ १८७ ]________________

भारतकै प्राचीन राजवश संवत् ग्पा ॐ एकायन चैत्र सुदी रविवार । | जगदेव सन्नि समधि धारा नगर इदार ॥ परन्तु जगईवका विश्वास-योग्य हाल नहीं मिलता। ऐसी प्रद्धि है कि नरवर्मदेवने गड ऑर गुजरत तो था, तथा शाखाका भी वह वडा रसिक शा। महाकाल के मान्दरमें उसके समयमें नैन रनसूरि और शैव विधानवादके वीच एक बड़ी मारी शार्थ हुआ था । एक और स्वार्थका जिक्र अम्मामी लिखे हुए रजसूरिके वनचरितकी प्रशस्ति हैं। यह चरित ३० स० १९९० (३० ० १९३४ ) में लिखा गया । इसमें समुद्रपका परमारों मग होना पाया जाता है (१) मो मानपात्तविञ्चित विद्यान्वयवाघान । दिईजीतपाइपद्म वै म विशागुम्नामदत } ४ ॥ अर्थ समुद्रघोप, जिसने मालमें तर्कशास्त्र पहा था और जो बड़ा भारी विद्वान था, किनका वियागुरु न था ? मतत्व यह कि सभी उसके शिन्य थे। (६) धारा। मरम्मदैवनति हदमापति भ्रमदितव गुरै निद्वननै पक्षियि । वैया रयत मून गुणगणायग्नवद्भाशयो। 'ध मानौरामादिगणभूउग्रवादिनभरियन् ॥ ६ ॥ अर्यत अनुदघोष गौतम आदेके सद्दश विद्वान् भा । उम्रने अपनी विद्वत्ताने नरवमेव टाई राजाको प्रसन्न कर दिया। पॉक्ति प्रथम श्लोक्से अनुमान होता है कि उस समय मारवा विया लेए मसिद्ध स्यान यो । समुद्रको शिष्य गुरमई गई । और सूर मिसूर का शिष्य बनरारि सूरमग मी चा विद्वान था, जैसा कि इस कसे प्रकर होता है - गुम्यदीयामै ष्ट्वान्दै दुधेपुर। मुरे मूरप्रम मनग्यातइकाण ॥ [ १८८ ]________________

मालवेंकै परमार । अर्थात् समुद्रपोपका शिष्य सूरप्रभसूरि अन्ती नगर भरमें प्रसिद्ध विद्वान था । जैन अमयदेवसुरके जयन्तकाव्यङ्ग प्रशस्तमें नरबर्माका जैन वल्लभसुरके चरणों पर सिर झुकाना लिखा हैं । वि० सं० १९७८ में यह काव्य बना था। इस काव्यमें वल्लभरिका रामय वि० ० ११५ है'। यद्यपि इस काव्यमें लिखा है कि नरव जैनाचार्योकी भक्त था, तथापि वह पक्का झै था, जैसा किं धारा और उनके लेहै विदित होता है । | चेदिराजकी कन्या मोमला देवी नरबर्माका वियाह हुआ था । उसने पशवर्मा नामका एक पुत्र उत्पन्न हुई। | बनदिकीमुदीमें लिखा है कि नरबमझो काष्ठके पिंजड़ेमें कैद करके उसकी धारा नगरी जयासे हने छीन ली। परन्तु यह घटना इसके पुन समयकी है । १२ वर्ष तक लड़ कर पशोवर्माको उसने कैद किया था। | नरवके समय दो लेखम संवत् दिया हुआ है। उनमें से पहला लेस वि० सं० ११६१ (६० स० ११०४) का है, जो नागपुर में मिला थी। दूसरी लेख वि० सं० ११६४ (६० स० ११०७) फा है । यह मधुकरगडमें मिला थ । चाकके ज्ञान देखा पर संवत् नहीं है । प्रथम भेजशाला स्तम्भवाला, दूसर। उन' गाँवझी दीवारबाड़ा और तीसरा महाकाल मन्दिावाला लेखण्ड । | १४-पशोवर्मदेव । यइ नरबमदेवका पुत्र ही और उसके पीछे मद्दी पर बैठा ! परमाका वह ऐश्वर्य, जो उदयादित्यने फिरते प्राप्त कर लिया था, इसरानाके Jitstory of Jetesen in Gujrat, pt I, AEIX.39 (1) Tra. A 4.5, Pot. T, १८, OBT [ १८९ ]________________

मारत प्राचीन राज्ञवेद समय नष्ट हो गया । इरर समय गुजरात राजा feद्धराज जयसिंह चहा प्रतापी हुआ 1 उसने मारावें पर अधिकार कर लिया। | श्यन्यन्तिाजमें हिंसा है कि एक बार जयसिंह और उसकी माता सोमेश्वर यापाः गये हुए थे। इसी बीचमें यशवमने उसके राज्य पर चाई दी। उस समय जयसिंह राज्यका प्रबन्ध उसका मन्त्री सान्तुके हथिमें था । उसने यशवमसे घापस लौट जाने प्रार्थना की। इस पर अपने ही ६ि प३ नम मॐ जयक्किी पालकी पुष्य दे दो तो में वापिस चला जा*। इन पर नष्ट हाय का तने जयसिंह की या पुग्छ योरमको दे दिया। सिराज जयसिह यात्रा से लौटा तो पू. हाल दुगुन कर बहुत नाराज़ हुआ था सान्तुसे कहा ॐ ने ऐसा क्यों किया । इस पर सन्तुने उत्तर दिया कि यदि मेरे देनेने आप पुण्यं य च्च हिल गया है। जो आपका चट्ट पुण्य में आपको लौटता हूँ और साथ ही अन्य महात्मा का पुण्य भी देता हैं। यह सुन कर जयसिंहका मोघ शाल हो गया । कुछ दिन बाद् बला लेनेके दिए जयसिंहने मालों पर चढ़ाई की। यहुन झालन इट्स होता नहा । परन्तु पार नगरीक दह अपन गधीन में कार है । सब एक दिन युद्धमें ऋद होकर जयसिंहने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक घारा नगरी पर विजय प्राप्त न कर ग तय तक भोजन न करूंगा। राजाकी इस प्रतिशफी सुन र उस इन इसके अमात्यों और भने बड़ी ही वीरता थ६ किया। उस दिन पाँच में परमार मारे गये तपााँचे सन्ध्या त पार पर दावलं न हो सका । तर अनाजी पार नगरी बनाई गई । उसको तौह हर गाने अपनी प्रतिज्ञा पूरी । । इसके बाद मूळ नामक मन्त्रीही सलाखें जासूच्चों द्वारा गुप्त भेद माह का पियन पहिने दक्षिणा फाटक तुवा हा । इरी रस्ते विकले ‘पर हमला करके धाराको जीत लिया और यज्ञशको ए इससे चाँध का वह पापा ले आया। ६ [ १९० ]________________

मालमेकै परमार इस कथाका प्रथमाध जनों द्वारा कल्पना किया गया मालूम होता है । पएफका पुण्य दूसरे को दे दिया जा सकता है, हिन्दू-धर्मशाळा ऐसा ही बिभ्यास हैं । इस विश्वासकी हसी उड़ाने के ल्लिए शायद जानियेंने यह करुपना गहीं हैं। यद्यपि इस विजयका निक माइक्के लेलादिमें नहीं है, तथापि बायकाव्य और चालुक्योंके लेखॉमें इसका हाल है। मालवेके भाका कृयन है कि इस युद्ध में दोनों तरफका बहुत नुकसान हुआ ! यह कथन माय: सत्य प्रतीत होता है । यह कथा याभयकाव्यमें भ प्रायः इसी तरह वर्णन की गई है। अन्तर बहुत थेाहा है। उसमें इतना जियादह लिखा है कि यशोवर्मा पुत्र महाकुमारको जयसिहके भतीजे मसलने मार डाला । जयसिंहको पारंपार कैद करके वह अपहिलवाई ले मया । माळवेका राज्य गुजरात राज्यमें मिला विया गया तथा जैन-धर्मावलम्बी मन्त्री जनचन्द्र बहाँका किंम नियत किया गया । | माङवेसे लटते हुए जयसिंहकी सेनासे मीठोंने युद्ध करके उसे मग देना चाह । परन्तु सन्तुसे उन्हें स्वयं ही हारे पानी पी ।। इड नामक स्थानमें जयसिंहको एक लेख मिळा है जिसमें इस विनया जिज है। उसमें लिखा है $ मालवे और राष्ट्रकै राशा को जयहिनै कैद किया था। सोमेश्वरने अपने सुरोंत्सव नामक व्यके पन्द्रहुई सर्गके बाईसवें | में लिखा है: नीत स्फीतवलोऽपि माछपति फाय दाचित । गपत-उसने ट्रयान मालवे नाङो भी सङ्ग व कर दिया। १५) Ep, Ind, Fa) 1, 256 [ १९१ ]________________

भारतके प्राचीन राजब कयामें लिखा है कि बारह वर्ष तक यह युद्ध चलता रहा। इससे प्रतीत होता है कि शायद यह युद्ध नर्मदेवके समय से प्रारम्भ हुआ है। और पशोपमैके समयमै समR 1 | ऐसा भी लिन मिलता है कि जयसिने यह प्रतिज्ञाकी थी कि में अपनी तलंवारकामियान मालवेके राके चमडेका चनाऊँगा । परन्तु मन्त्रीको समझाने केवल उसके पैरकी एङ्गीका भोडासा चमड़ा काटकर । ही उसने सन्तोंघ किया । ख्यातॉर्म दिखा है कि माझा राजा के धन, जयसिंहकी आज्ञासे, बट्ट वैदर्ता के साथ, पर गया था । दण्ड हॅकर उसे धो देनेक प्रर्थना की जानेपर जयसिंहने ऐसा करनेसे इनकार कर दिया था। इस विजय बाद जयहिने अयम्तीनाथा किसान शरण यह था, जो कुछ दानपॉमें लय मिलता है। , यह विजय मन्चकै प्रभाव से बयासहूने प्राप्त की थी । मन्त्री मसे यशवमने भी जयसिंहका सामना करने हस किया था । सरपोत्सव-काव्य एक कसे यह यान प्रकट होती हैं । खेए घाराधीशपुरेभसा चिनुचेंगर नौक्यासिल क्रियालित सदरम्यकृतॆ कृत्या किलोत्पादित। मन्येपेस्य तपस्य अनिता तब त मान्त्रिक ग्रा राहूल्य दाँतसमय ३५ प्रयाता कचि ॥ १० ॥ अर्थात-चैलुक्यराज अधिकृत जपने राजा पृथ्वीको देस झर उसे मारनै धायक रजाके गुस्ने मन्बीसै एक या पैदा की । परन्तु महू कृत्या चालुक्याण गुरु मन्त्राँके प्रभावको गर्म उत्पन्न करनेवालेहीको मार कर गायब हो गई । । माळवेकी बस विजयनै चन्देलकी राजधानी जेजाकभुक्ति (जेनानुति) का भी राहा साफ कर दिया। इससे वहाँकै चन्देल राजा मनवघर १८ [ १९२ ]________________

मालवेके परमार। भी जयसिंहने चढ़ाई की। यह जेजाकमुक्ति आजकल बुंदेलपण्ड वए चाता है । इन विनयले जयसिहको इतना गर्व हो गया कि उसने एक | नवीन संवन चलानेकी कोशि की ।। | जयसिंहके उत्तराधिकारी कुमारपाई ५ ग्वायर ) के लेवलं भी कुछ काल तक मालवे पर और अजयपाल के उदयपुर गुजरातवालाका अधिकार रहना अट होता है । परन्तु अन्तमें अजमेर चौहान राजाकी सहायतासे कैसे निकाल कर अपने राज्यका कुछ हिस्सा यशोदमन किंर प्राप्त कर लिया। उस समय जयसिंह और यशोवर्माके बीच मेल हो गया था। वि० ० ११९९(६० स. ११४२) में जयसिंह मर गया । इसके कुछ ही काल बाद यशोवर्माका भी देहान्त हो गया । अग तक यशावरमले दो दानपत्र मिले हैं । एक वि० सं० ११९१ ३० स० ११३५), कार्तिक सुदी अष्टमीका है। यह नरम -सयत श्राद्कै दिन यशोवर्मा द्वारा दिया गया था। इसमें अपस्थिङ इणि धनपालको बड़ौद गाँव देने कि है । वि० स० १२००, आवण सुदी पूर्णिमा के दिन, चन्द्रग्रहण पर्व पर, इसी दामको दुबारा मजबूत करने के लिए महाकुमार लक्ष्मीदर्गाने नर्शन ताम्रपत्र लिखा दिया। अनुमान है }ि ११९१, फावई सुदी अष्टमीको, नरदमा प्रथम सांवत्सरिक आइ हुआ होगा, क्योंकि विशेष कर ऐसे महादान पथम सांवत्सरिके आर पर ही इिये जाते हैं । यद्यपि ताम्रपत्रमें इसका जिक्र नहीं है, तथापि सुंभव है कि वि० सं० ११९०, फातिम मुदी अष्टमीको हो, नरदमका देहान्त हुआ होगा। ( Ind. Ast, Vol XVIII, P. 313. < DI, 347,(1) Ju4, 4pt. Ind. Ant. Yo 21. FIF Pl, (r) Ipu, Ant., 3 , p. 351, १ [ १९३ ]________________

मारतके प्रायन राजवंश दूसरा दानपत्र वि० सं० ११९२,(ई: स० ११३५), मार्गशीर्ष गद्दी तीजका है। इसका दूसरा ही पा मिला है। इसमें मामलादेवी मृत्य-समय सङ्कल्प की हुई पृषीके दानका मित्र है । शायद यह मोमसादेवी यव¥ी मता है । | उस समय यशोवर्मीका प्रधान मन्त्री रजपुन ईदधर पा ।। | १५ जपवर्मा ।। यह अपने पिता यशौचमका उtधिकारी हुआ । परन्तु उस समय मालपर गुजरातके चालुक्य राजाम अधिकार हो गया था। इसलिए शायद जयवम विन्ध्याचल की तरफ पल्ला पिा हैं।गा। ई० स० ११४ से ११७९ के बचका, परमाका, कोई ठेस अबतक नहीं मिला। अतएव उस्, समय तक यदु माथे पर गुजरातवाड़ा अधिकार रहा होगा। पचमक देहान्त घाई मलिदाधिपतिका सिन चल्लालदेव नाम साध लगा मिलता है । परन्तु न त परमारों की बंशावलीमें हैं। यह नाम मिलता है, ने अब तक इसका कुछ पता है ढ़िा है कि यह राना सि वैशा या । | जयसिंहको मृत्यके बाद गुजराती गद्दी के लिए झगड़ा हुआ । इस सगमं भीमदेफिी यश कुमारपाल कृतार्य हुआ । मेरुतुङ्गके मतानु-, सार सु. ११९९, छातक बदि २, रविवार, हस्त नक्षत्र, में मारपाल गड़ी पर वेडा 1 परन्तु मैतुइकी यह कल्पना सत्य नहीं हो सकती ।। | कुमारपाल गद्दी पर बैठते हैं। उसके विरोध कुटुम्वियाने एक न्यू मनापा । मालवेका चल्लालदेव, चन्द्रावती ( मायके पास } का परमार राजा विक्रमसिहे और सामरका चौहान राजा अमरान । व्यूह सयिक हुए । परन्तु अन्तमें इनका सारा प्रयत्न निष्फल हु। बिक्रमसिमा राज्य उसके भने यशोधली निळा । यह अधजल कुमार(।) Bombay Gax., lajtak, Tr 181–194 १५८ [ १९४ ]________________

मालयेके परमार। पालकी तरफ था। कुछ समय बाद बलदेव भी शोधवल द्वारा मारा गया और मालवा एक बार फिर गुजरातमें मिला लिया गया। बल्लालदेवकी मृत्यु का निक अनेक प्रशस्तियोंमें मिलता है । वडनगरमें मिली हुई कुमारपालकी प्रशस्ति पन्द्रहवें श्लॅकमें बल्लालदेव पर की हुई जीतका जिक्र है । उसमें छिपा है कि भल्लालदेव का सिर हुमा२पालके महलके द्वार पर छटाया गया था । ई० स० ११४३ ॐ नवंबर कुमारपाल गद्दी पर धेठा, तथा उल्लिखित बड़नगरवाङी प्रशस्ति ई० स० ११५१ के होम्यरमें ले गई। इससे पूर्वो वातका इस समय वैचि होना सिद्ध होता हैं। | कौमुदी लिंखा है कि मालवेकै चल्लालदेव और दक्षिणके मद्धिकानको कुमारपालने हया । इस विजयवा ठीक ठीक हाल ६० स० ११६९ के मनाथ में मिलता हैं । उदयपुर (ग्वालियर) में मिले हुए चौलुक्याँके लेहोस भई इसकी दृढ़ता होती हैं। | उदयपुर (ग्वालिँगर ) में कुमारपाङफे से लेस मिले हैं। पहला वि० सं० १२२८(३० स०११६३ ) और दूसरा वि०सं० १९२२ (६० स० ११६५) की। वहां पर एक लेख वि० सं० १२२९ (३० स० ११७२) का अजयपालके समयका भी मिला है। इससे मालूम होता है कि वि०सं० १२२९ तक भी मालवे पर गुजरातवालोंका अधिकार था 1 जयसिंहकी तरह कुमरपाल भी अव-तीनाथ कहलाता था। कहा जाता है कि पूर्वोळखत उन' व घालदेबने बसाया था । वहाँकै एक शिंद-मन्दिरमें दो लेस-सप्ड मिले हैं। उनकी भाषा संस्कृत है। उनमें चावफा नाम है। परन्तु यह बात निश्चय नहीं कही जा सकती है भोजप्रबन्धको कर्ता बवाल और पूर्वेक्त बल्लाळ दोन १५) 5. Ind., . VIII, P, ४00. (३) Ep. Ind, Fol. VIT, t. 200. (३} Ep Ind, Vol. I, P 28, १५१ [ १९५ ]________________

भारतफ प्राचीन राजवंश एक ही दें। यदि एक ही हो तो वह परमार-वंशज हेनमें विप संदेह न रहेगा, क्योंकि इस वैशमें विइचा परम्परागत थी । | भाटी पुस्तक में लिया है कि जयवर्माने कुमारपाङको हुया, परत यह बात कल्पित माम होती है। क्योंकि उदयपुर (मार्जियर) में मिड़ीं हुई, वि० सं० ११२९ की, अजयपाठक प्रतिसे उस समय सक मालवे पर गुजरालाका अधिकार होना सिंद्ध है। | जयप निऊ राजा पा । इससे उसके समय उसके कुशुम्भमें झगडा पैदा हो गयी । फल यह हुआ कि उस समय मालवैके परमारराजाओं दो गम्विापें हो गई 1 जयवर्मके अन्त-समपा कुछ भी हाल मालूम नहीं । शायद वह गौसे उतार दिया गया हो । | यशोवर्मा पौंछेको वंशावलीमें बड़ी गढ़ है। पद्मपि जयवर्म, महाकुमार वर्मा, महाकुमार हरिश्चन्द्रवर्मा और महाकुमार उदयवम ताम्रपत्रेमियोंकि उत्तराधिकारीका नाम जयम लिया है, तथा अईनमक दो तान्नपत्रोंमें यशोवर्माके पीछे अर्जयमका नाम मिलता है। महाकुमार उषयमके ताम्रपत्रमें, जिसका हम ऊपर जिग्न कर चुके हैं, लिखा है कि परममट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर जयवर्माका अन्य अस्त होने पर, अपनी तलवारकें बल महाकुमार लवर्माने अपने राज्य स्थापना की । परन्तु यशोमके पौत्र ( दमक पुत्र) महाकुमार हरिश्चन्द्रवर्मन अपने दानपत्रमें जयवर्माकी फूपासे राज्य याहिं लिप्त है । इन नामों से अनुमान होता है कि शायद याबिके तीन पुन ६–जपवर्मा, अजमवर्मा और दमदम । इनमें से, जैसा कि हम ऊपर (लेख के हैं, यशोवर्माका उत्तराधिकारी जयबम हुआ । परन्तु T aastrecht Oatalogo, Catalugoron, VOL I, - 394, 11 ११) Ind. Ant, Yel, SI, PRA. १५६ [ १९६ ]________________

मालपॅके परमार। वह निर्गल राजा था । इस कारण इघर तो उस पर जितियालों का दूचाव पट्टा र र उसके भाईने गवत की । इससे वह अपनी रक्षा में कर सका। ऐ हुरितमें उसके गद्दीसे उतार कर उसके स्थान पर उसके भाई अजयवर्माने अधिकार र लिमा । अजयवर्मासे परमाकी • च ' शाखाका प्रार-म हुआ, तथा इस उतार हायमें उसके दूसरे भाई छद्भवमने जयधर्मा से मिल कर ऋछ परगने दुबा लिये । उससे 4. क ' शाला चढ़ी। अपने नामपनों में इस ' क ' शाखाके राजाओंने जमथमको अपना पूधिकारी लिखा है । इस प्रकार भालके परमारजाकी दो शाखायें चलीं - - १४–यशोवर्मा !... _ __ ( प ) १५---जयम १ १५ –अजयम १६-लक्ष्मीचम { १६ }--विग्यवम ( १७}--सुभटकर्मा १८–उदयवमी ( १८)-अर्जुनवर्मी १९-देवपालदेव ( हरिश्चन्द्रदेवका पुट्स ) * ' शाकाई का कम इस प्रकार हैं: पूर्वोक्त वि० सं० १ १९११ ईंसः ११३४) ॐ यशोवर्माके दानपत्रेके बाद जयवर्माके दान-पत्रका प्रथम पत्र मिला है। यद्यपि इसमें संवत् न होने से इसका ठीक समय निश्चित नहीं हो सकाता, सथाचे •} Tad Ant., Pal XIY,53 (३) E Ima, vol. I n [ १९७ ]________________

मारतकै भाचीन राजा अनुमानसे शायद इसी समय वि० १० ११९९ के आसपास होगा । इसके बाद वि० स० १२००० स० ११५३) श्रावणशक्ल पूर्गिमाका, महाकुमार ली गर्नाका, दान पर मिला है। इसमें अपने पिता योमके दि. १० ११९१ में वैये हुए नई इधकृते हैं । इसमें यह मी अनुमान होता है कि सुम्मवत वि० स० १२०० के पूर्व ही जयते पज्य छीना गया होगा। इस दान में दवनि अपने महाराजाधिराजके बदले महाकुमार सिहा है । इस लिए शायई उस मग तक जयवर्मा जीवित रहा होगा । परन्तु वह अन्यत्रमा दम रहा हो तो आश्चर्य नहीं । | वि० स० १२३६ ( ई० स० १ १७९) वैशाख़-मुक्का पूर्णिमाका. टावमा के पुत्र एन्द्रिका, दानपत्र भी मिला है' । तथ। उसके बाद वि० स० १२५६ ( ई० ११९९) वैशाः- पूमिका, हरिश्चन्द्र के पुत्र उद्यम दानपत्र मिला है । | "योगमका उचैति ताम्रपत्र सारा दिया गया था, जयवर्मा का मानपुर से जो शायद बंडदानी कहलाता है । इमबर्माको राजसमनचे दिया गया था, जो अब रायन कहता है । वह भोपाल ज्यमें है। हरिन्द्रका पिलिगन्नगर ( भोपाल राज्य ) में दिया गया या। यह नर्मदाके उत्तरमें है । उद्यत्रमा वाट्टापट्ट या गिन्नुरगइसे दिया गया था । नर्मदा इन्चर, इसे नामका एक छोटासा फिलः भाषा-ज्यमें है ।। |६४ मालूम होता है कि 'क' झाका अधिकार मिटता और नर्मदी चि और ' व 'शस्पिाका झाधकार धारा चारों तरफ या । | (1) Jnd Ant, FeL XIX, I () , E A , 21T, B (३} Tad, Ans,Test, , , *54. १५३ [ १९८ ]________________

• मालचे परमार। '३' शाखाके राजा । १५-अजयम | | इसने अपने भाई जयवर्माने राज्य छीना और अपने यंशी नई | 'ख' शाखा कालाई । यह 'स' मा लक्ष्मीदर्माको प्रारम्भ हुई * * ' शाखासे चराचर लड़ती झगड़ती रहीं । उस समय घापर इ ' छ शायका अधिकार था 1 इसलिये ६६ वय मह्वकी थी । १६-विन्ध्यवर्मा । यह् जयंवर्धाका पुत्र या । अर्जुनर्भके ताम्रपत्र में यह 'नारमून्य लिखा गया है । इसने गुजरातवा अधिपत्य को मालवेरी हटाना चाहा । ई०सं० ११६ में गुजरातका प्रज्ञा जयपाल भर गया। उसके मरते ही गुजरातवालाका अधिकार मी मालवेंपर झिायल हो गया। इससे मालवेके कुछ भाग पर परमाने कर दखल जमा लिया। परन्तु यशोवर्मकै समयसे ही वे सामन्तक सरह रहने लगे । मालवे पर पूरी प्रभुता इन्हें न प्राप्त हो सकी । | सुरथोत्सन नामक काममें सोमेश्वरने निन्ध्यन और गुमराहचालक वीच वाली काङ्गाईका वर्णन किया है। उसमें लिखा है %ि लड़के सेनापतिने परमारो। सेनाको भगा दिया था गोगस्थान नामक गाँव बरवाइ फेर दियो । वियवम भी बियाका मा अनुरागी का 1 उसके मन्त्रीको नाम हिए या । यह विरुण विक्रमासूदेवचारतके कर्ता, काश्मीरकै १३ कधिसे, भित्र था । अर्जुनबर्मा और देवपाल्वेषकै समय नफ यह इसी पद पर रहा। मौहमें मिले हुए विन्ध्यवर्मा के लेखमें विद्या के %ि लिया है: [ १९९ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश

  • विन्ध्यवर्मनृपतेः प्रादभूः । सन्धविग्रहिकबिल्कुः कविः ।।

अर्थात–विरुण कवि विन्ध्यबर्माका कृपापात्र या और उसका परराष्ट्र साचैव ( Foreign Minister ) भी यः ।। आशाघाने मी अपने धर्मामृत नामक अन्यमें पूर्वोक्त जिल्हा जिक किंया है ।। आाधर । ई० स० ११९२ में द्विको चहान राजा पृथ्वीराज, मुअजुद्दीन साम ( शहाबुद्दीन गरी ) द्वारा हराया गया। इससे जचरी हिन्दुस्तान' मुसलमान अधिकारमें पढ़ा गया तया वह हिन्दू विद्वानों को अपना देश छोड़ना पड़ा । इन्हीं विद्वानोंमें आशीघर भी था, जो उस समय माळमें जा रहा । अनेक अन्धीका फर्ता जैनाचे आशाघर सादल-देश गइलकरनामक गाँवका रहने वाला था। यह देश चौहान के अजमेर-राज्य ग्तर्गत धा । मण्लकरसे मतलब मेवाड़ मॉडलगढ़से है । इसकी 'जाति पाने वाले ( बघेरवाल) थी । इसके पिताका ममि सक्षण और माताका रहा था । इसकी छ। सरस्वती चाढू नानक पुन हुआ । आशाधरी कविताको जैन-विद्वान् बहुत आदर करते थे। यह तर्क फि जनमुनि उपयसेनने उसे ले-आलिदासकी उपाधि दी थी । धारामं इरानै परनके शिष्य महावीर जैनेन्द्रग्याकरण और जैन सिद्धान्त पड़े। विन्ध्यवर्मा सन्धिविमहिक हिप कसे इसकी मित्रता हो गई। आशाघर) चिल्ण कयिन कहा करता था । अज्ञाधरने अपने 1 से विन्ध्यवर्माके पर अर्जुनवर्माको भी प्रसन्न कर लिया । उसके राज्य-समय जैनधर्म* इनातिके लिए आशाधर नालछा ( मलक'पुर ) के नेमिनायो मानने जा रहा । इसने देवेन्द्र भाई विज्ञानको [ २०० ]________________

मालवे परमार । व्याकरण, विशालकी आदिकोको तर्कशास्त्र, विनयचन्द्र अहंक जैनसिद्धान्त तथा धालसरस्वती महामवि मदनको काव्यशास्त्र पढ़ाया । मशीधरने अपने बनाये हुए ग्रेन्थ नाम इस मकर दिये है। (१) प्रमेयररबार । स्याद्वाइमतका तर्कप्रन्य ) (३) मधम्युदय काव्य और उसी टीका, (३) धर्ममृतशास्त्र, ¥tuहित ( जैनमुनि और अबको आचारका मन्थ), (४) रानीमहीविंगलम्भ ( नेमनधिवि५५* खu-झाब्य ), १५) अभ्यामरहस्य ( योगका }, यह अन्य उसने अपने पिता अज्ञासे अमाया था, (६) मूलाघनाटीका, इौपदेही क्य, धतुरवेशविस्तव अदिकी टका, ७ ) [कंयाकलाप ( अमरकोष टीका ); ( ४ ) रुद्र-कुन फाव्यालङ्कार पर ठीक, (१) सटीक सहनामस्तव (अर्हता , (१०) सटीक गिनपज्ञकल्प, ( ११ ) त्रिषधिस्मृति ( आर्ष महापुराणके आधार पर ६३ मछ।पुरुङी कथा ), (१२) नित्यमहोद्योत ( जिनपूजनका ), (१३) रत्नत्रयविधान ( रत्नत्रयकी पूजाका महान्य ) और (१४) बाग्मटसहिता ( वैयक ) पर अष्टाङ्गहृदयोयोत नामक टीका । उलिसिस अन्यांमसे ब्रिटेिस्मत ३० सं० १२९२ में और भयकुमुदचन्द्रिका नामक घमभूत शास्त्र पर टीका वि० सं० १३०० में समाप्त हुई । यह अमृतपन्न माहाधरने देवपालदेवके पुत्र जन्म के ही समय बनाया था। १७-सुभदवर्मा। यह बिन्ध्यबमका पुत्र था। उसके पीछे गद्दी पर बैठा । इसका दूसरा जाम ह भ । निक्षता है । वह शायद वाफा पाकृत रूप है। शनवमी ताम्रपत्रमें लिखा है कि सुमद्रवर्माने अनहिलवा (गुजरात) ॐ राजी भीमदेव दूसरे हाया था। प्रबन्धचित्तामणि ठिा है कि गुजरातो नष्ट करनेकी इच्छ्वास (१) प्रवन्धचिन्तामणि, पृष्ठ २५६! * [ २०१ ]________________

मारतके प्राचीन राजवंशमारो रानी सोने भीमय पर चढ़ाई की। परन्तु जिस मय दह गुजरातकी सदके पास पहुँचा जरा समय भीमदेव ॐ मन्नै उसे यह टोका लिंख भेना -- प्रताप राष्ट्र पूर्वमेव राजथे । स एस बिलब यात पश्चिमाशावलम्बन ॥ १ ॥ अर्थात् है नृपसूर्य । सूर्य प्रताप पूर्व दिशाहीमें शोभायमान होता है । जब वह पश्चिम विशामें जाता है तच नष्ट हो जाता है । इस प्रस्ट्रोकको सुन कर साह लौट गया। | पनौमुर्दमें लिङ्गा है कि भीमदेवके श्य-सनाने भालके राजा ( सुमद्रवर्माने } ने गुजरात पर चढ़ाई की । परन्तु बघेल लवप्रसादने उसे पीछे लौट जाने के लिये माघ्र्य किया। इन लैससे भी अनब्राके ताम्रपत्रमें कही गई बातहीकी पुष्टि होती है। सम्भयत इस चढाईमें देवरको यादव राजा सिंघण मी सुभबमके साथ था । शायद उसे समय भदव, पण सात हैसियत, रहा होगा। क्योकिं बम्ई गैजेटियर अदिसे सेघणका सुमएवमको अपने अधीन ३ ॐना पाया जाता हैं। इन उल्लिखित प्रमा से यह अनुपान भी होता है कि गुजरात पर की गई यह चढाई ६० स. १२०५–१८ के बीच हुई होगी । इसके पुत्र नाम अर्जुनधर्मदेव था । १८-अर्जुनयर्मदेय । | यह अपने पिता सुभट्समका उत्तराधिकारी हु ! ह विद्वान्, इबि और गाने बियामें निपुण थी ! इसके तीन तापन मिले हैं, उनमें (1) कौमुदी, १-७४। । (३) Bombay Puspita, Y 5, F६ II, I0. [ २०२ ]________________

माये परमार। प्रथम ताम्रपने वि० सं० १२६७ ( ई० स० १२१०) का है। वह भण्ड्यगं दिया गया था । इस वि० सं० १२५७० (३० स० १२१३) का है। वह भूकमें सुर्यय पर दिया गया । । । वि० सं० १२७२ ( ई० स० १२१५) का है। वह अमरेश्वमें दिया गया था। यह अमरेश्वर तीर्थ याँ र कपिलाके राइम पर है । इन ताम्रपत्रोंसे अर्जनवर्माका ६ वर्षसे अधिक राज्य करना प्रकट हुवा हैं । ॐ ज्ञापत्र गौड़जाति के बह्मण मदन द्वारा लिखे गये थे। इनमें अर्जुनवर्माका | चिताच महाग लिखा है और वैशाली इस प्रकार वीं गई -भीज, उद्पादैत्य, नरव, यशाचम, अजयम, विन्याम, सुभट्टयर्मा और अर्जुनवम 1 इसके ताम्रपसे यह भी प्रकट होता है कि इसने युबमें जगहकों हा या । इस लड़ाईका जिक्र पारिजातमञ्जरी नामक भाटियामें भी हैं । इस नाटिकाका दूसरा नाम विजयी और इसके का नाम बालसरस्वती मद्न हैं। यह मदन अर्जुनर्मका अरु जोर शायर का शिव्य या । इस नाटिका पूर्वके दो अङ्कका पता, ६० स० १९०३ में, श्रीयुत हानाथ लेॐ महाशयने लगाया था। ये एक पत्थर शिला पर छुई हुए हैं। यह शिला कमाल मा मसाझेदमें ली हुई है। इस नाटिकामें लिखा है कि यह युद्ध पर्व-पर्वत (पागड) के पास हुआ था। शाय। यह मालचा जोर गुजरलके चक्की पहाड़ी होगी। यह ना? का मैथम हैं। प्रथम सरस्वती मन्दिर में बसन्तोत्सव पर से गई थी। इसमें चौथर्वशफी सर्वकला नामक रानी ईप्याकी वर्णन भी है । अर्जुननर्मदेव मन्त्रीका नाम नारायण था । इए नाटिका घारी नगरका पर्णन इस प्रकार किया गया है:-धारामें चौराह पक और अनेक सुन्दर मन्दिर थे । इन्हीं में सरस्वतीका भी एक i) B. A, B, VIF, 8. ( 4 ) 4. 5 6 7 , ३, ), 0 ३, Fal TI, p. 15, (४) a a! IDhar and ilaj p. 39. [ २०३ ]________________

भारतके प्राचीन राजदशा मान्दुर था ( मह मन्दिर जब छमार मां मसजिदमें परिवर्तित हो गया है)। वहीं पर प्रथम बार यह 7ठ खेला गया था ! प्रवक्त जयसिह गुजरता है। यह होगा । मीमदैवसे इसने अनलियाका राज्य छीन लिया था। परन्तु अनुमान होता है कि कुछ समय बाद इसे हटा कर उगनहिलाहे पर ममने अपना अधिकार कर लिया था। वि० स० १२८० फा जयसि का एक तोपत्र मेला । उसमें उसका नाम जपतसिंह लिया है, जो जयसिंह नामका दूसरा रूप है। | प्रबन्धचिन्तामणिम् यि हैं कि भीमदेव समयम अर्जुनमनै गुजरातो बरबाद किया था। परन्तु अर्जुनवर्मक वि०स० १९७९ तफके नामपञोंने इस टिनाका उद्भेस नहीं है । इससे शायद यई घटना वि०स० १२६२ के बाद हुई होगी । | वि०स० १२७५ का १४ लेस देवपाल्देवका मिला है । अतएव अर्जुनबमका देहान्त वि०स० १२७२ र १३७५ के वय किसी समय हुआ होगा । इसने अमरुशतक पर रसिक-मनीवनी नामकी दीका मनाई , जो क्वाथ्यमालामें छप चुकी हैं। १९-देवपालदेव । यद् अर्जुनवका उत्तराधिका हुआ । इस नामके साथ ये विपण पाये जाते हैं --*समस्त प्रशस्तपैतसमधिगतपञ्चमहाशब्दङ्किार विराजमान। इनसे प्रतीत होता कि इसका सम्बन्ध महाकुमार मी य¥यशरो मा, नकि जनवमसि । क्योंकि ये विशेषण इन्हीं महाके माझे नामों साय लूगे मिलते हैं। इससे यह भी अनुमान होता है । छायद भर्जुनवर्मा मृत्युरामसमें कोई पुन न या इसलिए उसके मृत्यु १३)PEd Ant, You , P 196 [ २०४ ]________________

माबेकै परमार। साथ ही 'स' शाखाकी भी समाप्ति हो गई और मालवे के राज्यपर 'क' शाखापालक अधिकार हो गया । मालवा-राज्यके मालिक होनः भाद् वैवपालदेवने परमभट्टारक-महाराजाधिराज परमेश्वर" आदि स्वतन्त्र राना चिंताच धारण किये थे 1 उस समय चार लेस मिले हैं। पहला वि० सं० १९७५ (३० स० १२१८) का, सौद। ग्रामी। दूसरा वि० सं० १२८६ ( ई० स० १२२९) को । तीसरा वि० सं० १९८२ ( ई० स० १२३२) का। में दोनों उदयपुर १ गवालियर ) से मिले हैं। चौथा वि सं १९८२ { ई० स० १२३५) का एक ताम्रपत्र हैं। यह ताम्रपत्र लिहमें मान्धाता गांवमें ना है। यह माहिष्मती नगरी वैिया गया था । इस गाँवको अव महेश्वर कहते हैं । यह गाँव इन्दोर-राज्य है। देवपालदेव राज्य-समय अर्थात वि० सं० १२१२ (ई०सं० १२३५) आशाघरने निषeस्मृति नामक ग्रन्थ समाप्त किया तथा वि० सं० १३०० ( ई० सं० १२५३) में जयतुझे राज्य-समयमें धममृतक टीका हिरी । इससे प्रतीत होता है कि वि० सं० १२९२ र १३०० ॐ मंच किसी समय वेदपालदेवी मृत्यु हुई होगी । इसी कांवके बनाये जिन-यज्ञकरुप नामक पुस्तकृमें ये झोक है: विश्वयंमपंचाशीतद्वादशवसेती ।। आश्विनमितान्त्यदेव साहुरमाइपरल्यम्य । श्रीदेवपालनुपः प्रमालसरस्य सौरानै। नलझरे सो अन्योऽयं नैमिनाचैत्य३ ॥ इनसे पाया जाता है कि वि० सं० १२८५, आश्विन शुक्ला पामा दिन, नल #उपुरमें, यह पुस्तक समाप्त हुई। उस समय देवपाल रेजिड़ था, भिसी दूसरा नाम समिल पा । " १) Iril, Ant, Vol X*, , .1 (३) Ind, Att, v x, 85 १३) Tal, Act, 1.55 E3 (v) Ep, rel, Vol IS, P, 103, [ २०५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंशधपाल्देयके समय मारने के आखपास मुसलमानो मलें होने थे। हिनरी सन् ६३० ( ई स १२३२ ) में दिल्ली के बादशाह शमसुद्दीन अल्तमशने गालियर ले लिया तया तीन वर्ष बाद मिलसा और उनैनार भी उसका अधिकार हो गया । उनपर अधिफार फरक अन्तमशने महाकाल के मन्दिरको तोड़ डाला और वहाँ से विक्रमादित्यक मूर्ति ठप हो गया । परन्तु इस समय इनपर मुसलमानाका पूरा पूरा पल नहीं हुआ । मालवा और गुजरातवाँके बीच मी यह झगड़ा चादर चलता था । चन्द्रावती महामण्डलेश्वर सीमसिंहने मालवेपर हमला किया । परन्तु देवपालदेव द्वारा यह सुया झाकर कैद कर लिया गया। यह सोमसिह गुजरातवाला सामन्त था । | तारीख फरिश्ताई किंवा है कि हिजरी सन् ६२९(३० स० १२३१= वि० स० १९८८ ) में शमसुद्दन अलमशन गवालियर के चारों तरफ घेरा हाल।। यह किला अल्तमशकै पूर्वाधिकारी रामशाह समापने कर भी हिन्दू राञके अधिकार में चला गया था । एक सरल तुक घिरे रहने के बाद चहकि। राज्ञा देशल ( देवपाल) एप्तिके समय फैिला छीट कर भाग गया। उस समय उसने तीन सौ से अधिक अर्म मारे गये । गवालियरपर शमसुनका अधिकार हो गया । इस विनयके अनन्धर शमसुद्दीनने भैलझा और उनपर मी अधिकार जमाया। तेनमें अपने माझके मन्दिरको तोड़ा । यह मवर सोमनके मन्दिरके इंम पर बना मा पा । इस मान्दरके ई ई सी गन्न ऊँची कोट घर ! कहते हैं, यह मन्दिर तीन वर्षम बनकर रहमा हुआ पा । यहाँस प्रहाका मूर्ति, प्रसिद्ध र विक्रमादित्य मूर्ति और बहुत की पीतली घनी अन्य मूतियाँ भी अल्लमके हाथ ली । उनको यह देहु हो गया । वहाँ पर ३ मसजिदके द्वारपर तोट्टी गर्दै ।। सरात- नाम में गवारियरके राजा नाम मनिदेव और [ २०६ ]________________

मालके फ्रसार । उसके पिताका नाम चासिल लिया है तथा इसके फतह किये जानेकी तारीख हिं० स० ६३० ( वि० सं० १२८९, पोप) सफर महीना, तारीख ३६, मङ्गलबार, जिस हैं। इन बातों से प्रकट होता है कि यद्यपि कृच्चबाहीकै पछे मालियर मुसलमानों के हायमें चला गया था, तयापि देवपालदेबके समय उस पर परमारोहीका अधिकार थी। इसमें अल्तमशको उसे घेर कर पड़ा रहना पड़ा। शमसुद्दीन पेंट जन पर देवपाल ही मालवेका राजा बना रहा । ऐसी प्रसिद्ध है कि इन्दोरसे सीस भील उत्तर, देवपालपुर में देवपालने एक बहुत बड़ा तालाब बनवाया था। इसका उत्तराधिकारी इसका पुत्र जयसिंह जैतुगी ) देय हुवा । २०-जयसिंहदेव (दूसरा )। यह अपने वता देवपादेवका उत्तराधेिरै हुआ । इसको नेतुअब भी कहते थे । जयन्तसिंह, जयसिंह, जैवसिंह और नेगी ये सब जयसिंह ही रूपान्तर हैं। यद्यपि इस राना विशेष वृत्तान्त नहीं मिलता तयापि इसमें सन्देह नहीं कि मुसलमानों इनाबफे कारण वसको राज्य निर्वल रहा होगा । वि० सं० १३१२ (३० स० १२५५) का इसका एक शिलालेख राहतगडमें मिला है। इसके समयमें, वि०सं० १६०० में आशायरने धर्मामृती टीका समाप्त की। २१–जयम (दूसरा)। यह जयसिंहका छोटा भाई या । वि० सं० १३१३ के लगभग यह राज्यासनपर बैठा 1 वि० सं० १३१४ (१० म० १२५७) वा एक छेस-ग्इ में गाँवमें मिला है। यह गई इन्दौर-राज्यके मानपुरी जिटेमें है। इसमें ठिखा है कि मापदवी प्रदाद दिन जयवर्मा इमा (2) Ind. Ant. vol. IX, T. 66. (*) Futes of Dhar and 3kali, , 0. [ २०७ ]________________

भारतके प्राचीन रजर्वेशये दान दिये गये । परन्तु लेख वाढत है । इससे क्या क्या दिया गया इसका पता नहीं चलता। वि० सं० १३१७ (६० स० १२६०) का दमी राजा , एक श भी ताम्रपत्र मान्धाता गाँवमें मिला है। यह मपटपसे दिया गया था, इस पर परमार मुहर स्वरुप गद र सर्पका चिद मौजदू है । यह दान अमरेमें (पिला र नर्मदा सङ्गम पर स्नान करके) विमा मामा था । उक्त समय इस राज्ञाय मन्त्री मालाघर या। | २२-जयसिंहदेव ( तीसरा )। दह जपत्रमा उत्तराधिकारी हुआ। वि० सं० १३२६ (६० सन् १९६९) का इसका एक केस पषा गाँवमें मिली है। परन्तु इसने इस्र वर्क नहीं है: विशावके एक ' लता है कि | उमने घारापर चढ़ाई की और से लूटा । यह विशालदेव अनहदवाड़े-- का बल्ल राजा था । परन्तु इसमें माटवे राजाका नाम नहीं लिया। यह हाई इसी जयसिंहदेयके समय हुई या इसके उत्तराधियों के समयमै, यह बात निंजय-पूर्वक नहीं कह सकते । ऐसा कहते हैं कि जरात कने ब्यास मातेने घराके इस विजयपर एक. काय लिहा था। ३३-भोजवैव (धूमः ।। | हुम्मैरि-माकान्यके अनुसार यह जयसिंहका उचगधकारी हुआ। | ई० म० ११९२ में विधाका राजा पृधीराज मारा गया। उसी साट | अजमेर मी मुसलमान हायमें चला । । मुसलमानने अजमेरमै पनी तरफ से पृथ्वीरानके पुत्र अधिष्ठित किया । परन्तु धतुत | (१) Ep Ind ,Yet # 11. (२) ६.६.!,११,११)Ind.. Ans, Pl. I. . 18I, (५}E. ५,1,35. १६४ [ २०८ ]________________

मालवेके परमार। | चहुबोनाने मुसलम्सनकी अधीनता अनुचित समझा । इससे ३ पृथ्वीराज चौत गोविन्दराजकी अध्यक्षतामें रणथंभोर पले गये । ३. स. १३०१ में उसे भी मुसलमानों ने न लिया 1 तारीख-ए-फीरोजाहीकै लेरानुसार हम्मीर, जो उस समय रणथमीर। स्वामी या, अल्लाउद्दीन रिबलजीने मार ट्राली । ऐसा भी कहा जाता है कि मालवे के राजा चहुबान वाग्मट मारनेकी अनुमति दी गई थी। परन्तु बाग्मट बचकर निकल गया । यथापि यह स्पष्टतय नहर कह सकते कि इस समय माईको ना फोन या, तथाघि वह राजा जयसिंह ( तृतीय ) हैं, तो आश्चर्य नहूँ | इसका बदला लेनेको ही शायर, कुछ दर्य वाद, हुम्भीरन मलिबेपर चढ़ाई की होगी ! | हमीर चहवान वाग्भटका घेता या । वि. स. १३३९ (३० स० १२८२ ) में यह राज्यपर वैा । इसने अनेक हम किंथें । इसके द्वारा धारण किये गये हुमा वर्णन दिन इस प्रकार या है-* उस समय वहाँपर कवियाका अन्नपदाता भोज ( दुसरा) राज्य करता था । उसको जीतकर हमार इज्जैनकी तरफ चला। वहैं। पहुँचकर उसमें महाकाके दर्शन किये । फिर चा मह चिंटूट ( चित्तौड़ ) फी फ रवाना हुशा 1 फर आयूकी तरफ जाते हुए मैदपाङ ( मेवाड़) को उसने दवाव किया । ममाप वाह वेदानुयायी र, तथापि पर पहुँचकर उसने पहाडीपर प्रतिष्ठित जनमान्दर दर्शन किये । यमदेव और वस्तुपाल मन्दिा सुन्दरताकी दैरू कर उसके चितमें बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने अपनेवर महादेघड़े में। दन ये । सदनन्तर के परमार-राजाको अपने अधीन कर; वह हमर बर्धमनिपुरकी तरफ चरा । वहाँ पहुँचकर उसने एय नमो ट्टा ।” [ २०९ ]________________

भारतके प्राचीन राजवा म्झारका समय इ. स. १९८३ र १३०० के नाँच ' है । उस कामय मायेका र भौज (गुरु) था, ऐसी हम्मीर महाकपिळे नत्र सर्गके इन से प्रतीत होता है । धि - इतेः मदलगत्मादाय परम् । चौ घार्ग धरासार व राशिमोनमः ॥ १७ ।। परमारान्वयौ भन्ने मात्र इवार । तनाम्भौमवर्नेन रात म्टाझिनदीमत ।। १८ ॥ अन्य प्रतापका सुनुइ ( दृमीर ) भरकर किलेस कर | सफर धारार्क तरफ चला । वहाँ पहुँचर उसने परमार-जा भोजको, जो कि ऋचन प्रसिद्ध मोजक समाने या, कमर की तरहसे झुरझा दिया। अत्राशा वा कुनै जो घारामं है उसके रेसका उल्लेख हुन | पर्ने । कर चुके हैं । उसमें उस फर्काकी करामतों के मासे मोनका मुसलमान बर्म अहंकार करना सिखा है । यही कथा गुल्वस्ते अन्न नीम की एह छोटीसी पुस्तकों भी लिंङ्गी है । परन्तु इस वातका प्रयम भाजके समयमं होना तो दुस्वम्भव ही नहीं, बिल्कुल अन्नम्मन ही है। माकि उस समय माटम मुसल्माना कुछ भी दौर-दौरा न मा, जिनके मयसे भाज जसा गिद्धान और प्रतापी राजा मी मुसमान हो जाता । अब रहा दिसाय मौन । सो सिंदा शाह-चाल लेंस और गुलस्त अबक किसी र फार तवारीखों का मुसलमान होना नई लिंखा । हिन ८५९ ( ई० सृ० १४५२ ) का देसी हुआ-- नैसै शाह-भट्ठाला भी दूधेरै भोजकै समयसै देई सौ वर्षे बाद है 1 त , सम्मा है, कन्नी मरिमा बजाने सिने यह कल्पित हुए पीछेसे मी दिया होगा । (1) 5 R A A, Ya1 x, p 35 १६६ [ २१० ]________________

मालचेके परभार। | बचैकै एक लेसमें लिखा है कि अनहिलवाद्धार्के सारङ्गदेवने यात्रराजा और 'मालके राजाको एक साथ हराया । उस समय याईवराजी रामचन्द्र यो । ।। २४ जयसिंहदेंच (चतुर्थ) । यह भोज वितीयका उत्तराधिकारी हुआ । वि० सं० १३६५ ( ई० | स० १३०९), आवण वदी बादशीका एक लैंस जयसिंह देवका मिला | है' । सम्मवतः वह इझा राजाका होगा । इस लेख विषयमें डाक्टर झीलहानका अनुमान है कि वह देदपलिदैव पुत्र नरसिंहका नहीं, किन्तु बहके इस नामके किसी दूसरे राजाका होगा। क्योंकि इस लको वैवपालकै पुत्रका मानने में जयसिंह राज्य-काल ६६ वर्षसे भी अधिक मानना पगा । परन्तु अब उसके पूर्वज जयतमके लेके मिल जानेसे यह लेख जयसिह चतुर्थेकी मान हैं तो इस तरहृका एतराज करने के लिए जगह न रहेगी । यह ले। उदयपुर १ ग्यालेयर) में मिला है। | मालवेके परमार-राजाओंमें यह अन्तिम राजा था । इसके समयसे मालवेयर मुसलमान की इस हो गया तथा उनकी अधीनतामें बहुत छोटे अन्य राज्य बन गये ! उनमेसे कोक नामक भी एक राजा माहवेक पर 1 शारीख-ए-कारितामें लिखा है--रिजरी स; ७०५ १६० रा १३०५) में चालीस हजार रायर र एक लास पैर न लेकर कोकने ऐनुलमुल्झका सामना किया । शायद यह राजा परमार है। हो । उजन, माण्डू, घार अर चन्देरीपर ऐनुलमुल्कने अधिकार कर लिया या । उस समयसै माळवेपर मुसलमान की प्रभुता उद ही गई। *(१) Ep. Ind, Ip.71. (३ } Lad. Ant, Fal, Y, . १६७ [ २११ ]________________

भारतके प्राचीन राशचश विः सः १४५६ (६० स० १४३९) ॐ गुरिलोके लेपमें छा है कि मावेका राजा गोगादेव मणसिह धुम्रा हराया गया यो । (राते सिंकदमें लिखा है कि हिं० स० ९९ (i स० १३९=G० स १४५५)के हममग यह खबर मिली कि मापट्टा बन्दु-राजा मुसलमानों पर अत्याचार कर रहा है। यह सुनकर गुजरात बादशाह जफर ( गुजफ्फर, पहले ) ने मापदं पर चैड़ाई की। इस समय वहाँका राजा अपने मनबूत किले में जा घुसा। एक वर्ष मीर छ महिने वह फरखाँ द्वारा घिरा रहा । अन्तमें उसने मुसलमानों पर अत्याचार न करने और कर दने प्रतिज्ञा करके अपना पीछा छुड़ाया । जुफर वहाँसे अजमेर चा गया। तबकाते अकबरी भई परिक्षार्म माङ्क स्थान पर मोण्इलाळ लिया है। ज्ञरू सत्क पुर्यही भाळवे पर मृलमानों को अधिकार हो गया पो । इसलिए गिराते सिकन्दरीके लेख पर विश्वास नहीं किया जा सकता। राजपूताने के प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता श्रीमान् मुन्श देवप्रसादभन्न अनुमान है कि यह मपटू द मण्डोरकी जगह लिख दिया गया है । शमसुद्दीन अल्तमाके पीछे हि० सु० ६९० (३० स० १२९१=वैः स० १३४८) में जलालुद्दीन फानइह खिने उन पर इस्ले कर लिया। उसने अनेक मन्दिर तोड़ डाले। इसके दो वर्ष बाद, वि० - १३५० में, फिर उसने मालवे पर हमला *या और उसे लूटा, तथा उसके भतीजे अल्लाउद्दीनने मिलसाको फतह करके मालके पूर्वी हिस्से पर भी अधिकारि छर छिया। | मिति सिकन्दरी ज्ञात होता हैं कि हि० स० ७४४ (६० स० १३४४=वि० स० १४०१ ) के लगभग मुहम्मद् नालकनै भालचेका सा। इल# अनाज हिमाझे सुपुर्द किया। इस हिमारकों ने धाराका (1) Ibarangur Joxep 114 (7) Budoy' Gajrut p 13 १६८ [ २१२ ]________________

मालपेके परमार । मयम अधिकारी बनाया था 1 इसमें अनुमान होता है 16 मुहम्मद तुगकने ही मालवे के परमार-राज्यकी समाप्ति की । । यद्यपि फीरोजशाह तुगलक के समय तक मालपेके सूनेदार दिल्ली | अधीन हैं, लथापि उसके पुत्र नासिरुद्दीन महमूदशाहके समयमें दिला| घरख । स्वतन्त्र हो गया । इस दिलावरखाको नारीरुद्दीनने हिं० स० ७९३ (वि० सं० १४५८.) में मालवैका राजेदार नियत किया था। | हि० स० ८०१ ( वि० सं० १५५६ )में, जिस समय तैमूर भयसे नासिरुद्दीन खिसे भागा और दिंलावरखके पास धारामें अब रहा, 'उप्त समय बिलावरने नासिरुद्दीनी घहुत खातिरदारी की । इस बातसे नाराज होकर दिविवॉो पुत्र होशङ्ग माण्डू चला गय। 1 चहूके इ दुर्गक उसने मरम्मत कराई । उसी समय, मालधेकी राजधानी - माण्डू हुई । मालवें पर मुरालमानाको शिर हो जानेपर परमार राजा जयसिके वंशज जगन, रथैभौर आदि में होते हुए मेवाड़ चले गये। वहीं पर उनके जागीरमें मजल्याझा इलीकी मिली। ये बीजोल्यावाले घास परमार-झमें पाटर्दा माने जाते हैं । इस कामय मालवे राजगड और नर्सिगढ़, ये हैं। राज्य परमारोंके हैं। उनके यहाँकी पढ़ले तोरीस पाया जाता है कि में अपनेको उदयादित्यके छोटे पुत्र की सन्तान मानते हैं और यज्ञोल्पाघाको अपने शके पाटव समझते हैं । यद्यपि बुन्देलखण्टुमें पर ३ तथा मालवे ने घर और देणारा राना मी परमार हैं, वधावि अब उनी सम्बन्ध मरटॉसे हो गया है। | सारांश ।। मायेके परमार-वामें कोई सटे चार या पनि सो बर्ष तक राज्य हो । [ २१३ ]________________

भारतके प्राधीन शिवंश उस चाकी चोवीसी पौंड में उनका राज्य मुसलमानोंने छीन छिया । इस में मुझ और भौज (प्रथम) ये वो राना बड़े प्रतापी, विन्पात और पानरान हुए । इनफे बनवाये हुए अनेक स्थानोंके हर अदतक उनके नाम मुहको तीपर धारण किये ससारमें अपने बनवाने बालों का पश फैला रहे हैं । घारा, माटू और उदयपुर गवालियर) में परमार द्वारा बनाये गये मन्दिर गादिङ उक्त पंकी प्रसिद्ध यादगार हैं ! | परमारोंढ़ी उन्नतिकै समय उनका रिज्य भिसासे गुजरातकी सरहद तक र मन्दसौरके उत्तर दक्षिणमें तापी तक था । इस एज्मि मण्डलेश्वर, पट्टफिल अादिक कई अधिकारी होते थे । राजाको राजकार्यमें सलाह देनेवाला एक सान्धि विहिक (24intskur of Teaco = War) होता था। यह पद ब्राह्मणीहीको मिलता था। धिराजके समय तक उन है। राजघानी थी। परन्तु पीसे भोजने मारा नगरीको राजधानी बनाया 1 इसी कारण मोजका खिताब धारेश्वर इअ । जसका दूसरा लिंचि मविचबत मी यो । परप्तारका मामूली विताब_* परमभट्टारक महाराजाधिराम-परमेश्वर ” लिया मिलता है। | इस मशकै राना अब ये । परन्तु विद्वान् होने के कारण जैन अश्कि अन्य धम्मसे भी उन्हें ई म या । बहुधा में जैन विद्वानोंक शाखायें सुना करते थे। परमार की मुहमें मरुद्ध और सर्पका चिंह रहता थी । परमारों अनेक साम्रपत्र मिले हैं। उनसे इनकी दानशीलताका पत्र उता है । भविष्यमै और मैं दानपत्रों atदिके मिलनेकी अश है । ({} Ep ad, ! ।। १७ [ २१४ ]________________

पड़ोसी राज्य !. पड़ोसी राज्य । अब हम इस समय मालवे निकटवर्ती उन राज्यका भी संक्षिप्त वर्णन करते हैं जिनसे परमाका घनिष्ठ सम्बन्ध था । में राज्य में :-- गुजरात चौलुक्यों और बघेलका राज्य, दाणकै नौलुक्यॉफ राज्य, चेंदिवालों और चन्देका राज्य ।। | गुजरात । अठारहवीं सबीके मध्यमें वल्लभी-राज्यको अन्त हो गया । उसके उपरान्त चावड़ा-बंश मत हुआ । इसने अछिपाटण ( अनहेलथाहा ) नामक नगर बसाया । कोई दो सौ वर्षों तक वहाँ पर उसका राज्य हो । ३० स० ९४१ में चालुक्य सोली ) मूलराजने चावडोसे गुजरात छीन लिया । उस समय हैं। स ० ' १९२३तक, गुग तिमें, मूलराजके वंशजका राज्य रहा। परन्तु ई० सं० १२३५ में घौकाके पेलने उनको निकलि झर वहाँ पर अपना राज्य-स्थापन कर दिया । ६० स० १२९६ में मुसलमानों के द्वारा में भी बहाँसे हटाये गये 1 गुजरात वालोंके और परमारों के बीच बराबर झापड़ा रहता था । | दक्षिणकै चौलुक्य ।। ई० स० ७५३ से १७३ तक, दार्म, मान्यखेटके राष्ट्रकूटों को बड़ा ही प्रल रोज्म रहा। इनका राज्य होने के पूर्व वहाँकै चालुक्य भी : गड़े मतापी हो । उस समय उन्होंने झनके बाजा हर्षवर्धनको भा हुई। दिया था । परन्तु, अन्तर्म, इस राष्ट्रकूट वंशकै चौधे राजा यान्ति द्वारा वे मुराये गये। ऐसा मी कहा जाता है कि दान्तिइने मालवा(६ मय फरके दर्जनों बहुतरा बान दिया था । उसके पुन कृष्ण के समय - राष्ट्रकूटका बस और भी बढ़ गयी थी । कृप्याने बलोर पर केला " },4-5...I.. . 10,1, प्र.:. [ २१५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश नामक मन्दिर बनवायी । यह मन्दिर पर्वतमें ही खोदकर बनाया गया है । इन बंशमें आठवें राजा वेंन्द ( दिप ) दुगा । उसके ‘समयमें इनकी राज्य माल्वे सीमा तक पहुँच गया था। लाट देश ( मच ) को जीत कर व राज्य में वन्दनें अपने भाई इन्द्रकी दे दिया । इन्दसे इस वंशकी एक नई शाखा चली ।। | इसी राष्ट्रकूट-वंशकै ग्यारहवें राजा अमोघवर्षनै मान्यवेट बसाया पा । इस वैकें अठारहवें राजा सोगिक मालवेॐ राजा सयङ (६) ने और उसमें कदेवको यौलुक्य शैलप ( दुसरे) ने हरायो । । । इभी तैलपसे कल्याण पश्चिम बौक्योंकी शाखा धक्ती । इस शासाका राज्य ई० स० ११८३ तर्क रहा । मुझको भी इसी तैपने मारा था । इस शाखाके छठे राजा सोमेश्वर ( दूसरे ) के सामने से भजको भागना पड़ा था। इस बाके सातवें राजा विक्रम दिल्पने माल पराको सहायता दी थी। पिछले पाद राजा । बारहवीं सदमें, दकिंगमें, देवगिरि ( द बाई ) के अद्विका प्रताप प्रभले हुआ। इस शख़ाने प्राय: स ११८५७ से १३१८ तर्क राज्य किया । जिस समय सुभट्ट बर्माने गुजरात पर चढ़ाई की उसे समय पिन भी उनके साथ था। इस वा अन्तिम प्रतापी राजा रामचन्द्र, -भोज ( द्वितीय ) का मित्र था । | चेदि राजा । हेहय-वैशियका दज्य निंपुगंमें या। उसे अझ तेवर झहते हैं । यह नगर जबलपुरके पास हैं ! नवीं सदमें कट्स (प्रथम) से यह बा चला । इनके और परमारोंके चीप चहुबा लाई वही करी थी 3 मार्क के राजा मुन्नने दस बैंश दसवें राजा युयराजको और भौन (प्रथम) [ २१६ ]________________

पड़ोसी राज्य । में बारहवें राजा गाड्यदेवको हराया था । गाङ्गेयदेवके पुत्र कर्णने मनसे सुरही एक गाल प्राप्त की थी। अन्त गुजरातके भीमदेय (अथम ) से मिल कर उसने मोज़पर चढ़ाई की । उस समय ज्वरसे भौजी मृत्यु हो गई । इसके कुछ वर्ष बाद भौजकै कम्बी उदयादित्यने उसे हराया । इस वंशकै पन्द्रहवें रोजा गयकर्णदेबने वयादिस्यकी पोती आल्हूणवीसे विवाह किया था । | चन्देल-राज्य] नग्री पद जैनाती ( बन्देलखण्ड ) के चन्देलका प्रताप द्वा । परन्तु परमार का इनके साथ बहुत कम सम्बन्ध रहा हैं। कहा जाता है कि मोज ( प्रथम ), चन्देल विद्याघर से डरता थ} शधा चन्देल यशवम मालवैवाटांके लिए यमस्वरूप था । भङ्गदेबके रामयमें चन्देलराज्य मालमेकी सीमातक पहुंच गया था ! अन्य राज्य ।। मासै सम्बन्ध बनेवाले अन्य राज्यों में एक ते काइमर हैं। वहीं पर राजा भोज ( प्रथम ) ने पापसूदन तीर्थ बनाया था। उसका जड़ वह फंचिके धमें भरकर मॅगदाता था । दूसरा शाकम्मरी (समर) के आनका राज्य हैं। कहा जाता है कि गोनने चगान वीर्यरामक मारा था । ११) Ep. Tel, Vol. Is tel, Aff; fT, P, 11,(२) rol. II, PL 11, , Ind.. [ २१७ ]________________

“मारतकै प्राचीन राजवंश वागड़के परमार । ----- - - १-डम्बरासँह । माघेके परमार राजा याङ्कपतराज { प्रथम ) के दो पुत्र हुएबैंसिसह ( दुसरा ), और इम्वरसिंह । जेष्ठ पुत्र चैरसिंह अपने पिता उत्तराधिका हुआ छोटे पुग्न इम्वसिंहको बागडफा इलाका जागीमें मिला । इस इलाकेमें ईंगरपुर और सवाहेका फूध हिस्सा शामिल घः ।। २-कङ्कदेय | यह डम्बरसिंह। घंशन यो । वि० सं० १०१९ (६० स० ९७३) ॐ करीन मालदेके परमार राजा सीपक, दूसरे ( श्रीहर्ष ) के जोर कर्णाटक राइ गरेदके बीच युद्ध हुआ यो । उस युद्धमें कदेने नर्मदा तट पर खोद्दिगईनी सैनाको परास्त किया था । उसी युझमें, लापीपर बैठ कर कुडता हुआ, यह मार मी गया था। ३-चण्ड प | यह कदमका पुत्र था । उसके पीछे दह गद्दी पर बैठा है। | ४--सत्यराज । यह चप्पक्का पुत्र और उत्तराधिकारी या । |५-मण्डनदेव । । यह् मत्पनिका पुन या और उसके मरने पर उसकी जागीरका मालिक हुआ। इसका दूसरा नाम मप्लीक मा ।, | ६-धामुपज्ञराज ।। या मण्डनकी पुत्र था । उसके पीछे उसका उत्तराधिकार हुआ । [ २१८ ]________________

घाग इक परमार। "ऐसा लिखा मिलता है कि इसने सिन्धुराजको परास्त द्दिया था । यह सिन्घुराज काका राजा था, यह पूरी तौर से ज्ञात नहीं। या तो इससे सिन्धुदेशके राजा तात्पर्य होगा या इसी नामवाले किसी दूसरे राजासे। यह भी लिखा है कि इसमें कन्हूके सेनापतिको मारा। यह इन्ह(कृष्ण) काका राजा था, यह भी निश्चयपूर्वक ज्ञात नहीं । अपने पिता के नाम चामुण्डराजने अयूंणामें मण्द्धनेश्वर मन्दिर बनवाया था। उसके साथ एक मठ में था। इसके समयके दो ट्रेन अणामें मिले हैं। पहला दि० सं० ११३६ ( ई० स० १०७६ ) का और दूसरा विः सः ११५७ (६६ सः ११७० ) का है। वि० सं० ११३६ के लेख' डम्बरसिंहको यरिसिंहका छोटा भाई लिखा है तथा टम्वरसिद्से चण्डप तक की घशायली दी गई है। ७–विजयराज । यह चामुण्डजका पुन था । उसके पीछे यह गद्दीपर बा | मझे सान्धिविग्रहिक ( Alamister of Peace and War ) का नाम वामन या । यह घामन बाठम-वशी कायस्थ था। इसके पिताका नाम राज्ययार था । वि. स. ११६६ (ई: स ११०६ , चमपटराज रमयफा, एक लेय अगामें मिला है। इन परमारोंकी राजधानी अर्यमा ( उच्छ्श क ) नगर पी । यद्यपि | पर्माके समयमें यह नगर चहुत उन्नति पर था, तथापि इस समय वहाँ पर पड़ एक गाँव मात्र पाई है। पर के पास ही संक’ मनाईशप मन्दिर और घर आदि सहर सड़े हैं। अर्थमा यसकै प्रदेशका मार्दन शोघ न होनेते विजयराज पदको इतिहास नहीं मिला। (t) Iad Aat, 107 XII T 8. १५ [ २१९ ]________________

भारतके मार्सम जिर्या अणाकै परमार मालवे परमारोङ्ग अवनतामें हैं। अम्मन सोय३ परमार अगावाटक वंशन में। क्योंकि के इशाकें कुछ हिस्सा अर्युगावालाई राज्यमें था । सायवाले अपनेको आके पुरमाॐ चट्टान मानते हैं। उनका अन है कि आवृ३ निटी इन्द्रावनी नगरसे फिर अपने नाम से राजा ज्ञादिमसिंहने जालोद नमर चहापा और स्वयं सही रहने लगा। यह नगर मुजरात ईशान यो । बाद इहाँसे चलर इनके बाज ने सौंप गाँव वाद किया। सौंथवालों न तो क्रॉि६ इतिहास ही मिलता है और न उनके पूर्वजॉझी वशावळी हीं । इससे उनके कृयन पर पूर्ण विश्वास नहीं है। सकती । परन्तु पास ही अगाके परमाका राज्य रहने, दुम्भ है, यवाले इन्हीं वशन हो । इनका बा-गृह म मात्रै परमार्क वा-वृक्ष साप विया जा चुका है। [ २२० ]________________

| १५ १ | १८ | भाई | G• • १२१५, १२८३, शम्सुदन शाम १३८५, १३८६, १२ ८१, १३ | अडियनुगौंदेपो ने १५, को सुत्र । वि. सं० १३०, ३१ १ | अदव, दितीय ३• झी भाई | ६• 8० ३३१५, १११५ ३३ | जबधि, तीन 14- २१ मा उतरा] वि० स० ११३६ । ] ३३ | मैश, द्विय ने। २२ फा इशारा अनुमान-टुम्र, • • १११५ 1 १ | जयहि , मनु | *. १३ कt | वि• सै० १६१ -पाचे [ २२१ ]________________

मालवैके परमारौका देश-वृक्ष । १ उभेन्द्र (कृष्णराज ) ३ वैशि६ प्रयम् ३ सय पम ४ बाप्पतिराज प्रथम ५ सिंह दूसरा (यभट ६ सय%, दुसरा ( इ ) मांगी | } १४-dis ५ भापति राजे, दृखरा (मुअ) ८ सिन्धुरा ५ मात्र [ २२२ ]________________

परमार वंशकी उत्पत्ति। परमार-वंशकी उत्पत्ति । इस बेशकी उत्पत्ति विषयमें अनेक मत हैं । राजा शिवप्रसाद अपने इतिहास तिमिर-नाराक नामक पुस्तके प्रथम भागमें लिखते हैं कि * जब विघामपाका अत्याचार बहुत बढ़ गया तब ब्राह्मणाने अदगिरि ( आवू ) पर यज्ञ किंया, और मन्त्रालसे अग्निकुण्डमॅसे क्षत्रिय चार नये वंश उत्पन्न किये । परमार, सोलंकी, चहान और पड़िहार । उबुल फजलने अपनी आईने अङ्ग्रीमें हिसा है कि जब नातिका उपद्व बहुत बढ़ गया तत्र पहाड़पर ब्राह्मणोंने अपने अग्निकुण्ड परमार, सोलंकी, चाहान और पड़िहार नाम चार बंश उत्पन्न किये । | पद्मगुप्त ( परिमल ) ने अपने नवसाहकाडूचतके ग्यारहवें में इन उत्पत्ति घन इस प्रकार क्रिया है: अर्नुदानल-धनम् । ब्रह्माण्डमण्डपस्तम्भः मानल्यवृंद गिरिः । उपौंडईसिका दस्त उरतः सातभञ्जिकाः ॥ ११ ॥ यसिधाश्रमवनम् । भवानीवार्ड-ल-समिछम् । मुर्निस्तदनै परे, त र्हितः ।। ३४ ॥ हत उम्दा श्रेजुः सूनसुना । वार्तवमलेनैव जमदग्नेरनीयत ।। ६५ । पूलधुवा.सन्तानलपेठस्तन्छ। अमावस्त रस्टभदन्पत्ती ॥ ३६ ३१ ६७ [ २२३ ]________________

मारतकै भाचीन राजवंश अयापदंविदामाधम नामात दो। विक्राफिजालानटिले जातवेदास ।। ६ ।। सत क्षेप्यासकौदण्ड: किटीकाशनाङ्गद । बन्नगामाात मोऽपि सईमध्यच पुमान् ॥ ६८।। परमार वंश घर्जनम् । परनार क्षिप्रापन्न मुनेनमें चार्थवत् । मीलितान्मनृपच्छमातपन च भुतले ।। ७१ ।। अर्याद-विश्वामिने जिव समय कृपहाडपर बसिसके श्रमसे य तुरा ही, उस समय कुछ हुए बसिने अपने भन्नघलस अभिकुण्डमैसे एक पुरुप उत्पन्न किया । इसने वाधके शत्रुओंका नाश कर डाला। इसे प्रसन्न होनर वसिष्ठने इसका नाम परमार रा । चम्नमें 'पर' शो और *मार' मारनेवाले कहते हैं। इस वंशके लेखों में इन उत्पाने इसी मारते दिल्ली है । विक्रम सबत् १३४४ का एक लेख पाटनारायण मन्दिरसे मिला है। इसमें इस बाकी इत्याचे विघपमें निम्नलिवित झोक लिने हैं - | जयद् निसिधैं मैंन्यमान ग्वान् । मुनि गुग्गुरपनौसपुर्वैः ।। बिल्झदनगम वारी ।। मच मुटमैके युवान्पन्न ५३ ॥ ३ ।। नीतधने पनिजेथेन मुनि गोत्र परमपुज्ञा । तस्मै यदायुद्धत पूरेभान न धौमरज म हारे नाग्न। ।। ४ ।। आपत्-अनूपर्वत पर वशिष्ठने अपने मन्त्रों द्वारा [पुण्हमें , बरफको उत्तम [कया । नत्र चहू शत्रुओं के मारा कि गायक। (१) पा है मन खिन ६ (Yel XLV, A DI !, 3f43 1985 में पेश है। [ २२४ ]________________

परमार-चशी उत्पात् । ले आया तब मुन्ने प्रसन्न होकर उसकी जातिका नाम परमार और उसका नाम घोमराज़ रखा। आडूपर चिलेश्वर मन्दिरम एक लेख लगा है। यह अमल | छपा नहीं है। इसमें लिखा है: साथ मैनाबरणय नुतण्डे निकुडापुरुष पुराभवत् । मना मुनीन्द्र परमारणक्षम स म्यासे परमारसंक्षया ॥ ११ ॥ । अर्थात्-पन्न करते हुए वसिष्टके अग्निकुण्डसे एक पुरुष उत्पन्न हुने । | उस पर अर्यात वृद्धि मारनेगें समर्थ देखा ने उसका नाम | परमार रख दिया। उपर्युक्त वसई और विश्वामिनी लडाईका दर्णन वाल्मीकि रामा| यामें भी है। परन्तु उसमें अग्निकुण्डसे उत्पन्न होने के स्थानपर नन्दिन गोदारा मनुष्यों की उत्पन्न होना और साथ ही उन मनुष्योंका शङ-यवनपुन्ह्व आणि जातियों के म्लेंच्छ होना भी लिखा है। | धनपाल्ने १०७० के करी तिलकमलरी बनाई थी। इसम भी इन उत्ति अमि कुण्ढसे ही लिखी है। | परन्। हुलायुमने अपनी पिङ्गलसूत्रवृत्ति में एक श्लोक उद्दत किंया है

  • प्रद्मप्रसौन प्रनसामन्तचकनुतेर ।

सलमुतकर्पून श्रीमान्नुपधि जयति ॥” इमों • गह्माकुन- 'इम पा अर्थ विचारणीय है । शायद ब्राह्मण घर्ति को युद्धकै क्षत था प्रहार से बचानेवाला देश समझकर ही इस शब्दको प्रयोग किया गया हो । अनेक विद्वानों का मत हैं होग घायण और क्षत्रिय इष्टाही मिश्रित सन्तान थे। अयश ये विधम्। ये थे और ब्राह्मणोंने सस्कार द्वारा शृद्ध इरके इनको क्षत्रिय बन्। क्लिय।। तुपा इसी कारण इनको ‘ब्रह्मक्षत्रीन:' टिस, इनकी पर्चि ये अमिंझुण्डी या बनाई गई । रामायण मी नादनासे उत्पन्न ११ [ २२५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवैशहुए पुरुषका म्लेच्छ होना लिसा है । परन्तु इस विषयपर निश्चिन मत टेन कठिन है । आजकल मालवे की तरफके परमार डापने को पसनद राजा विक्र-- मादित्यके बैशन बतलाते हैं । यह घान्न मी माननेम नहीं आती। यार्कि यांई ए होता तो मुझे मज आदि राजाके पॉम और उनके समपके अन्यम यह बात अदम्य ही जिं] मिलती । परन्तु उनमें ऐसा नहीं है । और तो क्या वाकमांतरान देर तक तो इनकी उत्पत्ति आदिंदा भी कहीं पता नहीं चलता। | जबतक उपर्युक्त विषयोंके अन्य पूरे पूरे प्रमाण न मिल तय सके इस विषयपर पूरी तारसे विचार करना कठिन है। [ २२६ ]________________

पीलचा । पाल-वंश । जाति, और धर्म । पालवश राजा सुर्यवंशी हैं । यह दान महाराजाधिराज वैयदेव झमटके दानपत्र में प्रकट होती है। उसमें लिखा है एतस्म दथिइ यी मिरिस्म जातवान्पूर्दै । विप्रपालो नृपति । अर्थात् बिके इने नेत्ररूप इस सूर्य-यंशमैं पहले पहल विषाल राजा हुआ । आगे चल कर उसमें लिखा है-- सुम्यौर्लपलपौययस्य नृपः श्रीरामपालोभनद पुन पासकुलाधिशांतकिरण 1 । इन राजाक नाम के अन्तमें पाल ; मिलता है। यपि, अङ्गाल, मध और कामरूप पर इनका प्रभुत्व था तथापि, कुछ दिना लिए, इनका राज्य पुर्वोक्त देश के शैिवा उटीमा मिचि और कलेज पश्चिम तक मी फैन गया था । | अनेक पश्चिमी मोघक विद्वान् इनको मुंहार माझ्या कहते है ! पर अब तक इसका कोई प्रमाण न मिल्ला । पै झोग बौद्ध धर्मावलम्बी हैं। इनके राज्य-समय पर मारतले यौदधर्मका लोप होना प्रारम्भ हो गया था हयापि इनके राज्यमें, और विशेष कर मधमें, उसकी चलता विद्यमान थी । उस समय भी विश्मशील और नालन्द नामक नागमें इस धर्मके पद संधाराम ( मट} } बहुत प्राचीन कालते हैं। चीन, ताज़ार, स्थाम, ब्रह्मदेश आबिके बीइ उन मठोंमें विद्यार्जनके लिंक आमा करने में है ग्यारहवीं शताब्दीमें मिल-मटको प्रसिद्ध विद्वान् 1 IE , Fal. , 551 [ २२७ ]________________

(भारतके प्राचीन राजवंश साधु पाकुर-आज्ञान तिब्वत गया । वहाँ उसने वाद्धनतके महीयानसम्प्रदायका प्रचार किया । पाहूर्व राजा, चौद्ध धर्मावलम्ब होने पर भी, ब्राह्मा सम्मान किया करते थे। ब्राह्मण है। उनके मन्त्री होते थे। उनकी राजधानी दीद तपुरी थी । इनके समममें शल्प और विद्यार्ण इन्नति पर थीं । उनके शिलालेखों और तमिपनों में प्रायः राज्यवर्षे ही हिंघे मिलते हैं, संवत् बहुत ही कम देखने आये हैं। इससे उनका ठीक ठीक समय निधित दरना बहुत कठिन हो गया है। अद्याप तिब्बतके विड्यात बद्ध ढूंसक शारानाथने और फारसा पासैद्ध बक अबुलफजूलने इनक्की झालियाँ लिई हैं तथापि इनमें क्षेचे नाम बहुत ही कम है। १-दयितया । । यह साधारण राजा या । इसके समय से इस घाझा वृत्तान्ट मिलता है। |' ३-बयद । यह दुन्निविष्णुका पुत्र था। ३-गोपाल (पहला)] यह वप्यटका पुन मा । यही इस वैशम पहा प्रतापी राजा हुआ । मलमपुर के ताम्रपत्र लिखा है ; * अराजकता र अत्याचार दूर करनेके लिंए घर्भपाट् टोन स्वम अपना स्वामी नाग।।" सारनायन भी देगा है कि " बट्टार्छ, उहया और पूर्वका तरपार्क अन्य पाँच प्रदेश में वाह्नग, क्षत्रिय, वैश्य आदि मनमाने राजा भने गये थे। उनको नति-यय पर चलानेवाला कोई बलवान् राजा ने पा (३) Ep. Jed, v1. I.-() 0 5 vari [ २२८ ]________________

पास-बंश । इससे भी पृषक ताम्रपत्रमें कही हुई बात सिद्ध होती है। उम्मथ है, मगधके गुप्त-वंशिया राज्य नष्ट होनेपर मेक 2 छोटे राज्य हे गये हैं। और उनके आपस सघर्पसे प्रज्ञाको बहुत फष्ट होने लगा ही. इससे दुखित होकर गोपाल वहाँवालोंने अपना रजिा चना लिया है। और पालने उन छोटे छोटे दुष्ट राजाओं का दमन करके मजाक रक्षा की हो । | तारानायके लेसे पता लगता है कि-* गौपालने पहले पहल अपना राज्य कारमें स्थापित फिर, तद्नन्तर मगध ( बिहार ) पर अंबिकार किया । इसने ४५ यर्पत राज्य किया । | तयारीस्व-फरिकता और आईन-ए-अक्वमें इसका नाम भूपाल किंवा मिलता है। यह भी गोपालका ही पसं-चाची है । मयवि * गो' और 'H' दोनों ही पृथ्वीके नाम हैं । फरित लिंखला है $ इसने ५५ वर्षांतक राज्य किया। | इसका रानी का नाम देहदेवी था । वह भद्र-जातिकै मा भष्ट्रदेशके राजा कन्या थी । उसके दो पुत्र हुए-धर्मपाल और वाक्पाल। | गोपालद्मा एक लेखे नालन्दमें मिली हुई एक मूर्ति के नीचे सुदा हुआ है। उसमें बहू परमभट्टारक महाराजाधिराज, परमेर लिखा हुआ है। इससे जाना जाता है कि वह पतन्त्र राजा था । उस समय एक और से युद्ध गयामें मिली हुई एक मूर्ति पर स्युदर gा हैं। ४-धर्मपाल यह गोपालको पुप और उसका चर्धिका ! पावशियों में यह बइ प्रतापी हुआ । भागलपुर ताम्रपत्रे से प्रकट होता है कि इसने (१). B 4 Fl, Vol. A, B B3 (३) 4, 5,Yal Tara IIE F 120 (३) सा ए फगहान }न महापैघि । (५) Ind Ati, 1 ol K", । ३05, Rrad Pal XX,P 197 १३ [ २२९ ]________________

भारतकै प्राचीन राजवा इन्द्राज आदि शत्रुको जीत कर महोदय ( कन्नौज ) के राजश्मी न ली । फिर उसे चायधको दे दिया ! इस विषय में सालिमपुर ताम्रपमें लिखा है कि वर्मपालने पञ्चालकके राज्यपर ( जिसकी राजबानी कन्नौज थी ) अपना अधिकार जमा लिया था । उसका इस विजयको मत्स्य, मद्, कुरु, पजन, गेज, अचान, गान्धार और फै। देशकै राणा ने स्वीकार किया था । परन्तु धर्मपालने यह विजेत देश कन्नोजके राजाक ही लौटा दिया था। पूर्वोक्त भागलपुर के तान्नपनमें लिंखा है कि इसने कन्नौजका राज्य इन्द्रराज नामक राज्ञासे न लिया था । यह इन्द्रजं दुनिया ( माप नेट) का राठौर राजा तीसरा इन्द्र या । इस (इन्द्राज } ने यमुना पार र कन्नौजको नष्ट किया था । गोविन्दराजकै सम्भातके नामपन्नस यहीं प्रकट होता है । सम्मवत इसलिंए इससे राज्य निकर धर्मपालने कन्नौजफे राजा चन्मयुधको यहाँका राजा बनाया होगा । इस राठौर राजा सीसरे इन्द्राम समयमै घामका राजा पटिहार क्षित्तिपछि ( महीपाल ) या । अतएव चक्रायुध शाप उसका उपनाम ( रिश्ताब ) गई । नसारी में मिले हुए इन्द्रराजके तापनसे जाना जाता है कि उसने उपेन्द्र जीता था। वहीं इस *उपेन्द्र' शबसे चनायुका है। ताइपर्य है, पर्योंकि चायुम और ज्ञपेन्द्र दौना ही के नाम हैं। पूर्वोक्त तिपाल फोनका अधिकार छिन गया था, परन्तु अन्तम दूसरोकी सहायता से, उगने उसपर फिर अपना अधिकार कर 'न्यी या ।। यजुराहो लेपसे जाना जाता है कि चन्देल राजा ईन परिहार क्षितपाको कन्नोजक गद्दी पर बिठाया 1 इस में मर्तत ना !) Ep Ind Ft fr, [ २३० ]________________

पाल-वंश। | है कि आपने भी धर्मपालकी सहायता की है तथा बन्दैछ राशी हुई। 'पटिहार दितिंपाल (महीपाल) और धर्मपाल ये तीन समकान होंगे। यदि यह अनुमान ठीक से तो घर्मपाल विक्रम-संवत् १७४ के आसपास विद्यमान रहा होगा; क्या महीपाल ( क्षिातैपाल ) का एक ले मिला हैं, जिसमें इसे रिवको उच्चस है । यग्र जनरल कनिंगहमिका अनुमान है । सन् ८३६ ईसवीसे ८५० ईसी (विकम-संवत् ८८६-९०५) तक घर्मपालने राज्य किया होगा । तथानि, राजेन्द्रलाल मिंन इस राज्यशासनका काल सन् ८७५ ईसबसे ८९५ ईसवी (विक्रम-सबत् १३२ से १५२ ) तक मानते हैं । कन्जकी पूर्वोक्त घटनासे अहीं पिछला समय ही ठीक समयका निकटयती मालूम होता है। धर्मपार्क का नाम रपणा देवी था। वह राष्ट्रकूट ( रार) राना गरयलकी पुत्री थी । । यद्यपि हाक्टर कीलहाने, परवल स्थानपर श्रीवल्लभ अनुमान करके, जनरल केनिगमके निश्चित पूर्वोक्त समयके आधार पर, वल्लभको दक्षि१ । राठौर, गोविन्द तीसरा, मानते हैं और हर भएडारकर जर्सीको कृष्णराज दुसरा अनुमान करते है, तथापि परयलको अशुद्ध समझने जीर उसके स्थानपर श्रीवल्लभ अद्ध पाठ मानने की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती । यह परबल शायद उग्र राठौर वशमें हो जिस वदा राजा नृङ्गफी पुत्री भाग्यदेवीको विवाह अर्मपाल यशज राज्यपाल हुआ था । इस राठोर राजा तुन्ना एक झिल्ला-लेश तुमयामें मिला है। धर्मपाल के राज्पर्क बत्तीस वर्षको एक ताम्रपत्र खालिमपुर में मिला है। उससे प्रकट होती है कि उस समय बिमुवनपाल उसका युवराज और (i) tod Ant, Vol XVT, 174 १३) Ind At, Yal xxI, Hargher Plse 3.A 5, Fol 63, 33, and Ep Iad , Yal, P 247, [ २३१ ]________________

मारतके प्राचीन राजवी नायिगवर्ना महापामन्ताधिपति ग्रा । इसी तश्निपत्रसे राजा घर्मपाल बत्तीस वर्षसे अधिक राज्य कृना पाया जाता है। इसके पीछेके राजा में विमुवनपालका नाम नहीं मिटती । इसलिए या तो बहू घर्मपाए पहले ही मर गया होगा, या वहीं राजासन पर बैठनै चाइ, देवपाई नामसे प्रसिद्ध हुआ होगा। यह देवपाल धर्मपाल छोटे भाई साक्पालवा लहा या । इसके छोटे भाई का नाम जयमाङ था । धर्मपालकी तरफस उसका छोटा माई बापाल दूर दूरी लाइपोंमें सेनापति बनकर जाया करता था। • घर्मपाला मुख्य सलाहकार शाण्डिल्यत्र गर्ग नामक ब्राह्मण च । ५-देवपाल । यह घर्मपालकै छान्ने माई वाकपाका ज्येष्ठ पुत्र और धर्मपालका उत्तराधिकारी या । इसके (ज्यकै तैतीसवें चर्पका एक ताम्रपन्न मुद्गरमें मिला है । उमें इसे पर्मपाला पत्र लिखा है । उसीमें यह भी लिखा है कि विन्ध्य-पर्वतसे काम्पोन सक्कै देशको इसने जीता था और हिमालय रामसेतु तके देश पर इसका राज्य था। उस समय इसका पुन राज्यपाल इसका युवराज था। परन्तु नारायणपाल समयके भाग-- तपुरक एक ताम्रपत्रमें वैयपाल धर्मशाला भतीजा लिखा है । इसका कारण शायद यह हो कि देवपाक घर्मपालने गोद ले लिंया होगा। | क्या अपने पुत्र न होने पर अपने भाई अम्पा की नगी | गुम्बन्धक पुरक अपने जीने जी गोद लेकर सुषज्ञ बना झनै प्रया देशं ज्यों मन तक प्रचलित है । गाद लिया हुआ पुन गोद नेवारे" ही पुन कटाता है। | (१)Tad Ant., Yal , P 30, (३) Ind r' : १ ) । Yo] 1, p 1 3, 1nd Lot Vol 351, *54 [ २३२ ]________________

पालवंश। मापिणपालकै समयके भागलपुर ताम्रपत्रमें देवपालके उत्तराधिकारी : निहुपालके देखपाल भाई जयपालफा पुत्र लिंग है । राज्यपालका नाम इनकी में बढ़ीमें नहीं है। अतएव, सम्भव है, राज्यपाल जयपालका पुत्र हो; और, देवपालने उसे गोद लिया है; एवं गद्दी पर बैठने समय वह विमपाकै नामसे प्रसिद्ध है हो । आज लं मी रजाडॉन बहुधा गोद लिये हुए पुन्नका नाम बदले देने प्रथा चली आती है। यदि यह अनुमान राम न हो तो यही मानना पड़ेगा कि राज्यपाल अपने पिता देवपालकै पहले ही भर गया होगा । परन्तु पहले इसी प्रकार बिभुवनपालको हाल लिखा जा चुका है । उसमें भी ऐसी है धनाका उल्लेख है । इसलिए, हमारी रायमें, जवाहकी प्रथाके अनुसार,... नमको बदलना ही अधिक सम्भव है ।। | देवपाल समयका एक वौद्ध लैसे भी गोविमें मिला है। मागलपुरमें मिले, हुए ता-पवसे प्रकट होता है कि देवपालकै रामय उसका छोटा भाई जयपाड़ ही उसका सेनापति था, जिसमें उत्कल और प्राग्ज्योतिष ज्ञासे युद्ध किया था । देवपालका प्रधान मन्त्री उपर्युक्त मार्गका पुत्र वर्भपाणी थे । ६-चिंग्रहाल ( पहला )। मह चैवपालके छोटे भाई जयपालका पुत्र और देवपालिका उचाधिक्कारा था । बहालकें स्तम्भवालें लेवसे प्रतीत होता है कि देवपाळके मन्त्री, वर्भपाणी,के पत्र १ सोमेश्वरके पुत्र ) केदारपाणीफी बुद्धिमानीसे गड़के राजा (विग्रहपाल ) ने अल्ल, हण, द्रविड़ और गुर्जर देश राजा(फा गर्व-खण्डन किया था । यद्यपि उक्त लैखमैं गोहफे राजाका ३) Ind. An६,, Val. xvIII,P, 30, ( २ ) Ind, Ant., vol. . ॥ ३06. (1) FEp. Eul., Yal, IIT, E- 1A1, १५ } Ep, 13, Yo!, 7, 13, 183, [ २३३ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश- . --नाम नहीं दिया, सयापि यह वर्णन विंग्रहपालका ही होना चाहिए, और, •सी लेसमें । अपालका नाम लिखा है वह भी निगाहपाली से इसरानाम होना चाहिए । डाक्टर झलार्नको अनुमान है ॐि इस --लेसमें कई हुए गहुँके राजासै देवपाक्का ही तात्पर्य है । परन्तु उस समय त बारपाका दादा दर्मपाणी प्रपान या । इसलिए इनका -यह अनुमान ठीक नहीं प्रतीत होता । विग्रहपालकी. सका नाम लला या । वह हैपबंशकी थी । | जनरल कनिहामका अनुमान है केि राज्यपाल और यूर पाल ये नों देवपाल पुन और कमनियाची होग' तथा पालके प जयपाल पुत्र वियपाल राजा हुआ होगा । परन्तु तिनै लेख और ताम्रपत्र उक्त वंशके राजाओंके मिले हैं उन से पूर्व जनरलका अनुमान सिद्ध नहीं होता। इसके पुत्रका नाम नरिमापलि था । 19–नारायपपछि | यह पहपालका पुत्र और उत्तराधिकारी था। इसने सूक्क फेदर मिश्र के पुब गुरव मिथको बड़े सम्मानको रक्का था । नारायणपाल मागलपुरवाले तार-पत्रों इतक मी यही गुरद निश्च । । । रानाके समय दो लेने और भी मिले हैं। इनमें से एक लेई इस राजाक राज्य सातवें वर्गका है । पूत्रोक्त ताम्र-पन्न उसके राज्पके सत्रह वर्षका है। यद्यपि यह राना चोद पा संघावि इसमें बहुत बिपन्दिर बनवाये और उनके निर्वाह के लिए बहुतसे गाँव भी प्रज्ञान किये थे। इसके पुत्र नाम राज्पपछि था । - १), ३. I., val, ४y, 149,१६) Int, Ant, Yel, Y: P. 495, And 1. I. 4. 9. Fal. 47. (५) 4.5,, Yal ItJI, 11 , p. Trt, 4, 11, 12, 18, [ २३४ ]________________

पल-व। ८-राज्यपाल यह नारायणपालका पुत्र और उत्तराधिकारी यी । इसकी सी, भाग्य-. देवी, राष्ट्रकूट ( राठेर ) राजा तुझी कन्या थी । इससे मौपाल (दुसरा) । उत्पम हुमा । यह राजा दु धर्मावलोफ मामसे रियाल था। इसके पिताका नाम कीतिराज और दादा नाम भन्न||धलाफ था। तुड़ के समयको एक लेखें बुद्ध गथामें मिला है ।। ९-गोपाल ( दूसरा )। यह राज्यपालका पुत्र और उत्तराधिकारी या । इसके पुवका माम, विग्रहपाल ( दूसरा ) था। १०-विग्रहपाल ( दूसरा ।। | यह गोपाल ( दुसरे ) का पुत्र था । पिताके पीछे यहीं गद्दी पर ४ । इसके पुत्रका नाम महीपाल था। | ११-महीपाल ( पहला)। यह विप्रहपाल { दूसरे ) का पुत्र और उत्तराधिकारी या । इसके समयका ( विक्रम संवत् १०८३ ) का एक शिलालेतं मरनाथ ( बनारस ) में मिला है 1 उसमें लिखा है कि मौढ ( बङ्गाल) के राजा महापालने स्थिरपाल और उसके छोटे माई वसन्तपाल द्वारा काशी में अनेई मन्दिर आदि वनवाये; धर्मनिक ( स्तूप ) और धर्मचक्रफा जद्धार राया और गर्भ-मदिर, जिसमें बुद्धको मूर्ति हुती हैं। मूवी बनाया । ये स्थिरपाल और वसन्तपाल, सम्भवतः, महीपालके छोटे पुत्र हैन । | हम पहले ही लिख चुके हैं कि पालवेशियोंके लेमें दधा उनके इज़-चप ही झिसे मिलते हैं । यही एक ऐसा छेख है जिसमें विक्रमसंयते लिखा हुआ है। (१) 18. 3 B, 0, P. 15. (१) Ind, An, vol. xiy [ २३५ ]________________

भारतके प्राचीन राजवंश विंग्रहपाल तीसरेके समय मगद्ध (दिनाजपुर जिले में मिले हुए ताम्रपत्नसे प्रकट होता है कि * महीपालक पिताफा राज्य सरोने न लिया था। उस राज्यको महींपाने पछिमें हस्तगत किया और अपने भुजबलझे लड़ाईके मैदानमें शत्रुओंको हरा का इनके सिर पर अपना पैर रखा । । महीपालके समयकी दूसरा ताम्रपत्रे दीनाजपुरमें मिला है। इस नाके राज्यके पाँचवें वर्षकी लि हुई " अष्टसाहसिक प्रज्ञापारिमता " नामक एक बौद्ध पुस्तक इस समय केम्बिनके विश्वविद्यालयमें है और ग्यारवें वर्पको एक शिलाले बुद्धगयामें मिला है। परन्तु यह कहना कृठिन है कि मैं दोनों महीपाल, पहले, समय है। अथवा दुसरेकै समयके । इसके पुत्रका नाम नपपाल या । १२-नयपाल ।। यद् गहवाल ( पहले ) का पुत्र या 1 उसके पी यह उज्यका अधिकारी हुआ। इसके राज्यके चैव मर्पका लिखा हुआ धरक्षा नामक एक ग्रन्य इस समय केम्ब्रिज-विश्वविद्यालयमें है और पन्द्र वें वर्गका एक शिलार युदगपाहें मिला है । | आचार्य-दीपा श्रीज्ञान, जिसका दूसरा नाम निशा था, ५६ नपपालका समकालीन था । इस अपायके एक शिष्यों से प्रफळ होता है कि पश्चिमकी तरफ से राजा ने मगध पर चढ़ाई की थी । यद्यपि मूलमें कार्य feणा हे तपाद शुद्ध पाई कर्ण र उचित प्रतीत रोता है, क्योंकि हैहयोंके लेोंसे सिद्ध है कि चेदिके राजा फर्णने बङ्ग देशपर चई ६१ ६ः । नया पुत्र विमपाल ( सरे ) कर्ण| }nd. Ant, Ft. xv,g 18 ११). h. A, B, Yat ai, | | 83. {}A, E: 1. Yel, IL, p. 15, And Ind. All, Fa, IS 114}. In A, E, for 1900 ph,129-115. [ २३६ ]________________

पालवंश। ‘पर की गई चड़ाईसे भी यही सिद्ध होती है, क्योंकि वह चढ़ाई राम्भवतः पिताकै रमयको बड़ा केनेडीके लिंए निपाठने की सर्गः । उस चदाईके समय आचार्य-दीपाङ्कर वनासन (युगया अथवा बिहार ) | में रहता था । गुदमें यद्यपि पहले की विजय हुआ और उसने कई |नगरों पर अपना अधिकार कर लिय; तथापि, अन्तमें, उसे नपपालसे हार माननी पढ़ी। उस समय उक्त आचार्यने बीचमें सड़ कर उन दोनमें आपसमें सन्धि करवा दी। इस समयके कुछ पूर्व ही नयपालने इस गाचार्यको विमलके बौद्ध-विहारका मुख्य आचार्य बना दिया था। कुछ समयके घाव तिब्बतके राजा लहलामा येसिस रोड { Lha Larun Yeseshod ) ने इस आचार्यको तिब्बतमें ले आने के लिये अपने प्रतिनिर्भिको हिन्दुस्तान भेजा। परन्तु आचार्यने इहीं जाना स्वीकार न किया। इसके कुछ ही समय वाइ तिब्बतका वह राजा केद होकर मर गया और उसके स्थान पर उड़ा मजा कानकूच ? Carn-Cab) गद्दी पर बैठा । इसके एक वर्ष बाद कानपने भी नागत्सो ( Nagts ) नामक पुरुषको पूक आचार्यको तिब्बत बुला लाने के लिए दिक्रमशील नगरको भेजा । इस पुरुपने तीन वर्षतक आचार्य राम रहम उन्हें तिब्बत चलने पर राज किंया । जय आचार्य तिब्नेतको रवाना हुए तब मार्ग नयपाल देश पड़ा । वहाँ पहुँचकर उन्होंने रोज नयपालके नाम विमलरटनलैसन नामक पत्र भेजा । तिब्बतमें पहुँचकर बारह वर्षों नाङ उन्होंने निवास किया । एक जगह तेरह वर्ष लिखे हैं) और सम् १०५३ ईसवीमें (विक्रम-संवत् १११०) में, यहीं पर, शरीर छोड़ा। इस हिसाबले सन् १०४२ ईसवी ( विक्रम-संवत् १०९८) के शासपास आचार्य तिब्बतको दाना हुए हो। अतएव उधी सुमम तक' नयपालका नावित होना सिद्ध होता हैं। [ २३७ ]________________

भारतके माचीन राजवंश- . १३--विंग्रहपछि (तसरा)। यह नपपालका पुन और उत्तराचिंकारी था। इसने राहुल ( चैदी। के राजा कर्ण पर चढ़ाई की और विजयप्राप्ति भी की । इसाए कर्णन अपनी पुत्रीका विवाह इससे कर दिया। यह उनके पिसमें सुलह होने का कारण हुआ। इस बदले विर्यपालने मी कर्णको राज्य उसे होदा दियो। इस राजाका एक ताम्रपत्रं आमगाछी गाँवमें मिला है। यह इसके ज्यिके तेरहवें में बारहवें वर्षका है। | इस राजाके तीन पुत्र थे-मपाल, शूरपाल र रामपाल । इनमैसे वडा पुत्र महीपाल इसका उत्तराधिकारी हुगा । | त्रिंमपालकै मन्त्रीका नाम योग्य था । | १४ महीपाल ( दुसरा ।। यह विप्रहाल { तीसरे ) का पुत्र था । उसके मरने पर उसके राज्यका स्वामी हु । यह निर्चल राजा थे। । इसमें न्याय पीते होकर यांन्द्रका कैवतं राजा बागी हो गया । उसने पार्ह-ज्या बहुत को हिस्सा इससे छीन लिया । इस पर महीपालने कैवर्त राजा पर चढ़ाई की । परन्तु इस लड़ाई में वह वर्त-राजद्वारा पकहा जाकर मारा गया । उसके पीछे उसका छोटा माई झुरपाल गद्दी पर बैन । १५-शूरपाल।। | यह 17पाल १ तीसरे ) का पुत्र और महीपाल ( दूसरे ) का शेटा भाई थी। अपने बड़े माई महींपा। दूसरे ) के मारे जाने पर उसका चभिंकारी हुा । यह राजा मी निर्बल गा। इसके पीछे का छोटा भाई मल आपका अधिक्कार हुई ।। | ( १ } राममति । (२) fat Ant, vel I, 7 16. {}E; Tad, Ye U, p. 25 (१) रामचरित । [ २३८ ]________________

पाल-चैश। १६-रामपाल । यह वारपाल छोंटा भाई था । उसके पीछे राज्य मालिक हुन । यद्यपि इसके पूर्व दोनों सजाई समयमें पल-राज्य बहुत कुछ अवनति हो चुकी थी--ज्यिका चहुत सा भाग के हायमें जा चुका या-पापि रामपालने उसकी दश फिरसे सुधारीं । नेपालनं 'रामचरित' नामक एक संस्कृत-काव्य गिळा है । यह फाय रामपालकै सान्धविग्रहिक प्रजापति नन्दी पुन, सुन्ध्याकर नन्दी, ने लिहा या 1 इत काय्यके प्रत्येक के दो अर्थ होते है । एक अर्थ रघकुलतिलक रामचन्द्र और दूसरे से उक्त पाटबंशी राजा रामपाल चरितका ज्ञान होता है। उसमें लिखा है कि| * गद्दी पर बैठते ही रामपालने कैयर्त राजा भीमविक पर चढ़ाई नेहा विचार किया ।मपाल, मामा राठौर मथन ( महन ) पालराज्यमें एक बड़े पद पर था । उसके दो पुत्र महामण्डलेशर ( नई सामन्त ) और एक मतींनी शिवराज महमतीहार था । वद् रामपालका घड़ा ही विश्वासपात्र था। पहले वीरेन्द्र में जाकर उसने शबुझी गतिविधिका ज्ञान प्राप्त किंम। । फिर चडाईका प्रबन्ध होने लगा | पालराज्प सब सामन्त बुलवाये गये । कुछ ही समयमं वहाँ पर दृष्टभुको राजा आकर उपस्थित हु । बुण्डमृति उसे रियासतका नाम रहा होगा जिसका मुख्य स्थान दण्डपुर होगा और जिसे आजकड़ बिहार कहते हैं । इसी दण्डभुके राजाने उकलके राजा कर्णको दृया था । मगध ( मगध एक हिस्से) का सगा कन्नौज सदा मगझr भी आया । इसने मा। या । पीठिका राजा वीरण भी आ गया। इसको दक्षिणका राजा लिया है। देदमामका राजा विक्रम, आटविक ( जङ्गलसे मरे हुए ) प्रदेश और मन्दारे-पर्यनका स्वामी हमीर, लैला [ २३९ ]________________

भरतकें प्राचीन राजवैश कम्पयंश शिखर ( यह हस्ति-युद्धमें पड़ा निपुण था ), भास्कर और प्रताप आदैि अनेक सामन्त इझ हो गये । इनके सिवा दो बड़े पीछा पाठिा देवरक्षित र सिन्धुराज मी पहुँचे । सुत्र तैयारियौं । जाने पर गाको पार करके रामपाल ससैन्य धारभू-दामें पहुंचा। वहीं पर गई। पीरसासे भीमने इनका सामना किया । परन्तु अन्तमें वह हया और कैद कर लैिया गया। इससे उस वई दुर्दशा हुई। कैव जा सत्र सेना भी नष्ट कर दी गई। | ईयदेब३ वाम्नपत्र झिा है कि रामपालनै भयो मार कुर उसका निधि ४श छीन लिया ।" रामपालॐ मन्त्रीका नाम देने या । वह पूक्त योगवा पुन ध । | रामपाल राज्यके दूसरे वर्षका एक त विहार (दण्डू विहार ) में आर वार हुईं वर्ष का चर्टियों में मिला है। इसके पुत्र भाम फुमारपाल ‘दा ।। १७-कुमारपाल । यह एमाला पुत्र और उत्तराधिकारी या । इसके प्रधान मग्मीका नाम इयर्दैव था । यह पूवक्त बोधिदेवड़ा पुत्र था। पूर्ण इमामेभन अर बीर होनेकै कारण यह इमारयाला पूर्ण विश्वासपान भी । वघवेने दक्षिणी वदेश युद्धम बिइय-प्राति की और अपने स्वामी राग्यको अपिड बना रखा । इस समय में मप राना तय देवने वगषम शुरू कर दी। इस पर इमारपालने वामपका राज्य वैयदेवको ६ दिया । गश्च तिङ्गदैवफा परास्त करके इराक पिपर मैयदेवने अपना बना कर ३या । ३ग्ने मान्यतपमान ( काम | (१) Er Ind,५०] [I, FAR-55. १५) A B, 11, It, r, 1 42 " 11, 13 [ २४० ]________________

पालवंश। इम्प-मपद्धल ) के नाट्टा इलाके के दो गाँव श्रीधर ब्राह्मणको दिये थे। इस इनके तापत्रमें संयत नहीं है । तथापि उसी faधि आदि में बहुत नानुमान है कि यह घटना सन् ११४२ ईसवी ( विप्र-संवत् ११९९ } | की हो । कुमारपाळके पुत्रको नाम गोपाल ( तीसरा ) था । १८-गोपाल ( तीसरा }} यह कुमारपालका पुत्र और उत्तराधिकारी था ! इसका विशेष वृत्तान्त नहीं मिला। १९-मनपाले । यह् राजपाल पुत्र और कुमारपाका छोटा भाई था । वहीं परल बाद राज्यका अर्थकारी हुआ। इस मौका नाम भदभदेव था । -इसके ज्यों आठवें वर्षकी एक ताम्रपत्र मिला है, जिसमें लिखा है ईि इसकी पट्रानी चिन्नमतिका देवने महाभारतकी कथा सुनकर उसकी दक्षिण में नटेश्वर-स्वामी नामक ब्राह्मण को पट्टवर्धनभुक्ति के कोटिंघर्ष इलाकेको एक गाँव दिया। यह भी अपने पूर्व पुरुषों के अनुसार ही बौद्वधर्मानुयाम यौ । इसके समय पथ शिलालेख और भी मिले हैं, जे इसके ने राज्य-वर्षसे उन्नीसवें राज्य-वर्ष तक हैं। अन्य पालान्त नामके राजा | मदनपाल तक ही इस बैंशकी गृहलाम'द वंशावली मिलती हैं। इसके पीके राजाका न तो कम ही मिलता है और न पूरा हाल ही; परन्तु कुछ लेस, इन्ही राज्यमें, पालान्त नामकै राजाकै मिले (५) Ep. Ind, Vol L, 348, १६ } 1, #m, A, B for 1900, } [5, [ २४१ ]________________

भारतके प्राचीन जिवंशहैं। इनमें एक त महेन्द्रपरके राज्य आठवें वर्षका राम मय र इस अन्नास वर्षका गुरिया में मिला है । मग लेन गोविन्दपाल, नामक राजाके राज्यके चौदहवें भर्पा, अर्थात् विझम-चैयन् १२१२ का गयामें मिला है । ये नरेश भी पालवी ही होने चाहिए । | पूवा लेके अतिरिक्त एक लेतं मयामें नरेन्द्र 'पतालका मी मिला है। पर वह पालवंशी नहीं, सण थी । वह विश्वरूपका पुत्र और दुकको पात्र था 1 इस विश्वरूपा दृसूरा नाम ईश्वीचिंत्य भी या । अहं राजा नेपालके समय में विद्यमान था, ऐसा उसकै लॅसस पाया जाता है ।। समाप्ति । | जनरल कानड़हमिका अनुमान है कि पालवंशू न्तिम राजा इन्द्रघ्र य । परन्तु यह नाम ईस यश हे दिमें ही नहीं मिळता। पढपब उन्ह नाम दन्तकृयाकि आगार पर 1पा गया होगा । भेनवंशयन याला बड़ा हिस्सा और मिथिलामात, ईवी सनई यारह शताब्दीमें, पालवेशियोंसे छीन लिया था, जिससे उनका राय केवल दक्षिणी विहानै रह गया था। इस वंशका अन्तिम राजा गोंदि दपाल था। उसे सन ११९७ ६सर्व । विक्रम संवत् १२५४) ३ निकट बख्तियार लिने हराया और उसकी राजधानी अन्तिदुरीके न कर दियः । पार्मास्यकै काश शिंतनै दHि ( रा)y ) पहा विरों में इसे अब भी उसने झरी वाला । इस घटना के बाद मी, कृ] समय तक, वन्य पात्र विते था; परन्तु उसका राज्य भए । चुका । । | | ( १ ). A, B. ., Yet. III,1, 14. ) ८. 3. 3. R., Yel. jji, P, 1:4, (५) . . . . . J7, 7, 537. [ २४२ ]________________

पालबंशी राजाओंकी बंपली। E माम पदपक ज्ञात संवत् १दमितथिप्यु ३१प्पट नम्बर १ का पुन ३ौपाल | ,, ३ का पुत्र इधर्मपाल (राठौर इन्द्रराज तीव५देवपाल !, ४का भनी रा, चकापुर (ति६/ दिपाल •का भती पलिश, द्वि {हार नाटभटे मारवाड़याप 5 ८ पाल |,, ७ का पुत्र रा! ह हुई गोपन (दसरा) ८ का पुत्र १•'निम पाठ (इ + { के पुत्र | ११वीपाड १० या पुन बिम-बन् १०८: १२ नम्पाल | ,,११ का पुन १३पाल (ra । १ का पुत्र १४ (६०) १३ मा पुत्र | १५ऋग्पा(६८) ,१का इन १६मपाल १७ इमारपाल | १६ पुत्र, १४गेल त• ..१७ पो पुन | १५ मनपा मईद छ । 'गोविन्दपल | दिन-बुद १३३२] चेदाइ | अर्न दो। राजा उसे [ २४३ ]________________

मारतकै प्राचीन राज्ञवंदा सेन-बंश । जाति । पालवयोंका राज्य पस्त होने पर हाल सैन-बंशी राजाओं का राज्य स्थापित हुआ । यद्यपि इनके शिलालेखों और दान-पस इद्र होता है कि ये चन्द्वी क्षत्रिय थे और अद्भुतसागर नामक ग्रन्थसे भी यही बात सिद् होती है, तथापि देवपद् ( बाल ) में मिले हुए वारहवीं शताकि विजयनफे लेकैमें इन्हें ब्रह्मक्षत्रिय लिखा है तमिन्सेनान्वाये प्रतिमुभशनादननवादी । अन्नह्मनियापामुने पदमसान्तसैन । अर्थात् उस प्रसिद्ध सन-में, शनुभंकी मानेवाला, वेद पढ़नेवाला तया ब्राह्मण और क्षत्रिका मुकुटवरूप, सामन्तरीन उपन्न हुआ ! वेलके सेनवंशी बेत्र अपनेको बिस्यति राना बालरोनके वशन्न वतहते हैं । जनरल नड्रामा म अनुमान है कि यदेशके सुनवशी राजा क्षत्रिय न , 4 ही थे । परन्तु रायवादुर पण्तेि - शङ्कर ओझा उनसे सहमत नहीं । वे सेनबर्श पजा बालसैनको देश हालसेनसे पृथः अनुमान करते हैं। यह अनुमान ठीक प्रतीत होता है। क्योकि बङ्गाल वालसेन नामका एक अन्य ज़मीदार भी बहुत विख्यात हो चुका है । घडू बॅयजातिका ५।। उसका मां के जीवनचरित 'वठ्ठल चरित' के नामसे प्रसिद्ध है। उसके ती मापार मढ़ने, जो इक्त वल्लाङसेनका गरु था, अपने शिष्यको बंध ाि है । उससे यह भी सिद्ध होता है कि बुर बालसैन सेनानी (१) Ep Jnd ,१० , 30: [ २४४ ]________________

सेन-बंश । जहालसेनके २५० वर्षे बाद हुआ था । इससे स्पष्ट है कि सेनवंश | राजा बालन वैद्य बालसेनसे पृथक् थी और उसके समयको बहाल चरित भी इसे बच्चालचरितसे जुदा था। दोनों का एकही नाम होने से यह भ्रम उत्पन्न हुआ है, और, जान पड़ता है, इस मुमसे उत्पन्न हुई किंवदन्तीको सच समझकर अबुलफजलने भी सेन-वंशियोंको वैद्य लिंब दिया है । उनळे शिलालेखे से उनके चन्दबी होनेके कुछ प्रमाण नीचे दिये जाते हैं१-राजनगापिति-ऐन-कुलकमल विकास-भास्कर मवेशप्रदीप । -भुवः झालाचतुरचतुरधिल परंतागा माऽजनि विजयसेन शिकुले ।। इस वंश रोजा पहले कट कर्क तरफ रहते थे। सम्भव है, वहीं पर वे किसके सामन्त राजा हो । परन्तु वहाँ से हटाये जानेपर पहले सामन्त सेन वइदेशमें गया और गड़ाके तटपर रहने लगा। बहुतेका अनुमान है कि वह प्रयम नवपमें आकर रहा था। इनके ज्य-कालमें वृद्धिधर्मका नाश होकर दिक धर्मक्का प्रचार म ।। १-सामन्तसेन । दक्षिणके राजा वीरसेनके वशमें यह रजिा उत्पन्न हुआ था। इससे इस दशकी शूबिछे पंजाबी मिलती हैं । इटर राजेन्द्रलाल (मनका अनुमान है कि वइदेशमें कुलीन झणको लाने रसैन नामका राज्ञा यही वीरसेन है; क्योंकि शूर और और दोनों शब्द पर्यायबाचीं है। परन्तु इतिहासत्ते सिद्ध होता है कि वन्देशमें शूरसेन (१) m. 4 5 15६ } 13 १३] भर्तमगर, अक १५ (३) Ep 11, 3, 50}-B - [ २४५ ]________________

भारतके प्राचीन राज्ञयंश नामका प्रतापी गज़ा सामन्तसेनसे बहुत पहले हो चुका था और तेनवशी बीरसेन तो स्वग्न दृक्षणसे हरफर वहाँ आयो या ।। हरि मिश्च घटक रिका (३ज्ञावली) में हिंसा में 4 महाराज आदिशूरने कोलावन्दे ( कन्नोज राज्यम) से क्षिती, मैधादिग्नि, पीताम, सुधानिधि और भरि, इन पांच विद्वानको परिवारसहिंत लाकर यहीं पर रगता । उसके पश्चात् जब विजयसेना पुन, बालसेन वॉक जगद्दी पर बैठा तन उसने उन कुलीन ब्राह्मण के पश को बहुर गाँव आई' (वये । ” | इससे सिद्ध होता है कि आईिर पालवशी राजा देवपालसे भी पले हुआ या । । कुछ लोगों का अनुमान है कि अविशुर फौज के राजा हर्षवर्धन समकालीन राजा शशाङ्कसे आठवीं पीटीमें भा । य य अनुमान ठीक हो तब भी वह वह्नाळके सैनशी सज्ञा में बहुत पहले हो चुका यो । पटत गौरीशङ्करजीका अनुमान है कि नन्नाजमें फैलीन घाम पोक वालमें लाकर बसानेवाला आश्रि, शायद कौनका राजा मोजदेव हों, जिसका इसुर! नाम आदि-वाराह था। वाराह और कुर ये दोनों पर्यायवाची शब्द है। अतएव अवय/राहा अशिर्कर अर करके माल भादकै ससग शूर हो गया होगा । अत सम्भव है। के दियारा और आदिवार एक ही पुपके नाम हो । | यह भी अनुमान होता है कि इनके राजा भोजदेव, महेन्द्रपाल, महीपाल , अर अड़ाके पाव के ही पश हा, क्योंकि एक म ५ ६नों सूर्यवहाँ ये, दसरे, जय राई राजा इम्रान तीस ने महींपाठ ( झिाने पाज़ ) से कौनका अन्य छीन लिया तय | (१) IS A 5,126, P 24 [ २४६ ]________________

सेन वंश । घर पुल के पालवशी राजा धर्मपाने इन्द्रराज से क्रन्नोन इन कर फिर से -मालको है। वहाँका राजा बना दिया । हाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र और जनरल कनिङ्ग्रहाम, सामन्तोनकों | बरसनका पुत्र या उत्तरार्धमा अनुमान करते हैं। परन्तु हेमन्तसेनके | पुत्र विशपसेनके लेख लिखा है क्षण दैवासनप्रभृतिभिरभित कीर्तिमद्रवपूढे । नमि सेनान्ववाने अनिकुलपित्रोदामनामन्त ॥ अन् उस चशमें वीरसेन आदि राजा हुए और उसी सेन-वशमें मामन्तसेन उत्पन्न हुआ। इससे चीरसेन और मनसेनके बीच टमरे राजाका होना 18g ना हो । मात्र है, ईसवी सनी ग्यारवा लाडके उत्तरार्ध ( विक्रममयकी बारहवीं शताब्दी पूवर्धि ) में सामन्तन हुआ हो । इसके पुत्र नाम हेमन्त था । | २-हेमन्तसैन । वह सामागका पुन था र उसके पीछे राज्यका अधिकारी है । इस रानीका नाम यशोद था, जिससे विजयनका जन्म हुआ। | सामन्त सेन और हेमन्तसेन, थे दोन साधारण राजा थे । इनका नविकार केवल बङ्गालके पूर्व के कुछ द र ही या । ये पालशेयके नामन्त ही हैं। तो आश्चर्प नहीं । ३-विजयसेन् । यह हैमन्तनका पुत्र और उत्तराधिकारी या । अररान, वृषभशहूर (१}F Ind **61 1,P 16 [ २४७ ]________________

भारतकै प्राचीन राजवंश और गंदेश्वर इसके उपनाम थे ! दानसागरमें इसे वीरेन्द्रुका राजा लिया ह'। इससे प्रतीत होता है कि सेन शमें यह पहला प्रतापी राजा था। | इस समयका एक शिलालेख वैदपाइमें मिला है। उसमें डेरा है। कि इसने नान्य र वीर नामक राजाको बन्दी बनाया तथा गोङ। वामरूप और फलिङ्ग राजाओं पर विजय प्राते किया । विन्सेंट मिथने १११९ से ११५८ इसी तक इस राज्य होना माना है। | पूर्वोक्त नान्य' बहुत र नेपाली राजा नान्यदेव' ही होगा। वह विक्रम संवत् ११५४ ( शकसंवत् १०१९) में विद्यमान थे । नेपालमै मिली हुई बैशावठियोंमें नेपाल संवत् ९, आथीत् शङ्ब त् ८११, में नाम्यदेवा नैराट विजय कृरना लिंा है। परन्तु यह समय नेपामें मिली हुई प्राचीन विलित पुस्तकांसे नहीं मिलती ।। नेपाली मुंबनके उपयमें नेपाली बंशावलीमें हिरा है कि दूसरे ठाकुरवशके राजा मामथके पुत्र जयदेवने नेवारी(नेपा}संपत् प्रचलित किया ची ! इस संवत्दा आरभ शक संवत् ८०२( ईसवी सन् ८८० र विषम-बत् १३ ) में हुआ था । जयदेवमन कान्तिपुर र लातपहुना राना था । नेपाल वित् ९ अर्थात् शङ्क-वित ८११, नागशु-सप्तमी, के दिन दृणीट नान्यदेयने नेपाल विजय र जयदे: चम र उनके छोटे भाई आनन्दमह ईि सात जो माटगध नगर। शमी धा, तिरहुतकी तरफ भगवा दिया था। | इससे मट होता है कि नेपाल-संयतु और शक धन्फा अन्तर आगे यह भी ८०३ ( दिम-संवत् १३७ ) है। इही वशषिली i)! Itn 4. 8,1695, P. 20 (१) E, Ind, !, T. 11 (१) Ep Ied , "l ! | (}} Ep Ind, "at J, ' 13, nate 53. ' ', 13, pts 57 • ) Ted AE, F, IIT, . ६०१ [ २४८ ]________________

सेन-यश । लिखा है कि नेपालू-सवत् ४४४, अर्थात शकसंवत् १९४५, में सूर्यबझी हरिसिहदेवने नेपाल पर विजय प्राप्त किया। इससे नेपाली संघ और शेकसघता अन्तर ८०१ ( विक्रम-सीतका ९३६) अता है। वाक्टर ब्रामलेकै माधार पर प्रिन्सेप सबने लिखा है कि नँवर (नेपाल) सब अपर ( कातक ) में प्रारम्भ हुआ और उसका ५५१ वा वर्ष ईसवी सन १८३१ में समाप्त हुआ था। इससे नेपाली सबका और ईसवी सनका अन्तर ८८० आता है। डाक्टर कीलहानने भी नेपालमें प्राप्त हुए लेखों और पुस्तके आधार पर, गणित करके, यह सिद्ध किया है कि नेपाली सेवनका आरम्भ ३० अक्टौन्नर ८७९ ईसी ( बिक्रम-सवत् ९३६, कार्तिक शुक्ल १ ) को हुआ था। विजयसनकै समयमै गोड-देशका राजा महीपाल ( दूसरा ), झुरमा या रामपालमें से कोई होगा । इन समयमें पाल रज्यिका बहुतसा भाग दूसने दबा लिया था । अतः सम्भव है, विजयसेनने भी उससे गौड़ देश छीन कर अपनी उपाधि गैडेश्वर रकवी है।। इसके पुत्रका नाम बेल्लालन धा । । । ४ बल्लालसेन ! छ विजयसेनका पुत्र और उत्तराधिकारी थी । इस वंश पर सबसे प्रताप और मैदान हुआ, जिससे इसका नाम अघ तक प्रांगेल है । महाराजाधिराज और निश्शङ्करे इसकी उपाधिया था । ०८ ११७६ ( ३०१० ११ १९ ) में इसने मिथिला पर विजय प्राप्त किया । उस समय इसके पुत्र शमसेन जन्मकी सूचना इसकी मिली। ११) मि त पिकंन, पूजाट गम, भाग ३ पृ॰ १६६ (२)Ind Aat Vol xvII,r 24 (३) अरज हालक ाि इf विजय न! इन ३ गत ६ पन्त निजगवी ग र मन्वन है। [ २४९ ]________________

मारत बाथीन राजदंश उसकी यादगारमें वि०सं० ११७६ (६०स० ११ १९=श०सं० १०५१) में इसने, अपने पुन लक्ष्मपसेनके नामका संमत् प्रचलित किया । तिरहुतमें इस संदरका आरम्म मध इङ १ से माना जाता है । इस सवतु सुनके पियों भिन्न भिन्न प्रकार प्रमाण एक दुरेसे विरूद्व मिते है । 3 ये हैं-- | ( क ) तिरहुत राजा शिवसिंदेव दानपनमें लक्ष्मणहेन ७२९६ श्रावण शुझ ७, गुरुवीर, लिंब कर साथ ही--" सुन् ४०१, संवत् १४५५, शाके १३१ " दिया है ।। (a ) र राजेन्द्र लाल मिश्के मतानुसार ई०स० ११०६ (विःसं० ११६३, श०सं० १०३७ ) के जनवरी ( माघशुक्ल १ ) से उसका मरम्म हुआ ।' भङ्गालको इतिहास' नामक पुस्तके लेकि, मुन्। शिवनन्दनसहायका, भी यही मत है। | ( 11 ) मिंयाके पञ्चाङ्गेझे अनुसार कामयसेन-वन्फा आरम्भ शक १०३६ से १८३१ के बीच किं बसे होना सिंह देता है। परन्तु इसे निश्चित समयका ज्ञान नहीं होता। (ध } दुल्फजल लेखानुसार इसे सत्का रम्म शेकस १०४१ म हुआ या। ( ४ ) सुनि-तचामृत नामक सुस्त-ठिावत' पम्तःके अन्तमें लिख मुदतके अनुसार अनुगका पूर्व मते ही पुष्ट होता है । | उपर्युन शिवसिंह लेंस और पशी आदि घर पर दाटर गीतार्नमें गत किया तो मालूम हुआ कि यदि शकसंवत् १०३८ गरि- १, को सिक्का मारFम माना जाय तो पूनि । (१) | . ६ , Vol. , Trai, P 505 (५) Jef sl t la tu F 71 7 (1)*, * ॥ ६ , 7, Marl 1 1 , {1}ind Asli Tol, TY,P 5, ।। fe8 [ २५० ]________________

सेन-वंश । तिथियांमसे ५ ॐ वार ठीक ठीक मिलते हैं और यदि तकलियुग संवत् १०४१, कार्तिक शुक्ल १ को इस संवत्का पहला दिंन माना जाय तो हों निभई वार मिल जाते हैं। परन्तु अभीतक इसके रिम्मको पूरा निश्चय नहीं हुई 1 | ऐसा भी कहते हैं कि जिस समय बल्लालसेनने मिथिला पर बझाई की उसी समय, पीछे, इसके मरनेकी रबर फैल गई तथा उन्हीं दिनों उसके पुत्र लक्ष्मण सेनका जन्म हुआ । अत” भनि बल्लालसेनको मी समझ कर उसके नवजात बालक लक्ष्मणको गद्दी पर विछ। बिय और उस दिन यत् सवत् चला । । विक्रम राबत् १२३५ ( शकसंवत् १६०० ) गं लक्ष्मणसेन गद्दी पर बैठा । अतएव यह सवत अवश्य ही लक्ष्मण सेनके जन्म से ही चला होगा। बल्लालने पालवंशी राजा महीपाल दूसरे को कैद करनेवाले कैवत अपने अधीन कर लिया था। कहा जाता है कि उसने अपने राज्यके पॉच विभाग किय ---१–राट, (पश्चिम बङ्गाल ), २. नरेन्द्र ( उत्तरी बङ्गाल ), घागही, १ ममके मुहानेके चचक देश ) ५-वङ्ग ( पूर्व बंगाल ) और ५-मिथिला 1 | पहले से ही घडू देशमें वौद्ध-धर्मका बहुत जर था । अतएव धीरे धीर चहके बाह्मण भी अपना कम छह कर व्यापार आदि कार्यों में लग गये थे और चैक घर्म नष्टप्राय हो गया था। यह इशा देख कर पूर्वल्लिखित राजा आदिवारने वैदिक धर्म* उच्चारके लिए कोनसे उच्चकलके माह्मणों और कायस्थको लाकर बालमें घसाया। उनके वाकै ठग अन तक कुहीन कहलाते हैं। आपके बाद इस देश पर बौद्घममुरम्। पारदशियका अधिकार हो जाने से नहीं फिर वैदिक-धर्म (१) ५ भात, दिनीय तह, १• १५० और 2 m A B 1800 से २५ [ २५१ ]________________

भारतके माचीन राजवंश उन्नति रुक्क गई । परन्तु इनके राज्यही समाहिके साथ ही सोय चोट्स चर्मका लोप और वैदिक घर्मक उन्नतिका प्रारम हो गया तया बभ्रम-वस्था रहित बौद् होग वैदिक धर्मावम्बियॉर्म मिठने लगे। इस समय बल्लाळनने वर्णव्यवस्थाका नया प्रवन्ध किया और अविवार दृाप छाये गये कुलीन ब्राह्मणों का बहुत सन्मान किया । । दालन-चरितमें लिखा है बालसनने एक महान किया। इसमें दारों वर्षों पुष्ट्य निमत्रित ङिये गये 1 बहुतसे मिश्रित वर्षके लोग भी बुलाये गये । भोजन-पान इन्पादिसे योग्यतानुसार उनी सन्मान भी किया गया । उस मुमय, अपनेको वैश्य समझनेवाळे सोनार यनये अपने लिए कोई विशेष गन्ध न देस र सन्तुष्ट हो गये। इस पर कुछ होकर रामाने उन्हें सन्द ( अन्त्यजसे ऊपर के दरवाज़े शुद्र ) में रहने की जमाना दी, जिससे वे लोग वाँसे चले गयँ । तवं पञ्चासेनने जातिमें उनका सुरजी बढ़ा दिपा भी यह माज्ञा ६ ॐ याई फोई दाह्मण इनको पढावे या इनके यहाँ कोई कर्म करावेंगा त देह जतिसे बहिष्कृत कर दिया। जायगा । काय ही उन सोनार-बनियाँ यज्ञोपवीत इनरवा लेने का भी हुक्म दिया । इससे सन्तुष्ट होकर बहुत से बनिये उसके राज्य यार चले गये । परन्तु न बह रहे उनके यज्ञोपत शहरवा दिये गये । उन दिन वहाँ पर बाह्मण लोग सि-दास या व्यापार किया करते थे । २i बानये डनको काया कृ पा करते थे। परन्तु पूर्व क्ति पटना वा उन बनियन नीनगीफो धन देना बन्द र दया । फलतः उनक! म्यापार भी यन्द हो गया ! दध से न मिलने लगे। लोग बड़ा इष्ट नै छ । उसे दूर करनेके लिए बार सेनने आशा दी ॐि आशगे कैघर्न १ नाव घटानेवाड़े और भी मारनैवाने या माद और इर) सोग रार्म नै जायें और उनको ब क र कर, उनके १६ [ २५२ ]________________

सैन-वंश । हासे जल आदि न पनेकी पुराना रिवाज़ उठा दिपा जाय । इस आज्ञाके निकलने पर उच्च वर्णके लोगने केंवतके साथे परहेज करना ‘छोइ दिया। वर्नाका प्रतिrt-वृद्धिका एक कारण और भी था । वहालसेनका पुन मगसेन अपनी सौतेली माँ से असन्तुष्ट होकर भाग गया था । उस समय इन्हीं कैयने उसका पता लगाने में सहायता दी थी । ये लोग धडे यदुर थे । उत्तरीचङ्गालमें ये लोग बहुत रहते थे 1 इससे उनके उपद्रव व करने का भी सन्देह बना रहता था । परन्तु पू आशा मंचछत होने पर ये लोग नौझके लिए इघर घर बिखर गये । इन्होंने पालवंशी महीपाझो केद किया था ! इहालसेनमें उनके मुवय महेशको महामण्डलेश्वरको उपार्थि । थी और अपने सम्बन्धियों सहिंत उसे दक्षिणघाट ( मण्डलघाट ) भेज दिया था। | कंबही इस पदवृद्धिको देख कर मालिंगों, कुम्भकार और लु ने भी अपनी दरजा वष्ठानेके लिए राजासे प्रार्थना की । इह पर जाने उन्हें भी मुझमें गिनने आशा ६ दी । इररने स्वयं भी अपने एक नाईको ठाकुर बनायो ।” | नार-वनियॐ रापथ किये गये बरतावकै विषयमें भी हिंसा है कि से म माह्मणों का अपमान किया करते थे। उनका मुखिया बल्लालके नु मगघकै पाला राजाका सहायक था । मुखियाने अपनी पुत्रीका विवाह भी पास से किया था। उपर्युक्त पृत्तान्त बाल-चाँरेतझे फती अनन्त-भइने शरमाइतके अन्धले उदृत किया है। यह ग्रन्थ बालसँनके समय में ही बना था। अतः उसका सिर वन झुछ भी हो स¥ता। Fe७ [ २५३ ]________________

मारतके प्राचीन राजर्व बालसेन अपनी ही इच्छा अनुसार वर्षा-व्यवस्था नियम धन्य करना था । यह भी इससे स्पष्ट प्रतीत होता है। | निन्द-भट्टने यह भी लिखा है कि याचेन वद्ध ( तान्त्रिक चोद ) का अनुयायी था । वह १२ पर्येकी नट्टियों और चाहानियफा पूजन किया करता था । परन्तु जान्तमै बदरिकाश्नम-निवासी एक सायुके उपदेशसे बह शैव हो गया था। उसने यह भी लिखा है कि ग्वाल, तम्बोली, कसेरे, ताँत ( पडे बुननेवाले ) जैली, गन्धा, देर । रङ्गिक ( शइकी चूडियो बनानेवाले ) ये सन सरुद्ध है और राव सोम कायस्थ भेड़ हैं। | संहगरके शाघार पर, अनन्त-गट्टने यह भी लिखा है कि सूर्यमणसे शाक द्वीपमं गिरे हुए मग जाति के लोग ब्राह्मण हैं। | इतिहासवेत्ताका अनुमान है कि ये लोग पक्षले ईरानी तरफ रहते थे। वहाँ ये आचार्यका काम किंया करते थे। वहीं से य वस देशों शाये। में वय में अपने झाक द्वीप-दाकों द्वीप-म्राह्मण कहते हैं । ये फरतज्योतिष विद्वान् ५ । अनुमान है कि मारत फवज्योतिषका प्रचार इन्हीं लोके द्वारा हुआ होगा । ययोंकि दिक ज्योतिएमें फति नहीं है। ५५० ईसवीके नेटकी लिखी हुई एक प्रार्चन संस्कृत-पुस्तक । नेपालमें मिली है । इरामें लिया है माझमान मगानां च रामन्य जागधे काली । । अर्थात् कलियुगमें नहाका और मग लंका दूर दरार हो नायगइससे #िह है कि इन पुस्तक के रचना-काल ! विषम-उत् ६०७ ) में भाग मग अँए गिने नाते में। B) B: A 9 Pro, 1909, JADOST ११) 13. A E Pip, 19) ", । (1) Ilp A B fre, 12, 13, [ २५४ ]________________

सेन-धंश । अकबरुनीने लिखा है कि अब तक हिन्दुस्तान महुत जर तुरुतके अनुयायी हैं। उनकी मग कहते हैं। मगं ही भारतमें सूर्य के पुजारी है। वाक-संवत १०५९ ( घंक्रम-संवत ११९५ } में मगज़ात शाकइस माह्मण गट्ठाघरने एक तालाब बनवाया था । इसकी प्रशस्ति गोविन्दपुर ( गया जिलेके नवादा दिमागमें ) मिली है । उसमें लिखा है कि तीन लोकके रक्षरूप अरुण { सूर्यके साधेि ) के निधाम से शाकद्वीप पवित्र हो । यहाँके ब्राह्मण मग कहाते है । ये सूर्यसे उत्पन्न हुए हैं। इन्हें श्रीकृष्पाका पुत्र शाब इस देशमें छाया था। इससे भी ज्ञात होता है कि मग लोग शक-द्वीपसे ही भारत में आये हैं । यह गाधर मग राजा रुमानका मन्त्री और उत्तम छवि था । इग्ने अईतशतक आदि अन्य बनाये हैं। | पूर्वे-कयित बल्लालचरित शर्क-संवत् १४३२१ विभसवत् १९६७) में आनन्द-भट्ने सनाया। उसने उसे नवदीप राजी बाई मतको अर्पण किया । आनन्दभड़ चालके आश्रित अनन्त-भट्टका वंशज था, और उक्त ननदीप राजा रागामें हता था । आनन्छ भने यह ग्रन्। निग्नलिखित हुन पुस्तके आधार पर लिखा है ।। १ वालरोनको शैवं चनावके (वरिकाश्रमवासी) साघु हिनरिचैत व्यासपुराण ।। २-कवि रणदचको बनाया बल्लालचरित। ३–कालिदास नन्दकी जयमङ्ग लगाया। तु सिंहनि को बहालसैन। गुरु ही भी। परन्तु पिछले दोनों, शरणदत्त र कालिदास नन्दी, भी उसके समकालीन ही होंगे, क्योंकि 1) Alberorite India, English translation, Fal I, P. 2। (३) इस माशाम नाम जुम्मन था । (१) Ep, Ibd, Yat. II, ३१ । २५) [ २५५ ]________________

मारतकै पार्चन राजघरा संवत् ११२७ (विक्रमसंवत् १२६२) में लक्ष्मण-सैन महामलिम, बहुदास पुत्र, लीघरदास, ने सदुाने कणमित नामक मन्य स* मह किया था । उसमें इन दोनोई चिंत पद्य गं दिये गये हैं। इस अन्यमें माके कोई ४००६ से अधिः कवि क सद्भह क्रिये गये हैं । अतएव यह ग्रन्थ इन कवियोंके समयका निर्णय करने के लिए दहुत उपयोगी है। इस ग्रन्थ का पिता बरुदार लक्ष्मणसे नका प्रतिपात्र र सल्लाहकार सामन्त यो ।। | पल्लालसेन इनका आक्षयदाता ही नहीं, स्वयं भी विद्वान था। शैक-सवतु १८९१ ( विक्रम-संवत् १३२६ } में उसने दान-सागर नामक पुस्तक माह की ठार इसके एक वर्ष पहले, शकसंवत् १९॥ (वि० स० १२५) में अद्भुतप्तगर नामक ग्रन्थ बनाना में किया । पग्न्तु इसे समाप्त न कर सफा । बालसेन मुयु विषयमें इस अन्धमें लिखा है| शक-संदतु १०९० ( विन्म-संवत् १२२५) में चालसेनने इह मन्था प्रारम्भ किया और इसके साप्त होने के पहले ही उसने अपने पुत्र प्रसेन राज्य सांद दिया। साथ ही इस पुस्तक समाप्त फरनं आशा भी दें युः । इतना काम कर गङ्गा और यमुनाके सद्ममें प्रर्य करके अपनी नीति उसने प्राणयाग किया। इस घटनाकै दाद मणपेनने अंतसागर समाप्त करवाया ।। | परोन गट्टा-प्रवेशगई धम्ना- शयत् ११००, (कमसंवत् १२०५ या ईस सन १३७८ के इपर उपर होनी चाट्रि; क्योंकि दमनका महामण्डलम् धराप्त, अपने अनुगमत अन्य समाप्त गमय -संपत् ११२७ (३० स० ११६१=fराथी (2)J D: A Stro, 1901, 75 [ २५६ ]________________

सेन वंश । सन् १९०५) लिखता है । उसमें यह भी पाया जाता है कि यह संवत् मजतेन राज्यको सत्ताईसवाँ वर्ष है। लक्ष्मणसेनझा जन्म शकसंवत् १०११ (वि० स० ११५७६) में हुआ था। उस समय उसका पिता घल्लालसेन मिथिला विजय कर चुका था। अतएव यह स्पष्ट है कि उस समय के पूर्व ही वह ( बल्लालसेन ) ||ज्यका अधिकारी हो चुका था । अर्थात् छालनने ५५ वर्षसे वाधिक ज्य किया। यदि लक्ष्मण जैनके जन्म समय बञ्चालनकी अवस्या २० वर्षकी ही मानी जाय तो भी गङ्गा-प्रदेशके समय वह ८० वर्ष लगभग था । सी अवस्थामै थ६ अपने पुत्र राज्म सौंप कर उसने जल-समावि ली हो तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। क्योकिं प्राचीन समय ऐसा ही होता चला आया है । बहुजसे विद्गनिने चलसेनके देहान्त और लक्ष्मणसेनके राज्याभिषेक के समय इनरोन या चलना अनुमग करके जो वज्ञानका राजत्वकाल रियर किया है वह सम्मद नहीं । यदि वे दानसागर, अद्भुतसागर और सारे मत नामक ग्रन्थको देखते तो उसी मुत्युकै समयमें उन्हें रान्ह न तोता। मिस्टर प्रितैपने उफनलफे नेमके अधिर पर ईसवी सन १९६६ से १११६ ते ५० वर्ष चालनका राज्य करना लिसा है । परन्तु जनरल फनि¥हामने १०५० ईसवी रो १०५६ ईसच तक और ाक्टर राजेन्दुलार मिनने ईसवी सन् १०५६ से ११६ हद अनुमान किया है । परन्तु ये ममय ठीक नहीं जाने पक्षले । मैत्र मौर्याने दुनिसरगरकी रचनायें *मघा यह छोझ उद्धत किया है-* पूणे शिनसिंते शा"। (१) Going on Sani li, Ya) 111,11, [ २५७ ]________________

भारत के प्राचार राजवंश परन्तु इसका अर्थ करने में १०९१ की जगहू, मूलसे, १०१९, रच दिय गया है। बस इसी एक मुझसे आगे चराचर भूल होती चली गई है। पुराने पद्याने बल्लालसेनका जन्म शक्सवत् ११३४ ( विषमसथत १३५९ ) में होना लिखा है। वह मी ठीक नहीं है । जिन्सेंट मिश सावने चखालका समय ११५८ मे ११७० ईसवी के लिए है। ५-लक्ष्मणसेन । यह बच्चालसेनको पुत्र था और उसके बाद राज्यका स्वामी हुआ । इसझी निम्नलिस्खेत उपाधि मिलती है। अश्वपढे, गणपति, नापति, राजनाधिपति, परमेश्वर, परमभकाम, मईराजाधिराज मर-अनार और मधुर ।। | यह मार्ग अर वा उपरक या 1 वय विदनिको भय देने बाला, दानी, प्रजापालक और कई था । इसके बनाये हुए कि शत्रुकिंफणमूत, फापरपति आदिमें मिलते हैं। श्रीपराध, उमापतिधर, अपवेष, हुलायुध, शरण, गोवर्धनाचार्य और घोय आदि विज्ञानानेर कुछ तो इसके पिताके और कुछ इसके समयमें विमान थे। इसने अपने नामसे इमपावती नागरी वसाईछो। उसे उसे लानृती काहने यो । राजधानी नईया मी सी राम १११९, ( विक्रम स० १२५६) में जब इसकी अवस्था ८० वर्षकी यी मुहम्मद बतियार विनीने नईया इससे छीन लियो । तदफाहे नासिरामें मसेन जन्मेका वृत्तान्त इस प्रार ठिन है'-- १) f. A 5, 17, r 13 (३) IET A $ 1065, p 15, 18 tu Retrika ! Lodle, Yol 15,7 307 [ २५८ ]________________

सन-संश। अपने पिताकी मृत्यु समय राय लवमनिया ( लक्ष्मणसेन ) मलिाके -गर्भमें थी । अतएव उस समय राजमुकुट उसकी मौके पेट पर क्या -मया । उसके जन्म-समय ज्योतिषियोंने कहा कि यदि इस समय बीलंक: •का जन्म हुआ तो वह राज्य न कर सकेंगा । परन्तु यदि दो घण्टे बाद जन्म होगी तो बह ८: चर्म रज्यि करेगा । यह सुनकर उराफी गॉने | आज्ञा दी कि जब तई वह शुभ समय न आये तब तक मुझे सिर नीचे | और पैर ऊपर करके लटका दौ । इस आशाका पालन freया गया और ‘जब वह समय आया तब उसे दासियांने फिर ठीक तौर पर सुला दिया, 'जिससे उस समय लपमानैयाका जन्म हुआ । परन्तु इस कारणसे उत्पन्न हुई मरावपान उसकी माताको मृत्यु हो गई । जन्मते हैं। रुख.माँनया रायसिंहासन पर बिठला दिया गया । उसने ८ बर्ष राज्य झियो । हुम बल्लालसेनके वृत्तान्तमें लिख चुके हैं कि जिस समय चल्लालसेन मिथिला-विग्यो गया था उस समय पीछे से उसके मरनेकी झूठों रबर कृढ़ गई थी । उसके आधार पर तबकाते गामि दत्ताने मणके • जन्मकै पर्ने ही उसके पिताको मरना लिख दिया होंगा । परन्तु वास्त में लक्ष्मण-सेन जच ५९ वयंका हुआ तब उसके पिताझा देहान्त होना "इस जसा है। , आगे चल कर उक्त तारीखमें यह भी लिखा है-- | राय लल्लमांनैयाकी राजधानी दिया थी । वह चा राजा या । उसने ८० यर्ष सफ राज्य किया 1 हिन्दुस्तान मच उसके पैश। श्रेष्ठ समझते चे और वह उनमें स्वलीफ़के समान माना जाता था । जिस समय मुहम्मई चरितार मिलनी द्वारा विज्ञह ( मगचके पाद्धचैी राज्य ) विजयं की सघर लमणसेनके राज्य के उस समय राज्यके महुरा से ज्योतिपिप, विद्वाना र मन्त्रिनै राजासे [ २५९ ]________________

भारतकै प्राचीन राजवंश निवेदन किया किं महाराज, प्राचीन पुस्तॉमें मविप्यदाणा लिरी र कि यह देश के अधिकारमें चला जाएगा । तया, अनुमनसे भी अतीत होता है कि वह समय अब निकट है; बयॉर्क विहार पर उनका आकार हो चुका है । सम्मवतः अगले वर्ष इस राज्य पर भी था। होगा । अतएव उचित है किं इनके दुःख़से बचनेके लिए अन्य लोगों साहत आप कहीं अन्यत्र चले जायें। इस पर राजाने पूा कि क्या उन पुस्तकोंने उस पुरुष के लक्ष भी लिखे हैं जो इस शो विश्य करेगा १ विद्वानोंने उत्तर दियाहो, वह पुरुष आजानुबाहु ( खड़ा होने पर जिसकी गलियौँ घुटने तक पहुँचती हों ) होगा। यह सुन कृर पनाने अपने गुप्तचरों द्वारा मालूम करवाया तो वसपार रिग्लज वैसा ही पाया । इस पर बहुत धामण आईि उस देशको छोड़ कर सनात ( अन्नाय } अङ्ग ( पूर्वी बङ्गाल), और कामरूद ( कामरूप-आसाम ) की तरफ चले गये। तथापि राजाने देश छोड़ना चैत न समझा। इस घट्नाके दूसरे वर्ष मुहम्मद इस्तिया बिलगने चिरसे ससैन्य *च पा र ८० ग्वार साहत आगे बढ़ कर चानई नायी तर धीरा किया। परन्तु नया शहरमें पहुँच कर उसने किसको छ इ-डाई न की । संधी नि-महड़क तरफ चढ़ा। इससे दोन उF पाईका व्यापारी समझा । जव यह राज-मइके पास पहुच गया तः उसने एकदम हुमठा किया और बहुत से लोगों को, जो उसके सामने ये, मार गिराया। अगर उ समय भोजन कर रहा हो। वह इग मोलमटिको मून महल उठे रास्ते में नई ३ निकल भाग्न और पा राष्ट्र जापाथ)ी तरफ चट्टा गया। पर ज्ञामुर्की मृत्यु ह । धा निकै मागते । बनियार पा फॉश भी थी । पहुँची मोर [ २६० ]________________

सैन-वंश । राजाका राजाना आदि लूटना प्रारम्भ झिया। पतियारने घेश पर कृज कर लिया और नदियाको नष्ट करके लखनौतीको अपनी राजवान बनायो । उसके आसपास प्रदेशों पर भी अधिकार करके उसने अपने नामका ख़तवा पट्टबाया और सिक्का चलगि । यहाकी लुटका जात चहा भाग इसने सुलतान कुतबुद्दीन भन दियो । इस घटनासे प्रतीत होता है कि लक्ष्मण सेनके अधिकारी या तो चल्तिथारसे मिल गये थे या बड़े ही कायर थे; क्योंकि भविष्यहाका भय विसला कर बिना लड़े हैं। वे लोग लमण सेनके राज्यो बख्तियारके हाथ सौंपना चाहते थे । परन्तु व राजा उनके उक्त कथनसे न | पराया सच बहुतस त उसी समय उसे छोड़ कर चले गये । तथा, | जो रहे 'उन्होंने भी समय पर कुछ न किया । यदि यह अनुमान ठीक न हो तो इस बात को समझना कठिन है कि फेबल ८० सवारों सहित आये हुए परितपारसे भी उन्होंने जमकर लोहा क्यों लिया। बस्तियार, लक्ष्मणके समग राज्यों में ले सका। वह केवल रुनौतीके आसपास के कुछ प्रदेशों पर ही अधिकार कर पाया । क्योंकि इस घटनाकै ६० वर्ष बाद तक पूर्वी वट्टाल पर लक्ष्मपाके वंशजों का ही अधिकार था। यह बात सबकात नामसे मालूम होती है। उक्त तयारीसमें मुसलमानके इस विजयका सेवन नहीं दिखा। तथापि उस पुस्तकसे यह घटना हिंजर सन् १६३ (६० स० ११९९७) और हिजरी सन् ६०९ (ई०सं० १२०५ ) के बीचकी मालूम होती है । हम पहले ही लिख चुके हैं कि लक्ष्मण मैनके जन्मसे उसके नाम संवत् चलाया गया था तथा ८० वर्ष की अवस्था में बह चरितयार द्वारा यिा गया था 1 इसलिये यह घटना ६०स० ११९९ में हुई होगी। 3. Bm, A S. 1900, 97 and Elliot : LIistory of India, yol. II,F, ३01-. [ २६१ ]________________

भारत के प्राचीन राजघंश मिस्टर रावटी अपने तबकाते नासिके अँगरेजी-अनुवाइकी ट्रिप्पमें लिंसते हैं कि ई०स० ११९४ ( हिजरी सन् ५९= ) में पढ़े घटना हुई हो । ६. यामस साहव हिजरी सन् १९९ (१० • १-०२-३ ) इसको होना अनुमान करते हैं । परन्तु मिस्टर झाकमैन्ने बिगैप वौजसे निश्चित किंया है कि यह घटना ६० स० १११८ और ११९९ के बीच है। यह समय पण्डित गौरीशङ्करजी अनुमानसे मी मिलता है। दन्तकृया जाना जाता है कि जगन्नाथकी तरफसे वापस मार्कर पणन विक्रमपुरमें रहा य । म झमृत फतीने शङ-सुबत् ११२५७ ( विक्रम-सवते १२६२, ईमः१२०५ ) में मीं लक्ष्मणसेन राना लिस्सा है। इस सिद्ध होता है कि उस समय तक भी वह विद्यमान पा 1 सम्मत्र है इस समय वह सोनारबम राज्य करता हो। बतियार पिळजी आक्रमणके समय काश्मन राज्य करते हुए २१ वर्ष हो चुके थे। उस समय उसकी अब ८ वर्षकी थी। उसके पिके भिन्न भिन्न प्रदेश में उसके पुत्र अधिकारी नियत हो चुके हैं। उमा देहान्न जिंक्रम-सईद १२६ (ई.स ११०५) के बाद हुआ होगा | जनरल कृनिद्दामके मतानुसार उमझी मृत्यु १९०६ ईसवीमें हुई। विन्सेन्ट प्रिय साने दमणसेन सय ११७० मे १९०० दुई सय लिई 1 उप्त राज्य सर का एक तापने ना * । उसमें उमक तीन पुन रोना उमेस इ-मापसेन, के हायसेन, (।) IE { 5'1515, 2 +15 () : 1E A 8, 1578 P 380 (DASB, vot IV, 167 ६ [ २६२ ]________________

सैनचंश । बिवरूपसैन । जरनल आयू, दि वाम्मे एशियाटिक सोसाइटीमें इस तुम्रपत्र रात बना लिया है। यह गहनीसे हो गया है। क्योंकि ॐ फोटोंमें अङ्क तीन स्पष्ट प्रतीत होता है। तबकाते नासिक कसने लखनौती-राज्यके विषय लिया है। यह प्रदेश गङ्गाके दोनों तरफ फैला हुआ है। पश्चिमी प्रदेश राल | राट्ट }हलाता है। इसमें लखनैती नगर है । पूर्व तरफके प्रदेश वरिन्द ( चन्द्र) कहते हैं। आगे चल कर, अमनके द्वारा चख्तियारके मारे जानेके बाव वृत्तान्तमें, वहीं अन्यकर्ता लिखता है कि अलीमर्दानने दिवोट जाकर राजकार्य संपाला और लखनौतीके सारे प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इससे प्रतीत होता कि मुहम्मद चख्तियार खिली समय सेमराज्यको अपने अर्चिकोर-मुक्त न कर सका था। | अलफ़जलनें श्मसेना केवल सात वर्ष राज्य करना लिखा है, अन्तु यह वीक नही । | उमापतिघर ।। इस कविकी प्रशंसा जयदेवने अपने गीतगोविन्दमें की है-* वाचः अञ्जयत्युभापतिधरः –इससे प्रकट होता है कि या तो यह कृर्चि जयदेवका समकालीन था या उसके कुछ पहले हो चुका था। गतगीविन्दकी दीकासे ज्ञात होता है कि उक्त इलोकमें वर्णित उमापतिधर, जयदेव, झरण, गोवर्धन और घोम लक्ष्मणसेनळी सभा रन थे । | वैजपतोपिणीमें ( प भागवतकी भावार्यदीपका नामक टीकाकी फा ३) लिला १.जयदेवसचरण महाराजलक्ष्मणसेनमन्त्रिवरेषा उमापतिपरे' अर्घा जयपके मित्र और लक्ष्मणसेन मन्त्रा उमापतिधरने । इससे इन दोनोंकी समकालीनता प्रकट होती है। () Rawarty's Tebkatanzini, P. 668. (f) llavortyon Tbkata =nelri, F. 578. (३) सर्बियपत्रिका, इण्य ११, सल्मा १, ५ ० ८५.।। ।'ई [ २६३ ]________________

मारवफे प्राचीन राजवंश छाव्यमालामें इपी हुई आय-सप्तशती के पहले पृष्ठके नोट न १३ एक झोक है-- वनश्च शुदो ज्ञदेव उमापति.।। हरिराज रन्नःनि सनि लेइफस्य ६ ॥ इसमें मी प्रतीत होता है कि उमापां लक्ष्मण गामें विद्यमान या । परन्तु लक्ष्मणसेन दाइको विज्ञयाने एक शिवमन्दिर बनवाया था । जसकी प्रशस्तिक त यहीं उपतचर या । इससे जाना जाता है कि यह झवजयसेन राज्पसे लेकर चल्लालसेनमारपई त जीवन रहा होगा । तम्या, दमणसेन जन्मते ही राज्यसँहासन पर बिठाया गया था, इस जनश्रुतिके आधार पर ही इस कविका उसके राज्य–समयमें भी विद्यमान होना लिंस दिया गया है तो आश्चर्य नहीं । इस कविका कोई मन्च में समय नहीं मिला। केवल इसके रचे हुए छ कि वेष्यतेगी और पद्मावलि आदि मिलते हैं। । र ।। इसका नाम भी गीत[वन्दकै पूर्जेदात में मिढ़ा है। कहते हैं, यह भी दामपणमैनी समाका कृत्रि या । सम्मई. बल्लाळनान्तरित्र (महालचरित) को क रणदत्त और वह धरण एक ही होगी। यह महालन समय” मी हा हो तो आश्चर्य नहीं है। गोवर्धन । आचार्य गोवर्धन, नीलाम्बरा पुत्र, मगनका समान था । इने ७०, माय-न्दा यसप्तशति नामक अन्य घना पा । मन उसमें सेनवंश नि प्रशस्वी की है। परन्तु उता.नाम नहीं दिया। उसमें इसने अपने पिता नमि नोटाध्या हिंसा है। | इस ग्रन्पी टीका टिसा है कि मैंनतमुपति' में काव्य के रचयिता मरना तापये है। परन्तु इ इ नुहा है। इाक-61 ८ [ २६४ ]________________

सेन-वंश । १७०२ विक्रम-संयत् १८३७ में अनन्त पाण्उतने यह की बनाई थी। उस समय, शायद, बहू सेनवंशी राजाओंके इतिहाससे अनभिज्ञ रहा होगा। नहीं तो गोवर्धनके आश्रयदाती चल्लालसेनके स्थान पर बहू बयर-- मेनका नाम कम न लिखता । | चयय । यद् गीतगोविंन्द्वका कर्ता था । इसके पिता का नाम भीजवेब और | माताका बाम ( रामा) देषीं था 1 इराकी स्वीमा नाम पद्मावती था। यह नाकै केन्नुनिल ( केंन्दुली ) नामक गोंयका रहनेवाला था । वह गाँव उस समय वीरभूमि जिले में था। | इस कविकी कविता बहुत ही गंभुर होती थी। स्वयं विने अपने मुँह से अपनी कविता प्रशंसा में लिखा है यत साधु मधुर विसुधा बिधालयपि दुरापम् । अर्थात हे पण्डित । स्वर्गमं भी दुर्लभ, ऐसी अj और भ3 में कविता सुन। इसका यह कयन वास्तवमें ठीक है। हृलायुध ! | यह पत्र के पनजय नामक ब्राह्मणका पुन था । दलसेनके समय क्रम से राजपण्डित, मन्त्री और धर्माधिकारीके पदों पर यह रहा या इसके घमाये हुए ये मैन्य मिलते हैं। झालणसर्वस्व, पण्डितमर्वस्व, मीमरसर्वस्व, चैतसर्वस्व, शैव सर्वस्त, द्विजानन मादि । इन राय आणण्र्वस्व मुरःय है । इसके दो भाई और थे । उनसे बड़े भाई पशुपतिनै पशुपति-पद्धति नामा आवश्यक ग्रन्थ बनाया और दूसरे भाई ईशानने आम्पिति नामक पुस्तक भी। | श्रीधरदासू ।। अरू उमगरौन, प्रीतिपात्र सामन्त चट्दासका पुत्र था। यह स्वयं भी लड़मणसेनको । माण्डिलिंक थी। इसने मुंवत् ११२७१ असण [ २६५ ]________________

भारतकै प्राचीन राजवंश सैनके संवत् ३७ ) में सइनिर्णामृत नमक्का अन्य मह किया। जसमें ४५६ कवियॉर्की कविताओंका संग्रह है। ६-माघघसेन (?)। | यह दमनका बड़ा पुत्र था । अयुगलने हिंा है कि लश्मणनैनके पीछे उसके पुत्र माधवनेने १८ वर्ष और उसके बाद केशवसेनने १५ वर्ष राष्प किंया । मिस्टर प्रदछिनने क्रिया है कि अल्मोड़ा (जिला कमाऊ ) पास एक योगपरका मन्दिर है। इसमें माधवसेनका एक नाग्रपत्र रखा हुआ है, परन्तु वह अब तफ छपा नहीं 1 इससे उसकी ठीक वृत्तान्त का भी मालूम नहीं होता । यदि उक्त सागपत्र गतिघमें ही माघदना हो तो उससे अबुलफज़ल लेसकी पुष्टि होती है । परन्दा | अनुमानलका लिएर घालमेन और लक्ष्मणसेन समय ठीक नहीं है। इस लिंए हम उनके खेि मायासैन और फेसवप्Mनके राज्य-समय पर भी विश्वास नहीं कर सकते ।। | केशवसेन (?) । | यह माघसैनका छोटा भाई श्रा। हरमेश्न घटक बनाई कार आम माधवडेनका नाम नहीं है । इनमें लिया है कि टासेमके घाई उसको पुत्र केदारसेन, यवनई मय, गोड-राज्य ग्रह झा, अन्यत्र ग्ला गया। एमिश्नमें केशवी किं जुन्य राजाके पास जाकर रहना लेसा है । परन्तु उक्त रिकामें उस राजा नाम नहीं दिया गया । दे-देिम्वरूपसेन । यह भी माधवन और केयसेनका भाई थी ! इसका एक तायन मिला है। उसमें मपसैन दी। उसके पुत्र दिपमेनका राजा (१) Erin P 512, १२ } प रा ग्न मFि - जे माम इन ब-यभाग अगम्यं । मार्ग हैं। [ २६६ ]________________

सेनवंश। होना लिसा है ।पर मघवन और कैशवसेनके नाम नहीं लिखें । सम्भव हैं, माघयसेन और केशवसैन, अपने पिता के समय ही भिन्न मिंन्न | प्रदेश सह नियत कर दिये गये हैं। इससे अबुलफज़लने उनका | राज्य करमा लिंप दिया है। और यदि बास्में इन्होंने राज्य किया भी होगा तो बहुत ही अल्प समय तक। पूनाक ताम्रपत्रमें विभ्वरूपसेन होमणसेनका उत्तराधिकारी, प्रताप राजा और यवनका जीतनेवाला, लिखा है 1 उसमें उसकी निम्नहिावेत उपाधिय दी हुई हैं पHि, गजपति, नरपति, राजश्वगाधिपति, परमेश्वर, परमभकास, महाराजाधिराज, अरिराज-वृषभानुशङ्कर और ईश्वर । | इससे प्रकट होता है कि यह यतन्त्र और प्रतापी राजा या 1 सम्म है, मगरौनके पीछे उसके बचे हुए राज्यका स्वामी यही हुआ हौं । तुचक्काने ना6िमें लिखा है| "जिस समय ससैन्य चरितार सिलजी फामरूद (कामरूप ) और तिरहुतकी तरफ गया उस समय उसने मुहम्मद शेरां और उसके भाईको फौग देकर लगनार (राद्ध ) और जानर ( उत्तरी उत्कल ) की तरफ मेजा । परन्तु उसके जीतेजी लपनौतीका सारा इलाका उसके अधीन न हुआ।। अतएव, सम्मय है, इश चुदाईने मुहम्मद शेरो कार गया हो, क्य६ विश्वमसेन साम्रपमें उसे पवनका विजेता हिंसा है । छायब उस लेख का तात्पर्य ही विजयसे है। यदि यह बात ठीक हो ते लक्ष्मणसेन बाद मङ्गदेशका राजा ही हुआ होगी और मापदसेन या केशवसेन विरमपुरके राजा न होगे, कृन्तु कैंपल भिन्न भिन्न प्रदेशके हैं। शासक रहे होंगे। थपाप अगुठफजूलने विश्वसेनका नाम न लिया तथापि उसका १४ वर्षसे अधिक राज्य करना पाया जाता है। २२१ [ २६७ ]________________

मारत पोचीन राजवंश१ उसके दो ताम्रपत्र ईमेले -पहली उसके राज्य कीसरे वर्षका दूसरा चौदहवें वर्ष का । अबुलफज़रूलें, इसकी जगह, सदानका १८ वर्ष राज्य करना लिसा हैं। | २-इनीजमाधव । अबुलफजलने सदासेन३ पीछे नोनाका राजा होना लिप्ता है। घर काही झारिका में कैशलेम नाइ नुनमाथा ( दनुजमन या इनीज माघव ) का नाम दिया है। तारीख फॉरेनशाहीमें हमाका नाम उनुजय हिंस्रा है। ये तीनो नाम सम्मवत' एक ही पुरुषके हैं। ऊपर लिखा जा सुका है कि अबुलफनल्ने इसको नोना लिखा है। अतएव या तो अबुलफजलने ही इसमें गलती की होगी या उसकी रश्चित माईने अक्षरी अनुजाने ।। घट्टेको झारिकासे इसकी प्रती होनः सिद्ध होता है। उनमें यह भी देखा है कि हमनसे सन्मानित बटुतसे ब्राह्मण इसके पास आये थे, जिन द्रव्या देहुत फूछ सन्मान इमने किया था। | इरानै कायस्य कुलीनता बनी रहने के लिए, घटक अादिक नेयुक्त कारके, इचप प्रबन्ध किया था। कमपुरको झेडकर चन्द्वीप ( नाकला ) में इसने अपनी राजधानी कायम की । इसके (s मप्र छोडनेहा फार नोंका भय ही मालम होता है। लखनहीका हाकिम मुसुधन तुमच्छ, विद्यारसे बगावत का, का स्वतन्त्र स्वामी चन देश । सन देहीकै बादशाह बलबनने उस पर म्याई छ । उच्च घर पाने ही सुगठ बनती छोड़ कर भाग गया । चाशने इसका पीछा किया। इस दमय रातमें हैं मुमत्र ) ११ ) ॥ 4 5 vol 4 () IT A 4,vl LX, L'att IP ! । [ २६८ ]________________

होन-वंश । मुजय गादशाहसे जा मिला। इहाँ पर इन दोनों में यह सन्धि हुई कि दुनुज्ञराय तुगलको जलमार्गस न माग्ने ६ ।। यह घटना १३८० ईसवी (विमी सवत् १३३७) के फरीन है। थी । इसलिए उस समय तक दृनुजरायझा जीवित होना और स्वतन्त्र न होना पाया जाता है। | हाकट्टर वाइजहा अनुमान है कि यह चालना पत्र य । पर Eराफी रूकमणसेनका पौत्र होना अर्थिक सम्भव है। यह विश्वरूपसेना पुन गी हो सकता है। परन्तु अब तक इस विषयका कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिला। जनरल कनिड़हमिका उनुमान है कि यह भूरि ब्राह्मण था। परन्तु *पटफोही कारिकाओं और अबुलफजलकी आईने अकबरीमें इसको सनी लिखा है। अन्य राजा । की काकिसे पाया जाता है कि इजरायके पीछ रामवद्धभराय, गभराय, हरिवल्लभराय और नगदेबराय चन्द्वपके रजा हुए। जयदेमके 25 पुत्र न था। इसलिए उसका राज्य उसी कन्या पुन र दौहित्र ) को मिला है। समाप्ति । इस समय बङ्गालमें मुसलमानों का राज्य उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा यः । इस लिए विक्रमपुर नवी झावाला चन्द्रपा राज्य गर्यदेवरपके साथ ही अस्त हो गया। (१) Illuota itiatory, Vol Tr, p 11 (२) 5.9 A 5, 1674 ३३ [ २६९ ]________________

मारच पाचन जियश उसके यो ताम्रपत्र मिले हैं—पहली इसके राज्यके तीसरे वर्षका दूसरों चैदहवें वर्ष का। अगुलफज़लने, इसकी जगह, सदानका १८ वर्ष राज्य करना डिसा है। १ नज़माधव । अबुलफजलने सासैनके पी३ नोजाका राजा होना लिखा है। घरकाकी फारिकाऔमें शत्रसेनके वाद दनुजमाच ( अनुजमर्दन या दनेजा माघव ) का नाम दिया है। सारीस फीरोजशाहीमें इनका नाम वनजराय लिखा है। ये ताना नाम सम्भवत' एक ही पुरुपके हैं। ऊपर जा जा चुका है कि अगुलफनने इसको मोना लिया है। अतएव या X अफजळने ही इसमें गलती की होंगी या उसकी रचित आईने कचराके अनुवादकने । घट्टॉकी कारिका में इसका प्रतापी होना सिद्ध होता है। इनमें यह भी लिखा है कि लक्ष्मगनसे सम्मानित चढ़कसे माझग इसके पास आये थे, जिनका पादसे देते कुई सन्मान गर्ने क्रिया या । इसने कायस्थ छुईनला यर्न रखने के लिए, घटक आदि नियन्न करके, उत्तम प्रबन्ध किया था। विमपुरको उठकर चन्द्रप ( नाम्टा ) में इसने अपनी राजधानी कायम की । इसके विक्रमपुर छोडनेका कारण यवनोंका भय हीं मान्म होता है ।। | मनौतीका हाकिम मुffमुद्दीन तुगड, वियर से बगावत , बहाई स्थतन्त्र स्वामी बन चै । तने देॐ वाइफा घट्यनेने उस पर दवाई है। उसकी दर पाने ही तुरई पनाती छोई इर भी गया । वाहने उसका पड़ा किया। इस मामय रासामे { मुनारगाम /

  • )J BAS Vol VII 4 JE A 8, Fol LXV, art I P9 [ २७० ]________________

सैन-बैंश। वजय बादशाहसे जा मिला । वहाँ पर इन दोनों में पढ़ गन्ध हुई कि | इजराये तुरलको जलमार्गसे न भागने दें। यह घटना १२८० ईसी (विक्रमी संवत् १३३७ ) के करीब हुई यी 1 इसलिए उस समय तक दगुजरायका जर्पित होना और स्वतन्त्र राजा होना पाया जाता है। डाक्टर वामझा अनुमान है कि यह दल्लालसेनकी पत्र या । परंतु राहा लक्ष्मणसेना पर होना अधिक सम्भव है। यह विश्वरूपसेना पुत्र भी हो सकता है। परन्तु अब तक इस विषपका कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिला। मनरल कनिहामझा अनुमान है कि यह मूइर ब्राह्मण था। परन्तु भेटी झारिकाओंमें और अनुलफज़लकी आईने अचरी में इसमें ॐनवं लिखा है। । अन्य राजा । प्टकही कारिकासे पाया जाता है कि दनुजरायके पीछे रामबहुमराय, इ मराय, हरिवमय और जयदेवय चन्द्रदीपके राजा हुए । जयदेव कोई पुत्र न था। इसलिए उसा राज्य उसकी कन्याके पुत्र (दौहित्र ) को मिला है। समाप्ति । | इरा समय बङ्गालमें मुसलमानों का राज्य उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा या । इस दिए विक्रमपुरकी सेनवंशी वाला चन्द्रदीप जमश्रापके साथ ही उरत हो गया। राज्य ( 1:14': Utsuory, Vol. 115, F 11. (07.1, A, B, 1871 | f. ta, २-३ [ २७१ ]________________

भारतके पनि राजर्व सेन-बंशी राजाओंकी वंशावली । परस्परका ३ चम्चन्छ । शत समय 1 समकालीन । राज वीरसेनके | पार्न सामन्येन हेमन्तुसैन • १ का पुत्र | नवस रात्री १ विजयसेन - २ का पुत्र नामदेव ४ दानेन • ३६ पुश-सव १०४, १•५०, | १०११, ११-4 ५ लायसेन न ४ का पुत्र शक-सवा ११••, ११२५ मायग्रेन • ५ का पुन केशवसेन न० ५ को पत्र चिन्वरूपसेन नेम ५ का पुत्र इमाम रामवमय विमा सन् 1३३७ (लङ्ग ब ६ पाने । इनिभाने जददैनल | ६६ [ २७२ ]________________

चौकुन-वंश । चौहान-बैंश । उत्पन्न। | पि आजकल वहानबंशी क्षत्रिय अपनैको अशी मानते है और अपनी पनि परमारोफी ही तरह यष्टिके अ तं बताते हैं, तथापि वि० सं० १ ०३० से १६०० (३० स: ९७३ से १५४३ } तककै इनके शिलाखों रहीं भी इसका उसे नहीं हैं। । प्रसिद्ध इतिहासलैराक जैम्म दौड महिनो हॉसके किलेसे वि० सं० १२२५ (३० म० ११६७ } का एक शिलालेख मिला यः । यह चौहान ना पृथ्वारा द्वितीयकै समयका 1 # लेखमें इन चन्द्र वैज्ञा लिखा था । मानुपर्वत परके अचलेश्वर महादेव मन्दिरमें वि० सं० १३८८५) (६० स० १३१० ) का एक शिलालेख लगा है। पडू देहा (हान) राम कुंभ, मया है। इसमें लिखा है:--- | शर्य र चन्द्र अस्त हो जाने पर, जब संसार उप हायम हुमा, वय वन्सपिनं ध्यान झेपा उस समय घत्सम मान, र मुन्द्रपाके पसे ए* पुरुप पन्न हु... ।” | उपनः ॐ भी इनका चन्द्च ना ही द्धि होती हैं। फर्नङ टोg It; ने भी अपने रागथानमें चीनको चन्द्रवंशी, चुसनी और साथैइ माननेवाले लिंग हैं । वीसलदेव चतुर्थंके समयका एक लेख अजमेरो अगायन व वसई हुआ है । इसमें नौहानको सूर्य लिरहे ।। ग्वालियर तानी राजा वीरमके पावन नचन्दसानै (१) »rene334 01 tua lathas Kinga of Dell. ६६५ [ २७३ ]________________

मारतके प्राचीन शिवंश

  • हम्मीर माफी' नामके काय घनाया था। यह मयचन्द्र जैनसाधु या और इसने उक्त फास्य की रचना वि० सं० १५६० ( ६० स० १५०३) ॐ क्रीं की थी। इसमें ल्लिखा है--
  • पुष्कर में यज्ञ प्रारम्भ कृते समय राक्षसों द्वारा होनेवाले विकी आशङ्वासि झझाने सूर्यका ध्यान दिया। इस पर यज्ञ क्षिायं सूर्यमलसे र फर एक बार औपचा 1 नव उपक यज्ञ निविध समाप्त हो गयी, तर ब्रह्माकी कृपासे यह पैर दाहमान नामसे प्रद्धि होकर राज्य करने लगा ।"

पृथ्वीराज-विजय नामक काब्य भी इनको सूर्यवंशी ही लिया है । मैया राज्य वीजौल्या नामक के पास एक चट्टान पर वि० सं० १३२६ ( ६० र ११५० ) का एक लेख स्वदा हुआ है। यह चौहान सोनेश्वरके समयय है। इसमें इनको पसन्नी लिजा है ।। | मारवाड़राज्य जसवन्तपुर गाँव ३० मील उत्तरकी तरफ एक पहाड़ी के छलायमें 'सुंधा माता' नामक देवी मन्दिर है। इसमें वि० सः १३१६ { ईम् सम् १२६३) के चौहान चाचिंगदेव में मी चहानको बसन्नी लिखा है-उस्रमैया यह यहाँ उद्व किया जाता है। मसमपिर्पनयनतार्नुपरप्रभा पूवाधरजमुख्याशामिति । प्रज्ञा प्रानुमपातपतिमिर भाँचाइमग्न पुरा हीरक्षीरसमुद्रौदचे(कौमवत् ।। ५ ॥ उपर्युक्त से स्पष्ट प्रकट होता है कि उम समय,तक ये अपने अग्निव या चायनी नहीं मानते थे । | पॐ पल रन: अब होनेछ। उज' पृथ्वीरानरासर ' नामक मापाळे झान्यमें मिलता है । यह झाच्य वि० सम् १६० 2 ( ई सम्

चहान-बंश । । '१५४३) के करीब लिखा गया था । परन्तु इसमें ऐतिहासिक सत्य बहुत ही थोडा है ।। अजमेरका चौहानराजा अणराज बड़ा प्रतापी थी । उसके नामकै अपश अनल' के आधार पर उसके वंशज अनलोत कहलाने लगे होने और इससे पृथ्वीराज रासा नामक काव्य ऋतने उन्हें मवंशी समझ ठिया होगा । तया जिस प्रकार अपने अधिश मानने वाले परमार चाहगोची समझे जाते हैं उसी प्रकार इनको भी अविशीं मानकर वडिगोत्री डिव हिंम होगा । राज्य । योहानों को राज्य पहले पहल अहिच्छत्रपुरमें था । उस समय यह देञ्च | उत्तरी पांचाल देशक राजधानी समझा जाता था । बरेठीसे २० मोड़ पश्चिम तरफ रामनगर के पास अबतक इसके मायशेप विद्यमान है। वि० सं० ६९७ (३० स० ६४० ) के की प्रसिद्ध चीनी यात्रा | हुएन्संग इस मगरमें रहा था। उसने लिखा है ।। अहिच्छत्रपुरा राज्य करीव ३३०० डीके घेरे में है । इस नगरम के १० सघाराम हैं। इनमें १०८ भिक्षु रहते हैं । यहाँ पर विध| नियों ( ब्राह्मण } } भी ९ मन्दिर हैं ।इनमें भी ३०० पुजारी अहेकि निवासी सत्यपंप और अच्छे स्वमायके है । इस नगर बाहर है। | एक तालाव है। इसका नाम नगिसर है।" उपर्युक अच्छापुर से ही ये लोग इशाकम्मरी ( सर-मारघाट ) में, आये और इसे नगरको उन्होंने अपनी राजधानी यनीया । इससे नई उपाधि शाकम्भरीवर हो गई । यहाँ पर इनके अधीनका राव देश इस " ( १) पाँन ठीक एक मील है। या । ३१७ [ २७५ ]________________

भारत प्राचीन राजवंश समय सपादलकै नामले प्रसिद्ध था। इसीका अप ' सत्रम् । वाइ अबतक अगर, नागर और समरके ये यहाँ पर प्रचलित है। सपाइलक्ष द्वारा कार्यं सवालाख है। अतः सम्भब है कि इस समय इन *धीनतने ग्राम हो । | इसके बाद इन्होंने अजमेर चमि बहूपर अपनी राजपनी काम्न की । तया इन्हींक एक शासाने नाडोल ( मारवा ) पर अपना ऊधार जमाया । इन शाके वंशन अचाक जैदी, हीदा और सिरोही रन्यके आधिपति हैं ।। १-चामान । इस वंशका सबसे पहला नाम यहीं मिलता है। इस विषयमें जो का? दिदा मिलता है वह हम पहले ही इन उत्पत्तिके देल्लर्ने स चुके हैं। २-यासुदेव । संह चौहान वंशन था । अवाबपुरसे आकर इसने भी ( समिर-नाराष्ट्र राप ) की झालर का धंकार कर ॐिया था । इससे इसके बाग फम्म वर हाय'। | प्रघन्कोदाकै अन्तः वैज्ञाव उसका समय हॅवत् ६०८ मि है ! जतः पड़े इझ नुको झक संच मान श्ा जाय तो उनमें ३५ जोड़ देने वि. सं. ११ में इस विद्यमान होना छि होता है। ३-सामन्तव.। यह यादव पुत्र और उत्तराधिकार का ।। (3) मुरीमद, दई ।।। २२८ | [ २७६ ]________________

चौद्यान चंश ! ४-जयराज़ (जयपाल)। यह् सामन्तवा, पुत्र था और उसके बाद राज्यझा स्वामी जुआ। अणहिवाहा (पाटण) के पुस्तक-गंडारसे मिली हुई ‘न्वतुविशति-प्रबन्ध ! नामफ हस्तलिस्मत पुस्तकमें इसका नाम अजयराज लिखा है । इसकी उपाधि ' चक्री' थी । यह यद् वृद्धावस्थामें थानपस्य हो गया था और उसने अपना आश्चम अजमेरके पास पर्वतकी तराईमें बनाया था। यह स्थान अबतक इसीके नामसे प्रसिद्ध है। प्रतिचई मापद हुका ६ कै दिन इरर स्थानपर मेला लगता है और उस दिन अनमंर-नगरवासी अपने नगरके प्रथम ही प्रथन वसाने वाले इस अजयसाल याबाकी पूजा करते हैं। | यह विक्रम संवत्की छठी शताब्दीके अन्तमें ची सातवीं शतके आरम्मम विद्यमान था । । ५-विग्रहराज ( प्रथम )। यह जयराजका पुत्र और उत्तराधिकारी था । ६-चन्नुज । प्रथम }} यह विग्रहराजका पुत्र था और उसके पीछे राज्यका स्वामी हुआ । 1s-गोपेन्द्रराज । यह चन्द्रराजा भाई और उत्तरार्ध म्या । लेचिंत चतुविंशति-अन्घमें इसी नाम गोविन्दराज लंपा है। इस वंशका सबसे प्रथम राजा यह थी; जिसने मुसलमानों से सुद्ध कर सुलतान पेग चरिखको पकड़ लिया था 1 परन्तु इतिहासमें इस मामकी झोई सुलतान नहीं निता है । अतः सम्भव है कि यह कोई नयति होगा । क्योंकि इसके पूर्व ही गुमानॉन सिन्घके कुछ भारी [ २७७ ]________________

भारतकें प्राचीन राजापर अर्पिकार कर लिया था और याप्से राजपूनाने पर मी मुडमानके मग आम हो गये थे। ८-दुभराज । यह गोपेन्द्रराजका उत्तराधैिंकारी शा । इसकी 'दुलाय' मी हते थे । पश्चगन-विनयमें लिखा है । यह गौडोंसे हुदा या । र समय पर पहल अजमेर पर मुसलमानोन्ना आमाण हुआ था। नि उच्च सुदने यह अपने ७ वर्प पुत्रहित मारा था या । सन्मवत यह आज़मग त्रिः सुरु ७८१ र ६८३ ( ई सु. ६२४ र ७२६) ६ च (संझे हेनानायक हुल रहमान पुन जुनैके समय हुआ होगा । ९-गुवक ( प्रथम )। यह दर्दभन्न प3 ग्र वै । चयपि ' मृम्बारा-विजय' म इसका नाम नहीं लिंवा , त्यादि बनोग्या जोर हुर्धनाथ मन्दिर मिले हुए टेम्पोंमें इसी नाम ईमान है। | मने अपनी वीरता कार" वो नामक निार्क मार्गे 'दार ' की पदवी प्राप्त की य । पह नागाचोक दिः । ८! ३० स० ७५६ ) के निकट बिंदमाने मी 1 क्योंकि fa= सः ८१: झा वाहन मद्ध दिया एक तान्नमन मिठा है। यर् मद्ध मन ( मच-मुन्नान ) को स्वामी ६ ! इम उन तन्निा इस छ। नागबठोका सामन्त लिया है। इससे सिद्ध होता है कि इक मी १० स ( ६० - ७५ ) के फरीब विद्यमान हो । १०चन्द्रराज (द्वितीय)} ८ गया इत्र र राझिj थी।

F [ २७८ ]
चौहान-वंश।
 
११-गूवक (द्वितीय)।

यह चन्द्रराज द्वितीयका|द्वितीय का पुत्र था और उसके पीछे गद्दीपर बैठा।

                        १२-चन्दनराज ।
 यह गूवक द्वितीयका पुत्र था और उसके पीछे उसके राज्य का स्वामी हुआ ।

पूर्वोंक हर्षनायके लैखसे पता चलता है कि इसने 'तँवरावती' ( देहलीके पास ) पर हमला कर वहॉके तेवरवंशी राजा रुद्रेणको मार ढाला ।

                       १३–वाक्पतिराज ।
 यह् चन्दनराजका पुत्र और उत्तराधिकारी था ।
 इसको चप्यराज भी कहते थे। इसने विन्ध्याचलतक अपने राज्यका विस्तार कर लिया था ।
 हुपैनाथके लैखसे पता चलता है कि तन्त्रपालने इसपर हमला किया था । परन्तु उसे हारकर भागना पडा। ययवि उक तन्त्रपालका पता नहीं लगता है, तथापि सम्भवतः यह कोई तेवर-वंशी होगा।
 वाक्पतिराजने पुष्करमें शायद एक मन्दिर बनवाया था ।

इसके बीन पुत्र थे-सिंहराज, लक्ष्मणराज और वत्सराज । इनमेंसे सिंहराज तो इसका उत्तराधिकारी हुआ और लक्ष्मणराजने नाडोल ( मारवाड़ ) में अपना अलंग ही राज्य स्थापित किया ।

                       १४–सिंहराज ।
 यह वाक्पतिराजका बडा पुत्र आरै उत्तराकिकारी था। यह राजा बड़ा वीर और दानी था 1 लवण नामक राजाकी सहायतासे *तैंत्ररोंने इस पर हमला किया। परन्तु उन्हें हारकर भागना पड़ा । इस राजाने वि० सं० १०१३ (ई० स० ९५६ } में हर्षनाथका मन्दिर
                             २३६ [ २७९ ]________________

मीरत प्राचीन राजवैश बनवाकर उसपर सुवर्णका कलश चबाया और उसके निर्वाहार्य ! | गाँव बान दियै ! इस वीरताळे विषयमें हम्मीर-महाफास्यमें लिया है। Th, इस युद्धयानकें इम्य कटि, लाट ( माही कोर नर्मदा चीनका पदेश), चौल (मास), गुजरात मोर अंडू (पश्चिम बंगाल) * राजा तक घबरा जाते थे। इसने बने बार मुसलमानोंसे युद्ध किया एक बार इसने हातिन नामक मुलमान सेनापतिको मारकर उनके हाथी छीन लिये थे। इन्दौर इंद्याइनीचे पता बढ़ता है कि इसने अजमेर २५ मील दूर जैद्राणः स्नपर मुसलमान सैनापति इभइनको हराया था। इसने मासिनो हराकर उसके १३०० घोड़े छान ये थे। | नाम्नि सम्मयतः कुश्तींनी उपाधि । वि० सं० १:१० ( ई० स० ९३३)के पूर्वनक इमने कई वार मारत पर दवाइयों की थीं । | इ5के तीन पुत्र ६-३८हरान, दुर्लमराज, और गोविन्दराज । १५-विग्रहराज ( द्वितीय }।। | यह सिइरानका नद्रा पुन और उत्तराधिका था । हमने अपने | पिके राज्यको दृद्ध र उसईं वृद्धि । फ-4 साल राना मग्न होते हैं कि इसने गुजरात { ग्यालपटिण) के नाना मूलराग पर घाई म उसे यदि ( क ) के कंटे वरफ मग दिया और अन्तमें इममें अपनी - ना कर करवाई । यद्यपि गुजरात राज्ञाझी र नि कारण गुजरात इयिं इस विषय मन हैं, तथापि मम्नाङ्गदैन प्रचन्यचिंतामने इसका विस्तृत विवरण मैता है। (1) 14 काम, १ । | = [ २८० ]________________

चौहान-वंश । हुम्भर-महाफास्यमें लिंका है कि, विग्रहराजने थाई फर मूलराजको मार ड्राला । परन्तु यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती ।। पृथ्वीराजरासेमें जो वसलदेबकी मुजरात के चालुकरायपरकी चढ़ाईका वर्णन है वह भी इसी हिज्जकी इस घद्वाईसे ही तात्पर्य रखती हैं। इसके समयङ्वा वि० सं० ११३८ । ई० स० ९७ ) का एक शिलाख हर्षनाथ मन्दिरसे मिला है। इसका वर्णन हम ऊपर कई जगह फर युके हैं। इससे भी प्रकट होता है कि यह बड़ा प्रताप शेजा था । १६-दुलेमराज (द्वितीय) ।। यह सिंहराजका पुत्र और अपने बड़े भाई विग्रहराज दिपक उत्तरराधिकारी था। १७–गोविन्दराज । | यह शायद सिंहाजका पुत्र और दुर्लभराजका छोटा भाई था और उसके पीछे राज्यका स्वामी हुआ । इसको गंदुरज भी कहते थे। १८-वाक्पतिराज (द्वितीय)। यह गोविन्दराजका पुत्र और उत्तराच्चिकारी थी। १९ वीर्यराम । यह धापतिजफा पुत्र झा और उसके पीछे शहर चै । इसने मालके प्रसिद्ध परमार राजा भोज पर चढ़ाई की थी। परंतु इसमें यह मारा पी। शायदं इसके समम सुलतान महमूद गजनीने गड बीटली (अजमेर) पर हमला किया था और जस्वमी होकर यहाँ जमे ६० स० १०२४ में अनहेलपाटेको लौटना पड़ा था। (१) राज-वजय, फ६ ५। । [ २८१ ]________________

भारतके प्राचीन राजवैश ३६-चामुण्डराज । यह वीर्यरामका छोटाभाई और उत्तराधिकारी : । यद्यपि पृथ्वीराज विजयमें इसके राजा होनेका उल्लेख नहीं है, तथानि नजोल्याके लैप, हम्मीरमाकान्य और प्रबन्धक शर्का वशाली। इसका राजा होना पृथ्वीराज-विजयसे यह भी ववित होता है कि नरयरमें इसने एक विष्णमन्दिर बनवाया था। इसने जिमीन चन्द्र बनाया। २१-दुर्लभराज (तृतीय)। यह् चामुण्दराजका उत्तराधिका था । इसको दूसल मी कहते थे। । यद्यपि चीजोल्याके हेसमें चामुण्डानके उत्तराधिकारीको नाम सिंहट लिंबा है, तथापि अन्य वशवालयमै उक्त नाम न मिडके कारण सम्भव है कि यह सिंहभट शब्दका अपश हो र विशेषणकी तरह काम लाया गया है। | युवराज विजयमें लिखा है कि इसने मालवेॐ राजा उपदिश्यकी सहायता सहस्रबार सेना लेकर गुजरात पर बडाई की और वहुँके सोलकी राना फर्णको मार डाला। यह दुर्लभ मेवाइके दावद्ध बरिचिघसे रडते समय मारा गया था। मीर-महाकाव्यमें दुभके उत्तराविका नाम दुल लिस्वा है । परतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह तो इसका दूसरा नाम था और अस्तिवमें देखा जाय तो यह इसके नाभा प्राकृत रूपान्तर मात्र है। इसी काय दूसलका गुजरातके राजा कर्णको मारना लिया है। परन्तु नराश लेसने इस विषयमें कुछ नहीं दिया है । हैवल हेमचन्द्रने अपनै न्यायिकाव्यमें इतना दिशा है कि, कर्णने निकै ध्यान डीन १३ [ २८२ ]________________

चीन-चैश। होकर यह शरीर छौंद दिया। उपर्युक्त का राज्यकाल वि० सं० ११२० से ११५६ (६० स० १०६३ ३ १०१३) तर्क था । अतः दुर्लभं राज्यका भी उक्त समयके मध्य वियमान होना सिद्ध होता है ।। प्रबन्धक शके अन्त वंशावटीमें लिखा है वि दुसल (इभरराज ) गुजरात राजा फर्णको पकड़ कर अजमेर ले आया। परन्तु यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती। २२ वीसलदेव (कृय )। यह दुर्लभजका छोटा भाई और उत्तराधिकारी या । इसका दूसरा नाम विग्रहराज ( तृतीय) भी था ।। बसल-देवरासा नामक माघाके काव्य में इसकी रानी देवीको मालवेके परमार राना, गजकी पुत्री लिखा है और साथ ही इसमें इन दोनोंका चहुतसा कपोलकल्पित वृत्तान्त भी दिया है । अतः यह पुस्तक ३तिहा| सिॉके विशेष फामकी नहीं है 1 इम पहले ही ले चुके हैं कि राना भोज वापरामको समकालीन या 1 इसलिए थीसदैवक समय मालवेपर | उपादियके उत्तराधैिकारी लक्ष्मदेव या उसके छोटेभाई नवम्बका राज्य होगः ।। फरताने लिखा है कि वलदेव ( वीरालदेव ) ने हिन्दुराजाको | अपनी तरफ मिलाकर मोद्दके सूनेदारोको हॉसी, थानेश्वर और नगर कोटसे भगा दिया था। इस युद्धमें गुजरात राजाने इसका साथ नहीं बिंया, इसलिए इसने गुजरात पर चट्टाई कर वहां राजा हावा र अपनी इस जिय यादगारमें बीसलपुर नामक नगर पसाया। यह नगर अब तक विद्यमान है। प्रवन्धकाँश अन्तमें दी हुई वैशविलीमें लिंग के बीसलदेव एक पतिता दाह्मणीका सतीत्व मष्ट किया था। इसीके शापसे ग्रः कुष्ठसे पईत कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। [ २८३ ]________________

भारतके प्राचीन रजियश | पृथ्वीराजरासेमें बीसद द्वार। मोर नामक एक वैय-कन्याका 'सतीत्व नष्ट करना और उसके शापसे इसको हुद्धा दक्षिस होना लिया है। यद्यपि इस शमें बीसदैव नाम चार राजा हुए हैं, तथापि पुरानरासाके फोन उन सब एक ही सयालझर इन चाका मृत्तान्त एक ही स्थान पर लिख दिया है। इससे वहीं गन्न हो गई है। | इसके समयका एक लेख मिला है। यह राजपूताना-म्यूशियम, | ( अजायबघर ) अजमेरमें रखा है। इसमें इनको सूर्यवंशी लिखा है । | २३पृथ्वीराज (प्रथम)। यह वीसलदेवछ। पुन और उत्तराधिकारी या । प्रसिद्ध जैनसामु अभयदेव ( मलधारी ) के उपदेश रणस्तमपुर ( रणथर ) में इसने एक जैन मन्दिर पर सुपर्णा फलश घरवाया थ । इसकी रानीका नाम सचदेवि था । २४-अजयदेव। मह पृथ्वीराजका पुन और उत्तराधिकारी था । इसका सूरा नाम अनपराज मा । पूवरा-विजयमें लिखा है कि वर्तमान । अजयमेरु ) अजमेर इसी३ असाया था। इसने चादिङ, सिन्धुल जौर पौराजको युद्धमें राकर मारा और माह राजाके सेनापति सल्ह्णको युद्धमें पः लिया तथा उसे पर बौंपकर अजमेर ले आया और महाँपर फेद कर रपसा । इसने मुसलमानचे भी अच्छी तरहसे हराया था। अजमेर नगाके घाये जानेके पिय दम्र भिका पुराने इस मिन्न मत दिने १ (2) Pro Porter nr 1 il soport, ' 87 [ २८४ ]________________

चौहान-बंश । कुछ विद्वान इसे महामारत पूर्वका असर हुआ मानते हैं। कनिहाम साहयका अनुमान है कि यह मानिकरायके पूर्वज अजयराजका बसाया हुआ है । उनके मतानुसार मानिकराय वि० ० ८७६ से ८८२ { १० स० ८१९-८९५) के मध्य विद्यमान थे । | जेम्स टौद साहचने अपने राजस्थान नामक इतिहास लिंग है B-44 अजमेर नगर अजयपालने बसाया था। यह अज्ञयपाल चौहान२ बीसलदेव के पुत्रकी वकृयि चराया करता था ।" उसमें उन्होंने बीसलवका समय वि० से १०७८ से ११४२ माना है। चौहानोंके कुछ भाटका कहना है कि अजमेरका किला और आना सागर तालाव दोनों ही वीसलदेव पुत्र आनाजीनें बनवाये थे। राजपूताना गवटियरसे प्रकट होता है कि पहले पहले यह नगर ३० स० १४५ में चौहनि अनल पुन जने बसाया । | जर्मन विद्वान सासन साझा मृत है कि अजमेरका असली नाम अजमीढ़ हो और ६० स० १५० के निकटके टाळेमी नाम लेख कने जो उपनी पुस्तकमें 'गगास्मर' नाम लिखा है वह सम्भवतः अजुभैरफा ही योधक होग। हुमणी-महाकाव्यसे विदित होता है कि यह गिर इस पेशके ये राजा जयपाल ( अजयपाल } ने बसाया था । शत्रुके संन्य-चन्ने जति लेने के कारण इस उपाँधं चक्री य ।। | प्रचन्द-कोश अन्तकी वंशावळमें भी उक्त अयपालको है। आज मेरके रिलेश चनवानेवाला हिंसा हैं ।। ११es, A E B, ४०1. IE, F 25, (२) Jun , A में है, of fi, P, 53,( ३ ) Tod's Rjakhnu, Fol Ik, , c३, १५ cau, A B 3. Ve!, TI1.252, १५) F 2,Yal TI, E, 14, (६) Indiches, A 5, Fol. III, P. 151, ३७ [ २८५ ]________________


भारत प्राचीन राजवंश तारीत्र फरितासे हिजरी सन् ६३(३० स ६८३-३० ६ "५४० ) ३६७ १६मु. १८७-वि० स० १०४५ ) और ३१९ (ई- स १००१-० : १०६६) में अजमेरका विद्यमान होना सिद्ध होता है। उसमें यह भी लिखा है कि हि० म० ४११ ६ जन { ६० सेः १०२४ के दिसंबर महीनेमें महमद गोरी मुलतान पहुँचा और बहस मनाथ जाते हुए उसने मार्गमें अजमेरो फतह किया। बहुतने विद्वान् एम्मर महाकाव्य, प्रवन्धकोश और तारीख फरिश्ता चिके वि० से १४५० के नादमें लिखे हुए होनेसे उन पर विश्वास नहीं करते । उनका कहना है कि एक तो १६ धीं मातादिले पूर्वका एक भी देव या शिल्पकाका काम यहीं पर मुहीं मिलती है, दुसरे फरिइतके पहले के किसी भी मुघल्लमान-छेकिने इसका नाम नहीं दिया है और तीसरा वि० सं० १९४ (३० स० ११५० ) के करीब बने हुए पृथ्वीराज-विजय नामक काव्य पृथ्वीरान पुत्र अजयदेवको अन्नमेरका बनानेवाला लिया है ।। अजमेर के आसपास इसके चॉईं और वेके सिक्के मिले हैं। इन पर सघी तरफ की मूर्ति बनी होती है। परन्तु इस कार इन मैदा होता है। जोर इट्टी तरफ भीमजयदेव' लिंपा होता है । चौहान प्राजा मैचर समय व सं० ११२८ १६० स० ११७}}} से विदित होता है कि अनप३) उपर्युक्त दृम्म ( चोदीके सि ) इस समय तक पचति धे।। इसी मारके ऐसे भी वीके सि के मिलते हैं, इन पर न तुरफ वमी मूत बनी होती है और उलट्टी तरफ * श्रमपनालदेव' (५) इद है के विधमरिमें गाड व में राके मापुर में है। [ २८६ ]________________

चौहान-धंदा । किसा होता है। जनरल कनिंगहामको अनुमान है कि शायद ये सिक्के अजयपाल नामक आँवरवंशी राजा हो । ऊपदेवी रानीका नाम इनरुदेवी था । इसको सोमलेसा मी झहले ये । पृथ्वीराजविजयमें लिखा है कि इसको सि ढुवानैका बड़ा शौक या । चौहान के अर्थनके देशसे इसॐ भी चौंवी और तबके सिर मिन्नते हैं इन पर उडी तरफ 'श्रीसगढ़दैवि या* श्रीसमहूदेव 'लिसा होता है । और सी तरफ गाँधेये 'सिझोंपके गधेकै उरके अमर गद्धा हु राजाका चेहरा बना होता है। किसी किसी पर इसकी जगह अचारका आकार बना रहता है । जनरल झनिंगहाम सबने इनपर लेजो * सौमदेव' पद्धकर इनको किसी अन्य नाके सिके समझ लिये थे । परन्तु इण्डियन म्यूजियमके सिझी कैटग ( सुची ) में उन्होंने जो उक्त सि चिन दिये हैं उनमसे दो सिकॉमें सोचलचिं पढ़ा जाता है। | परन साह्य इन सिक्कको दक्षिण कोशल ( रत्नपुर ) के रूप ( कचरा ) राजा ज्ञानदेवकी के अनुमान करते हैं, पर्यो। उसका नाम भी सौगलदेवी य । परन्तु ये #ि पह पर ना मिलते हैं। इनके मिलनको स्यान अजमेर के आसपासका प्रदेश है । अतः रापसन महाफा अनुमान ठीक प्रतीत नहीं होता। इसका समम वि० सं० ११६५ ( ६० स० ११०८ } ॐ असे पास हो । २५ अपराज ।। ये अजयराजका पुत्र और उत्तराधिकारी या। इसको इलाक, मानदेय और अनाज म कहने थे। इसके तीन रानियाँ थी । पाली मारवाडी मुना, दुसरी मुजरातके सोलंकी राजा (१) , , ] YI 10-1 (३), I A 5, 4, D 1000, F 12 [ २८७ ]________________

मारतके प्राचीन राजर्यंशसिद्धराज्ञ जयसिंहङ्की कन्या काचन३वी और तीसरी सोलकी राना फुमारपाकी बहन देवळ देव। 1 इनमसे पहली रानीसे इसके दो पुत्र | हुए । जगदेव और बीसलदेव पियाज़ } तथा दुस- नसे एक, युन सोमेश्वर हुआ। परराजने अमेरमै ' आना सुगर' मृाम तालाब बनवाया। मिद्धराज जयसिंहने अराजपर हमला किया था । परन्तु अन्तमें उसे अपनी कन्या काचनदेवीका विवाह अरानके साथ मंत्री ने पढ । सिवानकी मृत्यु वाद अर्णोराने गुजरातपर घटाई की, परन्तु इसमें इसे सफता नहीं हुई। इसका यइला छैने जिए वि० स० १२०७ ६० स ११५० ) के आसपास गुजरात राजा कुमारपाल पीग इसके राज्य पर हमला किया और इस युद्धम उणराजको हार मानन पटीं । यद्यपि इस विपया वृत्तान्त चौहानके लेलो रात्रि नहीं मिलता है, तथापि गुजरातके ऐतिहासिक ग्रन्थम सा वर्णन दिया हुआ है। | प्रबन्ध चिन्तामणिमें लिप्त है -

  • कुमारपाल वैनुसार राज्यमन्च छरहा था। इससे उस चहतले उच्च कर्मचारी उसमें अप्रसन्न गये । इनमैने अल्प बमिटका माई हिह ( चाड या आरगट ), जिसको सिर मात्र जयसिंह अपने पुत्रके समान समझती या, मारपालकी ह कर सपादलक्ष चौहानराजा आनाङकै पारा चला गया और मौका पाकर उसको गुजरात पर दा हैं गया । उज्य पूरा का हार कुमार पर माल्न तत्र उसने में सेना लेकर उसका सामना

या 1 परन्तु आहड्ने जसके कानिङ्गको घन चुका पहले ही अपनी तरफ मिटा दिया । । इससे इमरपा के दि l है। टैग पैट | दिवाकर भागने लगे । अपनी अन्य पद बदाा देत नापछिको [ २८८ ]________________

चौहान-बैंश । गहुत क्रोध चट्ट आया और चौहान राजा आनाकसे वयं भिड़ जाने लिये उसने अपने महाबतको आज्ञा दी कि मेरे हायक अनाक हाथीफ निकट ले चल । इस प्रकार जय कुमारपालका हाथ निकट पहुँचा तब उसे मारनेके लिये आई स्वयं अपने हायी पर से उसके हाथी पर कूदनेके लिये उछला । परन्तु महावत हाथीको मछकी तरफ हटा लेने के कारण धीचहीमें पृथ्वी पर गिर पड़ा और तत्काल यहीं पर मारा गया । अन्तर्भ आनाक भी कुमारपालके वापसे घायल गया | और विजय कुमारपालने उसके हाथी घोड़े न दिये ।। | जिनमण्टनरहित कुमार पाल-प्रवन्धमें ब्रिा :-- शाकम्भरीवा | अणराज अपनी ख्री देवदेवीके साथ चौपड़ खेलते समय उसका इपहास किया करता था। इसमें कुछ कर एक दिन उसने इसे अपने भाई फुमारपालका मय दिखलाया । इस पर अणराजने इसे लात मार र धाँत निकाः दिया। तब देवडव अपने भाई कुमारपाङ्गके पास वर्क गई और उसने उससे राई हाल कह सुनाया। इस पर कोत हो। कुमारपालन इसपर चढ़ाई की । उस समय अणराजने आरभद्ध (यह व आहड़ या जो कुमार पाठको छोड़ कर इसके पास आ रहा था ) द्वारा रिशयत दे कुमारियालके सामन्तोसे अपनी तरफ मिला टिया। परन् यसमें कुमारपाल घतासे अपने हाथी से अराजके हाथी | पर कूद पड़ा और उसे नीचे गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा। बदमें उसे तीन दिन तक पर बिठला ६८६ ।। के पिंजरे में बंद रहकर पा राय हेमचन्द्रने अपने मात्रय काव्यमें लिहा : 4 कुमारपाकै ज्या चाई ६ । यही खवर सून सुमारपाल भी अपने सम्मकै साथ इस पेने पर के रज ५१ र पर चढ़ दें। मामें भाइके इस चद्रातका और राजा विक्ग २८१ [ २८९ ]________________

भारत चीन राजवंश सिंह भी इस आ मैं 1 मागे घइने पर चौहान और झोलकिया बीच युद्ध हुआ । इस युद्ध में कुमारपालने को तरसे उनको आहतका हाथ परसे नीचे गिरा दिया और उसके हाथी घोड़े ने लिये । इस पर अन्नने अपनी बहन जहा विवाह झुमारपाल जाप सुने मन कर छ ।” इस युद्धमें पूर्वोक्त परमार विक्रमसिंह अ नसे मिल गया था, इस लिये उसे केंद्रका चन्द्रावृती राज्य कुमारपालने उसके भतीने यदलको दे दिया था । | फीकीमुदीमें इस मुद्दका सिद्वरज्ञ जयसिके रामय होना लिसा है । यह ठीक नहीं हैं। यद्यपि उपर्युः मन्थॉन इस युद्धको वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण है, तथापि इतना तो स्पष्ट ही है कि इस युद्धमें कुमारपाली नेप हुई थी। वि० सं० १९८७ ( ई० रु. ११५०} का एक लेस चाडके किमें भ रके मन्दिर में लगा है। उसमें है कि 1म्भरीके राजाको जीत और सपाइन्न देशों मर्दन कर शव कुमारपाल शादिपुर में पहुँचा तव अपनी सेना यह ह वह स्वयं चित्रफ्ट ( चित्तौड़ } की शोभा देवनेको यहाँ मी 1 यह ले उसज्ञा पुर्व चाया हुआ है। | वि० सं० १२०७ र १२०८१ ३० स० ११५० जोर ११५१ } * चीच यह अपने बड़े पुन जगदेर पहें मारा गया। | २६-जगदेव ।। पर अशा पट्टा पुत्र था और उद्धको मारकर आपका भी इ ।। दरसे नवयमें अर ल्याकै सेसमें जगदेवा नाम नहैं। है, अथाव पुरान-विजय ५ मा ?,' गुर्थ

चोहान-वंश । या बडे पुन्नने अपने पिताकी वैसा ही सेवा ॐ जैसी कि परशुरामने अपनी माता की थीं। तथा वह अपने पीछे वृक्ष हुई बत्तीकी तरह दुर्गन्ध छोइ गया । " इससे सिद्ध होता है कि जगदेब अपने विताको हत्या कर अपने पछि भद्दा मारी अपयश छोड़ गया था । बीजोल्याके लेख में लिखा है कि-'अराजके पीछे उस बिंद्रह गज्यका विकास हुआ और उसकें पीछे उसके बड़े भाई का पुन पृथ्वीराज राज्यका स्वामी हुआ । इस से प्रकट होता है कि उक्त लैंप लेखकको भई उक्त वृत्तान्त मारूम था । इसी लिये उसने पृथ्वीराज विंगहराज के बड़े भाईका पुत्र ही लिया है। परन्तु पृथ्वीराज के पिंतपात पिताका नाम लिपना चित नहीं समझा। | एक बात यह भी विचारण्य है ॐि ई विपन्न पड़े भाई पुन वमन था तब फिर दिपाको राज्याधिकार से मिला । इससे अनुमान होता हैं किं चिंता इत्या करनेके रण सब लोग जगदेवसे अप्रसन्न हो गये होंगे और उन्होंने उसे राज्यसे हटा उसके छोटे भाई विग्रहानको राज्यका स्वामी बना दिया हो । हुम्भ-महाकायमै और प्रबन्धकोशके अन्तही वैशाबसे जग देवा राजा होना सिद्ध होता है ।। उपर्युक्त सव बातों पर इंचार करनेसे अनुमान होता है कि यह बहुत ही थोड़े समय तक राज्य कर सकृय होगा, क्यों कि इfiध है। इसके छोटे भाई त्रिहिनने इससे राज्य छन लिया था। २७-विग्रहसन ( घीसलदेव } चतुर्थ । यह रानफा पुन र गरेका डा माई थी, तथा अपने नई गाईके तेज उससे राज्य नकर गईंपर वैा । यह वा प्रतापी, वीर और विद्वान् राया था।नौल्याके से ज्ञात ता है कि इसमें नाडोल र पाहीको नष्ट किया तथा जोर अर ३४३ [ २९१ ]________________

भारतके प्रार्चन राजश द्विीपर विनय प्रति की । इससे अनुमान होता है कि इसके और नाम्वाली शाखाके चौहान के च कृत वैमनस्य हो गया था। उक्त घट्ना अशराज ( आरज) या उसने पुन आल्के समर्प हुई होगी, क्यों कि इन्होंने गुनाशके राजा कुमारपार की नई स्वीकार कर ली ये । | देहही प्रसिद्ध फन्निशाही छाटप वि स म १२२१ (१८ स० ११६३} बेझारशुक्ल १५ फा इस लेख पृ है । इसम ले है ॐि-- | ** इसने यानाके प्रससे विन्ध्याचल में लिया है । विजयकर उनमें कर वसूल किंया र आर्यावर्त में मुसलमानको मग कर एक यर कर मारतको आर्यभूमि बना ६८ । इसने मुसलमानका सरक पर निकाल देने अपने उत्तराधिकारियों को बीयराकी ची।" मेह ठेस पुइर फीरानशाहकोटाटपर अशक धर्मादाभाई नीचे गुर हुआ है। हम उसके कि यहीं न केर देते ग्यादङ्किमाईविरतिविमरर्थयात्राप्तसहादुई प्रगृति विनमन्स पु इन्न । यात्र यमःचे पुन तुवाद्धविना१५ ग्रा.पन्द्रो मत विनय धारा से पिट ।। नृते सुनते गाग:इ. Tथर्ग' नान् विराज र चिंता सताननः मन् । ३६.५ र म्यधाये ३माया र भर करणायम नसामुन्न्यं भने । ६. दरमा ३१मा भनबन' ११एईक्रिएभिएण' ना। पाठटा सम्मान गरेर में इमने भ में पाई" भनाई ६ ॥

  • ३३ घन्थे। 'केने ना? ३, ने भापति समेत [ २९२ ]________________

चाहानु-यश ! | दो ' ललित-निगहरान' नाटकको शिलापर ईवः स्ववाया था। उक्त समेवरचित 'ललित-बिहरीनका जा अश मिला है इसमें विग्रहराणी मुसलमानीकै साथकी होडाईका वर्णन है । इससे प्रकट होता है। कि इसकी नामें १०८ : हाथी, १००००० सवार र १०००० १० पैदुल सिपाही थे। इसकी वनाई उपर्युक्त पाठशाळा आजकल अजमेर ‘ई दिनका झोंपडा नामसे प्रसिद्ध है । वि. स. १२५० १६० स० ११९३) में शहाबुद्दीन गोने इस पाठशालाको नष्ट कर डाला और विं० ० १२५६(११९९) में यह मसनदमें पारित कर दी गई। तथा शम्सुद्दीन अल्तमश समय उसके आगे कुरान आयतं सदै बड़े बड़े महाराब बनवाये गये । इसका बनाया हरकेलि नानक नाटक वि० सं० १२१० (६० स० ११५३) की माप झाल्का ५ फो समाप्त हुआ था । हम पहले ही लिस चुके हैं कि इसने हरकेलि नाटक र ललितविग्रहराज नाटक दोनको शिलाएर हुदवाकर उक्त पाठशालामें रवाया था । इनमेसे झाः दिनके दोपडे खुट्टाकै समय ५ शिलायें प्राप्त हुई थीं। ये आइइल लपनके अज्ञायत्रघरमें रखा है। स्यातमें प्रसिद्धिं है कि बहुत से हिंदू राजा ने मिलकर सिटदेबी अधीनतामें मुसलमानों से युकर उन्हें परास्त क्रेिया । सम्म वत' यह पटना इसॐि सुमयी प्रति होती हैं । परन्तु यह युद्ध किस भानु हुन्छ । हुआ था, इसका उद्देस कहीं नहीं मिलता है । हिजरी सुन ५४s ( वि० स० १२१०-६० सं० ११५३ ) के करीब बादशाह चमको भाग फर लाहोरकी तरफ जाना पड़ा और हि । सृ ५५५ (वि० सं० १२१७-६० स० ११६०) में उसका दैरान्त हो जाने पर उरुषा पुत्र उससे मलिक पनयिका राजा हुआ । न समव है कि १५ [ २९३ ]पर्युक्त युद्ध इन दोनों में किसी एफके साय हुआ होगा, क्योंकेि थे टॉम क्रसर इचर उधर हमले किंया करते थे। बतपुर गाँव गर गजमेरके पाराका चल्लर ( मीया ) ताल्लाव भी इसकी यादगारे हैं। इसके समयकें ६ लेख मिले हैं। पहला वि० सं० १२११ य है । यह भूतेश्वर मन्दिके एक सम्मपर इदा है । यह मन्दिर में ( जहाजपुर जिले ) ॐ लोहरी गैर आy मलके फासले पर है । | इस बार तीसरा चे० स० १२२०३० स० ११६३) का हैं । चौथा बिना वत्का है। ये तो छेत्र देहीकी फीरोजशाहकी लाट पर अशोक्की आज्ञाओं के नीचे उदे हैं । पाँच और छा देख मैं त्रिंना सवत्का हैं । ये दोनों द्वाई दिन झुपडे धुवरपर सुई है। | इस मन्त्रीको नाम राजपुन सन्प्य पाल था । गै चाहने पृथ्वीराजरासे आधार पर सा यसलदेय ( विपराग) नानक राज्ञाको एक ही • मानकर उपर्युक्तः पिं० स० १३२० ॐ ऐका सवत् ११२० पद्धा या । परन्तु यह इक नहीं है । उन्होंने पुत्री फीरोज प पर कंपन वर्णन किन यसबके तीसरे लेके विपयमें लिंगता है कि इस द्वितीय श्लोकमें पृथ्वीराजका यन है । परन्तु यह भी उनका भ्रम हैं। है । इन राट पर लेपमें वीरान देयके Gिr: नम आनय हा ३ । २८-अमरगर्गिय । यह विग्रहराज ( वीरल) चनुर्यका पुन और उत्तराधिकारी था । पृथ्वीराज विजय विहजिकै दी। उसकै पुनका उत्तराधिका होना और उHॐ प्राद विताको मारने वाले पूफ जगदेके पुत्र पृथ्वी भरका राज्यभर वैठना लिया है। परन्तु उसमें विग्रहराज पुन अमगायका नाम नहीं दिया है। [ २९४ ]प्रवन्ध फाशके अन्ती बंशावली वीसलदेबके पीछे अमरगांगेयका और उसके बाद पैथवा अधिकारी होना लिंखा है। | अलफनल बल (बीसलके ) बाद अमरेगुफा राजा होना वताता हैं। | भाटकी ख्यातमें वीसलदेबके पीछे अमरदेव या गदेवा अधिका होना लेवा हैं । हुम्मर महाकाव्यमें बीसलदेव पीछे जयपका र उसके थाइ मंगपालको नाम लिखा है । परन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता। बीजील्या लेख में इसका नाम नहीं है। उपर्युक्त लेखोंपर विचार करने में अनुमान होता हैं कि अमर गाँमेय छ । यो दिन एज्य ने पाया हो और एक देबर पुन पृथ्वीराज द्वितीयने इससे शीघ्र हैं। राज्य में छिपा होगा । इससे पुथ्वीराज-वैदय में और बोल्या लेमें इसका नाम नहीं दिया है। | २९-पृथ्वीराज (द्वितीय)। यह् जगदेवा पुन और विरानका भर्तीजा था । इसने अपने चचेरे भाई अमरगांगेय राज्य ज्ञान लिया। वि० सं० १२३५ की ज्येष्ठ कृणा १३ का एक लेंस रूठी रानी मन्दिर में लगा है । यह मन्दिर मेवाड़ राज्य जहापुर से ७ मील परके धौड़ गांवमें हैं। इसमें इस अचने वाहुनलसे शाकम्भरीका राज्य प्राप्त करनेवाला लिखा है । इससे मी एक वाती हैं। पुष्टि होता है। पृथ्, पथदव, पृथ्वभट आदि इराके उपनाम थे। यह बड़ा दान और वीर राजा था | इसने नेफ गाँव और बहुत रायण दान किया था, तथा वस्तुपाल नामक राजाको युद्ध परास्त कर उसका हाथ छीन लिया था। [ २९५ ]________________

मारतकै भान राजवंश इस रानका नाम महदवेब झा ! इन दरका मन्दिर चनाया थी, जो मर्छ। रानी मन्दिर नामसे मसिद्ध हैं । इस मन्दिहै सके तपाषाणके मद्दल भी रूठी रानी महल कहलाते हैं । इसने धड़ गय नित्यप्रमोदितदेंॐ मन्दिरके लिये भी कई त दिये ये । इस द्धिये थर मन्दिर भी सुट्टी रानी मन्दिर के नाम से प्रसिद्द है । पृथ्वीराने मुसल्लमानको म युद्धमें परास्त किया था और सीके लेमें एक भवन घनवाया था। यह वि सं १८५८ (६० स० १८:१ } में नष्ट कर दिया गया । इसके समयके चार लेग मिले हैं। पहला वि० सं० १२२४ । ३० स. ११६५६ ) की माघ शुकी ७ का है । दूध और वीर वि० सं० ११२२ (६० स० ११६८) का है तथा चौथा वि सं० १२२६ ( ६० स० ११६९) का हैं । इनमें वि० सं० १२२४ का लैम्ब फर्नल टॉड रावने भारत राज-प्रसाधे लाई हेस्टिग्जको भेट पा था । परन्तु अग इसका झुछ भी पता नहीं चलता । टौद्ध चाहने इसे शहाबुद्दीन गोरी छु सिद्ध चोहनराजा पृथ्वीरानो मान लिया था । परन्तु उस समय सेमेश्वरके पुत्र पृथ्वीर/जा होना बिलकुल असम्म ही है। इस मामाका नाम अर्ण लिजा मिळती हैं। ३६-सोमेश्वर । पृथ्वीराज-द्वितीयके बाद उसके मन्त्रियोंने सोमेश्वर इसका उत्तधिकारी बनाया। यह अपरानका तृतीय पुन और पृथ्वीराज द्वितीफा ११) घाडगचकै छी रानी माँ के स्तम्भर छदा है। { २) मंशा में हुईवेश्वर मन्दिर, दीनारपर छा है। (३) मैनालम भाव मटके एक सम्प दा ३ । ४८ [ २९६ ] इची था, तथा राज्य पर बैठने पूर्व अघा विदेशमें ही रहा करता था। इसने अपने नाना सिद्धराज जयहिसे शिक्षा पाई थी । | पुथ्वीराज-निजगरो ज्ञात होता हैं ६ मारपाने अब फदिमकै राजोपर चढ़ाई की थी तब यह भी उसके साथ था और इसमें कोंकनके जिको युःमें मारा था । यह घटना रामेश्वर राज्य पर बैठने शूर्य हुई थी। इसने चेदी ( जबलपुर ) के राजा नरसिहदेंवक्री कन्या विवाह किया था। इसका नाम र्पूरी था । इससे इसके दो पुत्र हुए-- रान और हरिराज ।। महू राजा ( भेश्वर ) बङ्गा वोर । प्रताप ५ । वजोल्पा लेपमें इसका उपचे * प्रतापईवर ' लिखी है । | पृथ्वीराजरासा नामक कादपमैं जा हैं " सामेश्वरका विवाहू ६लई तय हज अनद्दपालकी पुत्री कमलासे हुआ था। इससे पृथ्वीराजका जन्म हुमा । तथा इसे ( पृथ्वीराजको) १ मा के नाना देहलीके संवा राजा अपने जद से दियो य । पम्तु यई यात कपालकल्पित ही प्रज्ञात होता है, क्योंकि विधान ( वमल ) चतुर्थ समर्प ही देहलीएर हानाहा अधिधर हो चुके था । अत चीन ज्यिकै उचराधिकारीका अपने सामन्तकै यहीं गोद जाना असम्भव ही मनात होता है। कर्नल टीई हुने र अनङ्गपालकी कन्याका नाम बद। सा है। मर-मझिायमें सोनेरी का नाम नरदेवी ही हिंा है और दर्यपि इसमें पृथ्यारागका सभ्येतर वर्णन दिया है, तथापि देहके राजा अर्नाटक यह गोद जाने उसे कहीं न है । [ २९७ ]________________

भारतके प्राचीन राजधा उपर्युक्त वातपिर विचार करने में पृथ्वीराजरासैके लेखपर विश्वास नहीं होती । उसमें यह भी लिखा है कि ज्ञानेश्वर गुजरात राना भेलामके हाथ से मारा गया था । परन्तु यह बात भी ठीको प्रतीत नहीं होती, यांकि एक तो सोमेश्वर का देहान्त बि स १२३६ (इ. स. ११७६में हुआ था। उस समये मेलामम दीक ही था । दूसरा याद ऐसा हुआ होता तो गुजरात के कवि और लेआफ अपने अन्थोंमें इस बात उड़े बड़े गौरवके साथ करते, असई ३ इन्धन अगर: जपरी कुमारपालकी विजय किया है । सोमेवर तानेके सिंचे मिले हैं । इनपर एक तरफ नारफी सूरत बर्न होती है और 'श्रीसोमेश्वरदेय' र हिंसा रहता है, क्यों दूसरी तरफ बैलकी तसबीर ** *आसाप जामतर्देश ' हेस गुदा होता है। 'आय' शब्द ' अशापू14' का धिंगह। हुअा रूप है । इरादा अर्थ पूरादेवीमें बन्ध रसनेमा हैं। यह अपूरा देवी महान की कुल १ ।। इस रामप्र ४ कैद मिले हैं। पहा वि० स० १२२६ १३० स० ११६९) फाल्गुन कृष्णा ३ ६ । यद् नौजल्या गपके पास की इन पर खुदा हैं और इसा ऊपर ई - इन अ शुका है। दूसरा वि० सं० १२२८ ( ६० स० ११५१) ज्येष्ठझुक्क १० को । तीसरा ३८ स१२२९. (६० ० ११७२) श्रवणशुक्ला १३ की । ये दोनों घोड़े गर्दै पूर्व रूठोरनी मन्दिर स्तम्भ पर सुदे हैं । चाँया वि सः १२३५ (६० १ ११७) इश्शक्का ४ का है । यह अविश्वा के बाहर के दृपर पड़े हुए स्तमुपर हुदा हैं । यह गाँव जहाजपुस ६ ३tस पर है। २५ [ २९८ ]________________

चौहान-बेश । ३१ पृथ्वीराज ( तृतीय }। | यह सामेश्वरका पुब और उत्तराधिका था । सोमेश्वरके देहान्तके समय इसकी अवस्था छोटी थी 1 अतः रज्यिका प्रबन्। इसकी माता करदेवीने अपने हाथमें ले लिया था और बहू अपने मन् कदम्ब वेमकी सहायता राज-काज किया करती थी। घेह पृथ्वीराज बड़ा वीर और प्रतापी राजा था। इसने गुजरात के राजाको हुरीया और वि० ० १२३९( ई. स¢ ११८३) में भहोंज्ञा ( बुंदेलखंड ) के चंदेल राजा परमदिंदैव पर अट्ठाई कर उसे परस्त किया। | पृथ्वीराजरासा महीवारबंदृसे ज्ञात होती है कि परमविके मैनपनि अलि और ऊदलने इस युद्धमें बड़ी वरती दिखाई और इ अमें ये दोनों मारे गये । इस विषयके गीत अबतक इंदल के आसपास प्रदेशमें गाये जाते हैं। | हम्मीर महाकाव्यमें लिया है कि जिस समय पृथ्वीन न्यायपूर्वक प्रजाका पालन कर रहा था उस समय हाबुद्दीन गोरीने पृथ्वीपर अपना अधिकार जमाना प्रारम किया । उसके दुःससे दुर्पित हो पश्चिमके सब जा गन्दिराज के पुत्र मद्राजको अपना मुखिया बना पृथ्वीराज पास आये और उन्होंने एक हाथी भेट्टकर सार वृत्तान्त फह गुमाया । इस पर पुराने उन्हें धीरज दिया और अपनी सेना रानाकर मुलतानकी तरफ प्रमाण किया । इस पर शE!ीन उरी से लनेकौं सामने आया । विपण संयम वाद शहाबुद्दीन पकड़ा गया । परन्तु पृ43नने दयाकर उसे छोड़ दिया ।" तरकाते नरामें लिखा :-- “गुन हाउद्दीन शरश्किा टि फतह कर गजको छीट गगा योर उक्त किटो ड्राई जियाउद्दीन व मया ! पोल: पिंपरा F५१ [ २९९ ]________________

मारतके प्राचीन राजा ( पृथ्ईरान) ने उस किले पर चढाने। इस पर शहाबुद्दीन गजनाते मापस आना पक्ष । वि० ० २७१ ६० से ११९१६} मैं तिरीरी (कनहि जिज्ञा ) के पास सड़ाई हुई । इस सदमें हिन्दुस्तान सज र रायकोग (पृथ्वीरान ) ई तरह थे। सुङनाननै हाथी पर बड़े हुए दिल्ली के राजा गोविंदम्य पर हम किया और अपने भाडेसे उसके दो दान तोड़ डाले । इसी समय उक्त जाने वरकर सुलतान रू'थको जमी कर इिया । इस पात्र पहिासे सुननका घोड़े पर ठहरना मुशकिल हो गया । इस पर मुसलमानी सेना झाग सी हुई । सुलतान भी घोडेसे गिरने ही बारा पा कि इतने में एक बहादुर सिरनी गियाही पक कर बादशाहवे घोड़े पर चढ़ बैठा और घोहे को भगाफा बादशाह राक्षबसे निकाल ले गया । यह हालत देख राजपूननि मुसलमान होना था किंवा र मटिहा नामक की जा रए । तरह मनके घेरे के बाद उसपर राजपूनाका कब्जा हुन । | सास फरिरवा में लिखा है

  • सुल्तान मुहम्मद गोरी ( शहाबुद्दीन गरी ) ने हिजरी सन् ५८७ १ वि० सं० १९४७-६० स० ११९१ ) में पैर हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की

और अजमेरी तरफ जाते हुए भी पर मना कर रिया । तया उसकी हिफाजतके दिये एक हजारसे अधिक सवार और कवि उतने ही पैदल सिपाही देर मलिक जियादीत्र हकीकी यहाँ पर नियत इ दिया । दापिस रोटते समय सुन्। है अजमेरका राजा पिथोराय ( पृथ्वीराज ) और उसका भाई दिईयर दानडाय ( गाय ) हिन्दुस्तान इस बाज़ाई साम दो ठारत सदार और तीन जर हाथी देकर भट! तरफ आ रहा है। यह शुन यह तय भटिंडेसे अरे व सरस्वती दट परके नाम के पार (१) Huatory vf India, by Elset, II, F 495-06 | F१२ [ ३०० ]________________

चद्गुन-श । पहुँचा । यह गांव थानेश्वरसे १८ मीठे और इसे 40 मालपर, तिरोरी नामसे प्रसिद्ध हैं । यहॉपर दोनों सेनाओंकी मुठभेड़ हुई । पहले ही हुशलेमें सुलतानकी फौजने पीठ दिखाई । परन्तु सुलतान बचे हुए | थोडेसे आदमियाक सय में इटा रहा । इस अवसर पर चामुंडरायने सुल्तान की तरफ अपना हाथी चलाया । यह देख सुलतानने चामुण्डरायके मुरापर भाला मारा निससे उसके कई दाँत टूट गये ! इसपर कुछ दिल्लीश्वरने भी सुलतानके हाथ पर इस ओरसे तीर मारा कि वह मलित हो गया । परन्तु उसके घोड़े से रिनेके पूर्व ही एक मुसलमान सिपाही 'इसके घर चट्स गया और इरौ है रणबसे निकट गई । रजपूतने ४० मील तक उसकी सेनाका पीछा किया । इरा प्रकार युद्धमें हरिका बादशाहे लाहौर होता हुअ गौर पहुँचा । चपर उसने जो सदर में उसे छोड़कर भाग गये थे उनके मुख पर जीसे भरे हुए तोपरे लटकाकर सारे शहरमें फिरपाया । वक्षसे सुलतान मजनको चला गया। उसके चले जाने के बाद हिन्दू राजाने भटिपर घेरा हाल और १३ महीनेतक धेरै रहने बाद उसे अपने अधिकार कर लिया। ताज़लम आसिरके आधार पर फरिश्ताने लिखा है कि ** सुलतान घायल होकर घोड़ेसे गिर पड़ा और दिनभर मुड़के साथ रणक्षेत्र पड़ रहा । जब अंधेरा हुआ। तब उसके अंगरक्षक एक दुलने वहाँ पहुँच कर उसे तलाश करना आरम्भ किया और मिल जाने पर वह अपने कैप पहुँचाया गय ।” राज-वैशयमें लिखा है कि, इस पनपने सुलतानको इतना सेइ हुआ कि उसने उचगोराग बस्नका पहनना और अन्तःपुरमें /मक्की नई शोना छोड़ विया ।। ( ;) Brig६ fashi5 , f, .111.17, (३) नवलर मेस त इति द्वारा मुफ, पृ ५। भ: [ ३०१ ]________________

भारतके प्रचिन राजबंश हम्मीर-महाकास्यमें लिखा है कि शहाबुद्दीनने अपनी पराजय¥T बदला लेनेके हिंसे पृमीराज पर सात वर चढाई की और साप्त नार उसे हारना पड़ा । इस पर उसने घटेक (१ } देशके राजाको अपनी तरफ मिलाया और इसकी सहायताले अचान विड़ीपर हमला कर अधिक्कार कर लिया । जब यह बथर पृथ्वीराजको मिती तन पहले अनेक चार हरानेके कारण उसने इसी विशेष परवाह न फी और गरी थोड़ी सेना लेकर ही उसपर चट्टाई कर दी । यद्यपि पृथ्āरानके साथ इस उमय थोडीसी सेना पी, तथापि सुटतान, जो किं अनेक बार इसकी वीरताका लोहा मान चुका था, घबरा गया और उसने रातके समय ही वहुतसा धन देकर पृवराजकै 'फौजी अस्तबल दारोगा और बातेंवादको अपनी तरफ मिला लिया । जव प्रातःकाल हुआ तव न सरफसे घमासान युद्ध प्रारम्म हुआ । परन्तु विधान ती दरोगा पृथ्वीराज सादे लिये माझ्यारम्भ होड़ा ले आया। यह घोही रणभेरीकी आवाज़ सुनते ही नाचने लगी । इस पर पृी'राजका लक्ष भी उसकी तरफ जागा I-इतनेहीमें शत्रुने मौका पार उसे घेर लिया । यह हालत देख पृथ्वीराज उस घोड़े पर झूद पट्टा और तळूवार लेझा दाजुपर झपटा । इस अवस्थामें भी अकेला यह महत देर तक मुसलमानोंसे लड़ता रहा। परन्तु अन्तमें एक यन सैनिकने पीछे से yा गल्ले में धनुष ट्टाकर उसे गिरा दिया । वस इफका गिरना या * दूसरे यवन ने इसे चंद्रपट घोंघ लिया । इम प्रकार बंद हो जानेपर पृथ्वीराजने जयमानेत । जनसे मरना ही अच्छा समइया और गाना ना छोड़ दिया। इस अवसर पर ड्रयाग भी आ पहुँचा । इस पृथ्वीरानने पहले ही सुनानके अधीन देशर एमला करनेको मेना या । उदयराज असे ही बादशाह श्रङ्कर | नगरमें घुस गया । उदयराग अपने स्वामी पृथ्वीराज के इस प्रकार [ ३०२ ]________________

चौहान-वंश । बंदी हो आनेका अत्यधिक सैद हुशा और इसने स्वामीको इस | अवस्थामें छोडू जाना अपने गौड़ बैशके लिये कुछङ्करूप समझा, इसलिये नगर (दिल्ली) को घेरकर यह पूरे एक मास तक लट्टता रहा। एक दिन भिसने बादशाह से निवेदन किया के गृथ्वीराजने आपको गुन्हमें बन्दी बनाकर अनेक बार छोड़ दिया था । अतः आपको भी चाहिए कि कमसे कम एक बार तो उसे भी छोड़ दें । इस पर बादशाह बहुत कुछ हुया और उसने कहा कि यदि तुम्हारे जैसे मन्त्री हों तो रज्येि ही नष्ट हो जाय । अन्तमें सुलतानने पृथ्वीराजको कलमें भेज दिया। वहीं पर उसका वैहान्त हुआ । जब पड़ समर उद्यराज मिली तब उराने में युद्धमें उरकर वीरगति प्राप्त की, तया पृथ्वीराज छोटे भाई हरिराजने अपने बड़े भाईंकन क्रिया-कर्म किया ।" | जामिल हिकायतमें लिया है। | ** म मुहम्मदप्तम ( शहाबद्दन गो ) दुसरी यार बोला ( पृथ्वीराज़ ) से लड़ने चला तब उसे सचर विली कि चुने हाथियोको अलग एक पंक्तिमें पड़े किये हैं। इससे युद्द समय घोड़े चमक जायेंगे । यह इनर सुन उसने अपने सैनिको आज्ञा दी कि जिस समय हमारी सेना पृष्टवीराजकी सेना के पास पड़ाव पर पहुँचे उस समय से प्रत्येक मेके सामने रातभर खूब अग जड़ाई जाय ताकि शत्रुफ हमारी गतेदेविका पता न लगे और ये समझें कि गारा पड़ाय उस स्थान पर है। इस प्रघर अपनी सेनाकै एक भागको समझाकर वह अपने सेनाकै दुसरे मग सहुत दूसरी तरफ चल पड़ा । परन्तु उधर हे सनाने दर में आग जलती देश समझ लिया %ि बादशाहा पाव वहीं है और उधर रामर पलकर मादशाह पृथ्वीराज सेना पिछले भाग पास आ पहुँचा तधा प्रातःकाल होते ही इस सेनाने हुमटाकर पृथ्वीरानी सेना इ मानो फष्टनी शुरू किया। जब वह ३१५ [ ३०३ ]________________

भारत चीन - सेना पाये हुने । तच पृ"वीराजने अपनी नाफा रुप इछ सुरफ गिमा चाहा । परन्तु शीघ्रतामें उसकी व्युहु-रचना बिगड़ गई और हा भड़क गये। अन्तमै पृथ्वीरान हराया जाकर कैद कर लिया गया।” | ताजुळम आसिरमें लिंग हैं,-- | "हिन सन ५८७ (वि० सं० १२४८-६० स० ११९१) में सुइसाम ( शहादौन ) ने गजनीसे हिन्दुस्तान पर चड़ाई की और राहार पतंच अपने रुद्र किंवामुलमुल्क इन मशाको अनमैरके राजाकै पनि भेजा, तया उससे कहलवाया कि 'तुम बिना उड़े ही मरतानई। अधीनता स्वीकार कर मुसलमान जो '। रूईनने अजमेर पहुँच वृत्तान्त छह सुनापा । परन्तु वहाँ जाने गर्ने से इसकी * भी परवाह न दी। इस पर सुलतानने अजमेरी तरफ झूच किया । अत्र यह नगर प्रतापी राजा कॉला ( पूवीरान ) को मिली तब वह मी अपनी असरय सेना लेकर सामना करनेको चला। परन्तु शुद्ध समान फतह हुई और पृश्वीराज कैद कर लिया गया । इस समें न एक लाख हिंदू मारे गये । इस विनयके वाद सुरतानने अगभर परा वहाँ मन्दिरको तुडवाया । उनी जगह मसनिध में मदरसे बनाये । अजमेरका राजा, जो कि सजाने बचको रिहाई हासिल कर चुका था, मुसमान से नफरत रहा था । व उसके सार्नश करनेको हाल वाइश हुको मालूम हुआ तच की शारिरी राजाका र काट दिया गया । अन्तमें अजमेरका नि यापथ ( पृथ्वीराज ) के पुत्रको सौष शुल्तान दिदी तरफ चङ्गा गया । चहेकि राजाने इसकी अधीनता स्वीकार कर विरान देने की प्रति की । वह बादशाहू गानीको लौट गया । परन्तु अपनी सेना केद्रपद (इमस्य) में छोट गया।” (१)E 10t, H asy bf hdas, Tal, II, P 200 (2) EtLot's, Pustoty of Ird:Vof IT, 2 212 216 [ ३०४ ]________________

खान-चंश । में चलकर तयमात-ए-नासिरके कर्ताने लिया है:* दुसरे वर्ष सुलतानने अपने पराजयका बदला लेने के लिये हिन्दुस्तान पर फिर चढ़ाई की। उस समय उसके साथ १२०००० बार थे। तराइनके पास युद्ध हुगा, इराने हिन्दू हार गये । यद्यपि पिथोरा (पृथ्वीराज ) हाथरसे उतर और घोडेपर सवार हो भाग निकली, तथापि सरस्वती के निकट पकड़ा जाकर करले कर दिया गया । दिल्ली | Taदरान भी उड़ाई गा गया | सुलतानने उसका सिर अपने मालेले तोते हुए उन दे दॉतसे पहचान लिया । ये युद्ध हिं० ० ५८८ ( वि० सं० १२४९-६० स० ११९२ ) में हुआ था। इसमें विजय | होने पर अजमैर, अबालककी पहाडियाँ, मॉसी, सरस्वती आdि अनेक इलाके सुलतानके अधीन हो गये ।" इसी प्रकार इस हमलेकै विषयमें तारीख फरिश्तामें लिखा है:---- ** १२०००० सवार लेकर सुलतीन गजनसे हिन्दुस्तान की तरफ चला | और मुलतान होता हुआ लाहौर पहुँचा 1 हाँसे उसने झामुलमुल्क हुन्ध को अजमेर भेजा और पृथ्वीराज्ञसे कहलाया 6ि या तो तुम मुसलमान हो जागे, नहीं तो हमसे युद्ध छ । यह सुन पनि आसपासकै सप राजा को एकत्रित कर ३००० ००६ सयार, ३००६ हाथ! और बहुत से पैदल लेकर सुलतानसे लडनेको चल्ला । सरस्वती पर दोनों फीजें एक दूसरे के सामने पड़ाव होलकर ठहर गई । १५० राजेंने गंगाजल लेकर कसम खाई कि या तो हमें श पर विजय प्राप्त में पा धर्म के लिये युद्वमें अपने प्राण दे देंगे । इसके बाद उन्होंने मुलतईनसे हा भेजा कि यो न तुम लौट जाओ, नहीं तो | हुमा अय सेना तुम्हारी सेनाको नष्ट श्रेष्ट फर दे। इस पर राहुतानने कृपट कर उत्तर दिया कि मैं तो अपने माईका सैनापति मात्र (३) Elliot's, listary of India, Vol. II, P. 06-97, (३) इग्में झामन्त ( सरदार } लोग भी शामिल है। २५७