"पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५६२": अवतरणों में अंतर

 
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भारत-हा! यह वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण-चंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था "शूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव" और ‌आज हम उसी भूमि को देखते हैं कि श्मशान हो रही है। अरे यहाँ की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, उदारता, धन, बल, मान, दृढचित्तता, सत्य सब कहाँ गए ? अरे पामर जयचंद्र ! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा जाता था? हाय ! अब मुझे कोई शरण देने वाला नहीं। (रोता है) मातः, राजराजेश्वरि, विजयिनि ! मुझे बचाओ।
भारत-हा! यह वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण-
अपनाए की लाज रक्खो। अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ। हाय ! मैंने जाना था कि अँगरेजो के हाथ में आकर हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म
चंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था
"शूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव" और ‌आज
हम उसी भूमि को देखते हैं कि श्मशान हो रही है।
अरे यहाँ की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, उदारता,
धन, बल, मान, दृढचित्तता, सत्य सब कहाँ गए ? अरे
पामर जयचंद्र ! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा
जाता था ? हाय ! अब मुझे कोई शरण देने वाला नहीं।
(रोता है) मातः, राजराजेश्वरि, विजयिनि ! मुझे बचाओ।
अपनाए की लाज रक्खो । अरे दैव ने सब कुछ मेरा
नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ । हाय ! मैंने
जाना था कि अँगरेजो के हाथ में आकर हम अपने दुखी
मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म
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1. फटे कपड़े पहिने, सिर पर अर्द्ध किरीट, हाथ मे टेकने की छड़ी,
शिथिल अंग।