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जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, निर्गणमार्गी संत कवियों की परंपरा में थोड़े ही ऐसे हुए है जिनकी रचना साहित्य के अंतर्गत आ सकती है। शिक्षित का समावेश कम होने से इनकी बानी अधिकतर सांप्रदायिकों के ही काम की है; उसमें मानव जीवन की भावनाओं की वह विस्तृत व्यंजना नहीं है जो साधारण जन समाज को आकर्षित कर सके । इस प्रकार के संतों की परंपरा यद्यपि बरावर चलती रही और नए नए पंथ निकलते रहे पर देश के सामान्य साहित्य पर उनका कोई प्रभाव न रहा । दादूदयाल की शिष्य-परपरा में जगजीवनदास या जगजीवन साहब हुए जो संवत् १८१८ के लगभग वर्तमान थे । ये चंदेल ठाकुर थे और कोटवा ( बाराबंकी ) के निवासी थे । इन्होने अपना एक अलग ‘सत्यनामी' संप्रदाय चलाया । इनकी बानी में साधारण ज्ञान-चर्चा है। इनके शिष्य दूलमदास हुए जिन्होने एक शब्दावली लिखी। उनके शिष्य तोंवरदास और पहलवानदास हुए। तुलसी साहब, गोविंद साहब, भीखा साहब, पलटू साहब आदि अनेक संत हुए है। प्रयाग के वेलवेडियर प्रेस ने इस प्रकार के बहुत से संतो की बानियां प्रकाशित की है।



निर्गुण-पंथ के संतों के संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि उनमे कोई दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है । उनपर द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि का आरोप करके वर्गीकरण करना दार्शनिक पद्धति की अनभिज्ञता प्रकट करेगा । उनमें जो थोड़ा बहुत भेद दिखाई पड़ेगा वह उन अवयवो की न्यूनता या अधिकता के कारण जिनका मेल करके निर्गुण-पथ चला है । जैसे, किसी में वेदात के ज्ञान-तत्त्व का अवयव अधिक मिलेगा, किसी में योगियों के साधना-तत्त्व का, किसी में सूफियो के मधुर प्रेम-तत्त्व का और किसी में व्यावहारिक ईश्वरभक्ति ( कत्तई, पिता, प्रभु की भावना से युक्त ) का । यह दिखाया जा चुका है कि निगुण-पंथ में जो थोड़ा बहुत ज्ञानपक्ष है वहं वेदात से लिया हुआ है; जो प्रेम-तत्व है वह सूफियो का है, न कि वैष्णवो का अहिंसा’ और ‘प्रपत्ति' के अतिरिक्त वैष्णवत्व का और कोई अंश उसमें नही है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, निर्गुणमार्गी संत कवियों की परंपरा में थोड़े ही ऐसे हुए हैं जिनकी रचना साहित्य के अंतर्गत आ सकती है। शिक्षितों का समावेश कम होने से इनकी बानी अधिकतर सांप्रदायिकों के ही काम की है; उसमें मानव जीवन की भावनाओं की वह विस्तृत व्यंजना नहीं है जो साधारण जन समाज को आकर्षित कर सके। इस प्रकार के संतों की परंपरा यद्यपि बराबर चलती रही और नए नए पंथ निकलते रहे पर देश के सामान्य साहित्य पर उनका कोई प्रभाव न रहा। दादूदयाल की शिष्य-परंपरा में जगजीवनदास या जगजीवन साहब हुए जो संवत् १८१८ के लगभग वर्तमान थे। ये चंदेल ठाकुर थे और कोटवा (बाराबंकी) के निवासी थे। इन्होने अपना एक अलग 'सत्यनामी' संप्रदाय चलाया। इनकी बानी में साधारण ज्ञान-चर्चा है। इनके शिष्य दूलमदास हुए जिन्होंने एक शब्दावली लिखी। उनके शिष्य तोवरदास और पहलवानदास हुए। तुलसी साहब, गोविंद साहब, भीखा साहब, पलटू साहब आदि अनेक संत हुए है। प्रयाग के बेलवेडियर प्रेस ने इस प्रकार के बहुत से संतों की बानियाँ प्रकाशित की हैं।

निर्गुण-पंथ के संतों के संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि उनमें कोई दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है। उनपर द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि का आरोप करके वर्गीकरण करना दार्शनिक पद्धति की अनभिज्ञता प्रकट करेगा। उनमें जो थोड़ा बहुत भेद दिखाई पड़ेगा वह उन अवयवों की न्यूनता या अधिकता के कारण जिनका मेल करके निर्गुण-पंथ चला है। जैसे, किसी में वेदांत के ज्ञान-तत्त्व का अवयव अधिक मिलेगा, किसी में योगियों के साधना-तत्त्व का, किसी में सूफियों के मधुर प्रेम-तत्त्व का और किसी में व्यावहारिक ईश्वरभक्ति (कर्त्ता, पिता, प्रभु की भावना से युक्त) का। यह दिखाया जा चुका है कि निर्गुण-पंथ में जो थोड़ा बहुत ज्ञानपक्ष है वह वेदांत से लिया हुआ है; जो प्रेम-तत्व है वह सूफियों का है, न कि वैष्णवों का<ref>देखो पृ॰ ६४।</ref>। 'अहिंसा' और ‘प्रपत्ति' के अतिरिक्त वैष्णवत्व का और कोई अंश उसमें नहीं है।
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