"पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/१०६": अवतरणों में अंतर

JhsBot (वार्ता | योगदान)
छो bot: Removing unnecessary category
पन्ने की स्थितिपन्ने की स्थिति
-
शोधित
+
प्रमाणित
पन्ने का उपरी पाठ (noinclude):पन्ने का उपरी पाठ (noinclude):
पंक्ति १: पंक्ति १:
{{rh||ज्ञानाश्रयी शाखा|८१}}
पन्ने का मुख्य पाठ (जो इस्तेमाल में आयेगा):पन्ने का मुख्य पाठ (जो इस्तेमाल में आयेगा):
पंक्ति १: पंक्ति १:
रैदास या रविदास- रामानंदजी के बारह शिष्यों, में रैदास भी माने जाते है जो जाति के चमार थे । इन्होंने कई पदों में अपने को चमार कहा भी है, जैसे
( ) कह रैदास खलास चमारा ।।
( ) ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार ।


ऐसा जान पड़ता है कि ये कबीर के बहुत पीछे स्वामी रामानंद के शिष्य हुए क्योंकि अपने एक पद में इन्होने कबीर और सेन नाई दोनों के तरने का उल्लेख किया है-


{{larger|'''रैदास या रविदास'''}}––रामानंदजी के बारह शिष्यों में रैदास भी माने जाते हैं जो जाति के चमार थे। इन्होंने कई पदों में अपने को चमार कहा भी है, जैसे––
नामदेव कबीर तिलोचन सधना सेन तरै ।
:<small>(१) कह रैदास खलास चमारा।</small>
कह रविदास, सुनहु रे संतहु ! हरि जिउ तें सबहि सरै।।
:<small>(२) ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।</small>


ऐसा जान पड़ता है कि ये कबीर के बहुत पीछे स्वामी रामानंद के शिष्य हुए क्योंकि अपने एक पद में इन्होंने कबीर और सेन नाई दोनों के तरने का उल्लेख किया है––
कबीरदास के समान रैदास भी काशी के रहने वाले कहे जाते हैं । इनके एक पद से भी यही पाया जाता है-
{{block center|<poem><small>नामदेव कबीर तिलोचन सधना सेन तरै।

कह रविदास, सुनहु रे संतहु! हरि जिउ तें सबहि सरै॥</small></poem>}}
जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
कबीरदास के समान रैदास भी काशी के रहने वाले कहे जाते हैं। इनके एक पद से भी यही पाया जाता है––
फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपासा ।
{{block center|<poem><small>जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति
{{gap|3em}}फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपासा।
तिन तनै रविदास दासानुदासा ।।
आचार सहित बिप्र करहिं डँडउति

{{gap|3em}}तिन तनै रविदास दासानुदासा॥</small></poem>}}
रैदास का नाम धन्ना और मीराबाई ने बड़े आदर के साथ लिया है । रैदास की भक्ति भी निगुन ढाँचे की जान पड़ती है । कहीं तो वे अपने भगवान को सबमें व्यापक देखते हैं ।
रैदास का नाम धन्ना और मीराबाई ने बड़े आदर के साथ लिया है। रैदास की भक्ति भी निर्गुन ढाँचे की जान पड़ती है। कहीं तो वे अपने भगवान को सब में व्यापक देखते हैं––

यावर जंगम कीट पतंगा पुरि रह्यो हरिराई ।
{{c|<small>थावर जंगम कीट पतंगा पूरि रह्यो हरिराई।</small>}}
और कही कबीर की तरह परात्पर की ओर संकेत करके कहते है-
और कहीं कबीर की तरह परात्पर की ओर संकेत करके कहते हैं––
गुन- निर्गुन कहियत नहिं जाके ।
{{c|<small>गुन निर्गुन कहियत नहिं जाके।</small>}}
रैदास का अपना अलग प्रभाव पछाँह की ओर जान पड़ता हैं। 'साधो' का एक संप्रदाय, जो फर्रुखाबाद और थोड़ा बहुत मिर्जापुर में भी पाया जाता हैं, रैदास की ही परंपरा में कहा जा सकता है; क्योंकि स्थापना (संवत् १६००) करने वाले बीरभान उदयदास के शिष्य थे और उदयदास रैदास के शिष्यों में माने जाते हैं।

रैदास का अपना अलग प्रभाव पछाँह की ओर जान पड़ता हैं। ‘साधो’ का एक संप्रदाय, जो फर्रुखाबाद और थोड़ा बहुत मिर्जापुर में भी पाया जाता हैं, रैदास की ही परंपरा में कहा जा सकता है; क्योंकि स्थापना (संवत् १६००) करने वाले बीरभान उदयदास के शिष्य थे और उदयदास रैदास के शिष्यों माने जाते हैं ।
पन्ने का निचला पाठ (noinclude):पन्ने का निचला पाठ (noinclude):
पंक्ति १: पंक्ति १:
[[श्रेणी:हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल]]
[[श्रेणी:हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल]]
{{left|६|3em}}