"पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/११०": अवतरणों में अंतर

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{{block center|<poem><small>मैं, तैं, मेरी यह मति नाहीं निरबैरी निरविकारा॥
{{block center|<poem><small>मैं, तैं, मेरी यह मति नाहीं निरबैरी निरविकारा॥
काम कल्पना कदे न कीजै, पूरन ब्रह्म पियारा।
काम कल्पना कदे न कीजै, पूरन ब्रह्म पियारा।
एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू, सो तत सहज सँभारा॥</small></poem>}}
एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू, सो तत सहज सँभारा॥</small></poem>}}
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{{larger|'''सुंदरदास'''}}––ये खंडेलवाल बनिए थे और चैत्र शुक्ल ९ संवत् १६५३ में द्यौसा नामक स्थान (जयपुर राज्य) में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम परमानंद और माता का नाम सती था। जब ये ६ वर्ष के थे तब दादूदयाल द्यौसा में गए थे। तभी से ये दादूदयाल के शिष्य हो गए और उनके साथ रहने लगे। संवत् १६६० में दादूदयाल का देहांत हुआ। तब तक ये नराना में रहे। फिर जगजीवन साधु के साथ अपने जन्मस्थान द्यौसा में आ गए। वहाँ संवत् १६६३ तक रहकर फिर जगजीवन के साथ काशी चले आए। वहाँ तीस वर्ष की अवस्था तक ये संस्कृत व्याकरण, वेदांत और पुराण आदि पढ़ते रहे। संस्कृत के अतिरिक्त ये फारसी भी जानते थे। काशी से लौटने पर ये राजपूताने के फतहपुर (शेखावाटी) नामक स्थान पर आ रहे। वहाँ के नवाब अलिफखाँ इन्हें बहुत मानते थे। इनका देहांत कार्तिक शुक्ल ८ संवत् १७४६ को सॉंगानेर में हुआ।
{{larger|'''सुंदरदास'''}}––ये खंडेलवाल बनिए थे और चैत्र शुक्ल ९ संवत् १६५३ में द्यौसा नामक स्थान (जयपुर राज्य) में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम परमानंद और माता का नाम सती था। जब ये ६ वर्ष के थे तब दादूदयाल द्यौसा में गए थे। तभी से ये दादूदयाल के शिष्य हो गए और उनके साथ रहने लगे। संवत् १६६० में दादूदयाल का देहांत हुआ। तब तक ये नराना में रहे। फिर जगजीवन साधु के साथ अपने जन्मस्थान द्यौसा में आ गए। वहाँ संवत् १६६३ तक रहकर फिर जगजीवन के साथ काशी चले आए। वहाँ तीस वर्ष की अवस्था तक ये संस्कृत व्याकरण, वेदांत और पुराण आदि पढ़ते रहे। संस्कृत के अतिरिक्त ये फारसी भी जानते थे। काशी से लौटने पर ये राजपूताने के फतहपुर (शेखावाटी) नामक स्थान पर आ रहे। वहाँ के नवाब अलिफखाँ इन्हें बहुत मानते थे। इनका देहांत कार्तिक शुक्ल ८ संवत् १७४६ को सॉंगानेर में हुआ।