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<poem>सोच विचार करे मत मन मैं जिसने हैं ढूँढा उसने पाया ।
{{block center|<poem><small>सोच बिचार करे मत मन मैं जिसने हैं ढूँढा उसने पाया।
नानक भक्तन दे पद परसे निसदिन राम चरन चित लाया।।</poem>
नानक भक्तन दे पद परसे निसदिन राम चरन चित लाया॥</small></poem>}}
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{{block center|<poem><small>{{gap|2em}}जो नर दुख में दुख नहिं मानै।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै॥
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना।
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहिं मान अपमाना॥
आसा मनसा सकल त्यागि कै जग ते रहै निरासा।
काम क्रोध जेहि परसै नाहिं न तेहि घट ब्रह्म-निवासा॥
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्हीं तिन्ह यह जुगुति पिछानी।
नानक लीन भयो गोबिंद सों ज्यों पानी सँग पानी॥</small></poem>}}
{{larger|'''दादूदयाल'''}}––यद्यपि सिद्धांत-दृष्टि से दादू कबीर के मार्ग के ही अनुयायी हैं पर उन्होंने अपना एक अलग पंथ चलाया जो "दादू पंथ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दादूपंथी लोग इनका जन्म संवत् १६०१ में गुजरात के अहमदाबाद नामक स्थान में मानते हैं। इनकी जाति के संबंध में भी मतभेद है। कुछ लोग इन्हें गुजराती ब्राह्मण मानते हैं और कुछ लोग मोची या धुनिया। कबीर साहब की उत्पत्ति-कथा से मिलती-जुलती दादूदयाल की उत्पत्ति-कथा भी दादू-पंथी लोग कहते हैं। उनके अनुसार दादू बच्चे के रूप में साबरमती नदी में बहते हुए लोदीराम नामक एक नागर ब्राह्मण को मिले थे। चाहे जो हो, अधिकतर ये नीची जाति के ही माने जाते है। दादूदयाल का गुरु कौन था, यह ज्ञात नहीं पर कबीर का इनकी बानी में बहुत जगह नाम आया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि ये उन्हीं के मतानुयायी थे।


दादूदयाल १४ वर्ष तक आमेर में रहे। वहाँ से मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए संवत् १६५९ में नराना में (जयपुर से २० कोस दूर) आकर रह गए। वहाँ से तीन चार कोस पर भराने की पहाड़ी है। वहाँ भी ये अंतिम समय में कुछ दिनों तक रहे और वही संवत् १६६० में शरीर छोड़ा। वह स्थान दादूपंथियों का प्रधान अड्डा है और वहाँ दादूजी के कपड़े और
<Poem>जो नर दुख मैं दुख नहिं माने ।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै।।
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना।।
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना ।।
आसा मनसा सकल त्यागि कै जग ते रहै निरासा ।
काम क्रोध जेहि परसै नाहिं न तेहिं घट ब्रह्म-निवासा ।।
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्हीं तिन्ह यह जुगुति पिछानी ।
नानक लीन भयो गोबिंद सों ज्यों पानी सँग पानी ॥</poem>

दादूदयाल- यद्यपि सिद्धांत-दृष्टि से दादू कबीर के मार्ग के ही अनुयायी है पर उन्होंने अपना एक अलग पंथ चलाया जो "दादू पंथ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ । दादूपंथी लोग इनका जन्म संवत् १६०१ में गुजरात के अहमदाबाद नामक स्थान में मानते हैं। इनकी जाति के संबंध में भी मतभेद है । कुछ लोग इन्हे गुजराती ब्राह्मण मानते हैं और कुछ लोग मोची या धुनिया । कबीर साहब की उत्पत्ति-कथा से मिलती-जुलती दादूदयाल की उत्पत्ति-कथा भी दादू-पंथी लोग कहते हैं। उनके अनुसार दादू बच्चे के रूप में साबरमती नदी में बहते हुए लोदीराम नामक एक नागर ब्राह्मण को मिले थे चाहे जो हो, अधिकतर ये नीची जाति के ही माने जाते है। दादूदयाल का गुरु कौन था, यह ज्ञात नहीं पर कबीर को इनकी वानी में बहुत जगह नाम आया है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि ये उन्हीं के मतानुयायी थे ।

दादूदयाल १४ वर्ष तक आमेर में रहे। वहाँ से मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए संवत् १६५९ में नराना में (जयपुर से २० कोस दूर ) आकर रह गए । वहाँ से तीन चार कोस पर भराने की पहाड़ी है । वहाँ भी ये अंतिम समय में कुछ दिनों तक रहे और वही संवत् १६६० में शरीर छोड़ा । वह स्थान दादूपंथियों का प्रधान अड्डा है और वहाँ दादूजी के कपड़े और