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कह मलूक तू चेत अचेता काल न आवै नेरे ॥
{{block center|<poem><small>कह मलूक तू चेत अचेता काल न आवै नेरे॥
नाम हमारा खाक है, हमें खाकी बंदै ।
नाम हमारा खाक है, हम खाकी बंदै।
खाकहि से पैदा किए अति गाफिल गंदे ।।
खाकहि से पैदा किए, अति गाफिल गंदे॥
कबहूँ न करते बंदगी, दुनिया में भूले।
आसमान को ताकते, घोड़े चढ़ फूले॥</small></poem>}}
{{block center|<poem><small>सबहिन के हम सबै हमारे। जीव जंतु मोहि लगैं पियारे॥
तीनों लोक हमारी माया। अंत कतहुँ से कोइ नहिं पाया॥
छत्तिस पवन हमारी जाति। हमहीं दिन औ हमहीं राति॥
हमहीं तरवर कीट पतंगा। हमहीं दुर्गा, हमहीं गंगा॥
हमहीं मुल्ला हमहीं काजी। तीरथ बरत हमारी बाजी॥
हमहीं दसरथ हमहीं राम। हमरै क्रोध हमरै काम॥
हमहीं रावन हमही कंस। हमहीं मारा अपना बंस॥</small></poem>}}


{{larger|'''अक्षर अनन्य'''}}––संवत् १७१० में इनके वर्तमान रहने का पता लगता है। ये दतिया रियासत के अंतर्गत के सेनुहरा के कायस्थ थे और कुछ दिनों तक दतिया के राजा पृथ्वीचंद के दीवान थे। पीछे ये विरक्त होकर पन्ना में रहने लगे। प्रसिद्ध छत्रसाल इनके शिष्य हुए। एक बार ये छत्रसाल से किसी बात पर अप्रसन्न होकर जंगल में चले गए। पता लगने पर जब महाराज छत्रसाल क्षमा प्रार्थना के लिये इनके पास गए तब इन्हें एक झाड़ी के पास खूब पैर फैलाकर लेटे हुए पाया। महाराज ने पूछा "पाँव पसारा कब से?" चट उत्तर मिला––"हाथ समेटा जब से"। ये विद्वान् थे और वेदांत के अच्छे ज्ञाता थे। इन्होंने योग और वेदांत पर कई ग्रंथ राजयोग, विज्ञानयोग, ध्यानयोग, सिद्धांतबोध, विवेकदीपिका, ब्रह्मज्ञान, अनन्यप्रकाश आदि लिखे और दुर्गा-सप्तशती का भी हिंदी पद्यों में अनुवाद किया। राजयोग के कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––
कबहूं न करते बंदगी, दुनिया में भूलें ।
{{block center|<poem><small>यह भेद सुनौ पृथिचंदराय। फल चारहु को साधन उपाय॥
आसमान को ताकते, घोड़े चढे फूले ।।
यह लोक सधै सुख पुत्र बाम। पर लोक नसै बस नरक धाम॥

परलोक लोक दोउ सधै जाय। सोइ राजजोग सिद्धांत आय॥
सबहिन के हम सबै हमारे । जीव जंतु मोहि लगै पियारे
निज राजजोग ज्ञानी करंत। हठि मूढ़ धर्म साधत अनंत॥</small></poem>}}
तीनों लोक हमारी माया । अंत कतहुँ से कोइ नहिं पाया ।। छत्तिस पवन हमारी जाति । हमहीं दिन और हमहीं राति ।।
हमहीं तरवर कीट पतंगा। हमहीं दुर्गा, हमहीं गंगा ।।
हमहीं मुल्ला हमहीं काजी । तीरथ बरत हमारी बाजी ॥
हमहीं दसरथ हमहीं राम । हमरै क्रोध औं हमरै काम।।
हमहीं रावन हमही कंस । हमहीं मारा अपना बंस ।।

अक्षर अनन्य- संवत् १७१० में इनके वर्तमान रहने का पता लगता है । ये दतिया रियासत के अंतर्गत के सेनुहरा के कायस्थ थे और कुछ दिनों तक दतिया के राजा पृथ्वीचंद के दीवान थे। पीछे ये विरक्त होकर पुन्ना में रहने लगे। प्रसिद्ध छत्रसाल इनके शिष्य हुए। एक बार ये छत्रसाल से किसी बात पर अप्रसन्न होकर जंगल में चले गए। पता लगने पर जब महाराज छत्रसाल क्षमा प्रार्थना के लिये इनके पास गए तब इन्हें एक झाड़ी के पास खून पैर फैलाकर लेटे हुए पाया । महाराज ने पूछा "पॉव पसारा कब से ? चट उत्तर मिला- “हाथ समेटा जब से'। ये विद्वान् थे और वेदांत के अच्छे ज्ञाता थे । इन्होंने योग और वेदांत पर कई ग्रंथ राजयोग, विज्ञानयोग, ध्यानयोग, सिद्धातबोध, विवेकदीपिका, ब्रह्मज्ञान, अनन्यप्रकाश आदि लिखे और दुर्गा-सप्तशती का भी हिंदी पद्यों में अनुवाद किया । राजयोग के कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं-

यह भेद सुनौ पृथिचंदराय । फल चारहु को साधन उपाय ॥
यह लोक सधै सुख पुत्र बाम । पर लोक नसै बस नरक धाम ।। परलोक लोक दोउ सधै जाय । सोइ राजजोग सिद्धांत आय ।। निज राजजोग ज्ञानी करंत । हठि मूढ़ धर्म साधत अनंत ॥