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हंसों के) नये होने ही से क्या हुआ? ये हैं मन को मोहित करनेवाले हंस। (अतः बगुले को छोड़ हंस की संगति करो––परिचित अपरिचित का खयाल छोड़ दो।)
बिहारी-सतसई

२६४
{{block center|<poem>अरे हंस या नगर मैं जैयो आपु बिचारि।
हंसों के) नये होने ही से क्या हुआ ? ये हैं मन को मोहित करनेवाले हंस
कागनि सौं जिन प्रीति करि कोकिल दई बिड़ारि॥६६०॥</poem>}}
(अतः बगले को छोड़ हंस की संगति करो-परिचित अपरिचित का खयाल

छोड़ दो।)
'''अन्वय'''––भरे हंस या नगर आपु बिचारि जैयौ, जिन कागनि सौं प्रीति करि कोकिल बिड़ारि दई।
अरे हंस या नगर मैं जैयो आपु विचारि ।

कागनि सौं जिन प्रीति करि कोकिल दई बिड़ारि ॥६६०॥
बिड़ारि=खदेड़ देना, भगा देना।
अन्वय-भरे हंस या नगर श्रापु

बिचारि जैयौ, जिन कागनि सौं प्रीति
अरे हंस! इस नगर में तू सोच-विचारकर जाना, (क्योंकि इस गाँव में वे ही लोग रहते हैं) जिन्होंने कागों से प्रीति करके कोयल को खदेड़ दिया था।
करि कोकिल बिड़ारि दई ।

बिड़ारिखदेड़ देना, भगा देना ।
{{block center|<poem>को कहि सकै बड़ेनु सौं लखैं बड़ी त्यौं भूल।
अरे हंस ! इस नगर में तू सोच-विचारकर जाना, (क्योंकि इस गाँव
दीने दई गुलाब की इन डारनु वे फूल॥६६१॥</poem>}}
में वे ही लोग रहते हैं) जिन्होंने कागों से प्रीति करके कोयल को खदेड़

दिया था ।
'''अन्वय'''––बड़ी भूल लखैं त्यौं बड़ेनु सौं को कहि सकै, दई गुलाब की इन डारनु वे फूल दीने।
को कहि सकै बड़ेनु सौं लखें बड़ी त्यौं भूल ।

दीने दई गुलाब की इन डारनु वे फूल ।। ६६१ ॥
भूल=गलती। दीने=दिया है। दई=दैव, विधाता।
अन्वय-बड़ी भूल लखें त्यों बड़ेनु सौं को कहि सके, दई गुलाब की इन

डारनु
(बड़ों की) बड़ी भी भूल देखकर बड़ों से कौन कह सकता है? विधाता ने गुलाब की इन (कँटीली) डालियों में वे (सुन्दर) फूल दिये हैं (फिर भी उनसे कौन कहने जाता है कि यह आपकी भूल है!)
वे

भूल = गलती । दीने = दिया है । दई =देव, विधाता ।
{{block center|<poem>वे न इहाँ नागर बढ़ी जिन आदर तो आब।
(बड़ों की ) बड़ी भी भूल देखकर बड़ों से कौन कह सकता है ? विधाता
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गँवई गाँव गुलाब॥६६२॥</poem>}}
ने

गुलाब
'''अन्वय'''––वे इहाँ नागर न जिन तो आब आदर बढ़ी, गुलाब गँवई गाँव फूल्यौ अनफूल्यो भयो।
की इन ( कँटीली ) डालियों में वे (सुन्दर ) फूल दिये हैं (फिर भी

उनसे कौन कहने जाता है कि यह आपकी भूल है !)
नागर=नगर के रहनेवाले, चतुर, रसिक। आब=शोभा, रौनक। गँवई गाँव=ठेठ देहात।
वे न इहाँ नागर बढ़ी जिन आदर तो आब ।

फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गँवई गाँव गुलाब ।। ६६२ ।।
यहाँ (देहात में) वे रसिक ही नहीं हैं, जो तेरी शोभा और आदर को
अन्वय-वे इहाँ नागर न जिन तो आव भादर बढ़ी, गुलाब गवई गाँव
फूल्यौ अनफूल्यो भयो।
नागर = नगर के रहनेवाले, चतुर, रसिक । आब= शोभा, रौनक
गवई गाँव = ठेठ देहात।
यहाँ ( देहात में) वे रसिक ही नहीं हैं, जो तेरी शोभा और आदर को
फूल दीने।