"विकिस्रोत:सप्ताह की पुस्तक/४१": अवतरणों में अंतर

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-->'''[[सेवासदन]]''' [[लेखक:प्रेमचंद|प्रेमचंद]] द्वारा रचित [[उपन्यास है जिसका प्रकाशन इलाहाबाद के '''हंस प्रकाशन''' द्वारा १९१९ ई॰ में किया गया था। यह प्रेमचंद का हिंदी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था जिसकी लोकप्रियता ने उन्हें हिंदी का उपन्यासकार बना दिया।
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"पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते है, लेकिन और लोग बुराइयों पर पछताते हैहैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पचीस वर्ष हो गए; लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने न दिया था। यौवनकाल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है उन्होंने नि.स्पृहभावनिस्पृहभाव से अपना कर्तव्य-पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे। उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी स्त्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह भी चिन्ता में डूबी हुई थी। उसे स्वयं सन्देह हो रहा था कि वह जीवन भर की सच्चरित्रता बिलकुल व्यर्थ तो नही हो गई?..."([[सेवासदन|'''पूरा पढ़ें''']])
<noinclude>[[श्रेणी:सप्ताह की पुस्तक]]</noinclude>