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<poem><small>{{block center|ऐसे अनुक्रम करि शिष्य सूँ कहते गुरु,
<poem><small>{{block center|ऐसे अनुक्रम करि शिष्य सूँ कहत गुरु,
{{gap|3em}}सुंदर सकल यह मिथ्या भ्रमजार है॥}}</small></poem>
{{gap|3em}}सुंदर सकल यह मिथ्या भ्रमजार है॥}}</small></poem>
'''मलूकदास'''––मलूकदास का जन्म लाला सुंदरदास खत्री के घर में वैशाख कृष्ण ५ संवत् १६३१ में कड़ा जिला इलाहाबाद में हुआ। इनकी मृत्यु १०८ वर्ष की अवस्था में सवत् १७३९ में हुई। ये औरंगजेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संतो में हुए हैं और इनकी गद्दियों कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नैपाल और काबुल तक से कायम हुई। इनके संबंध में बहुत से चमत्कार या करामाते प्रसिद्ध है। कहते है कि एक बार इन्होने एक डूबते हुए शाही जहाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रुपयो का तोड़ा गंगाजी में तैराकर कड़े से इलाहाबाद भेजा था।
{{larger|'''मलूकदास'''}}––मलूकदास का जन्म लाला सुंदरदास खत्री के घर में वैशाख कृष्ण ५ संवत् १६३१ में कड़ा जिला इलाहाबाद में हुआ। इनकी मृत्यु १०८ वर्ष की अवस्था में सवत् १७३९ में हुई। ये औरंगजेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संतो में हुए हैं और इनकी गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नैपाल और काबुल तक से कायम हुईं। इनके संबंध में बहुत से चमत्कार या करामातें प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि एक बार इन्होंने एक डूबते हुए शाही जहाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रुपयों का तोड़ा गंगाजी में तैराकर कड़े से इलाहाबाद भेजा था।


आलसियों का यह मूल मंत्र––
आलसियों का यह मूल मंत्र––
<Poem><small>{{block center|अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम।
<Poem><small>{{block center|अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम॥}}</small></poem>
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम॥}}</small></poem>
इन्हीं की हैं। इनकी दो पुस्तकें प्रसिद्ध हैं––रत्नखान और ज्ञानबोध। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को उपदेश देने में प्रवृत्त होने के कारण दूसरे निर्गुणमार्गी संतों के समान इनकी भाषा में भी फारसी और अरबी शब्दों का बहुत प्रयोग है। इसी दृष्टि से बोलचाल की खड़ी बोली का पुट इन सब संतों की बानी में एक सा पाया जाता है। इन सब लक्षणों के होते हुए भी इनकी भाषा सुव्यवस्थित और सुंदर है। कहीं कहीं अच्छे कवियों का सा पद-विन्यास और कवित्त आदि छंद भी पाए जाते हैं। कुछ पद्य, बिलकुल खड़ी बोली में हैं। आत्मबोध, वैराग्य, प्रेम आदि पर इनकी बानी बड़ी मनोहर हैं। दिग्दर्शन मात्र के लिये कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––

इन्हीं की हैं। इनकी दो पुस्तकें प्रसिद्ध हैं––रत्नखान और ज्ञानबोध। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को उपदेश देने में प्रवृत्त होने के कारण दूसरे निगुणमार्गी संतों के समान इनकी भाषा में भी फारसी और अरबी शब्दों का बहुत प्रयोग हैं। इसी दृष्टि से बोलचाल की खड़ी बोली का पुट इन सब संतों की बानी में एक सा पाया जाता है। इन सब लक्षणों के होते हुए भी इनकी भाषा सुव्यवस्थित और सुंदर है। कहीं कहीं अच्छे कवियो का सा पद-विन्यास और कवित्त आदि छंद भी पाए जाते है। कुछ पद्य, बिलकुल खड़ी बोली में हैं। आत्मबोध, वैराग्य, प्रेम आदि पर इनकी बानी बड़ी मनोहर हैं। दिग्दर्शन मात्र के लिये कुछ पद्य नीचे दिए जाते हे––
<Poem><small>{{block center|{{gap|3em}}अब तो अजपा जपु मन मेरे।
<Poem><small>{{block center|{{gap|3em}}अब तो अजपा जपु मन मेरे।
सुर नर असुर टहलुआ जाके मुनि गधव हैं जाके चेरे।
सुर नर असुर टहलुआ जाके मुनि गंध्रव हैं जाके चेरे।
दस औतार देखि मत भूलौ, ऐसे रूप घनेरे॥
दस औतार देखि मत भूलौ, ऐसे रूप घनेरे॥
{{gap|2em}}अलख पुरुष के हाथ बिकाने जब तैं नैननि हेरे।}}</small></poem>
{{gap|2em}}अलख पुरुष के हाथ बिकाने जब तैं नैननि हेरे।}}</small></poem>